२८ अप्रैल १९९९ की रात्रि में आए भूकम्प ने जहाँ जनमानस में दहशत की स्थिति उत्पन्न कर दी है, वहीं मानवता के प्रति कुछ सोचने को भी विवश कर दिया है। इस धरती पर जब भी भूकम्प अथवा कोई वायुयान, रेलगाड़ी आदि की भीषण दुर्घटनाएँ होती हैं तब उन विषयों की सरकारी और गैरसरकारी जाँच—पड़ताल होकर उनके होने के कारण ज्ञात किये जाते हैं।
यही इस भूकम्प के पश्चात् भी हुआ कि अनेक वैज्ञानिकों ने अपनी—अपनी खोज के आधार पर यह बतलाया है कि भूकम्प क्या है ? ये क्यों आते हैं ? और इनसे भारी जन—धनहानि क्यों होती है ? उन वैज्ञानिक तथ्यों से तो मात्र यह निष्कर्ष निकला है कि ऊर्जा के तीव्र उत्सर्जन द्वारा उत्पन्न पृथ्वी का कंपन ही भूकम्प है, यह समस्त प्राकृतिक आपदाओं में से सबसे अधम आपदा है जिसकी रोकथाम मानव द्वारा नहीं हो सकती है। ११ अप्रैल १९९९ के ‘‘दैनिक जागरण’’ अखबार की एक रिपोर्ट में श्री ओमप्रकाश तिवारी ने सन् १५५६ से लेकर अब तक विश्वभर में आए भूकंपों के आंकड़े प्रस्तुत किए हैं और यह भी बताया है कि कभी—कभी इन भूकम्पों के पूर्व लगाए जाने वाले पूर्वानुमान भी सही निकले हैं।
जैसा कि सन् १९७५ में चीन के एक शहर हाइचेंग में भूकम्प का पूर्वानुमान हो जाने से कुछ घंटे पहले शहर खाली करा लिया गया था, जिससे लाखों लोग मरने से बच गए थे लेकिन वहाँ उससे पहले भी कई बार शहर खाली कराया गया था, तब भूकम्प नहीं आया था। अपनी खोजों के आधार पर कुछ सर्वेक्षणों ने बताया है कि भूकम्पनीयता के अनुसार भारत दशवें स्थान पर आता है। यहाँ १८९७, १९०५, १९३४ एवं १९५० में चार भयंकर भूकम्प आ चुके हैं।
इनके अतिरिक्त सन् १९९३ के लातूर और सन् १९९७ के जबलपुर भूकम्पों को अब तक भी महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश की जनता भुला नहीं पाई है पुनश्च २९ अप्रैल के भूकम्प ने हिमालय क्षेत्र को दबोचने का प्रयास करके सभी को जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित करा दिया है। भूकम्प के कई वैज्ञानिक कारणों में एक प्रबल कारण और भी है जिसे किसी अन्वेषक ने महत्त्व प्रदान नहीं किया है कि देश में मूक पशुओं की हिंसा के ताण्डव नृत्य ने धरती माता के सुख—चैन को छीनकर उसे कम्पित होकर ज्वालामुखी और बाढ़ आदि के रूप में प्राकृतिक विपत्ति लाने को मजबूर कर दिया है।
जरा तुलना करें एक माँ की व्यथा से— अभी कुछ दिन पूर्व ही एक घटना घटी कि एक माँ के पुत्र और पौत्र की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई। यूँ तो उस परिवार के ऊपर इस घटना से मानों विपत्ति का पहाड़ ही टूट पड़ा था किन्तु माँ का रोम—रोम उस दिन से इतना प्रकम्पित हो गया कि वह छह माह के अन्दर ही भयंकर रोग से ग्रसित होकर मरण को प्राप्त हो गई।
ऐसी एक नहीं अनेकों घटनाएँ रोज घटित होती हैं जिसमें सन्तानों के वियोग में माताएँ विक्षिप्त, पागल, रोगग्रस्त एवं मरणासन्न तक की स्थिति में आ जाती हैं और इससे विपरीत सुखसम्पन्नता से युक्त परिवार की माताएँ खुश और स्वस्थ अवस्था में देखी जाती हैं। सन्तान को जन्म देने वाली माता के समान ही धरती को भी ‘‘माता’’ की संज्ञा प्राप्त है।
जिस भूतल पर हम सभी निवास करते हैं उसे ‘‘भारतमाता’’ कहकर पुकारा जाता है और उसी माता के सीने पर प्रतिदिन लाखों बेकसूर पशु—पक्षियों की निर्मम हत्या हो रही है। अब आप तुलना करें एक माँ की ममता से धरती माता के कष्टों की जो अपने असंख्य निर्दोष पुत्रों की हत्या प्रतिदिन देख रही है।
