जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के चरित को जैन कवियों ने तीर्थंकर महावीर के बाद प्रथम स्थान दिया है। भारतवर्ष की सभी भाषाओं में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के ऊपर लिखे गये अनेक काव्य उपलब्ध हैं। क्योंकि पार्श्वनाथ का आख्यान बड़ा ही रोचक तथा घटना प्रधान है। जैन शास्त्रों की मान्यतानुसार पार्श्वनाथ के २५० वर्ष बीत जाने पर भगवान महावीर का जन्म हुआ है। वीर निर्वाण संवत् और ईस्वी सन् में ५२७ वर्ष का अंतर है। तीर्थंकर भगवान महावीर की आयु कुछ कम ७२ वर्ष की थी। अतएव ५२७±७२·५९९ वर्ष ईस्वी पूर्व में महावीर का जन्म सिद्ध होता है। महावीर के जन्म के २५० वर्ष पूर्व अर्थात् ५९९±२५०·८४९ वर्ष ईस्वी पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ का निर्वाण-समय मान्य है। प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं अन्य भारतीय भाषाओं में ६० से भी अधिक काव्य तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जीवनचरित को लेकर विविध काव्य-विधाओं में लिखे गये हैं। उनमें से दिगम्बर जैन ग्रंथों का संक्षिप्त विवेचन यहाँ प्रस्तुत है-
कल्याण मंदिर-आचार्य कुमुदचंद्र
कल्याणमंदिर पार्श्वनाथ विषयक स्तोत्रों में प्रथम रचना है। इसमें ४४ पद्य हैं। अंतिम पद्य में श्लेष द्वारा कवि ने अपने नाम की अभिव्यक्ति की है।
‘जननयनकुमुदचन्द्रप्रभास्वरा: स्वर्गसम्पदो मुक्त्वा। ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते।।’
डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री के अनुसार सिद्धसेन का दीक्षा नाम ही कुमुदचन्द्र था। इस स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ की भावपूर्ण स्तुति की गई है। भक्ति का माहात्म्य प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा है कि हे भगवन्! जो मैं विविध तिरस्कारों का पात्र हो रहा हूँ, उससे स्पष्ट पता चलता है कि मैंने आपके चरणों की पूजा नहीं की है। क्योंकि आपके चरणों के पुजारियों का कभी किसी तरह का तिरस्कार नहीं होता है। सिद्धसेन दार्शनिक के साथ कवि हृदय भी है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में उन्हें समान आदर प्राप्त है तथा दोनों ही परम्परायें उन्हें अपना-अपना आचार्य स्वीकार करती हैं। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने इनका सादर स्मरण किया है—
आचार्य हेमचंद्र ने शब्दानुशासन में, श्री अभयनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण की वृत्ति में तथा जिनसेन प्रथम ने हरिवंशपुराण में सिद्धसेन की प्रशंसा की है। डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री ने आलोचन-प्रत्यालोचन पद्धति से सिद्धसेन का समय वि.सं. ६२५ (ई. सन् ५६८) के आसपास संभावित माना है।
पार्श्वभ्युदय: जिनसेन
पार्श्वभ्युदय तीर्थंकर पार्श्वनाथ के विषय में लिखा गया प्रथम अभ्युदयनामान्त काव्य तथा समस्यापूर्ति काव्यों में भी आद्य और सर्वोत्तम रचना है। चार सर्गात्मक इस काव्य में क्रमश: ११८, ११८, ५७ और ७१ कुल ३६४ पद्य हैं। कविकुलगुरु महाकवि कालिदास के मेघदूत के पद्यों मे कहीं-कहीं एक चरण और कहीं-कहीं दो चरणों को लेकर इस सम्पूर्ण काव्य की रचना समस्यापूर्ति के रूप में की गई है। इसमें भी कालिदास के मेघदूत की तरह मन्दाक्रान्ता छन्द का ही प्रयोग हुुआ है। अंत में ५ मालिनी और १ पद्य बसन्ततिलका छंद में है। आचार्य जिनसेन(८ वीं शताब्दी) के समय मेघदूत का क्या रूप था-यह जानने के लिए पाश्र्वाभ्युदय का अत्यंत महत्व है। पार्श्वनाथविषयक उत्तरकालीन काव्यों की तरह इस काव्य में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अनेक जन्म-जन्मांतरों का समावेश नहीं हो सका है। कथावस्तु बहुत ही संक्षिप्त है। अरविन्द (पोदनपुर के राजा) द्वारा बहिष्कृत कमठ सिन्धु तट पर जाकर तपस्या करने लगता है। कमठ का छोटा भाई मरुभूति भ्रातृ-प्रेम के कारण उसके पास जाता है, किन्तु क्रोधावेश में आकर कमठ उसे मार डालता है। अनेक जन्मों तक यही चक्र चलता रहता है। अंतिम जन्म में कमठ शम्बर और मरुभूति पार्श्वनाथ बनता है। शम्बर पूर्व वैर के कारण साधना में रत पार्श्वनाथ के ऊपर अनेक उपसर्ग उत्पन्न करता है। शम्बर यक्ष मेघरूप धारण करके पार्श्वनाथ को भी मेघरूप में मानकर अलकापुरी में जाने को कहता है। शम्बर अलकापुरी का बड़ा ही श्रृंगारी वर्णन करता है, पर पार्श्वनाथ विचलित नहीं होते। शम्बर फिर पाषाणवृष्टि करता है। उसी समय धरणेन्द्र और देवी पद्मावती आकर पार्श्वनाथ के उपसर्ग को दूर कर देते हैं। अंत में शम्बर भी पार्श्वनाथ के केवलज्ञान की उत्पत्ति देखकर क्षमायाचना करता है। इस काव्य में शम्बर यक्ष के रूप में, राजा अरविन्द कुबेर के रूप में, पार्श्वनाथ को मेघ के रूप में चित्रित किया गया जान पड़ता है। काव्य में धार्मिक प्रतिपादन कुछ भी नहीं किया गया है। बीच-बीच में सूक्तियों का भी समावेश किया गया है। कालिदास के मेघदूत का रस शृंगार है, जबकि पाश्र्वाभ्युदय का शांत। श्रृंगाररस की पंक्तियों का शांतरस में परिवर्तन जिनसेन जैसे परिनिष्ठित कवि द्वारा ही संभव हो सका है। पाश्र्वाभ्युदय की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता जिनसेन सेनसंघ के आचार्य वीरसेन के शिष्य और राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के समकालीन थे। पाश्र्वाभ्युदय की सगन्ति-पुष्पिका में जिनसेन को अमोघवर्ष का गुरु कहा गया है। आचार्य जिनसेन के महापुराण के पूरक उत्तरपुराण के रचयिता आचार्य गुणभद्र ने प्रशस्ति में उल्लेख किया है कि अमोघवर्ष जिनसेन का परम भक्त था। राजा अमोघवर्ष का राज्यकाल ८१५-८७७ ई. माना जाता है। अत: जिनसेन का समय इनसे कुछ पूर्व होना चाहिए। शक सं. ७०५ (७८३ई.) में रचित हरिवंशपुराण में जिनसेनाचार्य ने पाश्र्वाभ्युदय के रचयिता जिनसेन का उल्लेख किया है। अत: पाश्र्वाभ्युदय का रचना-काल ईसा की आठवीं शताब्दी ठहरता है। राजा अमोघवर्ष का तो जिनसेन से लड़कपन से ही सम्पर्क था। अत: उनका समय आठवीं शताब्दी मानना आपत्तिजनक नहीं है। पाश्र्वाभ्युदय काव्य पर योगिराट् की एक संस्कृत टीका मिलती है, जिसका नाम सुबोधिका है। इस टीका में पाश्र्वाभ्युदय की अत्यंत प्रशंसा की गई है। यह टीका मेघदूत पर लिखित मल्लिनाथ की संस्कृत टीका का अनुकरण करती है। टीकाकार का समय शक सं. १३२१ के बाद का सिद्ध होता है, क्योंकि उन्होंने शक सं. १३२१ (१३९९ ई.) में रचित इरुग्दण्डनाथ के नानार्थरत्नमालाकोश का स्थान-स्थान पर निर्देश दिया है।१ टीकाकार ने कालिदास और जिनसेन को समकालीन बताने का साहस किया है२ , किन्तु यह बात प्रमाणविरुद्ध और सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है।
श्रीपुर पार्श्वनाथस्तोत्र: विद्यानंद स्वामि
