आज हमारे समाज में भ्रूण हत्या एक आम बात हो गई है। इस देश की लाखों मातायें अपने पेट में पल रही बालिका शिशु की अपने हाथों से भ्रूण हत्या करती है, करवाती है। गर्भपात नाम का यह संक्रामक रोग हमारे समाज की माताओं को भी लग गया है। आज घर—घर में बूचड़खानें खुले हैं कोई घर ऐसा नहीं बचा है जहां एक या दो या इससे अधिक गर्भपात नहीं करवाये गये हैं। भ्रूण हत्या क्यों होती है ? मानव क्या चाहता है कि भू्रण को समाप्त करने से हमारा जीवन सुखी रहेगा। लड़की होने से क्या उसके जीवन में संकट आ जायेगा, वह दु:खी हो जायेगा? यह सब कोरी कल्पना है। यह मनुष्य की एक विकृत मानसिकता है। आजकल समाज में इस विकृत मानसिकता के शिकार बहुत लोग हो रहे हैं। आये दिन सरकारी अस्पतालों एवं निजी चिकित्सालयों में देखने को मिलता है कि पैसे के लोभ में अच्छे सुशिक्षित डाक्टर एवं नर्सें यह घृणित कार्य कर रहे हैं। सबसे बड़ी गलती तो उन मां—बाप की होती है जो अपनी ही संतान को जन्म लेने के पहले पैसे देकर उसकी हत्या करवा देते हैं। संसार में आने के पहले ही नष्ट करवा देते हैं और इससे पहले तो उस मां को सोचना चाहिए जो एक नारी है। इसे वात्सल्य और ममता की देवी कहा जाता है। अपनी ही संतान, अपनी ही नस्ल एवं अपने ही जिगर के टुकड़े को नष्ट करवा रही है। कभी यह सोचा है कि आखिर इस अबोध बच्ची का क्या दोष है ? इसलिये कि वह एक लड़की है ? लड़की का प्रेम माता—पिता में लड़के की अपेक्षा अधिक रहता है। बालक प्रकृति की गोद में प्रस्फुटित नन्ही मासूम कली है जिसे हमें फूल की तरह खिलाना है ताकि उसकी खुशबू से हमारा सारा चमन महक सके। ये नन्हें सुकोमल बच्चे तो उस गीली माटी की तरह हैं जिन्हें हम चाहे जैसा गढ़ सकते हैं। भ्रूण हत्या मातृत्व के माथे पर एक ऐसा कलंक है जो नारी की करूणा और संवेदनशीलता को भीतर ही भीतर खोखला किये जा रही है। मातृरूपी जगत जननी नारी आज दिन के उजाले में अपने ही गर्भस्थ कन्या शिशु के खून से अपने हाथों को रंग रही है। कई बार तो गर्भापात करवाते समय इतना खून बह जाता है कि जान बचाने के लिए अतिरिक्त खून चढ़ाना पड़ता है। यह कैसा पुत्र मोह जो अपनी जान से भी प्यारा है। बेटे की चाहत का मीठा जहर कहीं जिंदगी कर कहर न बन जाए। फिर भी संतान के रूप में औरत की पहली पसंद बेटा ही है। पुत्र उत्पन्न होगा, कमायेगा—अर्थव्यवस्था को सहारा देगा। पुत्री उत्पन्न होगी तो अपने साथ घर की लक्ष्मी भी ले जाएगी। सोनोग्राफी का विकास मात्र मानव कल्याण के लिए किया गया था ताकि अजन्मे शिशु की विकृतियों को जानकर उनका उचित उपचार किया जा सके, किन्तु मानव मन की विकृतियों ने इस पद्धति को व्यापार बना डाला और हर गली में स्थित नर्सिंग होम में भू्रण हत्या का निर्मम व्यापार सुनियोजित तरीके से होने लगा और भ्रूण परीक्षा प्रणाली में बलि का बकरा बन रही हैं बेचारी कन्याएं। कभी यह सुनने में नहीं आता कि गर्भस्थ शिशु लड़का था और उसकी गर्भ में हत्या करवा दी हो। भू्रण हत्या