मानसिक पीड़ा से जब उसका रोम—रोम प्रकम्पित हो जाता है तभी वह हिल जाती है और धरती भूकम्प—भूचाल आ जाता है जिससे दुष्ट प्रकृति मानव को गम्भीर हानियाँ उठानी पड़ती हैं। धरती माँ का वही कष्ट वैज्ञानिक पद्धति में भी निमित्त बन जाता है क्योंकि उसकी स्थिरता में भी दु:ख की पराकाष्ठा से विचलितपना आता है इसीलिए उसके भीतर दरारें पड़ जाती हैं और भूगर्भ की प्लेटें सरकने के कारण धरती की ऊर्जा भूकम्प के रूप में निकलती है।
ये भूकम्प जब ज्वालामुखी का विकराल रूप धारण करके अग्नि उगलते हैं तो समझना चाहिए कि धरती माँ का क्रोध भीषण चीत्कार करता हुआ व्रूरकर्मा मानवों को जलाकर भस्म कर देना चाहता है और महासागरों से उत्पन्न जिन भूकम्पीय तरंगों की भूकम्पी सिंधु के नाम से जाना जाता है वे धरती माँ के दु:खी अश्रु हैं जो रो—रोकर अपनी करूण कथा का बखान करते हैं।
कैसे रोका जा सकता है इन प्राकृतिक आपदाओं को— कुल मिलाकर जब तक धरती पर हिंसा का ताण्डव नृत्य चलता रहेगा तब तक भूकम्प, ज्वालामुखी फटना तथा बाढ़ आदि की दुर्घटनाओं पर रोक लग पाना अत्यन्त कठिन बात है। इस विषय में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का कहना है कि पूरे देश की धर्मप्रेमी अहिंसक जनता जगह—जगह सामूहिक रूप में विश्वशांति महायज्ञ, शांतिमंत्र, पूजा विधान आदि के कार्यक्रम आयोजित करें ताकि हिंसाप्रेमियों को कुछ सद्बुद्धि प्राप्त हो और धरती के प्राकृतिक उपद्रवों से बचाव हो सके।
प्राचीन कथानकों के अनुसार भी धार्मिक अनुष्ठानों के बल पर अकालमृत्यु वगैरह संकटों पर विजय प्राप्त की जाती थी और वर्तमान युग का भी एक जीवन्त उदाहरण है कि— २५ अक्टूबर १९९६ का दिन महाराष्ट्र में भीषण तूफान का पूर्वघोषित हुआ था अत: वहाँ की सरकार एवं प्रशासन ने उस दिन मुम्बई में समस्त वाहनों पर रोक लगा दी, सरकारी छुट्टी घोषित कर दी और सभी को अपने—अपने घरों से बाहर निकलने को मना किया।
उन दिनों पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी संघ सहित महाराष्ट्र के मांगीतुंगी (जिला—्नाासिक) सिद्धक्षेत्र में विराजमान थीं, उन्होंने १६ से २६ अक्टूबर तक कल्पद्रुम महापूजा विधान का आयोजन करवाया थां उसमें भक्तों द्वारा किए गए सवा लाख मंत्रों का प्रभाव पूरे महाराष्ट्र प्रदेश में फैला और पूर्वघोषित तूफान अंशमात्र भी नहीं आया।
इसी प्रकार से उपुर्यक्त भविष्यवाणी को भी आप अपने रक्षामंत्रों से पूर्णतया रोक सकते हैं। इसके साथ—साथ जम्बूद्वीप पूजाञ्जलि नामक जिनवाणी में प्रकाशित (पृ. १९४ पर) शांतिधारा भी प्रतिदिन मंदिर में की जावे, उसका गन्धोदक घर—घर में छिड़का जाए तो भूकम्प, अग्निकाण्ड, गैसकाण्ड आदि अनेक उपद्रव टल जाएंगे क्योंकि उस शान्तिधारा में वर्तमान की दुर्घटनाओं के निवारण हेतु भगवान से प्रार्थना करके विश्वशांति की भावना भरी हुई है। भारत की वसुन्धरा पर आज भी जैन हिन्दू आदि अनेक सम्प्रदाय के तपस्वी सन्त अपनी तपोसाधना में लवलीन हैं।
प्राणीमात्र पर करूणा जिनका प्रमुख लक्ष्य है, परोपकार जिनकी वाणी का मुख्य उद्देश्य है, उनकी सत्संग सभाओं में भाग लेकर आप अपना कल्याण करें और अपने एवं उनके अहिंसात्मक क्रियाकलापों से देश की रक्षा का प्रयास करें यही हार्दिक भावना है।