दार्शनिक जगत् में विख्यात तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं अष्टसहस्री सदृश महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध आचार्य विद्यानंद स्वामि कर्नाटक के निवासी ब्राह्मण थे। वादिराज सूरि (१०२५ ई.) ने पार्श्वनाथ चरित्र में इनका उल्लेख करते हुए कहा है कि ‘‘आश्चर्य है कि विद्यानंद के सरल सूत्र वाले दीप्तिमान अलंकार (तत्त्वार्थ के वार्तिकालंकार नामक गं्रथ) को सुनने वालों के अंगों में भी दीप्ति आ जाती है।’’३ विद्यानंद का समय डॉ. ज्योति प्रसाद जैन४ लगभग ७७५-८२५ ई., डॉ. दरबारीलाल कोठिया ७७५-८४० ई. और डॉ. नेमीचंद शास्त्री ईसा की नवमी शताब्दी मानते हैं। हमने वादिराज द्वारा उल्लेख को कालानुक्रमिक मानते हुए अनंतवीर्य और विशेषवादि के मध्य उल्लिखित होने से विद्यानंद का समय ईसा की दशम शताब्दी माना है। श्रीपुर पार्श्वनाथस्तोत्र तीस पद्यात्मक काव्य है। इसमें श्रीपुर या अंतरिक्ष के पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। स्तवन होने पर भी इसमें दर्शन एवं काव्य का अभूतपूर्व संगम दृष्टिगत होता है। अलंकारों की योजना अप्रतिम है। एक पद्य यहाँ प्रस्तुत है—
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने सोमदेवसूरि कृत पार्श्वनाथ चरित्र का उल्लेख किया है। यह ग्रंथ अद्यावधि अनुपलब्ध है। सोमदेव कुशल राजनीतिज्ञ साहित्यकार तथा उत्कृष्ट धर्मवेत्ता थे। नीतिवाक्यामृत, यशस्तिलकचम्पू और उपासकाध्ययन से यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है। उन्होेंने यशस्तिलकचम्पू में उसका रचनाकाल शक सं. ८८१ (९५९ ई.) निर्दिष्ट किया है, अत: उनका काल विवादास्पद नहीं है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने सोमदेव सूरि का समय ९४५-९७५ ई. माना है,११ जो समीचीन है।
पार्श्वनाथचरित: वादिराजसूरि
पार्श्वनाथचरित द्वादश सर्गात्मक महाकाव्य है। इसका मूल स्रोत गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण है। जिनरत्नकोश में इसका विवरण पार्श्वनाथ पुराण नाम से दिया गया है।कवि ने मंगलाचरण में अपने पूर्ववर्ती अनेक कवियों एवं आचार्यों का उल्लेख किया है जो कालानुक्रमिक जान पड़ता है। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से इसका अत्यन्त महत्त्व है। पार्श्वनाथचरित की रचना कवि ने महाराज जयसिंह की राजधानी में ९४७ शक सं.( १०२५ ई.) में की थी। इसका कवि ने स्वयं उल्लेख किया है। इसका प्रधान रस शांत है। परन्तु अंग रसों के रूप में अन्य सभी रसों का प्रयोग किया गया है। डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने इसे उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य माना है। पाण्डवपुराण की प्रशस्ति में आचार्य शुभचंद्र ने पार्श्वनाथचरित पर पंजिका नामक टीका प्रणीत करने का उल्लेख किया है। वह टीका भट्टारक श्रीभूषण के अनुरोध पर लिखी गई थी और इसकी प्रथम प्रति श्रीपाल वर्णी ने तैयार की थी। श्री नाथूराम प्रेमी ने स्व.श्री माणिकचंद्र जी के ग्रंथ भंडार में इस टीका के होने का उल्लेख किया है।१३ किन्तु प्रयास करने पर भी यह पंजिका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। श्री कुन्दनलाल जैन ने दिल्ली जिन ग्रंथ रत्नावली में इस पंजिका को श्री दि. जैन सरस्वती भंडार, नया मंदिर-धर्मपुरा, दिल्ली में होने की सूचना दी है।५ किन्तु प्रयास करने पर भी यह देखने में नहीं आ सकी। वादिराज सूरि द्राविड संघ के अंतर्गत नंदिसंघ में अरुंगल नामक अन्वय (शाखा) के आचार्य थे।६ इनके माता-पिता, जन्मभूमि आदि के विषय में प्रमाण उपलब्ध न होने पर भी गुरु और प्रगुरु (दादा गुरु) का उल्लेख पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति में होने के कारण संदेहास्पद नहीं है। सिंहपुर के प्रधान श्रीपाल देव वादिराज के गुरु के गुरु थे तथा श्रीपालदेव के शिष्य मतिसागर उनके गुरु थे। रचनाकाल का उल्लेख होने से उनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी का उत्तराद्र्ध एवं एकादश शताब्दी का पूर्वाद्र्ध निर्विवाद है।
पार्श्वनाथस्तोत्र : पद्मप्रभ मलधारिदेव
इस स्तोत्र का अपर नाम लक्ष्मीस्तोत्र भी है इसमें मूल ९ पद्य हैं। स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ का गुणानुवाद, मरुभूति एवं कमठ के भवों का संकेत तथा उनकी अंतरंग एवं बहिरंग लक्ष्मी का वर्णन किया गया है। श्री दि. जैन सरस्वती भंडार नया मंदिर, धर्मपुरा-दिल्ली में इसकी अनेक प्रतियाँ हैं। यह माणिकचंद्र दिगम्बर जैन गं्रथमाला से प्रकाशित हुआ था। स्तोत्र की आनुप्रासिक शैली अत्यंत मनोहारी है। उदाहरणार्थ—
कवि ने अंतिम पद्य में अपने नाम की भी सूचना दी है। पद्मप्रभ मलधारिदेव नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका के प्रणेता के रूप में विख्यात हैं। इन्होंने नियमसार की टीका में ‘तथा चोक्तं गुणभद्रस्वामिभि:’ ‘तथा चोक्तं वादिराजदेवै:’ कहकर गुणभद्र एवं वादिराज का उल्लेख किया है। गुणभद्र का समय ८९८ ई. तथा वादिराज का समय १०२५ ई. है। अत: इनका समय उनके बाद होना चाहिए। डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री ने इन्हीं सब प्रमाणों के आधार पर इनका समय ईसा की १२वीं शताब्दी माना है।
पार्श्वनाथ पुराण : सकलकीर्ति
यह २३ सर्गात्मक काव्य है। इसका नाम पार्श्वनाथचरित्र भी उपलब्ध होता है। कथा का प्रारंभ वायुभूति के जीवन से होता है। वायुभूति का जीव ही अनेक जन्मों में की गई साधना के द्वारा पार्श्वनाथ तीर्थंकर होकर निर्वाण प्राप्त करता है। पार्श्वनाथपुराण की कथावस्तु को वण्र्यविषय के आधार पर सर्गों में विभक्त किया गया है। सकलकीर्ति ने संस्कृत और राजस्थानी में अनेक ग्रंथों की रचना की। १५ वीं शताब्दी में विद्यमान पद्मपुराण के रचयिता जिनदास इनके शिष्य थे। डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री सकलकीर्ति का समय वि.सं. १४४३-१४९९ (१३८३-१४४२) मानते हैं। किन्तु प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर ने बलात्कारगण ईडर शाखा कालपट में आचार्य-परम्परा का निर्देश करते हुए सकलकीर्ति का समय वि.सं. १४५०-१५१० (१३९३-१४५३ ई.) माना है। इस आधार पर उनका साहित्य काल पंद्रहवीं शताब्दी का प्रारंभ माना जा सकता है। इनका पार्श्वनाथष्टक एक लघु स्तोत्र है, जो भावपूर्ण शैली में राजस्थानी भाषा में लिखित है।
पार्श्वनाथस्तोत्र : पद्मनंदि भट्टारक
यह स्तोत्र संस्कृत पद्यात्मक है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्री दि. जैन सरस्वती भंडार नया मंदिर, धर्मपुरा-दिल्ली में अच्छी हालत में गुटका सं. ७ में सुरक्षित है। इसका नाम जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र भी मिलता है। इसमें जीरापल्ली स्थित जिनालय के मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की रथोद्धता, शालिनी एवं वसन्ततिलका छन्दों में स्तुति की गई है।यह ९० पद्यात्मक कृति है। रचना अच्छी है। एक-दो पद्य यहाँ प्रस्तुत हैं—
