-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
मंगलं भगवानर्हन्, मंगल वृषभेश्वर:।
मंगलं सर्वतीर्थेशा, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।१।।
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्या, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।२।।
नम: ऋषभदेवाय, धर्मतीर्थ प्रवर्तिने।
सर्वा विद्या: कला यस्मा-दाविर्भूता महीतले।।३।।
तीर्थंकर त्रय काल के, कहे अनंतानंत।
तिन्हें अनंत नमोऽस्तु कर, पाऊं सौख्य अनंत।।४।।
द्वादशांगवाणी विमल, त्रैकालिक आनन्त्य।
तिन्हें अनंत नमोऽस्तु कर, पाऊं भवदधि अन्त्य।।५।।
त्रैकालिक गणधर गुरू, कहे अनंतानंत।
तिन्हें अनंत नमोऽस्तु कर, पाऊं सौख्य अनंत।।६।।
सूरी, पाठक, साधुगण, त्रैकालिक आनन्त्य।
तिन्हें अनंत नमोऽस्तु कर, पाऊं भवदधि अन्त्य।।७।।
श्री इंद्रभूति गणधर-गौतमस्वामी की वाणी पाक्षिक प्रतिक्रमण में ‘‘सुदं मे आउस्संतो!’’ दो बार आया है। एक बार मुनिधर्म के प्रकरण में पुनश्च श्रावकधर्म के ग्यारह प्रकार की प्रतिमाओं तक के वर्णन में है।
मुनिधर्म के वर्णन के प्रकरण में श्री गौतमस्वामी जो ‘आगदि-गदि चवणोववादं….। आदि कहते हैं जिन्हें कि-भगवान महावीर स्वामी प्रत्यक्ष देख रहे हैं-जान रहे हैं तथा च—श्री महावीर स्वामी जो तत्काल में यहाँ विहार कर रहे हैं।
हे आयुष्मन्तों ! मैंने उन प्रभु महावीर स्वामी से सुना है। आगे स्वयं श्री गौतमस्वामी ने इसी पाक्षिक प्रतिक्रमण में कहा है—
जो सारो सव्वसारेसु, सो सारो एस गोयम!
सारं झाणं त्ति णामेण, सव्वबुद्धेिंह देसिदं।।
कितनी सुन्दर व स्पष्ट पंक्तियाँ हैं कि हे गौतम! संसार में सभी सारों में भी ‘सार’ है तो वह ‘ध्यान’ इस नाम से है ऐसा सभी सर्वज्ञ भगवंतों ने कहा है।
षट्खण्डागम ग्रंथ-धवला टीका पुस्तक १३ में श्री भूतबलि आचार्य ने केवली भगवान का लक्षण करते हुए ‘‘सुदं मे आउस्संतो!’’ न कहकर इन्हीं सभी विषयों को लिया है जो कि इसी ग्रंथ में संकलित है। इस सूत्र की धवला टीका भी विस्तृत है जिसे मैंने ज्यों की त्यों दे दिया है।
पुनश्च महापुराण के कर्ता श्री जिनसेनाचार्य ने भी महापुराण—आदिपुराण में—
श्रुतं मया श्रुतस्कंधादायुष्मन्तो महाधिय:।
निबोधत पुराणं मे, यथावत् कथयामि व:।।
यहाँ पर िंचतन का विषय है कि जिनसेन स्वामी श्री गौतमस्वामी के मुख से कहलाते हुये भी यह कहते हैं कि—
हे महाबुद्धिधारी आयुष्मंतों ! मैंने ‘श्रुतस्कंध’ से सुना है। यहाँ यह नहीं कहते हैं कि मैंने साक्षात् विहार करते हुये केवली भगवान श्री महावीर स्वामी से सुना है।
इससे आचार्य श्री जिनसेन स्वामी की सत्यवादिता, निश्छलता प्रगट हो रही है।इस ग्रंथ में मैंने सर्वप्रथम साक्षात् भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में बैठकर सुनने वाले श्री गौतमस्वामी के मुख से निकली वाणी को लिया है, पुन: श्री धरसेनाचार्य, जो कि अग्रायणीयपूर्व के कुछ अंश के ज्ञाता थे, उनके शिष्य श्री भूतबलि आचार्य द्वारा रचित षट्खंडागम ग्रंथ से लिया है। अनंतर महापुराण के कर्ता श्रीजिनेसन स्वामी के वचनामृत को लिया है।यह ‘‘सुदं मे आउस्संतो!’’ ग्रंथ, जो कि मात्र मेरे द्वारा संकलित है, अतिशय प्रमाणीक है, महान् है, चतुर्थकालीन वाणीरूप है।इसका स्वाध्याय करके हम और आप श्री भगवान महावीर स्वामी की वाणी का, उनके दिव्यध्वनि के साररूप अंश का अमृतपान करके अपनी आत्मा को पवित्र पावन करें, यही मेरी मंगल भावना है क्योंकि ‘‘नद्या नवघटे जलं’’ के अनुसार द्वादशांगरूपी महानदी के अंशरूप जल को अपनी बुद्धिरूपी कटोरी में भरकर उसका पान करके हम और आप अपने अनंत संसार का अंत करते हुए आत्मिक सुख-शांति का भी अनुभव करेंगे, यह निश्चित है, इसमें कोई संदेह नहीं है।पुनश्च-श्री भगवान महावीर के श्रीचरणों में अनंत-अनंत बार वंदन करते हुए श्री गौतम स्वामी के चरणों में श्री धरसेनाचार्य आदि से लेकर श्री जिनसेन आचार्य आदि के चरणों में भी कोटि-कोटि नमन है।