एक उपमृत्यु है। मरण के किसी संस्कार से भ्रूण वंचित रह जाता है। यहीं एक मरण है (गर्भपात) जिस पर शोक प्रकट नहीं किया जाता है वरन प्रसन्नता ही प्रकट की जाती है। इस युग की देखो चतुराई, हत्या करके कहे सफाई। यह हत्या नहीं यह तो पेट की सफाई है। पिछले दस—बीस वर्षों में जितने भी गर्भपात हुए हैं उनमें ९० प्रतिशत कन्याएं थी। क्या अंतर रह गया है १६ वीं शताब्दी के काले युग में और आज के वैज्ञानिक युग में । तब पैदा होते ही लड़कियों का गला घोंट दिया जाता था और आज पैदा होने से पूर्व ही मां की कोख में मौत की नींद सुला दिया जाता है। भारत में गर्भापात के कारण ५० लाख अजन्में बच्चे माताओं द्वारा स्वयं ही मार दिये जाते हैं। हाल ही में गर्भपात के समय पांच लाख माताओं की मृत्यु हुई। गर्भपात के कारण बहुत सी मातायें दुबारा मां बनने से वंचित रह गई। वैसे देखा जाए तो अप्रत्यक्ष रूप से बालिका शिशु हत्या की मंडी में मां ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। मां के जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं— पुत्र के लिये ममता की छांव और पुत्री के लिये मौत का पैगाम। बच्चे की तनिक सी पीड़ा से जिस मां का ममता भरा दिल आहत हो जाता है वही मां आज इतनी पाषाण हृदय कैसे हो गई । एक मां जब छह महीने के बालक की मृत्यु होने पर कितने करूण रूदन करती है और वही मां जब पेट में पल रही शिशु की हत्या डाक्टरी शस्त्रों से करवाती है तो कितनी खुश होकर अस्पताल से लौटती है। समझ से बाहर की बात है। इच्छित संतान आधुनिक शिष्ट और सभ्य समाज की पहचान बन गई है। अजन्मी बालिका शिशु का वध, आज के सभ्य समाज का फैशन बन गया है। नारी की आंखों में जो वर्षों की दास्ता का धुंधलापन छाया है वह उसे पुत्र मोह की चाह में कुछ देखने को नहीं देता । अर्थात् कुदरत की संरचना के खिलाफ यह लड़ाई— यह अन्याय कब तक रूकेगा— यह प्रश्न आज हवा में झूल रहा है। एक बात और बेटी को जन्म देने व जिंदा रखकर पाल—पोसकर बड़ा करना जिन लोगों को नागवार लगता है वे बहू की इच्छा किस अधिकार से करते हैं। अपने घर में तो लड़की जन्म ही न ले और दूसरों के घर में पली पलाई बेटी बहू के रूप में मिल जाए। अगर इस तरह से बालिका शिशु हत्याओं का कत्लखाना इसी रफ्तार में चलता रहा तो लक्ष्मी बहू और पुत्र रत्न को जन्म देने वाली माताएं क्या स्वर्ग लोग से उतर कर पृथ्वी पर आएंगी। हमारा इतिहास इस बात का साक्षी है कि पूर्व में भारत में बहुत सी महिलाओं ने पुरूषों से अधिक ख्याति प्राप्त की है। जैसे लक्ष्मीबाई, जीजाबाई, मीराबाई आदि ये सब इसी युग की महिलाएं हैं, मगर उस समय भ्रूण हत्या होती तो शायद ही ऐसी कर्मयोगी महिलाएं जन्म लेती जिसका नाम बड़े गर्व एवं सम्मान से लेते हैं। इसीलिए सभी माताओं —बहनों एवं भाईयों से हमारा विनम्र निवेदन है कि भ्रूण हत्या को रोकने के लिए सभी वर्गों के लोग सामने आयें और इस भयानक सामाजिक बुराई को समूल नष्ट करवाने में एक दूसरे की मदद करें।