व्रतविधि- कार्तिक कृष्णा १२ के दिन इन व्रतिकों को एक भुक्ति करना चाहिए। त्रयोदशी को प्रात:काल में शुचिजल से अभ्यंग स्नान (शिर से स्नान) करके नवधौतवस्त्र धारण करना चाहिए। सब पूजाद्रव्य हाथ में लेकर मंदिर में जाकर जिनालय की तीन प्रदक्षिणा देकर ईर्यापथशुद्धिपूर्वक श्रीजिनेन्द्र की भक्ति से वंदना करना, वेदी पर श्री विमलनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा पातालयक्ष और वैरोटी यक्षी सह स्थापित करके उनका पंचामृत से अभिषेक करना। एक पाटे पर क्रम से १३ पान रखकर उस पर अक्षत, फल, फूल रखकर श्री आदिनाथ से विमलनाथ तक १३ तीर्थंकरों की अष्टद्रव्य से अर्चना करना। श्रुत और गणधर उनकी पूजा करके यक्ष-यक्षी की अर्चना करना। क्षेत्रपाल को तैलाभिषेक करके सिंदूर लगाना। उसके आगे पाँच पान रखकर इस पर अक्षत, फल, फूल रखकर गंध, पुष्प की माला, वस्त्र, खोपरे की कटोरी (गरी का गोला आधा लेना), गुड़, लड्डू, वगैरह अर्पण करना। अष्टक, स्तोत्र, जयमाला क्रम से बोलकर यथाविधि अर्चन करना चाहिए। तेल की पाँच-पाँच पूरन पूरी के पाँच नैवेद्य चढ़ाना। बाद में ‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं विमलनाथ तीर्थंकराय पाताल यक्ष वैरोटी यक्षी सहिताय नम: स्वाहा।’’ इस मंत्र से १०८ पुष्प चढ़ाना। णमोकार मंत्र का १०८ बार जप करना, यह व्रत कथा पढ़ना। एक थाली में तेरह पान रखकर उस पर अष्टद्रव्य, श्रीफल रखना और महाघ्र्य से जिनालय की तीन प्रदक्षिणा करके मंगल आरती उतारना। इस दिन उपवास करके ब्रह्मचर्यपूर्वक धर्मध्यान में समय बिताना। सत्पात्र को आहारदान देना। उपवास करने की शक्ति नहीं है तो तीन वस्तु का नियम लेकर एकभुक्ति करना। इस प्रकार १३ मास तक उस तिथी में पूजा करके अंत में उसका उद्यापन करना। उस समय श्री विमलनाथ तीर्थंकर विधान महाभिषेक से करना। चतु:संघ को चतुर्विध दान देना। ऐसी इस व्रत की पूरी विधि है।
इस जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड है। उसमें मालव देश में उज्जयिनी नामक एक रमणीय पट्टण है। वहाँ बहुत दिन के पहले गुणमाल नामक गरीब परन्तु सदाचारी श्रावक रहता था। उसकी गुणवती नाम की एक लावण्यवती और सुशीला धर्मपत्नी थी। उनके गुणवंत नामक एक सुन्दर सद्गुणी पुत्र था। इनको दुर्दैव से दरिद्रावस्था प्राप्त होने से वे मजदूरी से गुजारा करते थे।नगर में बार-बार मुनीश्वर आहार के लिए आते थे। उनको बहुत श्रावक-श्राविकाएँ बड़ी भक्ति से आहारदान देते थे। यह देखकर उस गुणपाल श्रावक के मन में मुनीश्वर को आहारदान देने की इच्छा होती थी। मगर दान देने की ताकत न होने से वह चिंताकुल होता था।