‘दुस्तरेऽत्र भवसागरे सतां कर्मचण्डिमभरान्निमज्जताम्। प्रस्फुरति न करालम्बने त्वत्परो जिनवरोऽपि भूतले।।
भट्टारक पद्मनंदि प्रभाचंद्र के शिष्य थे। प्रभाचंद्र के न पहुँचने पर एक प्रतिष्ठा महोत्सव के समय श्रावकों ने भट्टारक पद पर इनका पदाभिषेक किया था।६ इन्होेंने वि.सं. १४५० (१३९३ ई.) में वैशाखशुक्ला द्वादशी को आदिनाथ भगवान की एक मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी। अत: इनका समय १४ वीं शताब्दी निर्मित है। पद्मनंदि द्वारा विरचित एक रावण पार्श्वनाथ स्तोत्र का भी पत चलता है। किन्तु यह स्तोत्र इन्हीं भट्टारक पद्मनंदि का है-यह संदेहास्पद है।
श्रुतसागरसूरि : पार्श्वनाथस्तवन
श्रुतसागरसूरि तत्त्वार्थ सूत्र के श्रुतसागरी वृत्ति के प्रणेता के रूप में विख्यात हैं। ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण के आचार्य थे। इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-पद्मनंदि—देवकीर्ति—विद्यानंदि—श्रुतसागरसूरि। विद्यानंदि भट्टारक के बाद मल्लिभूषण भट्टारक हुये जो श्रुतसागर सूरि के गुरुभाई (सतीर्थ) थे। मल्लिभूषण के शिष्य ब्रह्मनेमिदत्त ने श्रुतसागरसूरि का गुरुभाव से ही स्मरण किया है, क्योंकि वे उनके गुरु के सतीर्थ थे। ब्रह्म नेमिदत्त ने श्रीपालचरित की रचना वि.सं.१५८५ (१५२८ ई.) में की थी। इनके गुरु के सतीर्थ होने से श्रुतसागर का समय ईसा की पंद्रहवीं शताब्दी का अंत ठहरता है। डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री ने विद्यानंदि एवं मल्लिभूषण के पट्टकालों पर विचार करते हुए इनका समय वि.सं.१५४४-१५५६ (१४८७-१४९९ ई.) माना है। अपनी तत्त्वार्थवृत्ति में उन्होंने अपने को देशव्रत, अनेक शास्त्रनिपुण, उभयभाषाचक्रवर्ती आगमप्रवीण एवं तार्किकशिरोमणि लिखा है। श्रुतसागरसूरि द्वारा विरचित पार्श्वनाथस्तवन की एक हस्तलिखित प्रति दिगम्बर जैन सरस्वती भंडार नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली में है। यह स्तवन १५ श्लोक प्रमाण है।१ इसका अन्य प्रशस्ति श्लोक इस प्रकार है—
श्रीमत्पाश्र्वजिनेन्द्रचन्द्रचलनालग्नस्य दासस्य मे। नाम्नो वा श्रुतसागरस्य शिवभृद्भूयाद् भवच्छित्तये।।
प्रतिलिपिकार ने इसमें लिखने में अनेक अशुद्धियाँ की हैं।
ब्रह्मज्ञानसागर : पार्श्वनाथपूजा
ब्रह्म ज्ञानसागर विद्याभूषण के शिष्य थे। ये विद्याभूषण काष्ठासंघ नंदीतटगच्छीय विश्वसेन के पट्टशिष्य थे। विद्याभूषण ने वि.सं. १६०४ (१५७७ ई.) एवं वि. सं १६३६ ( १५७९ ई.) में पार्श्वनाथ भगवान की मूर्तियों की स्थापना कराई थी। ब्रह्मज्ञानसागर ने अपनी कृतियों में भी गुरु के नाम का उल्लेख किया है। दशलक्षणकथा की प्रशस्ति में उन्होंने अपने को गुणभंडार कहा है। ब्रह्मज्ञानसागर की अधिकांश रचनायें हिन्दी में हैं। केवल नेमिनाथपूजा, गोम्मट देवपूजा और पार्श्वनाथ पूजा में तीन पूजायें संस्कृत में लिखी गई हैं। भाषा साधारण होने पर भी भावप्रवण है।
पार्श्वपुराण : वादिचंद्र
यह एक पौराणिक काव्य है, जिसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित्र पौराणिक शैली में लिखा गया है। यह १५०० श्लोकप्रमाण है। कवि वादिचंद्र पवनदूत के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके गुरु का नाम भट्टारक प्रभाचंद्र और गुरु के गुरु का नाम ज्ञानभूषण था।५ पाश्र्वपुराण की एक हस्तलिखित प्रति इटावा सरस्वती भंडार में है।६ पाश्र्वपुराण में वादिचंद्र ने अपने लिए प्रभाचंद्र के पट्ट का अधिकारी बताते हुए उन्हें अनेक दार्शनिकों से महान् बताया है तथा पाश्र्वपुराण की रचना वि.सं. १५४० (१५८३ ई.) में कार्तिक शुक्ला पंचमी को बाल्मीक नगर में करने का उल्लेख किया है। इस प्रकार कवि का रचना काल ईसा की १६ वीं शताब्दी का अंतिम चरण है।
पार्श्वपुराण : चंद्रकीर्ति
यह पंद्रह सर्गात्मक काव्य है, जो २७१० ग्रंथाग्र प्रमाण है। इसकी रचना वि.सं. १६५४ (१५९७ ई.) में श्रीभूषण भट्टारक के शिष्य चंद्रकीर्ति ने वैशाख शुक्ला सप्तमी को गुरुवार के दिन देवगिरि के पार्श्वनाथजिनालय में की थी। इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई में है। चंद्रकीर्ति के गुरु श्रीभूषण भट्टारक काष्ठासंघीय थे। वे काष्ठासंघ के नंदी तटगच्छ के भट्टारक थे। वाचस्पति गैरोला ने उनकी परम्परा को इस प्रकार बतलाया है-रामसेन-नेमिषेण-विमलसेन-विशालकीर्ति-विश्वसेन-विद्याभूषण-श्रीभूषण। श्रीभूषण के उत्तराधिकारी के रूप में पद्मकीर्ति का उल्लेख किया है। किन्तु प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर ने काष्ठासंघ नंदीतटगच्छ की परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है-धर्मसेन-विमलसेन-विशालकीर्ति-विश्वसेन-विद्याभूषण-चंद्रकीर्ति। प्रो.जोहरापुरकर ने चंद्रकीर्ति का समय वि.सं.१६५४-१६८१(१५९७-१६२४ ई.) माना है। इस प्रकार चंद्रकीर्ति का भट्टारक रहने का समय ईसा की पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी का संधिकाल माना जा सकता है। चंद्रकीर्ति की एक पार्श्वनाथपूजा भी मिलती है।१२ इसकी अन्त्य प्रशस्ति इस प्रकार है—
‘‘श्री भूषणालंकृतविश्वसेन-नरेन्द्रसूनुर्जिन पार्श्वनाथ:। श्री चंद्रकीर्ति: सततं पुनातु, वाणारसीपत्तनमण्डनं व:।।
विघ्नहर पार्श्वनाथस्तोत्र :भट्टारक महीचंद्र
भट्टारक महीचंद्र द्वारा विरचित विघ्नहर पार्श्वनाथ स्तोत्र की हस्तलिखित प्रति श्री दि.जैन सरस्वती भंडार नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली के गुटका सं. ८ में पत्र २४ तक सुरक्षित है। यह संस्कृत पद्य में लिखित लघुकाय स्तोत्र है। इसमें ८ पद्य होने से इसे विघ्नहर पार्श्वनाथष्टक भी कहा गया है। महीचंद्र ने शक सं. १६१८ (१६९६ ई.) में आशापुर में आदिपुराण की रचना की थी। इनकी अन्य कृतियाँ अढाई व्रत कथा, गरुड पंचमी कथा, बारहमासी गीत, अर्हन्त आरती, नेमिनाथ भवान्तर एवं अन्य कतिपय स्तोत्र है। विघ्नहर पा पार्श्वनाथस्तोत्र एवं कुछ अन्य स्तोत्रों को छोड़कर इनकी अन्य सभी कृतियाँ मराठी में मिलती हैं। इनका समय सत्तरहवीं शताब्दी का अंतिम चरण है।
पार्श्वनाथ स्तोत्र :हेमकीर्ति
हेमकीर्ति द्वारा संस्कृतभाषा में विरचित पार्श्वनाथस्तोत्र का उल्लेख मिलता है। ये लातूर के भट्टारक विद्याभूषण के शिष्य थे। इन्होंने नागपुर और सिन्दी (वर्धा) के मंदिरों में १६९६ ई. से १७३१ ई. तक पाँच मूर्तियों एवं यंत्रों की प्रतिष्ठा कराई थी। मराठी में लिखित इनकी ४ रचनायें अरहंत पूजा, बारसमा आरती प्रकाशित हैं तथा दशलक्षण धर्म आरती एवं तीर्थवंदना अप्रकाशित है। गुजराती में अर्हंत पूजा का भी संकेत मिलता है।
छत्रसेन : पार्श्वनाथपूजा
छत्रसेन मूलसंघ, सेनगण पुष्करगच्छ की कारंजा शाखा के समंतभद्र भट्टारक के शिष्य थे। समंतभद्र के पश्चात् वे भट्टारक पदाभिषिक्त हुये। अर्जुनसुत द्वारा छत्रसेन की प्रशंसा मेें प्रदत्त एक पद्य से इसका समर्थन होता है-
