यह सार्वभौम सत्य है कि संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दु:ख से भयभीत है—‘जे त्रिभुवन में जीवन अनन्त: सुख चाहे दुखतैं भयवन्त।’ सुखप्राप्ति के उपाय के विषय में विषमता दृष्टिगोचर होती है। जड़वादी भौतिक सामग्री की उपलब्धि में सुख मानता है किन्तु अध्यात्मवादी भौतिक सामाग्रीजन्य सुख को सुखाभास समझकर इच्छाओं के अभाव में स्थायी सुख स्वीकार करता है। सुप्रसिद्ध मनौवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने सुखप्राप्ति का एक सूत्र बतलाया है— Achievement (लाभ)/ Expectation (आशा) Satisfaction (संतुष्टि) अर्थात् लाभ अधिक हो तथा आश कम हो तो सुख की प्राप्ति होती है और आशा अधिक हो तथा लाभ कम हो तो दुख मिलता है। इस सूत्र का सार यह है कि मनुष्य को आशायें कम करके सुख प्राप्त करना चाहिए। जब आशायें शून्य हो जाती हैं। परमानन्द की प्राप्ति होती है। जैनाचार्यों का भी यही उद्घोष है—
‘आशागर्त: प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम्। कस्य कियदायाति वृथा का विषयैधिता।।’
वादीभिंसह सूरि की तो स्पष्ट अवधारणा है कि आशा रूपी समुद्र की पूर्ति आशाओं की शून्यता से संभव है। भारतीय मनीषियों ने आशाशून्यता या आशान्यूनता की अवस्था पाने के दो साधन प्रतिपादित किये हैं—साधना (अभ्यास) और वैराग्य। इन दोनों से प्राणी प्रतिकूल परिस्थिति में भी सुख प्राप्त कर सकता है। मर्हिष पतंजलि द्वारा र्विणत मन को वश में करने के लिए चर्तुिवध साधनों में मंत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत की आध्यात्मिक परम्परा में गुणी की पूजा उसके गुणों की उपलब्धि के लिए की जाती है—‘वन्दे तद्गुणलब्ध्ये।’ इसका प्रमुखतम उपाय मन्त्र साधना है, जो एक क्रियात्मक विज्ञान है तथा जिसके माध्यम से साधक साध्य से मिलकर साध्यगत गुणों को पा लेता है। मन्त्र साधना से दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से छुटकारा पाया जा सकता है। जैनधर्म के मूलमन्त्र णमोकार में जिन पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है वे या तो आशाशून्य अवस्था को प्राप्त है या फिर आशान्यूनतमा से क्रमश: आशा शून्यता की ओर अग्रसर हैं। विलियम जेम्स के शब्दों में कहा जाय तो वह या तो पूर्ण सुखी है अथवा पूर्ण सुखी बनने के मार्ग पर अग्रसर है। अत: उनके मनन से साधक भी वैसा ही बन सकता है। मन्त्र शक्ति सर्वसम्मत है। जैन परम्परा में इसे पौद्गलिक माना गया है। गोम्मटसार जीवकाण्ड की जीवतत्वप्रदीपिका टीका में कहा गया है—
‘अचिन्त्यं हि तपोविद्यामणिमन्त्रोषधिशक्त्यतिशयमाहात्मयं दृष्टत्वभावत्वात्।
स्वभावोंऽतर्कगोचर: इति समस्त वादिसम्मतत्वात्।
कालिदास ने इसी तथ्य को ‘अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव:’ कहकर प्रकट किया है। यद्यपि जैनधर्म में मन्त्र आदि की सिद्धि का लोकमार्ग में निषेध किया है तथा मन्त्रों से आजीविका करने वाले साधु को बहु प्रताड़ित भी किया है। रयणसार में कहा गया है कि जो मुनि ज्योतिषशास्त्र, अन्य विद्या या मन्त्र—तन्त्र से अपनी आजीविका करता है, वैश्यों के समान व्यवहार करता है और धनधान्यादि ग्रहण करता है, वह मुनि