एक दिन सोमचंद्र नामक सप्तऋद्धिसंपन्न एक निर्र्गंरथ मुनीश्वर जिनमंदिर में आये थे। यह देखकर वह गुणपाल श्रेष्ठी अपनी स्त्री से बोला-‘‘इस नगरी में बहुत भाविक श्रावक-श्राविकाएँ मुनी महाराज को आहारदान देकर पुुण्य संचय करते हैं। हम भी आहारदान करके पुण्यसंचय करें, ऐसी मेरी प्रबल इच्छा है। इस विषय में तुम्हारी क्या राय है ? तब वह उनको बोली-हे प्राणनाथ! मुनीश्वर को दान देने की अपनी शक्ति नहीं है। तो भी अपने को एक-एक दिन उपवास करके उदरनिर्वाह साधन में से आहारदान देना चाहिए। फिर वे दोनों जिनमंदिर में गये। जिनेश्वर को भक्ति से वंदन करके सोमचंद्र मुनीश्वर की वंदना करवेâ उनके समीप जाकर बैठे। कुछ समय उनके मुख से धर्मोपदेश सुनकर वह गुणपाल श्रेष्ठी अपने दोनों हाथ विनय से जोड़कर उनको बोला-हे दयानिधे स्वामिन्! हम दारिद्र्य से बहुत पीड़ित हुए हैं। उसके परिहार के लिए कुछ व्रत विधान कहो। आप चातुर्मास भी यहाँ कीजिए ऐसी हमारी नम्र प्रार्थना है। उनका यह वचन सुनकर वे मुनिवर्य दयाद्र्र बुद्धि से बोले-हे भाग्योत्तम! तुम ‘मंगलत्रयोदशी’ यह व्रत पालन करना। इससे तुम्हारा दारिद्र्य नष्ट होकर तुम सब तरह से अवश्य सुखी होगे। ऐसा कहकर उन्होंने चातुर्मास की सम्मति दे दी। फिर यह दंपती उस व्रत की विधी पूछकर व्रत ग्रहण करके वंदन करके घर में आ गये।आगे चातुर्मास प्रारंभ हो गया। फिर वह गुणपाल श्रेष्ठी और उनकी धर्मपत्नी एक दिन के बाद उपवास करने लगे। उपवास के दिन आहारदान की तैयारी करके उन मुनीश्वर को आहारदान देने लगे।
इस प्रकार चार मास आहारदान देने का निश्चय किया। इस प्रकार चातुर्मास में आहार देते-देते कार्तिक कृ. १३ के दिन उन्होंने व्रत पूजा-विधान करके उन सोमचंद्र मुनीश्वर को महाभक्ति से आहारदान दिया। बाद में उनको भेजने के लिए वह गुणपाल श्रेष्ठी उनके साथ उद्यान की ओर निकला, उस समय वे मुनिराज उनको बोले-हे भव्योत्तम! अब हम जाते हैं। तुम यहाँ से घर वापिस जावो। तब वह बोला-हे दयालु मुनिवर्य! आपकी आज्ञा से घर जाता हूँ। ऐसा कहकर उसने मुनि को नमस्कार किया। उन्होंने उसको ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’ ऐसा आशीष देकर अपना पादस्पर्शित एक पत्थर प्रदान दिया। तब वह पत्थर गुणपाल बड़े आदर से लेकर आया। यह पत्थर गुरुकृपा से मिला है। इसलिए मुझे पूज्य है। ऐसा कहकर उसने उसकी पूजा की, इतने में उस श्रेष्ठी का गुणवंत नाम का कुमार अपने हाथ में खुरपा लेकर खेलते-खेलते उधर आ गया। उसी समय वह खुरपा उसके हाथ से उस पत्थर पर गिरा। वह खुरपा सुवर्णमय बन गया। यह उचित ही है। यह पत्थर सप्तऋद्धिसंपन्न मुनीश्वर के हाथ से मिलने से उसमें पारस का गुण क्यों नहीं होगा? उसके संपर्वâ से लोहे का सोना क्यों नहीं बनेगा? अवश्य होगा, यह देखकर उसको आश्चर्य हुआ। ‘यह पत्थर ब्रह्मज्ञानी मुनीश्वर ने दिया है। इसलिए पारस-पत्थर का गुण आया है’’ ऐसा उसके मन में विश्वास हो गया। यह वार्ता नगर में शीघ्र ही चारों तरफ फैल गई। नगरवासी इकट्ठे हो गये। प्रत्यक्ष सब चमत्कार जानकर लोगों को जैनधर्म का महत्व जँचा। सब लोगों ने श्रेष्ठी की बहुत प्रशंसा की। वह दिन कार्तिक कृ. १३ रहने से तथा मंगलवार होने से उसको ‘‘मंगल त्रयोदशी’’ ऐसा लोग कहने लगे। उस समय से ही ‘धनत्रयोदशी’ नाम भी प्रचार में आया है। आगे वह गुणपाल श्रेष्ठी बड़ा श्रीमान होकर दान पूजादि क्रिया करते-करते आनंद से काल बिताने लगा।
इस प्रकार उन श्रेष्ठी ने चातुर्मास में लिया हुआ नियम यथावत् पालन कर उसका उद्यापन किया, इससे उनको उत्तम सौख्य प्राप्त हुआ।