श्री मूलसंघ में गच्छ मनोहर सोभत हे जु अतिहि रसाना। पुष्करगच्छ सुसेन गणाश्रित पूज रचे जिनकी गुणमाला।।
समंतभद्र के पट प्रकट भयो छत्रसेन सुवादि विसाला। अर्जुनसुत कहे भवि सु परवादी का मान मिटे तत्काला।
छत्रसेन मराठी, हिन्दी एवं संस्कृत के समर्थ विद्वान् थे। तीनों ही भाषाओं में उन्होंने साहित्य संरचना की है। उनकी मराठी रचना आदीश्वर भवान्तर शक सं. १६२५ (१७०३ ई.) में पूर्ण हुई थी। हीरा, बिहारी और अर्जुनसुत इनके प्रमुख शिष्य थे। हीरा ने वि.सं. १७५४ (१६९७ ई.) में कद्रतशाह की प्रेरणा से वृधणपुर में अनिरुद्धहरण की रचना की थी। अत: छत्रसेन का समय ईसा की सत्तरहवीं शती का अंतिम चरण तथा अट्ठारहवीं शती का प्रथम चरण मानना समुचित होगा। छत्रसेन की तीन लघु रचनायें संस्कृत की उपलब्ध हैं- पार्श्वनाथ पूजा, पद्मावती स्तोत्र और अनंतनाथ स्तोत्र। पार्श्वनाथ पूजा की भाषा साधारण है, किन्तु भवों का प्रस्तुतीकरण अच्छा हुआ है।
पार्श्वपंचकल्याणक : जयसागर
पार्श्वपंचकल्याणक जयसागर की एक मात्र संस्कृत कृति है। हिन्दी में उनकी रचनायें ज्येष्ठजिनवरपूजा, विमलपुराण, तीर्थजयमाला एवं रत्नभूषणस्तुति प्राप्त होती है। रत्नभूषणस्तुति के रचयिता होने से स्पष्ट है कि ये रत्नभूषण के शिष्य थे। इनकी परम्परा इस प्रकार है-सोमकीर्ति-विजयसेन-यशकीर्ति-उदयसेन-त्रिभुवनकीर्ति-रत्नभूषण-जयसागर। रत्नभूषण का समय वि.सं. १६७४ (१६१७ ई.) है। अत: इनका समय इसके बाद ई. सन् की सत्तरहवीं शताब्दी का मध्य मानना उचित है। प्रकृत जयसागर सीताहरण, अनिरुद्धहरण एवं समरचरित के प्रणेता ब्रह्म जयसागर का संबंध भट्टारक महीचंद के बाद मेरुचंद्र से है। मेरुचंद्र ब्रह्मसागर के सतीर्थ थे।
पार्श्वनाथस्तोत्रपंजिका : जयकेसरी
श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भंडार नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली के गुटका सं. ३३ में जयकेसरी विरचित पार्श्वनाथ स्तोत्र पंजिका मिलती है। यह संस्कृत पद्य एवं गद्य में लिखित है। इस प्रति की हालत अच्छी है। इसमें १७ पृष्ठ हैं जिनमें १६ वां पृष्ठ नहीं है। इसका प्रारंभ ‘ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथय ह्रीं धरणेन्द्रपद्मावतीसहिताय…..’ से होता है तथा समापन निम्नलिखित श्लोक से होता है-
‘इति श्री जीरिकापल्ली स्वामी स्तोत्रार्थं लेशकृत्। वदन्ति श्री पा पार्श्वनाथ सूरि: श्री जयकेसरि:।।’
अन्त्य पुष्पिका में लिपि करने का समय पौष शुक्ल दशमी सोमवार वि.सं. १८५९ (१८०२ ई.) दिया गया है।
कलिकुण्ड पार्श्वनाथपूजा : जिनदत्त-यह अद्यावधि अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ दि.जैन सरस्वती भंडार नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली के गुटका सं. १०, ३८, ४७ में विद्यमान है। इसका प्रारंभ ‘सिद्धं विशुद्धं महमहानिवेश……श्री कलिकुण्डयन्त्रम् ’ से तथा अंत प्राकृत के ‘वरखगिन्दु……. उपसग्गुतिहं’’ के साथ होता है।
पार्श्वनाथसमस्यास्तोत्र : अज्ञात-माणिकचंद्र दिगम्बर जैन गं्रथमाला बम्बई से वि.सं. १९७९ (१९२२ ई.) में सिद्धांतसारादि संग्रह का प्रकाशन हुआ था। इसमें एक स्तोत्र संकलित है जो समस्यापूर्ति के रूप में लिखा गया महत्वपूर्ण स्तोत्र है। एक अन्य कल्याणमंदिर स्तोत्र की पादपूर्ति के रूप में लिखा गया पार्श्वनाथस्तोत्र मिलता है। किन्तु इन स्तोत्रों के रचयिता का नाम-परिचय आदि का कुछ भी संकेत नहीं मिल सका है।
पासणाहचरिउ : देवदत्त-अपभ्रंश के चरितकाव्यों में डॉ.देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने देवदत्त के ‘पासणाहचरिउ’ ( पार्श्वनाथचरित) का उल्लेख किया है। इनकी कृति और इनका अपना परिचय उपलब्ध नहीं होता है। जम्बूस्वामीचरिउ के रचयिता महाकवि वीर के पिता का नाम देवदत्त था। देवदत्त अपभ्रंश के अच्छे विद्वान् थे। महाकवि वीर ने अपभ्रंश साहित्य में अपने को प्रथम, पुष्पदंत को द्वितीय तथा अपने पिता देवदत्त को तृतीय स्थान प्रदान किया है। संभव है, यही देवदत्त पासणाहचरिउ के रचयिता हों। यदि पासणाहचरिउ के रचयिता देवदत्त महाकवि वीर के पिता देवदत्त से अभिन्न हैं तो उनका समय ईसा की १०वीं शती का अंतिम भाग माना जा सकता है। क्योंकि महाकवि वीर के जम्बुसामिचरिउ का रचनाकाल १०१९ ई. मान्य है।
पासणाहचरिउ : विबुध श्रीधर-पासणाहचरिउ अपभ्रंश में लिखित पौराणिक महाकाव्य है। इसकी कथावस्तु १२ संधियों में विभक्त हैं। ग्रंथ २५०० पद्य प्रमाण है। इसमें तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित निबद्ध है। काव्यत्व की दृष्टि से यह उत्तम कोटि की रचना है। नदियों, नगरों आदि का बड़ा ही आकर्षक वर्णन किया गया है। इसमें विविध छंदों का प्रयोग है तथा भाषा आलंकारिक है। कथावस्तु परम्परा प्राप्त है।
अपभ्रंश एवं संस्कृत- साहित्य में ७ श्रीधर विद्वानों का उल्लेख मिलता है। किन्तु पासणाहचरिउ में प्रदत्त प्रशस्ति में इनका परिचय उल्लिखित होने से अंधकाराच्छन्न नहीं है। ये हरियाणा के मूल निवासी थे। वहाँ से चलकर यमुना पार दिल्ली आये। वहीं पर अग्रवाल नट्टल साहू की प्रेरणा से उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। यही कारण है कि दिल्ली का बड़ा ही रम्य वर्णन पासणाहचरिउ में हुआ है। कवि विबुध श्रीधर की माता का नाम वील्हा और पिता का नाम बुधगोल्ह था। पार्श्वनाथचरित (पासणाहचरिउ) में कवि ने ग्रंथ का रचनाकाल अंकित किया है। अत: इनका समय विवादास्पद नहीं है। पासणाहचरिउ की रचना वि.सं. ११८९ (११३२ ई.) में मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी रविवार को पूर्ण हुई थी। डॉ. राजाराम जैन ने कवि का कुल जीवन मात्र वि.सं. ११५९-१२३० (११०२-११७३ ई.) तक माना है।
पासणाहचरिउ : रइधू-इसकी कथावस्तु ७ संधियों में विभक्त है। रइधू की समस्त कृतियों के अपभ्रंश भाषा का यह काव्य श्रेष्ठ, सरस एवं रुचिकर है। इसमें संवाद प्रस्तुत करने का ढंग बड़ा ही सुन्दर तथा नाटकीय है। ये संवाद पात्रों के चरित्र चित्रण में पर्याप्त सहायक सिद्ध होते हैं। रइधू के पासणाहचरिउ की अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ कोटा, ब्यावर, जयपुर, आगरा के गं्रथभंडारों में भरी पड़ी हैं, जिससे इस ग्रंथ की लोकप्रियता और महत्ता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। रइधू काष्ठासंघ की माथुरगच्छ की पुष्करगणीय शाखा से संबद्ध है। अपभं्रश, संस्कृत एवं हिन्दी में इनकी ४० के लगभग रचनायें मिलती हैं। इनके पिता का नाम हरिसिंह, पितामह का नाम संघपति देवराज, माता का नाम विजयश्री तथा पत्नी का नाम सावित्री था। इनका एक पुत्र भी था, जिसका नाम उदयराज था। कवि ने ग्वालियर शहर का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है, जिससे ग्वालियर की तत्कालीन राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, धार्मिक स्थिति आदि का पता चलता है। डॉ.राजाराम जैन ने इनका समय वि.सं. १४५७-१५३६ (१४००-१४७९ ई.) माना है।