समस्त मुनियों को दूषित करने वाला है। तथापि परिस्थितिवश हमें मन्त्र प्रयोग की अनुमति भी दी गई है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में कहा गया है कि जिन मुनियों को चोर से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुंचा हो, नदी के द्वारा रुक गये हों तो विद्या मन्त्र आदि से उसे नष्ट करना वैयावृत्ति है। संसारी जनों के निमित्त पूजा विधान आदि धार्मिक तथा गर्भाधानादि लौकिक क्रियाओं के लिए महापुराण आदि में विशिष्ट—विशिष्ट मन्त्रों का निर्देश किया गया है। णमोकार मन्त्र दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य है। धवलाकार इसे निबद्धमंगल मानते हैं। निबद्धमंगल का अर्थ है—ग्रंथकार द्वारा रचित। इस आधार पर इस मंत्र को धवला प्रथम खण्ड के कत्र्ता आचार्य पुष्पदन्त की रचना मानना अभीष्ट प्रतीत होता है। यह भी संभव है कि आचार्य पुष्पदन्त ने इसे अन्रूत्र से लेकर उद्धृत किया हो। श्वेताम्बर ग्रंथ महानिशीथ में कहा गया है कि पंचमंगलसूत्र अर्थ की अपेक्षा तो भगवान् द्वारा रचा गया है, किन्तु सूत्र की अपेक्षा यह गणधर की रचना है। हाथीगुफा (उड़ीसा) शिलालेख में ‘णमो अरहंताणं सिधाणं’ पाठ भेद पाया जाता है। यह शिलालेख किंलग नरेश खारवेल का है। कुछ लोग आजकल ‘अरहंताणं’ पाठ को अशुद्ध बताकर केवल अरिहंताणं पाठ को शुद्ध घोषित कर रहे हैं। यह मूल आगम का अवर्णवाद है, क्योंकि हमारे दिगम्बर आगमों में अरिहंताणं और ‘अरहंताणं’ दोनों ही पाठों का खूब उल्लेख हुआ है। कषायपाहुड़ महाबन्ध, मूलाचार, तिलोयपण्णत्ति धवला आदि में दोनों ही पाठ प्राप्त होते हैं। हेमचन्द्राचार्य तो प्राकृत व्याकरण के अनुसार अरहंत, अरिहंत और अरूहंत तीनों पाठों का सबहुमान उल्लेख करते हैं। ‘उच्चार्हति ८/२/१११ सूत्र की स्वोपज्ञवृत्ति में वे लिखते हैं—अर्हत् शब्दे हकारात् प्राग् उदितावुद भवन्ति च। अरहो अरिहो रूपमरूहों चेति सिद्धयति। अरहंतो, अरिहंतो, अरूहंतो चेति पठ्यते। हाथीगुफा शिलालेख में सिद्धाणं के स्थान पर सिधाणं का प्रयोग भी अशुद्ध नहीं अपितु स्वाभिप्राय है। सिद्धाणं के सि को संयुक्ताक्षर के पूर्व होने पर भी हस्व ही माना गया है, क्योंकि यहाँ स्वराघात नहीं है। सिद्धाणं के स्थान पर सिधाणं का लेखन उच्चारणगत भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। आजकल कुछ लोगों ने आगमों की शुद्धि का एक अभियान सा चलारखा है तथा पश्चाद्वर्ती व्याकणों के आधार पर कुन्दकुन्द आदि की भाषा को शौरसेनी प्राकृत जोर—शोर से घोषित किया जा रहा है। यह दिग्मबर परम्परा को पीछे ढकेलने वाला तथा आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार पाणिनि आदि के लौकि व्याकरणों को आधार बनाकर वैदिक संस्कृत के परम्परागत मूलपाठों में परिवर्तन न करे उनकी पूर्ण सुरक्षा की गई है, उसी प्रकार दिगम्बर जैन आगमों की भाषा में भी व्याकरण को आधार बनाकर आम्नाय के मूल पाठों में परिवर्तन करना हितकर नहीं आगमों में आर्ष प्रयोगों की बहुलता होती है। अत: उन्हें किसी एक प्राकृत का मानना ही समीचीन नहीं है। हमारी परम्परा तो मूल भाषा को ‘दश अष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत स्वीकार