जैनधर्म का अनादि मूलमंत्र
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
अरिहंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो। यहां ‘लोए’ और ‘सव्व’ पद अन्त्यदीपक हैं अतः पांचों परमेष्ठियों के साथ इन्हें लगाना चाहिए।
श्री महावीर स्तवन
स्रग्धरा छन्द
श्रीमान् वीरोऽतिवीरः त्रिभुवनमहितः सौख्यराशिर्जिनेन्द्रः।
यो जातः कुण्डलाख्ये भुवि प्रथितपुरे सोऽस्ति सिद्धार्थपुत्रः।।
आषाढे शुक्लषष्ठ्यां सुरनरविनुतो गर्भमायात् जनन्यां।
पित्रोः पूजां विदध्युः किल दिविजगणाः रत्नधारा ववर्षुः।।1।।
चैत्रे शुक्ले जिनेशः त्रययुतदशमे पावने जायतेस्म।
हृद्यैः संगीतवाद्यैः सुरगिरिशिखरे सोऽभिषिक्तः सुराद्यैः।।
मार्गे कृष्णे दशम्यां व्रतगुणमणिभिर्भूषितो जातरूपः।
ध्याने लीनः कदाचित् समदभवकृतस्तूपसर्गस्य जेता।।2।।
राधे शुक्लादशम्यां ग्रसितकलितमाः उद्ययौ ज्ञानसूर्यः।
लोकालोकप्रकाशी ह्यनवधिकिरणैः ध्वस्तमोहांधकारः।।
कृष्णस्याद्ये दिने ते किल नभसि महावीर!दिव्यध्वनिः स्यात्।
त्वत्स्याद्वादामृतं भोः भवगदहरणं देव! अद्यावधीह।।3।।
ऊर्जे कृष्णे निशांते चतुरधिदशमे वासरे मुक्तिमाप्नोत्।
पावापुर्यां च वीरः सहजसुखमयः सप्तहस्तोच्छ्रितोऽसौ।।
कौमार्ये ध्वस्तमारः भुवि किल चरमस्तीर्थकृन्नाथवंशी।
स्वर्णाभो वर्धमानो हतदुरितरविः सिंहचिन्हेन ज्ञातः।।4।।
मातंगो यक्षदेवो जिनवचनरता सात्र सिद्धायिनी च।
ताभ्यां ते पादपद्मं विजितभव! सदा पूजितं विश्ववंद्यं।।
त्रैलोक्येशं जिनं त्वामहमपि सततं सन्मते! वीर! वंदे।
याचेऽहं तत्फलं भोः! जिनवरगुणभृत् संपदं देहि मह्यं।।5।।
(अनुष्टुप् छन्द)
वर्ष – द्वासप्ततेरायुः, त्रिशलानंदनो जिनः।
भक्त्यानिशं स्तवीमि त्वां, ज्ञानमत्यै श्रियै त्वरं।।6।।
अर्थµ श्री अर्थात् अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी से सहित वीर, अतिवीर जिनेन्द्र सम्पूर्ण सुखों की राशिस्वरूप तीनों लोकों में पूज्य हैं। पृथ्वीतल पर ‘‘कुंडलपुर’’ नाम से प्रसिद्ध नगरी में भव्यरूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य, महाराज सिद्धार्थ के पुत्र वे वीर जिनेन्द्र हैं। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी तिथि के दिन माता त्रिशला के गर्भ में तीर्थंकर वीर के अवतरित होने पर स्वर्ग से देवताओं ने वहाँ आकर माता-पिता की पूजा करके रत्नों की धारा बरसाई थी।।1।।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के पवित्र दिवस जब भगवान ने जन्म लिया तब गीत-संगीत आदि के द्वारा खुशियाँ मनाते हुए इन्द्र एवं देवताओं ने सुमेरु पर्वत के शिखर-पाण्डुकशिला पर उनका जन्माभिषेक महोत्सव किया था पुनः मगशिर कृष्णा दशमी के दिन वे महाव्रतरूप गुणमणियों से विभूषित होकर जातरूप-नग्न दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ध्यान में लीन हो गये और किसी समय ध्यान में विघ्न डालने के निमित्त से भव नामक एक रुद्र ने उन पर घोर उपसर्ग किया किन्तु अपने अविचल ध्यान एवं कठोर तपस्या से वीर प्रभु ने उपसर्ग पर विजय प्राप्त कर लिया।
भावार्थ-जन्माभिषेक के बाद इन्द्र ने भगवान के वीर और वर्द्धमान दो नाम रखे थे। संजय-विजय महामुनियों ने ‘सन्मति’ एवं संगम देव ने ‘महावीर’ नाम रखा था। रुद्र ने उपसर्ग विजय के बाद ‘अतिवीर’ (महतिमहावीर) नाम रखा था।।2।।
उपसर्ग विजेता बनकर प्रभु ने वैशाख शुक्ला दशमी तिथि में समस्त पापान्धकार को नष्ट कर असीमित किरणों से समन्वित केवलज्ञान सूर्य को प्रगट कर लिया, जिससे सम्पूर्ण मोहरूपी अंधेरा ध्वस्त हो गया और पूरा लोक-अलोक चराचर दिखाई देने लगा। हे महावीर स्वामी! केवलज्ञान होने के छ्यासठ दिनों बाद श्रावण कृष्णा एकम के दिन आपकी दिव्यध्वनि खिरी थी, तब हे देव! भव्यों के संदेह को हरण करने वाली आपकी जो स्याद्वाद अमृतरूपी वाणी निकली, वह आज तक भी पृथ्वीतल पर प्रवाहित हो रही है अर्थात् आज तक आपका अनेकान्त शासन चल रहा है।। 3।।
सात हाथ ऊँचे शरीर वाले, स्वर्ण वर्ण की कांति के धारक, सिंह चिन्ह से ज्ञात, नाथवंशी, चरमµअंतिम चैबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर कुमारावस्था में ही कामदेव को ध्वस्त करके कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में तथा अमावस के प्रभात में पावापुरी नगरी से मोक्ष धाम को प्राप्त कर सहज सुख में लीन हो गये।। 4।।
हे संसारचक्र के विजेता महावीर भगवन्! आपके जिनवचनों में अनुरक्त रहने वाले आपके शासनदेवता मातंग यक्ष एवं सिद्धायिनी यक्षी सदैव आपके चरणकमलों की पूजा करते हैं, इसलिए हे विश्ववंद्य त्रिलोकीनाथ सन्मति जिनेन्द्र! वीर प्रभो! मैं भी आपसे सतत याचना करता हूँ कि हे नाथ! जिनगुणसम्पत्ति की प्राप्ति का फल प्रदान कीजिए।। 5।।
बहत्तर वर्ष की आयु वाले हे त्रिशलामाता के पुत्र महावीर जिनेन्द्र! मैं ज्ञानमती लक्ष्मी की शीघ्र प्राप्ति हेतु आपका भक्तिपूर्वक सदा स्तवन करता हूँ।
अर्थात् मुझ गणिनी ज्ञानमती ने पूर्ण ज्ञान सहित संपत्ति को प्राप्त करने के लिये भगवान महावीर का यह स्तवन किया है।। 6।।