इतिहास के आरम्भ से ही, प्राचीन भारत में वास्तुकला की संकल्पना मानव प्रयास की एक अभिव्यक्ति के रूप में उभरी है। इसका सैनिक व्यवस्था (किला, खंदक व सुरक्षित बच निकलने के मार्ग निर्माण), नगर नियोजन, गोदी निर्माण, जल संग्रहण व वितरण एवं मल—मूत्र निपटान, व्यवस्था आदि विभिन्न शाखाओं में उत्तरोत्तर विकास हुआ है। वास्तुकला पर प्राचीन भारत का ‘मानसार’ नामक ग्रंथ इसका उदाहरण है। इसमें राजा की राजधानी में महल निर्माण व उससे लगे हुए भवनों का विवरण हैं जिनकी सुरक्षा हेतु खाइयों से धिरे किले को दिखाया गया है। सभा मंडप, राजसभा, अंत:पुर अस्तबल, शस्त्रगार, पैदल सेना तथा अश्वारोही सेना के लिये निवास स्थान, अन्नगार, जल —संग्रहण स्थान एवं सुरक्षित बच निकलने के मार्ग आदि की व्यवस्था भी इस संकुल में दिखायी गयी है। वास्तुकला, सभ्यता का आधार है। इस परिभाषा में यह जोड़ देना आवश्यक है कि ऐतिहासिक दृष्टि से, वास्तुकला उस काल की सभ्यता के बौद्धिक विकास का एक स्थायी, ठोस और सच्चा प्रमाण है। भारत के अनेक भव्य स्मारकों के रूप में मनुष्य के आदर्शों की जो अभिव्यक्ति देखने को मिलती है ऐसी समृद्ध वास्तुकला विरासत शायद ही किसी अन्य देश को मिली हो।
‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन एण् ईस्टर्न आर्कीटेक्चर’
नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में जेम्स फर्गुसन ने कहा है—‘‘भारत में वास्तुकला अभी तक एक जीवित कला है। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर, बारहवीं व तेरहवीं सदी में, यूरोप में इसका तीव्र विकास हुआ। वास्तुकला का विद्यार्थी कार्यरूप में परिणित के वास्तविक सिद्धान्तों की एक झलक केवल इन्हीं में देख सकता है। आज यूरोप में वास्तुकला को अत्यधिक असंगत व असामान्य तरीके से व्यवहार में लाया जा रहा है। आज बहुत कम लोग ऐसे हैं जो इस गलत धारणा को छोड़कर यह समझ सके हैं कि भव्य भवन निर्माण के सिद्धांतों एवं साधारण विवेक का सही संगम हो सकता है और इसके परिणाम अवश्य संतोषजनक ही होंगे।। जिन्हें भारतीयों द्वारा निर्मित उत्तम भवनों को देखेने का अवसर मिला होगा वे इस सफलता के रहस्य को भली भांति समझ सकते हैं। जिन्होंने यूरोप के शिक्षित व प्रतिभाशाली वास्तुकारों की गलतियों और असफलतायें देखी होंगी, वे भारतीय प्रतिरुपों के अध्ययन से अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसे परिणाम अवश्यंभावी थे।’’ भारतीय वास्तुकला का विशेषगुण इसका आध्यात्मिक पक्ष है। यह स्पष्ट है कि निर्माण कला का मुख्य उद्देश्य, उस काल में प्रचलित धार्मिक चेतना को दर्शाना था। इस काल में अपने मनोभावों को शैल, र्इंट व पत्थर के माध्यम से जीवंत किया गया है।(साभार: प्राचीन भारत में विज्ञान एवं प्रोद्यागिकी)