-उपेंद्रवज्राछंद-
संसारवार्धौ विनिमग्नजंतून्, उद्धृत्य यो मोक्षपदे धरन् हि।
कृपापरस्तं प्रभुकुंथुनाथं, नमामि भक्त्या परया मुदा च।।१।।
-शंभु छंद-
जितने भी पुद्गल इस जग में, सबको भोगा छोड़ा मैंने।
अब सब उच्छिष्ट सदृश मुझको, हा फिर भी ममता है इनमें।।
नभ के प्रत्येक प्रदेशों को, मैं जन्म—मरण से पूर्ण किया।
त्रिभुवन में जी भर घूम चुका, निंह कुछ भी क्षेत्र अपूर्ण रहा।।१।।
जो हुए अनंतानंतों ही, उत्सर्पिणि—अवसर्पिणी समय।
उन सबमें जन्म—मरण करता, आया निंह छोड़ा एक समय।।
चारों गतियों की सब आयू, भोगी है बार अनंतों मैं।
ग्रैवेयक ऊपर नहीं गया, बस इतना बचा दिया मैंने।।२।।
सब मिथ्या अविरति भावों में, क्रोधादि कषाय विभावों में।
इन दुर्भावों में रहा किन्तु, निंह लिया अपूर्व भाव मैंने।।
इस तरह पंच परिवर्तन से, परिवर्तन करता आया हूँ।
मैं काल अनादी से अब तक, निंह िंकचित् भी सुख पाया हूँ।।३।।
अब काललब्धि को पाकर मैं, भव भ्रमणों से अकुलाया हूँ।
निज शुद्ध स्वभाव प्रगट करके, स्थिर पद पाने आया हूँ।।
हे कुंथुनाथ! मैं नमूं तुम्हें, अब दया करो भव फेर हरो।
तुम ही हो शरणागत रक्षक, अब मेरी बार न देर करो।।४।।
यह हस्तिनागपुर तीर्थ बना, प्रभु सूरसेन के घर जन्में।
श्रीकांता माता मुदित हुईं, जब गोद में खेला था तुमने।।
श्रावण वदि दशमी गर्भ तिथी, वैशाख सुदी एकम जनि१ की।
फिर वही तिथी दीक्षा दिन की, सित चैत्र तृतीया केवल की।।५।।
इक सौ चालिस कर देह तुंग, आयू पंचानवे सहस बरस।
अज लांछन कनक वर्ण सुन्दर, तुम कामदेव चक्रेश्वर प्रभु।।
बैसाख सुदी एकम् तिथि में, सम्मेदाचल से मुक्ति वरी।
मुझ ‘‘ज्ञानमती’’ वैâवल्य करो, बस यही प्रार्थना है मेरी।।६।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।