करती है। सुप्रसिद्ध प्राकृतवेत्ता पिशेल जैन आगमों में शौरसेनी की बहुलता तथा अर्धमागधी आदि की प्रवृत्तियों के समावेश के आधार पर ही इस जैन शौरसेनी जैसे पृथक् नाम से अभिहित करते हैं। यदि दिगम्बर परम्परा की मूल भाषा शौरसेनी स्वीकार कर ली जाय तो ‘नमा’ पाठ स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि सौरसेनी में तो आदि का न अपरिवर्तननीय रहता है। जबकि यह सुविदितथ्य है कि दिगम्बर परम्परा णमों पाठ तथा श्वेताम्बर परम्परा नमो पाठ मानती है। णमोकार मन्त्र में पंच परमेष्ठियों में सर्वप्रथम अरहंतों को नमस्कार किया गया है जो सर्वथा वैज्ञानिक है। क्योंकि सिद्धों का ज्ञान हमें अरहंतों के माध्यम से ही होता है। धवला के आदि में अरहन्तों को नमस्कार करने के जो कारण कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं— १. अरहंतों के द्वारा ही सिद्धों का श्रद्धान होता है। २. आप्त आगम और पदार्थों का परिज्ञान अरहंतों के माध्यम से ही होता है। ३. अरहंतों के प्रति शुभ पक्ष कल्याण का उत्पादक है। ४. इस मन्त्र में वस्तुत: गुणी को नमस्कार न करके गुणां को नमस्कार किया गया है और गुणों की अपेक्षा पाँचों परमेष्ठी भिन्न नहीं है। ५. अरहंत आप्त है। उनकी श्रद्धा से अन्य में श्रद्धा होती है। अत: अरहंतों को प्रथम नमस्कार किया गया है। चत्तारि दण्डक में पण्डित साधु शब्द आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों का उपलक्षण है। अत: तीनों को पृथक्—पृथक् उल्लिखित नहीं किया गया है। पंचम परमेष्ठी साधु के पूर्व जुड़ा सर्व पद साभिप्राय है। मूलाचार में कहा गया है कि निर्वाण के साधन भूत मूलगुण आदि में सर्वकाल अपने आत्मा को जोड़ते हैं और सब जीवों में समभाव को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते हैं। धवलकार ने णमोकार मन्त्र में पठित सर्व और लोक पदों को अन्त दीपक मानते हुए उनका सबके साथ योग अभीष्ट माना है। अनगार धर्मामृत में णमोकार मंत्र की उच्चारण विधि का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार प्रथम भाग में णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं दो पदों का, द्वितीय भाग में णमों आयरियाणं णमो उवज्झायाणं दो पदो का तथा तृतीय भाग में णमो लाए सव्वसाहूणं पद का उच्चारण एवं ध्यान करना चाहिए। इस मंत्र में कुल पांच पद पैंतीस अक्षर तथा अट्ठावन मात्रायें हैं। णमोकार मंत्र का गाथा की तरह उच्चारण भी किया जा सकता है। किन्तु यह गाथा के प्रचलित सात प्रकारों से भिन्न है। क्योंकि गाहू में ५४, गाथा एवं विगाथा में ५७, उद्गाथा में ६० गाहिनी एवं सिंहिनी में ६२ तथा स्कन्धक में ६४ मात्राओं का विधान है, जबकि सिद्धाणं के सकरोत्तरवर्ती इकार को हृस्व (स्वराघात न होने से) मानने पर इस मन्त्र में ५७ मात्रायें होती है। अत: यह एक मन्त्र है, अत: इसकी आनुपूर्वी में किंचित् भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। ‘ओम्’ बीजाक्षर के साथ पाठ भले ही समीचीन हैं, किन्तु अन्य रूपों में तोड़ मरोड़ कर मन्त्र का पाठ साधनापद्धति के अनुकूल नहीं है। अत: जहाँ तक संभव हो मन्त्र को न्यूनाक्षर या अधिकाक्षर नहीं पढ़ना चाहिए।