जैन धर्म में ध्यानाध्ययनादि का विशेष वर्णन है—उसीप्रकार मंत्र तंत्र और यंत्र का भी विशेष वर्णन है। दृष्टिवाद नामक १२ वें अंग के पांच भेद हैं उसमें चूलिका नामक जो भेद है उसमें चूलिका नामक जो भेद है— उसके जलगता, आकाशगता, स्थलगता, मायागता और रूपगता यह पांच भेद हैं— उनमें मंत्र तंत्र के प्रयोग का वर्णन किया। जल में गमन, जल का स्तंभन, अग्नि स्तंभन अग्नि भक्षण, अग्निप्रवेश करने में कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन जिस ग्रन्थ में है—उसको जलगता चूलिका कहते हैं। भूमि में प्रवेश करने का वा पृथ्वीगत वस्तु का प्रतिपादन करने वाले मंत्र तंत्र का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को स्थलगता चूलिका कहते हैं। व्याघ्र सिंह हरिण आदि रूप से परिवर्तन करने में कारणभूत मंत्र तंत्र कथन करने वाले शास्त्र को मायागता कहते हैं। इन्द्र जालादि सम्बन्धी मंत्र तंत्र का जिसमें वर्णन है उसको मायागता चूलिका कहते हैं। आकाश में गमन के कारण मंत्र तंत्रादि का वर्णन जिसमें है उसको आकाशगता चूलिका कहते हैं। १४ पूर्व विद्यानुवाद नामक पूर्व है—उसमें तो पूर्ण रूप से मंत्र तंत्र और यंत्र का ही वर्णन है। इस प्रकार जैन ग्रन्थों में मंत्र तंत्र का विधिवत् प्रयोग किया है— और मंत्र तंत्र की साधना पद्वति भी लिखी है—तथा उनके प्रयोग से जिनको फल प्राप्त हुआ है उनके नामोल्लेख भी हैं। प्रभावशाली महत्त्वपूर्ण रहस्यमय शब्दात्मक वाक्यों को ‘‘मंत्र’’ कहते हैं। जो कुछ गुप्त वात्र्ता होती है उसको मंत्र कहते हैं। अथवा—मन्त्र्यते मन्त्रणं वा मंत्रं। मत्रि गुप्त भाषणे इस व्युत्पत्ति से मंत्र शब्द का अर्थ होता है—गुप्त मंत्रणा। ‘‘मंत्रो वेद विशेष स्याद्दे वादीनां च साधने गुह्य वादेपि च पुमान् मंत्र—शब्द वेद विशेष में देवताओं की साधना करने में और गुप्त मंत्रणा में आता है। यहाँ पर मंत्र शब्द का अर्थ है—देवताओं की आराधना वा आत्मा साधना। मंत्रोें का भी व्याकरण है, उसी के अनुसार विभिन्न कार्यों के लिये विभिन्न प्रकार के बीजाक्षरों की योजना करके विभिन्न प्रकार के मंत्र बनाये जाते हैं। विद्यानुशासन ग्रंथ में मंत्रो का व्याकरण बतलाया गया है। मंत्र क ख ग घ आदि बीजाक्षरों से निष्पन्न होते हैं उन मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चरित ध्वनियों से आत्मा में धन और ऋणात्मक दोनों प्रकार की विद्युत शक्तियां उत्पन्न होती हैं। जिससे अनेक कार्यों की सिद्धि एव कर्म कलंक का प्रक्षालन् होता है।
बीजाक्षरों की योजना से चमत्कार प्रकट करने वाले मंत्र दो प्रकार के हैं—लौकिक और अलौकिक। जिन मंत्रों की विद्युत शक्तियों से सर्प—विष, आधि—व्याधि, भूत प्रेतादि बाधा दूर की जाती है अथवा जिनका प्रयोग वशीकरण, मारण, उच्चाटन के लिये किया जाता है वह लौकिक मंत्र और जिन मंत्रों के जपने से आत्म शुद्धि एवं आत्मोन्नति होती है वे लोकोत्तर मंत्र होते हैं।
बीजाक्षर—ककार से लेकर हकार पर्यंत व्यजंन बीज संज्ञक है और आकारदि स्वर शक्ति रूप हैं।१ मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। मंत्र शास्त्रों में कथित सारस्वत बीज, माया बीज, शुभनेश्वरी बीज, पृथ्वी बीज, अग्नि बीज, प्रणव बीज, मारुत बीज, जल बीज, आकाश बीज, आदि की उत्पत्ति ककारदि हत्य् बीजों से और आकारादि ’अच्’ शक्ति से होती है। प्रत्येक स्वर और व्यंजनों की शक्तियों का वर्णन—
अ— अव्यय, व्यापक ज्ञान स्वरूप शक्ति का द्योतक प्रणव बीज का जनक है।
ब— शक्ति और बुद्धि का दायक सारस्वत बीज का जनक कीर्ति—धन का देना वाला।
इ— लक्ष्मी प्राप्ति का साधक—कठोर कर्मों का बाधक एवं ह्रीं बीज का उत्पादक है।
