अर्थ:-सम्यक् श्रुतज्ञान परमार्थ विषय का कथन करने वाले एक पुरुषाश्रित कथा और त्रेसठशलाका पुरुष सम्बन्धी कथारूप पुण्यवर्धक तथा बोधि और समाधि के निधान प्रथमानुयोग को जानता है।
टीका:-बोध: समीचीन: सत्यं श्रुतज्ञानं। बोधति जानाति । कं ? प्रथमानुयोगं । किं पुन: प्रथमानुयोग शब्देनाभिधीयते इत्याह – चरितं पुराणमपि एकपुरुषा श्रिता कथा चरितं त्रिषष्टिशलाका-पुरुषाश्रिता कथा पुराणं तदुभयमपि प्रथमानुयोग शब्दाभिद्येयं। तस्य प्रकल्पितत्वव्यवच्छेदार्थमाथख्यिानमिति विशेषणं, अर्थस्य परमार्थस्य विषयस्याख्यानं प्रतिपादनं यत्र येन वा तं। तथा पुण्यं प्रथमानुयोगं हि शृण्वतां पुण्यमुत्पद्यते इति पुण्यहेतुत्वात्पुण्यं तदनुयोगं। तथा बोधिसमाधिनिधानं अप्राप्तानां हि सम्यदर्शनादीनां प्राप्तिर्बोधि:, प्राप्तानां तु पर्यन्तप्रापणं समाधि: ध्यानं वा धम्र्यं शुक्लं च समाधि: तयोर्निधानं। तदनुयोग हि शृण्वतां सद्दर्शनादे: प्राप्त्यादिकं धर्म्यध्यानादिकं च भवति । टीकार्थ:- सम्यग्श्रुतज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है, जिसमें एक पुरुष से सम्बन्धित कथा होती है वह चरित्र कहलाता है और जिसमें त्रेसठशलाका पुरुषों से सम्बन्ध रखने वाली कथा होती है, उसे पुराण कहते हैं। चरित्र और पुराण ये दोनों ही प्रथमानुयोग शब्द से कहे जाते हैं। यह प्रथमानुयोग कल्पित अर्थ का वर्णन नहीं करता किन्तु परमार्थभूत विषय का प्रतिपादन करता है इसलिए इसे अर्थाख्यान कहते हैं। इसको पढ़ने और सुनने वालों को पुण्य का बन्ध होता है इसलिए इसे पुण्य कहा है तथा यह प्रथमानुयोग बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शनादि रूप रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान की प्राप्ति का निधान-खजाना है। इस प्रकार इस अनुयोग को सुनने से सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति और धर्म्यध्यानादिक होते हैं। विशेषार्थ:- प्रथमानुयोग जिनवाणी का एक प्रमुख अंग है। प्रथमानुयोग का अर्थ है कि प्रथम अर्थात् मिथ्यादृष्टि या अव्रतिक अव्युत्पन्न श्रोताओं को लक्ष्य करके जो प्रवत्त हो। इसमें त्रेसठशलाका पुरुषों आदि का वर्णन किया गया है। कथाओं के माध्यम से वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करने वाला यह अंग प्राथमिक जीवो के लिए अत्यन्त हितकारक है। इसको सुनकर जीवों को बोधि-समाधि की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को बोधि कहते हैं और तत्त्वों का अच्छी तरह बोध होना अथवा धर्मध्यान-शुक्लध्यान को प्राप्त करना समाधि है।प्रथमानुयोग बोधि-समाधि का खजाना है। प्रथमानुयोग में सत्य-कथाओ का वर्णन है। इसमें उपन्यास की तरह कपोल कल्पित कथाएँ नहीं हैं।तीर्थंकर चक्रवर्ती बलभद्रादि महापुरुषों के जीवनवृत्त को पढ़ने से मन पवित्र होता है तथा हेयोपादेय का विवेक जागृत होता है। संसारासक्त जीवों की क्या दशा होती है तथा अनासक्त जीवों की कैसी स्थिति होती है यह सब पुराण पुरुषों की जीवनी का वर्णन करने वाले महापुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण, प्रद्युम्नचरित्र आदि का अध्ययन करने से विदित होता है।
रत्नकरण्डश्रावकाचार के रचयिता श्री समन्तभद्र स्वामी के विषय में कहा है –