पासणाहचरिउ : असवाल कवि- अपभ्रंश भाषा में निबद्ध यह ग्रंथ १३ सन्धियों में विभक्त है। कथावस्तु परम्परागत है। इसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का पूर्व ९ भवों सहित वर्णन किया गया है। कमठ का जीव मरुभूति के जीव से ९ भवों तक निरंतर वैर करना रहता है। १० वें भव में मरुभूति का जीव तीर्थंकर पार्श्वनाथ के रूप में आत्मकल्याण करता है। पार्श्वनाथ ३० वर्ष की आयु में दीक्षा धारण कर लेते हैं और कठोर तपस्या करने के फलस्वरूप सम्मेदशिखर पर निर्वाण प्राप्त करते हैं। इस गं्रथ की एक ही हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है, जो श्री अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर मोतीकटरा आगरा में है। इसमें ९१ से ९७ तक के पन्ने नहीं हैं। काव्यत्व की दृष्टि से इसका विशेष महत्व नहीं है। असवाल कवि गोलारड वंश के लक्ष्मण के पुत्र थे। इस काव्य में इन्होंने मूलसंघ के बलात्कारगण के आचार्यों का उल्लेख किया है। अत: जान पड़ता है कि वे इसी से संबद्ध थे। ग्रंथ रचना चौहानवंशी राजा पृथ्वीसिंह के राज्यकाल में वि.सं. १४७९ ( १४२२ ई.) में हुई थी।
पासपुराण : तेजपाल-पासपुराण पद्धड़िया छंद में लिखित एक खंडकाव्य है। ग्रंथ अद्यावधि अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ भट्टारक हर्षकीर्तिभंडार अजमेर, बड़े घड़े का मंदिर अजमेर तथा आमेरशास्त्र भंडार जयपुर में है। बड़े घड़े का मंदिर अजमेर तथा आमेर शास्त्र भंडार जयपुर की प्रति का रचनाकाल क्रमश: वि.सं.१५१६ और १५७७ (१४५९ और १५२० ई.) है। कवि तेजपाल मूलसंघ के भट्टारक रत्नकीर्ति, भुवनकीर्ति और विशालकीर्ति की आम्नाय से संबंधित थे। इन्होंने पासपुराण की रचना मुनि पद्मनंदि के शिष्य शिवनंदि भट्टारक के संकेत से वि.सं. १५१५ (१४५८ ई.) में की थी। इस आधार पर वि. सं. १५१६ में लिखित बड़े-घड़े का मंदिर, अजमेर की हस्तलिखित प्रति उसी समय लिखी गई प्रतीत होती है। इस प्रकार कवि का समय ईसा की १५ वीं शताब्दी सिद्ध है।
पासणाहचरिउ : देवचंद्र- प्रस्तुत पासणाहचरिउ में ११ संधियाँ और २०२ कड़वक हैं। देवचंद्र ने अपभ्रंश में लिखित इस कृति में पार्श्वनाथ भगवान के पूर्व भवों के साथ उनके जीवन पर प्रकाश डाला है। ग्रंथ अद्यावधि अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित प्रति पं. परमानंद शास्त्री के निजी संग्रह में होने का उल्लेख मिलता है। इसका लेखनकाल वि.सं. १५४९ (१४९२ ई.) है। इसी की एक प्रति पासपुराण नाम से सरस्वती भवन नागौर में भी है। इसका रचनाकाल वि.सं. १५२० (१४६३ ई.) है। प्रति पूर्ण है। पासणाहचरिउ की प्रशस्ति में इन्हें मूलसंघ के वासवसेन का शिष्य कहा गया है। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-श्रीकीर्ति-देवकीर्ति-मोनीदेव-माधवचंद्र-अभयनंदी-वासवचंद्र-देवचंद्र। देवचंद्र ने पासणाहचरिउ की रचना गुंदिज्ज नगर के पार्श्वनाथ मंदिर में की थी। एक वासवसेन नामक विद्वान का उल्लेख श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख में किया गया है। संभवत: यही वासवसेन इनके गुरु होंगे। उक्त शिलालेख में वासवसेन को ‘स्याद्वादतर्वâकर्वâशधिषण:’ कहा गया है। देवचंद्र के काल-निर्धारण में कोई आंतरिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री भाषा शैली के परीक्षण आदि के आधार पर देवचंद का समय ईसा की १२वीं शताब्दी के आसपास मानते हैं। देवचंद्रकृत संस्कृत भाषा में लिखित पार्श्वनाथस्तोत्र भी मिलता है। इसकी हस्तलिखित प्रति श्री दि. जैन सरस्वती भंडार नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली में गुटका सं. ५५ में सुरक्षित है। प्रति की हालत अच्छी है। अंतिम श्लोक इस प्रकार है-
देवश्रीहरिषेणपूर्वविभव: सो देवचंद्रस्थित:। सम्यक्त्वादिगुणावृतो गतमलो भूयाज्जितो न: श्रिय:।।
पार्श्वनाथगीत : बूचराज-कवि बूचराज का उनकी कृतियों में बूचा, वल्ह, वील्ह एवं वल्हव नाम से भी उल्लेख हुआ है। किन्तु बूचा या बूचराज इनका अत्यधिक प्रचलित नाम रहा है। ये भट्टारक सम्प्रदाय के ब्रह्मचारी थे। बूचराजकृत भुवनकीर्ति गीत से स्पष्ट होता है कि वे भट्टारक भुवनकीर्ति के शिष्य थे। महारक रत्नकीर्ति का भी स्मरण उन्होंने भुवनकीर्ति गीत में किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि बूचराज को अपने अंतिम समय में रत्नकीर्ति का भी सामीप्य मिला था। बूचराज की अधिकांश कृतियाँ राजस्थान के ग्रंथ भंडारों में प्राप्त होती हैं। अत: वे राजस्थानी माने जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना, माता-पिता, शिक्षा-दीक्षा आदि का कुछ भी परिचय नहीं दिया। वि.सं. १५९१ (१५३४ ई.) में भाद्रपद शुक्ला पंचमी को उन्होंने अपनी कृति संतोषजयतिलकु की रचना हिसार नगर में करके दशलक्षण में स्वाध्यायार्थ समाज को समर्पित की थी। इसके पहले वे वि.सं.१५८९ (१५३२ ई.) में अपनी प्रथमकृति मयणजुज्झ की रचना राजस्थान में कर चुके थे। अत: इनका रचनाकाल ईसा की सोलहवीं शताब्दी का मध्य ठहरता है। पार्श्वनाथगीत में चार पद्यात्मक मनोहर गीत हैं, जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। यह वि.सं. १५६३ (१५०६ ई.) में लिखा गया था२ और कदाचित् बूचराज की रचनाओं में प्राचीनतम है।
चिन्तामणि जयमाला, पार्श्वनाथशकुनसत्ताबीती, पार्श्वनाथ स्तवन, पार्श्वनाथ जयमाला : ठक्कुरसी-ठक्कुरसी ढूंढाहड़ क्षेत्र के चम्पावती (चाटसू) नगर के रहने वाले। इनके पिता का नाम धेल्ह था, जो स्वयं कवि थे। धेल्ह की दो कृतियाँ बुद्धिप्रकाश एवं विशालकीर्ति गीत उपलब्ध है। ये पहाड़िया गोत्रोत्पन्न खण्डेलवाल दिगम्बर जैन थे। ये पार्श्वनाथ के अत्यंत भक्त थे। यही कारण है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में पार्श्वनाथ को विशिष्ट महत्व दिया है। इन्होंने पार्श्वनाथ शकुन सत्ताबीसी की रचना वि.सं. १५७८ (१५२१ ई.) में की थी। अत: ये कवि बूचराज के समकालीन माने जा सकते हैं। चिन्तामणि जयमाल अपभ्रंश मिश्रित हिन्दी में लिखित १२ पद्यों की लघु रचना है, जिसमें पार्श्वनाथ की भक्ति से घटित घटनाओं एवं विपत्तियों से बचने का वर्णन किया गया है। पार्श्वनाथ शकुन सत्ताबीसी २७ पद्यात्मक एक पार्श्वनाथ की स्तुति परक रचना है। इसमें चम्पावती में विराजमान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। ऐतिहासिक दृाqष्ट से इस रचना का विशेष महत्व है, क्योंकि इसमें इब्राहीम लोदी के रणथम्भोर किले पर आक्रमण एवं उससे उत्पन्न उपद्रवी भगदड़ का वर्णन किया है। पार्श्वनाथ स्तवन पण्डित मल्लिनाथ के आग्रह पर रचित द्वादश पद्यात्मक एक प्रभावक स्तोत्र है, जिसमें चंपावती के पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति की गई है। पार्श्वनाथ जयमाला भी पार्श्वनाथ की स्तुति में विरचित एकादश पद्यात्मक रचना है। इसके अंतिम पद में कवि ने अपने नाम एवं पिता के नाम का भी उल्लेख किया है। कवि ठक्कुरसी की ये सभी रचनायें डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल ने सम्पादित करके ‘कविराज बूचराज और उनके समकालीन कवि’ नामक गं्रथ में प्रकाशित की है।
