सर्वाधिक समादूत नीतिग्रन्थ की रचना आज से लगभग २००० वर्ष पूर्व सुदूर दक्षिण में तमिलनाडु प्रान्त के वन्य प्रदेश में रहकर एक अनासक्त योगी ने की थी, जिनका नाम है तिरुवल्लुवर इसमें १०८ परिच्छेद हैं, प्रत्येक में १० श्लोक हैं । कुल १०८० श्लोक हैं। इसका हिन्दी एवं संस्कृत अनुवाद ५० वर्ष पूर्व महरौनी जिलाललितपुर निवासी पं० गोविन्दराय जैन शास्त्री ने किया था ।
मूलत: तमिल भाषा में रचित इस ग्रन्थ को तमिलनाडु की सम्पूर्ण जनता जाति-पंथ-सम्प्रदाय आदि के भेदों को भुलाकर समान रूप ‘तामिलवेद’, ‘पंचम वेद’, ‘ईश्वरीय ग्रन्थ’, ‘महान् सत्य’ तथा ‘सर्वदेशीय वेद’ सदृश नामों से अत्यन्त आदर पूर्वक स्मरण करती
संभवत: वहाँ के वैदिकों को वेदों की ऋचायें, मुसलमानों को कुरान शरीफ की आयतें, ईसाईयों को पवित्र वाइबिल की पंक्तियाँ, जैनों को आगमग्रंथों के गाथासूत्र एवं अन्य मतावलम्बियों के अपने-अपने मूल धर्मग्रन्थों के सन्देश वाक्य इतने याद नहीं होंगे, जितने कुरलकाव्य के नीतिपरक पद्य याद हैं।
भूतपूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने कहा है- संत तिरुवल्लुवर ने किसी राज्य, देश, भाषा या धर्म की बात न करके, समग्र विश्व के मानव कल्याण हेतु प्रेरणास्पद सूत्र दिए हैं। उनके विशद ज्ञान व बौद्धिक क्षमताओं से मैं अभिभूत हूँ ।
वहाँ किसी माँ ने संभवत: इतनी लोरियाँ नहीं गायी होंगी, जितनी बार इसके छन्दों को गुनगुनाया होगा। यहाँ तक कि वहाँ के निवासी परम नास्तिक व्यक्ति भी इस ग्रन्थ में पूर्ण आस्था रखते हैं। अनपढ़, अंगूठाटेक व्यक्तियों एवं ग्राम्य महिलाओं – बच्चों से भी इसके पद्यों को सुना जा सकता है।
२००० वर्षों की दीर्घावधि में इस अत्यन्त आदृत कुरलकाव्य की यशः रश्मियों का प्रचार तमिलनाडु की सीमाओं को लाँघकर सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो चुका है तथा विश्वभर में लगभग ८० भाषाओं में इसका अनुवाद होकर सहस्रों संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
कुरलकाव्य का आद्योपांत अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि यह जैन ग्रन्थ है। इसके कर्ता जैन संत हो सकते हैं |