जैनमत अर्थात् शास्त्र और अतिशय आदि को करनेवाला, नानाविषयों का प्रतिपादन जिसमें है ऐसा समन्तभद्र मुनिराज का वचन जो महाबुद्धिमान पुरुष सुनते हैं वे भ्रान्ति से रहित हो जाते हैं।
अर्थात् प्रथमानुयोग में कुशल साधु अमरगुरु। आचार्य वीरसेन स्वामी ने श्रमण को ही दृष्टिवाद अंग का उपदेश देने का अधिकार कहा है-……..दयाबुद्धीए साहूणं णाण-दंसण-चरित्त-परिच्चागो दाणं पासुग- परिच्चागदा णाम। ण चेदं कारणं घरत्थेसु संभवदि, तत्थ चरित्ताभावादो। तिरयणोवदेसो वि ण घरत्थेसु अत्थि, तेसिं ‘दिट्ठिवादादि’ उवरिमसुत्तो-वदेसणे अहियारभावादो। तदो एदं कारणं महेसिणं चेव होंति।भावार्थ:- दया बुद्धि से साधुजनों द्वारा किया जाने वाला ‘ज्ञानदान’ ही सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र-समन्वित परित्याग होने से वस्तुत: प्रासुक-परित्यागता है। यह साधन (ज्ञानदान) गृहस्थों में सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश भी गृहस्थों में संभव नहीं है,क्योंकि ‘दृष्टिवाद’ आदि उपरिम श्रुत का उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है।इसीलिए यह साधन महर्षियों (श्रमणों) के ही होता है। ‘प्रथमानुयोग दृष्टिवाद का अंग है-
‘‘परिकर्म च सूत्रं च स्तौमि प्रथमानुयोग-पूर्वगते।’
सार्धं चूलिकयापि च पंचविधं दृष्टिवादं च।।’’
-(श्रुतभक्ति , आचार्य पूज्यपाद, ९)
अर्थ:-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका सहित पाँच प्रकार के दृष्टिवाद अंग की मैं स्तुति करता हूँ। प्रथमानुयोग—जिसमें ६३ शलाका पुरुषों का निरूपण है वह प्रथमानुयोग है। प्रथमानुयोग दृष्टिवाद का अंग होने से अत्यधिक आत्महितकारी और महत्त्वपूर्ण है। दृष्टिवाद अंग के अंतर्गत प्रथमानुयोग का वर्णन करते हुऐ आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में लिखा है-
‘पढमाणियोगो पंच-सहस्स-पदेहि पुराणं वण्णेदि।’’
-(धवला १/१/२/११३)
अर्थ:- प्रथमानुयोग अर्थाधिकार पाँच हजार पदों के द्वारा पुराणों का वर्णन करता है। इसी प्रकार आचार्य प्रभाचन्द्र जी ने श्रुतभक्ति की टीका में लिखा है- १. प्रथमानुयोग के एक पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, आठ सौ अट्ठासी अक्षर होते हैं।
-(हरिवंशपुराण, आचार्य जिनसेन, १०/२४/१८७)
‘‘पंचसहस्रपदपरिमाण:त्रिषष्टिशलाकापुरुषपुराणानां
प्ररूपक: प्रथमानुयोग:।
-(क्रियाकलाप, पृष्ठ १७४)
प्रथमानुयोग ग्रन्थों में चार प्रकार की कथाओं का वर्णन प्राप्त होता है-
धर्मकथा चार प्रकार की होती है – आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी। जिसके द्वारा अपने मत का संग्रह – अनेकान्त सिद्धान्त का यथायोग्य समर्थन हो उसको आक्षेपणी और इसी प्रकार जिसके द्वारा क्षणिवैकान्त प्रभृति मिथ्यामतों का निग्रह — निराकरण हो उसको विक्षेपणी तथा जिसके द्वारा पुण्य के फल स्वरूप संपत्ति को यथायोग्य प्रकाशित किया जाये उसको संवेदनी एवं जिसको सुनकर संसार,शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो सके, ऐसी निरूपणा को निर्वेदनी कहते हैं। धर्मोपदेश नामक स्वाघ्याय तप के चार भेद हैं। इस तप का निरन्तर पालन करने की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुओं को ये चार प्रकार की ही कथाएँ करनी चाहिये।