-उपेंद्रवङ्काा छंद-
य: कर्ममल्लं प्रतिमल्ल एव, श्रीमल्लिनाथो भुवनैकनाथ:।
संसारवल्लिं च लुनीहि मे त्वं, मन: प्रसत्तिं कुरु मे समंतात्।।१।।
-शंभु छंद-
जिन काम मोह यमराज मल्ल, तीनों को जीत विजेता हैं।
वे मल्लि जिनेश्वर मेरे भी, दुष्कर्म मल्ल के भेत्ता हैं।।
मिथिला नगरी के कुंभराज, औ प्रजावती मंगलकारी।
शुभ चैत्र सुदी एकम के दिन, था हुआ गर्भ मंगल भारी।।२।।
सौ हाथ देह कांचन कांती, थिति पचपन सहस वर्ष जानो।
मल्लिका कुसुम सम सुरभित तनु, कलशा लाञ्छन से पहचानो।।
फाल्गुन सित पंचमि तिथि आई, सम्मेदगिरी पर ध्यान धरा।
पंचमगति की लक्ष्मी आई, उसने प्रभु को था स्वयं वरा।।३।।
हे मल्लि प्रभो! मेरे त्रय विध, मल को हरिए निर्मल करिए।
मुरझाई सुखवल्ली मेरी, वचनामृत से पुष्पित करिये।।
मैं परमानंद सुखामृत के, झरने का अनुभव प्राप्त करूँ।
प्रभु शीघ्र हमारे क्लेश हरो, निज का आह्लाद विकास करूँ।।४।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।