अथ भावदेवभवदेवचरदेवौ तृतीयस्वर्गस्य सप्तसागर- पर्यंतं आयु: समाप्तिमानीतवन्तौ। तन्मध्ये यदा षण्मासमायुरवशिष्टं तदानीं तत्र कल्पवृक्षस्य दीप्तिमंदतादिनानानिमित्तेन स्वर्गात्पतनं अवबुद्ध्य तौ शोकातुरौ संजातौ। तत्समये अन्ये देवादय आगत्य तौ समवबोधयन्। ततो धर्मबुद्ध्या उभौ अपि देवौ जिनमंदिरे गत्वा भावविशुद्ध्या जिनपूजां कृत्वातिष्ठतां अनंतरं अंतकालमासन्नं ज्ञात्वा कल्पवृक्षस्याध: उपविश्य समाहितमनसौ प्रतिमायोगं गृहीत्वा आत्मध्याने निमग्नौ अजायतां, महामंत्रं स्मारं स्मारं प्राणान् त्यक्त्वा मत्र्यलोके समायातौ। क्व समायातौ ?जंबूद्वीपस्य महामेरूपर्वतस्य पूर्वविदेहक्षेत्रे चतुर्थकाल एव सर्वदा वर्तते तत्र शाश्वतकर्मभूमिरचनास्ति। तत्र पुष्कलावतीनामदेश:, तद्देशे पुण्डरीकिणीनाम महानगरी प्राकारादिभि: राजते। तत्र विदेहक्षेत्रे सदैव जिनधर्मानुवासिता जना: श्रावकधर्ममनुपाल्य मुनिधर्मं समाचरन्त: कर्मक्षयं कृत्वा विदेहा भवंतीति ‘विदेह’ नामसार्थकमेव। अस्या वङ्कादंतराजा तस्य महाराज्ञी यशोधना। भावदेवचरदेव: स्वर्गात्प्रच्युत्य तयो: सागरचंद्रनामा पुत्रो बभूव।
तत्रैव पुष्कलावतीदेशे वीतशोकापुरी नाम द्वितीया नगरी। तस्या शासको महापद्मचक्रवर्ती आसीत्। तस्य षण्णवतिसहस्राणि राज्ञ्य: संति, तासु मध्ये एका वनमाला राज्ञी पुण्यशालिनी बभूव। असौ भवदेवचरदेवो स्वर्गादागत्य अस्या वनमालायां शिवकुमार नाम सुपुत्रो जात: अयं शिवकुमारो पित्रौ सुखं वद्र्धयन् स्वयं च चन्द्रकलावत् वर्धमानो राजतेस्म। सर्वजनानां प्रिय: अंत: पुरे क्रीडन् सन् शैशवमतीत्य युवा बभूव।
पुन: भावदेव-भवदेवचर उन दोनों देवों ने तृतीय स्वर्ग की सात सागर पर्यंत आयु को समाप्त कर दिया, उसमें जब षट्मासपर्यंत आयु अवशिष्ट रह गई थी, तब कल्पवृक्ष की ज्योति मंद पड़ गई, आदि अनेकों निमित्तों से स्वर्ग से अपना पतन होना जान अत्यन्त शोक करने लगे। उस समय अन्य देवों ने आकर उन दोनों देवों को खूब ही धर्मोपदेशपूर्वक समझाया। तब धर्मबुद्धि से वे दोनों ही देव जिनमंदिर में जाकर भावशुद्धिपूर्वक जिनपूजा करते हुए वहीं ठहरे, अनंतर अंत समय को निकट जानकर कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर समाधान चित्त हुए प्रतिमायोग को ग्रहण करके आत्मध्यान में लीन हो गये और महामंत्र का बार-बार स्मरण करते हुए प्राणों का त्याग करके मध्यलोक में आ गये।
कहाँ पर आये ?-जम्बूद्वीप के महामेरू पर्वत के पूर्व विदेह क्षेत्र में सदा चतुर्थ काल ही रहता है, वहाँ शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है। उस पूर्व विदेह में पुष्कलावती नाम का एक देश है, उसमें पुण्डरीकणी नाम की नगरी है, जो कि परकोटे आदि से सुशोभित है। उस विदेह की नगरी में सदैव जिनधर्म का पालन करते हुए लोग श्रावक धर्म का पालन करके मुनि हो जाते हैं और कर्मों का नाश करके देहरहित विदेह (सिद्ध) हो जाते हैं इसलिए उनका ‘विदेह’ यह नाम सार्थक ही है।
इस नगरी के वङ्कादंत महाराज की रानी का नाम यशोधना था। भावदेव का जीव, देव स्वर्ग से च्युत होकर उन दोनों के सागरचन्द्र नाम का पुत्र हो गया।
उसी पुष्कलावती देश में वीतशोका नाम की दूसरी नगरी है। उसके शासक महापद्मचक्रवर्ती थे, उनके छ्यानवे हजार रानियाँ थीं, उनमें से एक वनमाला रानी महापुण्यशालिनी थी। भवदेव का जीव देव स्वर्ग से च्युत होकर इस वनमाला के शिवकुमार नाम का पुत्र हो गया। यह शिवकुमार माता-पिता के सुख को बढ़ाता हुआ स्वयं चन्द्रमा की कला के समान बढ़ता हुआ शोभित हो रहा था। सभी जनों का प्रिय यह बालक क्रम से अंत:पुर में खेलता हुआ शैशव अवस्था को समाप्त कर युवा हो गया।