पार्श्वनाथ : भट्टारक रत्नकीर्ति
रत्नकीर्ति का जन्म गुजरात प्रांत के घोघा नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम देवीदास और माता का नाम सहजलदे था। देवीदास हूंबडजातीय श्रेष्ठी थे। रत्नकीर्ति की मातृभाषा गुजराती थी तथा हिन्दी का उन्हें अच्छा ज्ञान था। उनके भक्तिपरक गीत हिन्दी भाषा में लिखे हुए हैं। रत्नकीर्ति कुन्दकुन्दाम्नायी मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के भट्टारक लक्ष्मीचंद के प्रशिष्य एवं अभयनंदि के शिष्य थे। वि.सं. १६५६ (१५९९ ई.) तक भट्टारक रहे। अत: उनका रचनाकाल भी सोलहवीं शताब्दी का उत्तराद्र्ध माना जा सकता है। रत्नकीर्ति के बाद उनके सुयोग्य शिष्य कुमुदचंद भट्टारक बने। उनके अन्य शिष्यों में ब्रह्म जयसागर, गणेश, राघव एवं दामोदर के नाम उल्लेख्य हैंं। रत्नकीर्ति ने अनेक स्वतंत्र गं्रथ एवं स्फुट पद लिखे हैं। इन स्फुट पदों में अनेक तीर्थंकर विषयक भी हैं। ‘वाराणसी नगरी नो राजा अश्वसेन गुणधार’ उनका पार्श्वनाथ विषयक पद है। ग्रंथ भंडारों के अन्वेषण से उनके अनेक पदों का मिलना संभावित है। उनकी स्वतंत्र कृतियाँ इस प्रकार हैं।- महावीर गीत, नेमिनाथफागु, नेमिनाथ बारहमासा, सिद्ध धूल, बलिभद्रनी वीनति, नेमिनाथ वीनती। उनके सभी गं्रथों पर मातृभाषा गुजराती का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
पार्श्वनाथ गीत, संकटहर पार्श्वनाथनी विनती, लोडण पार्श्वनाथनी विनती, चिन्तामणि पार्श्वनाथगीत: भट्टारक कुमुदचंद भट्टारक कुमुदचंद के पिता का नाम सदाफल एवं माता का नाम पद्माबाई था। वे मोढवंश के शिरोमणि थे।१ उन्होंने युवावस्था के पूर्व ही संयम को धारण कर लिया था तथा इंद्रिय रूपी ग्राम को उजाड़कर काम रूपी नाग को जीत लिया था। भट्टारक रत्नकीर्ति ने वि.सं.१६५६ (१५९९ ई.) में कुमुदचंद का भट्टारक पदाभिषेक किया था। भट्टारक रत्नकीर्ति द्वारा विरचित अद्यावधि छोटी-बड़ी २९ कृतियाँ तथा विभिन्न राग रागिनियों में निर्मित स्फुट पद प्राप्त होते हैं। पार्श्वनाथगीत दस पद्यात्मक है। इस गीत में हांसोट नगर के जिनालय में विराजमान भगवान पार्श्वनाथ के पंचकल्याणकों का वर्णन किया गया है। संकटहर पार्श्वनाथनी विनती में संकटों को दूर करने के लिए पाश्र्वप्रभु का स्मरण किया गया है। लोडण पार्श्वनाथनी विनती में लाट देशस्थ डभाई नगर के जिनालय में विराजमान तथा लोडण पार्श्वनाथ नाम से प्रसिद्ध प्रतिमा का स्मरण किया है। इसमें तीस पद्य हैं। अंत में इसका फल बताते हुए कहा गया है कि इसके स्मरण से सभी पाप, विघ्न बाधायें स्वत: नष्ट हो जाती हैं।४ चिन्तामणि पार्श्वनाथगीत में पाश्र्वप्रभु की अष्टद्रव्य से पूजा करने का महत्व बताया गया है।
पार्श्वनाथ छंद : हर्षकीर्ति- हर्षकीर्ति विरचित पार्श्वनाथ नामक कृति का उल्लेख डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल ने किया है। उन्होंने हर्षकीर्ति का परिचय इस प्रकार दिया है- हर्षकीर्ति १७ वीं शताब्दी (विक्रम की) के चतुर्थ पाद के कवि थे। ये राजस्थानी संत थे तथा भट्टारकों से प्रभावित थे। इन्होंने अपनी अधिकांश रचनायें राजस्थानी भाषा में निबद्ध की हैं।
पार्श्वनाथवीनती : वादिचंद- वादिचंद्र भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और भट्टारक प्रभाचंद्र के शिष्य थे। इन्होंने संस्कृत में पाश्र्वपुराण की संरचना वाल्हीक नगर में वि.सं. १६४० (१५८३ ई.) में की थी। इनकी अन्य संस्कृत रचनाओं में ज्ञानसूर्योदय नाटक, यशोधरचरित तथा कालिदास के मेघदूत के आधार पर लिखा गया पवनदूत सुप्रसिद्ध है। इनका रचनाकाल भी पाश्र्वपुराण के आसपास ही है। अत: इनका काल सोलहवीं शताब्दी का अंत तथा सत्तरहवीं शताब्दी का प्रारंभ माना जा सकता है। पार्श्वनाथ वीनती की एक हस्तलिखित प्रति कोटडियों का दिगम्बर जैन मंंदिर डूंगरपुर के शास्त्र भंडार में है। इसका रचनाकाल वि.सं. १६४८ (१५९१ ई.) है।
पार्श्वनाथरास : कल्याणकीर्ति- कल्याणकीर्ति सुप्रसिद्ध जैन संत देवकीर्ति मुनि के शिष्य थे। ये भीलोडा ग्राम के निवासी थे। वहीं पर मंदिर में इन्होंने आसोज शुक्ला पंचमी को वि. सं. १६९२ (१६३५ ई.) में चारुदत्त रास या चारुदत्त प्रबंध की रचना की थी। इनकी पार्श्वनाथ विषयक कृति पार्श्वनाथरास का रचना काल वि.सं. १६१७ (१५६०ई.) है।२ अत: कवि का काल सोलहवीं-सत्तरहवीं शताब्दी ई. माना जा सकता हैै। पार्श्वनाथरास की पाण्डुलिपि जयपुर के पाण्डे लूणकरण जी के ग्रंथ भंडार में विद्यमान है।
”पार्श्वपुराण : धनसागर- पाश्र्वपुराण हिन्दीभाषा में विरचित एक सुन्दर ग्रंथ है, जिसकी रचना छप्पयों में की गई है। इसकी अन्त्य प्रशस्ति से इसके रचनाकाल एवं गुरु परम्परा का पता चलता है-
काष्ठासंघ प्रसिद्ध गछ नंदीतटनायक। विद्यागण गंभीर सकल विद्या गुणनायक।।
विक्रम शाक विवक्र वरस सत्रासे बीते। उत्तर छप्पन माहि असित आश्विन दी दीजे।।
कृत मंगल मंगलवार दिन मंगल मंगल तेरसी। धनसागर पास जिनेस का षट्पद वचन कहे इसी।।
इससे स्पष्ट है कि इन्द्रभूषण के बाद सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुये। इन्होंने वि.सं.१७४४ (१६८७ ई.) में रत्नत्रय यंत्र वि.सं. १७४७ (१६९० ई.) में मेरुमूर्ति की स्थापना की थी।५ उनके शिष्य धनसागर थे। इन्होंने वि.सं. १७७३ (१७१६ ई.) में पाश्र्वपुराण की रचना की थी। शेष परिचय उक्त प्रशस्ति से स्पष्ट है।
पार्श्वनाथ गीत : संयमसागर- ब्रह्म. संयमसागर कुमुदचंद भट्टारक के शिष्य थे। इन्होंने अपने गुरु की प्रशंसा में तथा तीर्थंकरों की स्तुति में अनेक गीत लिखे हैं। संयमसागर अपने गुरु कुमुदचंद को भी साहित्यसपर्या में सहयोग किया करते हैं। इनके द्वारा विरचित गीतों में पार्श्वनाथ की स्तुति में लिखा गया केवल एक गीत ही उपलब्ध हुआ है। कुमुदचंद्र भट्टारक का शिष्य होने से इनका समय ईसा की सत्तरहवीं शताब्दी का पूर्वाद्र्ध मानना समीचीन प्रतीत होता है।
पार्श्वनाथपद : भट्टारक शुभचंद्र- भट्टारक शुभचंद्र वि.सं. १७२१ (१६६४ ई.) में भट्टारक अभयचंद्र के बाद ज्येष्ठ कृष्णा प्रतिपदा के दिन पोरबंदर में एक महोत्सव के समय भट्टारक गद्दी पर अभिषिक्त हुये।पं. श्रीपाल कृत शुभचंद्र हमची में उनका विस्तृत वृतान्त दिया गया है। प्रारंभ में उनका नाम नवलराय था। ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने पर उनका नाम सहजसागर तथा भट्टारक पदासीन होने पर शुभचंद्र रखा गया। पार्श्वनाथ विषयक उनके दो गीत उपलब्ध होते हैं- ‘जपो जिन पार्श्वनाथ अवतार’ और ‘अज्झारा पार्श्वनाथजी वीनती’। इन पदों में भक्ति भावना दर्शनीय है।
