अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।१।।
मंगलं जिनधर्म: स्यात् जिनागमाश्च मंगलम्।
मंगलं जिनचैत्यानि, चैत्यालयाश्च मंगलम्।।२।।
नवधा भक्तितो वंद्या, इमे श्रीनवदेवता:।
नवकेवललब्ध्यै स्यु: कुर्वन्तु भुवि मंगलम्।।३।।
श्रीतीर्थकृन्मुखोद्भूतां, वाणीमाश्रित्य भाति य:।
पूर्वाचार्यैर्लिखितोऽसा – वागमो दर्पणायते।।४।।
आगमश्चक्षुरस्यासा – वागमचक्षुरुच्यते।
तान्नत्वा सर्वसाधूंश्च-याचेऽहं तद्गुणान् मुदा।।५।।
अर्थ-अर्हंत परमेष्ठी मंगल करें, सिद्ध परमेष्ठी मंगल करें, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी और साधु परमेष्ठी भी हमारे लिए मंगलकारी होवें।।१।।
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित धर्म मंगलकारी होवे, जैन आगम मंगलकारी होवें, जिनप्रतिमाएं मंगल करें एवं जिनचैत्यालय मंगलकारी होवें।।२।।
ये श्रीनवदेवता नवधा भक्तिपूर्वक-मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणित करने पर नव प्रकार से वंदनीय हैं। ये नवदेवता हमें नव केवललब्धि प्रदान करें और सारे जगत् के लिए मंगलकारी होवें।।३।।
श्री तीर्थंकर भगवान के मुख से उत्पन्न वाणी का आश्रय लेकर जो शोभित हो रहा है और जो पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित है वह आगम दर्पण के समान आचरण करता है-दिख रहा है।।४।।
आगम ही है चक्षु जिनके वे आगमचक्षु कहलाते हैं। ऐसे उन सभी आगम- चक्षु साधुओं को नमस्कार करके हम हर्षपूर्वक उनके गुणों की याचना करते हैं।।५।।