द्वादशांग जिनवाणी के ग्यारह अंग स्मृति से लुप्त हो चुके थे। बारहवें अंग दृष्टिवाद का कुछ अंश धरसेनाचार्य के पास सुरक्षित था। भगवान महावीर की दिव्यध्वनि से खिरी यह श्रुत परम्परा का अंतिम आगम भी मेरे बाद विलुप्त न हो जाये इस चिन्तन के साथ धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त तथा भूतबली इन दो मुनिराजों को अपना ज्ञान देने हेतु बुलवाया। जब दोनों मुनिराज धरसेनाचार्य के सान्निध्य में पहुँचे तब सर्वप्रथम मंत्रशास्त्र के माध्यम से उन्होंने दोनों मुनिराजों की सुपरीक्षा ली। उन्हें हीनाधिक अक्षर वाले दो मन्त्र देकर देवियाँ सिद्ध करने को कहा। दोनों मुनिराजों ने जब अशुद्ध मंन्त्र सिद्ध किया तो हीनाधिक अंगो वाली दो देवियाँ प्रकट हुईं , मुनिराजों ने पुन: मन्त्रों का व्याकरण शास्त्र से परीक्षण करके उन्हें शुद्ध किया तथा पुन: उन मन्त्रों को सिद्ध किया, परिणाम स्वरूप सर्वांग सुन्दर दो देवियाँ प्रकट हो गयीं और दोनों मुनिराज सुपरीक्षा में उत्तीर्ण हुये। धरसेनाचार्य ने उन्हें योग्य ज्ञान दृष्टिवाद का ज्ञान प्रदान किया। परिणाम-स्वरूप आचार्य पुष्पदन्त, भूतबली ने ‘षट्खण्डागम’ जैसे महान आगम का प्रणयन किया। उपर्युक्त कथा को श्रुतपंचमी पर हम विस्तार से पढ़ते-सुनते हैं। इस कथा में एक तथ्य ध्यातव्य है कि मन्त्र और उसकी शुद्धता का कितना महत्त्व है तथा उसका कितना प्रभाव पड़ता है। देवियों के अस्तित्व की सूचना भी हमें इस कथा से प्राप्त होती है। हमें यह पता लगता है कि मन्त्रशास्त्र का ज्ञान श्रुत रक्षा हेतु कितना आवश्यक है।