पार्श्वनाथस्तोत्र, पार्श्वनाथ पूजा : द्यानतराय- द्यानतराय आगरा निवासी गोयल गोत्रोत्पन्न श्यामदास अग्रवाल के पुत्र थे। इनका जन्म वि.सं. १७३३ (१६७६ ई.) में हुआ था। इनका १७४७ वि.सं. (१६९० ई.) में १४ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ। १७७७ (१७२० ई.) में उन्होंने सम्मेदशिखर की यात्रा की तथा १७८८ वि.सं. (१७२३ ई.) में एक संकलन स्वरचित पदों, पूजाओं एवं कविताओं का किया। धर्मविलास इनकी सुप्रसिद्ध रचना है। जो जैन रत्नाकर कार्यालय मुम्बई से फरवरी १९१४ में प्रकाशित हुई थी। जैन समाज में इनके पदों की महती प्रतिष्ठा है। उनके समय आगरा में मानसिंह और बिहारीदास जैन धर्म के सुविख्यात विद्वान् थे। उनके सानिध्य से द्यानतराय की जैनधर्म में प्रगाढ़ आस्था हो गई थी। वि.सं. १७८० (१७२३ ई.) में वे दिल्ली जाकर रहने लगे थे। उन्होंने अनेक पदों, पूजाओं एवं स्तोत्रों की रचना की है। इनमें पार्श्वनाथ स्तोत्र एवं पार्श्वनाथ पूजा भी है। जैन भक्ति साहित्य में द्यानतराय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। आज भी उनके पदों, पूजाओं एवं स्तोत्रों की लोकप्रियता सर्वातिशायी है। इनका पार्श्वनाथस्तोत्र १० पद्यात्मक हिन्दी भाषा में लिखा गया स्तोत्र है। इसमें संस्कृत शब्दों एवं हिन्दी शब्दों का भी कहीं-कहीं संस्कृत के समान प्रयोेग किया है। जैसे-
मुनीन्द्रं गणेन्द्रं नमों जोड़ि हाथं। नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथ।।
पार्श्वनाथत्र : जिनसागर- जिनसागर बलात्कारगण कारंजा शाखा के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। जिनसागर संस्कृत एवं हिन्दी दोनों ही भाषाओं के ज्ञाता थे, परन्तु इनकी अधिकांश रचनायें हिन्दी में ही उपलब्ध हैं। इन्होंने अनेक स्तोत्र लिखे हैं, जिनमें पाश्र्व पार्श्वनाथत्र महत्वपूर्ण है। जिनसागर ने आदित्यव्रत कथा की रचना शक सं. १६४६ (१७२४ ई.) में, जिनकथा की शक सं. १६४९ (१७२७ ई.) में, पद्मावती कथा की शक सं. १६५२ (१७३० ई.) में, पुष्पांजलि कथा की शक सं. १६६० (१७३८ ई.) में तथा जीवंधर पुराण की रचना शक सं. १६६६ (१७४४ ई.) में की थी। इस प्रकार इनका रचनाकाल अट्ठारहवीं शताब्दी का पूर्वाद्र्ध है।
पार्श्वपुराण चिन्तामणि पा पार्श्वनाथस्तुति
भूधरदास-पाश्र्वपुराण एक पौराणिक महाकाव्य है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ और उनके पूर्वभवों का बड़ा ही हृदयावर्णक वर्णन किया गया है। अनंतानुबंधी क्रोध किस प्रकार जन्म-जन्मातर तक चलता रहता है, इसे बड़ी कुशलता से प्रस्तुत किया गया है। पार्श्वनाथ विषयक हिन्दी साहित्य में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। काव्य के माध्यम से कवि ने जीवन के यथार्थ का बड़ा ही मनोरम वर्णन प्रस्तुत किया है-
‘मरन दिवस को नेम न कोय। यातै कछु सुधि परै न लोय।। एक नेम यह तो परमान। जन्म धरै सो मरे निदान।।’
ज्ञान-दीप तप-तैल भर घर शोधे भ्रम छोर। या विधि बिन निकसै नहीं पैठे पूरब चोर।।
भूधरदास ने पाश्र्वपुराण की रचना तिथि का ग्रंथ प्रशस्ति में स्वयं उल्लेख किया है। उन्होेंने इसकी रचना आषाढ़ शुक्ला पंचमी वि.सं. १७८९ (१७३२ ई.) में की थी।३ भूधरदास आगरा निवासी खंडेलवाल दि.जैन थे। जिनशतक की प्रशस्ति में उन्होंने लिखा है एक बार आगरा में जयसिंह सवाई सूबा और हाकिम गुलाबचंद आये। शाह हरिसिंह के कुल के लोगों की पुन:-पुन: प्रेरणा से उनके प्रसाद का अंत हो गया था और उन्होंने वि.सं. १७८१ (१७२४ ई.) में जिनशतक की रचना की थी-
‘आगरे में बलबुद्धि भूधर खंडेलवाल, बालक के ख्याल सौं कवित्त कर जाने हैं।
ऐसे ही करत भयो जै सिंह सवाई सूबा, हाकिम गुलाबचंद आये तिहि थाने हैं।
हरीसिंह शाह के सुवंश धर्मरागी नर, तिनके कहे सौं जोरि कीनी एक ठानै हैं।
इनके चिन्तामणि पार्श्वनाथस्तुति नामक स्तोत्र से पता चलता है कि शाहगंज में कोई दिगम्बर जैन मंदिर था और उसमें भगवान पार्श्वनाथ की कोई अतिशयकारी प्रतिमा थी। कविवर बनारसीदास ने भी इस प्रतिमा की स्तुति की। कविवर बनारसी दास ने भी इस प्रतिमा की स्तुति में एक स्तोत्र लिखा था। अद्यावधि आगरा के शाहगंज में कोई दिगम्बर जैन मंदिर नहीं है। पार्श्वनाथ आरती : यमासा-यमासा कारंजा के भट्टारक शांतिसेन के शिष्य थे। मूलत: ये मराठी भाषा के कवि हैं, किन्तु हिन्दी में भी इनकी कुछ आरतियों एवं छप्पयों की उपलब्धि होती है। पार्श्वनाथ आरती इनमें से एक हैं। यमासा ने अपना उल्लेख अर्जुनसुत के रूप में किया है। मराठी में एक अन्य जैन कवि सोयरा ने भी अपने को अर्जुनसुत कहा है किन्तु यमासा और सोयरा में परस्पर क्या संबंध है-यह पता नहीं चल सका है। अर्जुनसुत नाम से एक आरती काष्ठासंघीय भट्टारक विजयकीर्ति की मिलती है। किन्तु यह स्पष्ट नहीं होता कि यमासा या सोयरा से इन अर्जुनसुत का क्या संबंध है। जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ७ के मराठी अनुभाग के लेखक ने पार्श्वनाथ आरती का अपने हस्तलिखित संग्रह में होना वर्णित किया है। यमासा ने ३२६ पद्यात्मक आदित्यव्रत कथा की रचना वत्सगुल्म (वासिम) नगर में शक सं. १६७३ (१७५१ ई.) में की थी।६ अत: इनका समय अट्ठारहवीं शताब्दी निश्चित है।
पार्श्वनाथरास : कवि कपूरचंद- ब्रह्म कपूरचंद मुनि गणचंद्र के शिष्य थे। उन्होंने पार्श्वनाथरास की प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। उसके अनुसार उनकी परम्परा इस प्रकार है-मूलसंघ सरस्वतीगच्छीय नेमचंद-यशकीर्ति (जसकीर्ति)-गुणचंद्र-कपूरचंद। उन्होंने पार्श्वनाथ रास की रचना वि.सं. १६९७ (१६४० ई.) में की थी। प्रशस्ति के उल्लेख से पता चलता है कि आनंदपुर नगर के राठौरवंशीय राजा जसवंतसिंह थे।उस नगर में ३६ जातियाँ सुखपूर्वक निवास करती थीं तथा वहाँ उत्तुंग जिनालय थे। उन्हीं में से पार्श्वनाथ जिनालय में पार्श्वनाथरास की रचना की थी। पार्श्वनाथरास में कवि ने पार्श्वनाथ के जीवनचक्र का अति संक्षिप्त वर्णन पद्य कथा के रूप में प्रस्तुत किया है। काव्यत्व की दृष्टि से रचना का विशेष महत्व नहीं कहा जा सकता है। किन्तु संक्षेप में कवि ने कमठ के पूर्वभवों का बड़ी कुशलता के साथ वर्णन किया है।
