जो अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है वह शुद्ध भाव को प्राप्त करता है और जो अशुद्ध रूप का अनुभव करता है, वह अशुभ भाव को प्राप्त होता है। भावो हि प्रथमलिंगं, न द्रव्यलिंगं च जानीहि परमार्थम्। भाव: कारणभूत:, गुणदोषाणं जिना ब्रुवन्ति।।
(वास्तव में) भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है। द्र्व्यलिंग परमार्थ नहीं है, क्योंकि भाव को ही जिनदेव गुण—दोषों का कारण कहते हैं। भावविशुद्धिनिमित्तं, बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्याग:। बाह्यत्याग: विफल:, अभ्यन्तरग्रंथयुक्तस्य।।
भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है, उसका बाह्य त्याग निष्फल है।