प्राय: विवाह के समय कुण्डली मिलान में मंगल दोष को सतर्कता पूर्वक परीक्षण किया जाता है। यह धारणा भी प्रचलित है कि यदि किसी मंगली व्यक्ति का विवाह ऐसी कन्या से हो जाये जो मंगली नहीं है तो उस अमंगली कन्या की मृत्यु हो जाती है। सामान्यत: जन्म कुण्डली के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव में बैठा मंगल मांगलिक बनाता है। इस सामान्य से सिद्धान्त पर ज्योतिषी जातक को मांगलिक घोषित कर देते हैं। किन्तु कुण्डली का सूक्ष्म परीक्षण किया जाए, तो उक्त भावों में मंगल की उपस्थिति होने के बावजूद भी जातक का मंगल निष्प्रभाव हो जाता है। जातक यदि वास्तव में मांगलिक दोष से पीड़ित हैं तो उसका विवाह मांगलिक साथी से ही करना चाहिए। अन्यथा इसके दुष्परिणाम आने पर पछतावे के अलावा कुछ हाथ आने वाला नहीं है। अध्ययन के दौरान सैकड़ों मांगलिक कुण्डलियों का परीक्षण किया, उनके परिणाम विघटनकारी एवं दु:ख भोगने वाले ही रहे हैं।
मेरी व्यक्तिगत राय में बच्चों के मांगलिक होने पर पालकों को चिन्तित नहीं होना चाहिए। मांगलिक दोष के बजाय हम मात्र मांगलिक कहे तो त्यादा उचित होगा। मांगलिक का शाब्दिक अर्थ बताने की आवश्यकता नहीं। मांगलिक अर्थात् मंगल / शुभ। जो जातक मांगलिक होते हैं, उनका स्वभाव अनुभव में आया है कि बहुत ही शुभ होता है, या कहें जॉली नेचर होता है। तब यदि ऐसे शुभ स्वभाव वाले जातक का विवाह शुभ स्वभाव वाली जातिका से नहीं होगा तो क्या वे एक दूसरे को निबाह पायेंगे ? और जब एक दूसरे में बनेगी ही नहीं तो विघटन तो होगा ही, इससे भी बुरा हो सकता है। यदि कन्या अथवा वर के लिये जो मांगलिक है, कोई श्रेष्ठ रिश्ता आता है, जो मांगलिक नहीं है तो भी मिलान अवश्य करना चाहिए, वर कन्या दोनों के मिलान से कुछ ग्रह स्थितियाँ ऐसी बनती हैं जिससे मांगलिकपना निरस्त हो जाता है और यदि जाने अनजाने में विपरीत रिश्ता हो भी गया तो कोई दुष्परिणाम आये उसके पूर्व ही जैन पद्धति से उसका निवारण करा लेना चाहिए। अथवा २१ दिन तक एक ही समय एक ही स्थान पर ८००० जाप करें (लाल माला, लाल आसन, लाल वस्त्र, विनायक यंत्र या ऊँ के समक्ष दीप प्रज्वलित करें।)
मंत्र—ऊँ ह्रीं वासुपूज्य प्रभो नमस्तुभ्यं मम् शांति शांति:।। तत्पश्चात् जीवन भर सुविधानुसार ९, २७, १०८, बार दोहराते रहें। अधिक कष्टकर स्थिति, विवादास्पद स्थिति हो तो भोजपत्र पर केशर लिखित शांतिम् यंत्र स्थापित करें, क्रोध शांति के लिये शान्तिम् लॉकेट धारण करें। १, ४, ७, ८, १२ भाव में मंगल होने के बावजूद भी निम्नानुसार मंगल परिहार हो जाता है।
१. यदि एक पक्ष के जिन भावों में मंगल के बैठने से मांगलिक हों, दूसरे पक्ष में इन्हीं भावों में कोई पाप ग्रह बैठा हो।
२. यदि एक पक्ष लग्न से मांगलिक हो तथा दूसरा पक्ष शुक्र अथवा चंद्र से मांगलिक हों।
३. मंगल स्वग्रही, अथवा अपने मित्रों सूर्य, चंद्र, गुरु के घर में हो।
४. यदि मंगल पर गुरु की दृष्टि हो।
५. सप्तमे यदा सौरिलग्ने वादि चतुर्थ के। अष्टमे द्वादशे चैव तदा भौमो न दोष कृत।। यदि वर कन्या की कुण्डली में एक में पूर्वोक्त प्रकार से मंगल हो तो दूसरे में सप्तम, लग्न चतुर्थ, अष्टम, द्वादश इन भावों में शैनैश्चर हो तो परस्पर मंगल का दोष नहीं होता।
६. वाचस्पतो नवम पंचम कैन्द्रे संस्थे, जातांगना भवति पूर्ण विभूति युक्ता। साध्वी सुपुत्र जननी सुखिनी गुणाड्ढया सप्ताष्टक यदि भवेद शुभ्र होपि।। यदि कन्या की कुण्डली में १, २, ४, ७, ८, १२ वें भाव में मंगल हो और शुभ ग्रह गुरु केन्द्र या त्रिकोण (४, ५, १०, ५, ९) में हो तो मंगली दोष न होकर वह कन्या साध्वी, सुपुत्र को जन्म देने वाली सर्व प्रकार से सुखी, गुणों से सम्पन्न, ऐश्वर्य युक्ता सौभाग्य शालिनी होती है।
७. || चंद्र केन्द्र गते वापि, तस्य दोषों न मंगली || अर्थात् चंद्रकेन्द्र में हो तो मंगली दोष नहीं होता।
८. सबले गुरौ मृगौ वा लग्ने धूनेपि वाथवा भौमे। सक्रिणौ नीचारिगृहे वार्कस्थेपि वा न कुज दोष:।। यदि बलि गुरु या शुक्र लग्न या सप्तम स्थान में हों या मंगल वक्री हो या नीच का हो या शत्रु राशि में स्थित होकर कमजोर हो तो कुछ दोष नहीं रहता। अविनाशी सुख अपने लिये सुख चाहने से नाशवान सुख मिलता है और दूसरों को सुख पहुँचाने से अविनाशी सुख मिलता है। सुख भोगने के लिए स्वर्ग है तथा दुख भोगने के लिये नरक है। सुख दु:ख दोनों से ऊँचे उठकर महान् आनंद प्राप्त करने के लिये यह मनुष्य लोग है। संसार के संबंध विच्छेद से जो सुख मिलता है, वह संसार के संबंध से कभी मिल सकता ही नहीं। जब तक नाशवान का सुख लेते रहेंगे, तब तक अविनाशी सुख की प्राप्ति नहीं होगी। भोगों का नाशवान् सुख तो नीरसता में बदल जाता है, और उसका अंत हो जाता है पर परमात्मा का अविनाशी सुख सदा सरस रहता है और बढ़ता ही रहता है।