पार्श्वपुराण : पाश्र्वपंडित- पाश्र्वपंडित के पिता का नाम लोकणनायक एवं माता का नाम कामियक्क था। इनके गुरु का नाम वासुपूज्य और बड़े भाई का नाम नागण था। इन्होंने अपनी कृति पाश्र्वपुराण में अपने को कार्तवीर्य का आस्थान कवि घोषित किया है। ये कार्तवीर्य राजा लक्ष्मण के पिता थे। ऐसा प्रतीत होता है कि पाश्र्वपंडित द्वारा उल्लिखित कार्तवीर्य सौन्दति के रदृवंशीय शासक कार्तवीर्य (चतुर्थ) हैं। १२०५ ई.में लिखित एक शिलालेख में कार्तवीर्य के पुत्र लक्ष्मण की प्रशंसा की गई है तथा इसका लेखक पाश्र्व को बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि कार्तवीर्य उनसे पूर्ववर्ती तो हैं ही। एक उल्लेख के अनुसार ११६५ ई. में रट्टवंशीय महासामन्त कार्तवीर्य (चतुर्थ) शिलाहार नरेश के राज्य में स्थित एकसाम्बी के नेमिनाथ मंदिर की प्रसिद्धि सुनकर दर्शनार्थ गया था। वहाँ उसने दर्शन-पूजन करके उदार मन से दान भी दिया था। अत: पाश्र्व पंडित का समय बारहवीं शताब्दी का उत्तराद्र्ध माना जा सकता है। १२०५ के उक्त शिलालेख में पाश्र्वपंडित को कविकुलतिलक कहा गया है। अन्यत्र भी इस उपाधि का एवं सुकविजनमनोहर्षसस्सप्रवर्ष, विविधजनमन:पद्भिनीपद्ममित्र आदि उपाधियों का प्रयोग हुआ है। कवि पाश्र्व का एकमात्र ग्रंथ पाश्र्वपुराण उपलब्ध है, जो मद्रास विश्वविद्यालय प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। १६ आश्वासो में विभक्त यह एक चम्पू काव्य है। प्रारंभ में कवि ने पूर्ववर्ती कन्नड एवं संस्कृत के कवियों (पंप, पोन्न, रन्न कर्णपार्य, गुणवर्णन एवं धनंजय, भूपाल) का स्मरण किया है। इस काव्य में भगवान पार्श्वनाथ एवं कमठ का मनोहारी चरित्र-चित्रण प्रस्तुत किया है।
पारिखनाथ भवान्तर : मेघराज-मेघराज ब्रह्म जिनदास के प्रशिष्य तथा ब्रह्म शांतिदास के शिष्य थे। मेघराज मूलत: गुजरात के रहने वाले थे। मराठी ओर गुजराती दोनों ही भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। इसी कारण इन्हें उभयभाषा कवि चक्रवर्ती कहा गया है। इनकी एक कृति गिरिनार यात्रा तो गुजराती एवं मराठी दोनों भाषाओं में लिखी गई है। इसका एक चरण गुजराती का और अन्य चरण मराठी का है। जसोधरदास मराठी में यशोधर के कथानक पर लिखित प्रथम काव्य है। इनका समय १६ वीं शताब्दी का प्रथम चरण निश्चित किया गया है। पार्श्वनाथभवांतर (पारिखनाथभवांतर) ४७ कडवकों में विभक्त एक सुंदर काव्य है, जिसमें भगवान पार्श्वनाथ और माता वामादेवी के पूर्वजन्मों का संवादात्मक वर्णन किया गया है।
पार्श्वनाथ आरती : चिमना पंडित-यह आरती केवल पाँच पद्यात्मक है तथा इसमें औरंगाबाद के समीपस्थ ग्राम कचनेर के जैन मंदिर के मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन है। जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर (१९६५ ई.) में प्रकाशित तीर्थवंदनसंग्रह में इसका मुद्रण हुआ है।चमना पंडित मूलत: मराठी कवि हैं। मराठी में इनकी लगभग २० रचनायें उपलब्ध होती हैं। इनकी एक गुजराती रचना भी उपलब्ध है। इसमें पैठण के मुनिसुव्रत भगवान की विनती की गई है। इन्होंने अजितकीर्ति का गुरु के रूप में उल्लेख किया है, अत: इनका समय १६५० ई.-१६७५ ई. के लगभग निश्चित होता है। ये पैठणनगर में रहते थे।
पार्श्वनाथ आरती : पद्मकीर्ति-ये पद्मकीर्ति भ. अजितकीर्ति के बाद भट्टारक पद पर अभिषिक्त रुक्मिणीव्रत कथा के रचयिता भट्टारक विशाल कीर्ति के पट्टशिष्य थे। इनकी एक लघुकाय कृति पार्श्वनाथ आरती उपलब्ध होती है। यह आरती ५ कड़वक प्रमाण है और इसमें चक्रपुर के भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। पद्मकीर्ति ने १६८० ई. में एवं १६८६ में कुछ मूर्तियाँ स्थापित करार्इं थीं। इन मूर्तियों पर उल्लेख से पद्मकीर्ति का समय सत्तरहवीं शताब्दी का उत्तराद्र्ध सिद्ध होता है।
पार्श्वनाथ भवांतरगीत, श्रीपुर पार्श्वनाथ आरती : गंगादास- गंगादास मूलत: गुजराती थे तथा बलात्कारगण कारंजा शाखा के भट्टारक धर्मचंद्र के शिष्य थे किन्तु इस शाखा में धर्मकीर्ति नामक चार विद्वानों का पता चलता है- १. देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य धर्मचंद्र २. कुमुदचंद्र के शिष्य धर्मचंद्र ३. विशालकीर्ति के शिष्य धर्मचंद्र और ४. देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य धर्मचंद्र। प्रकृत मे विवेच्य गंगादास विशालकीर्ति के प्रशिष्य एवं धर्मचंद्र के शिष्य हैं। गंगादास ने श्रुतस्वंधकथा की रचना वि.सं. १७७३ (१७१६ ई.) में की थी। इन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध मराठी कृति पार्श्वनाथ भवांतर की रचना शक सं. १६१२ (१६९० ई.) में की थी। इन्होंने मराठी के अतिरिक्त संस्कृत में भी अनेक रचनायें लिखी हैं। इनका समय ई. की सत्तरहवीं-अट्ठारहवीं शताब्दी है। पार्श्वनाथ भवांतर गीत डफ नामक वाद्य विशेष की संगत के साथ गेय काव्य है। यह ४७ कडवकों मेें विभक्त है, जिनमें पार्श्वनाथ एवं उनके नव पूर्वभवों का वर्णन हुआ है। श्रीपुर पार्श्वनाथ आरती ५ कडवकों की मराठी रचना है। आरती संग्रह (प्रकाशन-जिनदास चवडे वर्धा १९०४) में इस आरती का प्रकाशन हुआ है। इनकी अन्य रचनायें निम्नलिखित हैं-चक्रवर्ती पालना एवं नेमिनाथ आरती (मराठी) रविव्रत कथा, त्रेपनक्रिया विनती एवं जटा मुकुट (गुजराती)। पंचमेरु पूजा, क्षेत्रपाल पूजा, सम्मेदाचल पूजा एवं तुंगीबलभद्रपूजा (संस्कृत)
पार्श्वनाथ स्तुति : पार्श्वनाथ आरती : तानू पंडित- पार्श्वनाथ स्तुति एकादश पद्यात्मक है, जिसमें कचनेर के भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। पार्श्वनाथ आरती६ पाँच पद्यात्मक है। दोनों ही मराठी की रचनायें हैं। तानू पंडित कारंजा के भट्टारक शांतिसेन के शिष्य थे। अत: इनका समय सन् १७५१ से १७६८ के आस-पास का है।
अंतरिक्ष पार्श्वनाथ आरती : रतन-रतन द्वारा मराठी भाषा में विरचित यह एक लघु रचना है। इसमें ६ पद्यों में अंतरिक्ष पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। रतन द्वारा विरचित सिद्धसेन आरती का रचना काल वि.सं. १८२६ (१७७० ई.) है।१ इसके कुछ अंश का प्रकाशन ‘भट्टारक संप्रदाय’ में हुआ है। सिद्धसेन कारंजा के भट्टारक थे। पार्श्वनाथचरित्र : सेठ हिराचंद नेमचंद दोशी-शोलापुर के दोशी जी मूलरूप से गुजराती हैं। किन्तु मराठी जैन साहित्य के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा है। उन्होंने १८८४ में जैनबोधक मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। १९२३ से १९२८ ई. तक सम्यक्त्ववर्धक पत्रिका का प्रकाशन कर बढ़ाया। पार्श्वनाथचरित्र मौलिक रचना न होने पर भी मराठी भाषा में लिखित सरल कथाओं में महत्वपूर्ण है। सेठ दोशी जी का जीवनचरित श्री दीनानाथ बापूजी मंगुडकर ने विस्तृत रूप से लिखा है। यह पुस्तक श्री रतनचंद हिराचंद दोशी द्वारा १९६७ ई. में शोलापुर से प्रकाशित हुई है।
पार्श्वनाथ स्तोत्र : जिनसागर- जिनसागर द्वारा मराठी मेें विरचित पार्श्वनाथ स्तोत्र ‘जिनसागर की समग्र कविता’ नामक संकलन में प्रकाशित हुआ है। जिनसागर कारंजा के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य तथा माणिकनंदि के सतीर्थ थे। इनका पूर्वनाम जिनदास था। इन्होंने अपने गुरु देवेन्द्रकीर्ति के साथ गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा की थी। जिनसागर की मराठी भाषा में विरचित २६ रचनायें उपलब्ध हैं। संस्कृत में तथा हिन्दी में भी इन्होंने रचनायें लिखी हैं। संस्कृत में पंचमेरु पूजा, नवग्रह पूजा एवं नंदीश्वर पूजा तथा हिन्दी में दशलक्षण धर्म सवैया एवं स्पुâट २५ सवैया उपलब्ध हैं।