ई— अमृत बीज है, ज्ञानवद्र्धक, स्तंभक, मोहक और जंभृक है।
उ— उच्चाटन कारक तथा श्वास नालि के द्वारा जो का धक्का देने से मारक है।
ऊ— उच्चारक, मोहक और विशेष शक्ति का परिचायक है।
ऋ—ऋद्धिबीज, सिद्धिदायक, शुभ कार्य सम्बन्धी बीजों का मूल कार्य सिद्धि का सूचक है।
ऋृ—सत्य का संचारक वाणी का ध्वंसक लक्ष्मी और आत्मसिद्धि का दीपक है।
ए— अरिष्ट निवारक और सुख सम्पत्ति का वद्र्धक है।
ऐ— उदात्त—जोर से उच्चारण करने पर वशीकरण।
ओ—यह उदात्त स्वर माया बीज का उत्पादक लक्ष्मी—श्री पोषक सर्व कार्यों का साधक और निर्जरा का कारण है।
औ—मारण और उच्चाटन में प्रधान शीध्र कार्य का साधक है।
अं— स्वतंत्र अनेक शक्तियों का उद्घाटक है।
अ:—शांति बीजों में प्रधान है।
क—शक्ति बीज प्रभावशाली सुखोत्पादक और संतान प्राप्ति की कामना को पूरने वाला है।
ख—आकाश बीज—अभाव कार्यों की सिद्धि के लिए कल्पवृक्ष है।
ग— पृथक् करने वाले कार्यों का साधक है।
घ— स्तंभन बीज है, स्तंभन कार्यों का साधक और विध्न घातक है। इस प्रकार ‘च’ आदि सम्पूर्ण बीजाक्षर संयुक्त वा असंयुक्त होकर कार्य सिद्धि को करते हैं। इन बीजाक्षरों की शक्ति अचिंत्य हैं। कठिन से कठिन कार्य, दुसाध्य रोग, ईति—भीति आदि सर्व उपद्रव बीजाक्षरों के ध्यान से नष्ट हो जाते हैं। सर्व प्रथम बीजाक्षरों से निष्पन्न णमोकार मंत्र है, जिसके चिंतवन से लौकिक कार्य की सिद्धि और आत्मोन्नति होती है। इसके जपने वालों के उदाहरणों से शास्त्र भरे हुये हैं। इसी मंत्र के ध्यान से सुदर्शन के लिये सिहासन, रावण को विद्याओं की सिद्धि, मानतुंग के ४८ ताले टूटना, वादिराज के कुष्ट रोग का निवारण, कुन्द कुन्द के द्वारा अम्बिका का अवतरण, आदि अनेक कार्य सिद्ध हुये हैं। इस णमोकार मंत्र से ही सर्व मंत्रों की उत्पत्ति होती है। मंत्र व्याकरण के अनुसार इसमें अनेक प्रकार के बीजाक्षर और पल्लव जोड़ देने से इसमें अद्भुत शक्ति का योग हो जाता है। जैसे धन प्राप्ति के लिए ‘क्लीं’ शांति के लिये ‘ह्रीं’ विद्या के लिये ‘‘ऐं’’ कार्य सिद्धि के लिए झैं’ बीजाक्षर और स्वाहा या नम: पल्लव का प्रयोग किया जाता है। मारण, उच्चाटन, विद्वेष न करने के लिये घेघे’ वषट् शब्द का प्रयोग किया जाता है। तथा—ॐ ह्राँ णमो अरिहंताणं, ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं, ॐ ह्रूँ णमो आइरियाणां, ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं, ॐ ह्र: णमो लोए सव्व साहूणंं—यह एक मंत्र बन गया—जिस कामना से इसका जाप्य करना है— वहीं पल्लव जोड़ देना चाहिये। जैसे यदि अग्नि को शमन करना है तो इसी मंत्र के अंत में अग्निं उपशमय उपशमय सर्वशांतिं कुरु कुरु स्वाहा। ऐसा जाप करना चाहिये। वृष्टि कराने के लिये मेघं आनय आन्य वृष्टिं कुरु कुरु स्वाहा। वृष्टि को रोकने के लिये वृिंष्ट स्तंभय मेघमानय आनय हूँ फट् स्वाहा मंत्र बोलना चाहिये। विष को दूर करने के लिये—सर्पविषं वा वृश्चिक विषं नाशय नाशय हूँ फट् स्वाह। इसी प्रकार आधि—व्याधि शोक संताप दारिद्र का नाश करने के लिये पल्लव को जोड़कर ऊपर कथित णमोकार मंत्र का जाप करने से कार्य की सिद्धि होती है। इस णमोकार मंत्र के समान और भी बहुत से मंत्र हैं—जिनसे भी अनेक कार्य सिद्ध होते हैं— जैसे ’ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लूँ अर्हं नम:’ सर्व शांतिदायक मंत्र है। ॐ ह्रीं क्लीं ऐं हंस वाहिनी मम जिह्वाग्रे आगच्छ आगच्छ स्वाहा इस जाप्य से विद्या शीघ्र सिद्ध होती है। ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमोसहिपत्ताणं, ॐ ह्रीं अर्हं अर्हं णमो विप्पोसहि पत्ताणं, ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लोसहि पत्ताणं ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लोस्सहिपत्ताणं मम सर्व रोग विनाशनं कुरु कुरु स्वाहा इस मंत्र से सर्व रोग दूर हो जाते हैं। ॐ ह्रीं अर्हं अक्खीणमहाणसाणं मम अक्खय ऋिंद्ध कुरु कुरु स्वाहा। इससे धन धान्य की प्राप्ति होती है। ॐ ह्रीं नम:—इससे अनेक कार्य सिद्ध होते हैं। इस मंत्र का पार्श्र्वनाथ भगवान् की प्रतिमा के दक्षिण बाहु के समीप पद्मासन बैठकर दो हजार जप करने से सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। ग्राम में प्रवेश करते समय इस मंत्र का १०८ बार जाप करने से मिष्ठान्न की प्राप्ति होती है। इसी ॐ ह्रीं नम:’ मंत्र को २१ बार जप कर दशो दिशाओं में पानी फैकने से वर्षा बद्ध हो जाती है। इसी मंत्र से २७ बार अन्न को मंत्र करके खाने से आठवें दिन लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। रात्रि में १०८ बार जपने से लक्ष्मी की वृद्धि होती है। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं वाग्वादिनी भगवती सरस्वती ह्रीं नम: इस मंत्र के जाप्य से विद्या की प्राप्ति होती है। ॐ नमो भगवते पार्श्र्वनाथाय एहि—एहि भगवती दह दह हन हन चूर्णय चूर्णय भंज भंज कंड कंड मद्र्दय मद्र्दय हम्ल्व्र्यूं आवेशय २ हूँ फट् स्वाहा—इस मंत्र का ४००० पुष्पों से जाप्य करने से सर्वरोग नष्ट हो जाते हैं। ॐ ह्रीं ऐं क्लीं ह्रौं नम: १२००० जाप्य करने से सिद्ध होता है। शुक्रवार के दिन धरणेन्द्र पद्मावती सहित पार्श्र्वनाथ भगवान के समक्ष जप करने से स्वप्न में शुभाशुभ की सूचना मिलती है। ॐ णमो अरिहंताणं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा—इस मंत्र से १०८ बार मालकाकिणी को मंत्र कर खाने से बुद्धि की वृद्धि होती है। इस प्रकार मंत्रों से अनेक कार्य सिद्ध होते हैं— मंत्रो की महिमा अचिंत्य है। इन मंत्रों से आत्म कल्याण के साथ लौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। अनेक प्रकार के मंत्रो का प्रयोग जैन शास्त्रों में किया है।
यंत्र :— मंत्रों के समान यंत्रों का भी महात्म्य अचिन्त्य है। बीजाक्षर और अंक से यंत्र बनते हैं— अर्थात् इन्ही बीजाक्षरों की मंत्रों को तथा एक दो आदि अंको को ताम्र पत्र कांस्य पत्र सुवर्ण पत्र आदि पर लिखा जाता है—वह यंत्र कहलाता है—मंत्र शास्त्र के अनुसार इसमें अलौकिक शक्तियां मानी गई है इसलिये जैन सम्प्रदाय में इसे पूजा वा विनय का विशेष स्थान प्राप्त है।
मंत्र सिद्धि—पूजा—प्रतिष्ठा यज्ञ विधान आदि में इनका बहुलता से प्रयोग किया जाता है। प्रयोजन के अनुसार तत्काल भी यंत्र बनाये जाते हैं।
यंत्रों के नाम— अंकुरार्पण यंत्र अग्नि मंडल यंत्र, ऋषि मंडल यंत्र, अर्हन्मंडल यंत्र कर्मदहन यंत्र, कलिकुण्ड दंड यंत्र, कल्याण त्रिलोक्यसार यंत्र, कूर्म चक्र यंत्र, गंध यंत्र, गणधरवलय यंत्र, षट स्थानोपयोगी यंत्र, चिंतामणि यंत्र, मृत्युंजय यंत्र सारस्वत यंत्र, सर्वतोभद्र यंत्र, सुरेन्द्र चक्र यंत्र नित्य उपयोग में आने वाले सिद्ध यंत्र, दशलक्षण, रत्नत्रय, षोडशकारण, चतुर्विंशति तीर्थंकर यंत्र शांति यंत्र, विनायक यंत्र, सरस्वती यंत्र, यंत्रेश यंत्र, मातृक यंत्र, आदि अनेक यंत्र हैं—उसी प्रकार पंचकल्याण आदि विधानों में उपयोगी मृतिका नयन यंत्र नयनोन्मिलन यंत्र, जल यंत्र, निर्वाण सम्पत्ति यंत्र, बोधि समाधि यंत्र, चिंतामणि यंत्र आदि अनेक बीजाक्षर के यंत्र हैं। भक्तामर, कल्याणमन्दिर के जितने श्लोक हैं उतने ही उनके यंत्र भी हैं। इन बीजाक्षरों के समान ‘अंक’ यंत्र भी हैं— जैसे १५ का यंत्र २०—४५—२१—८१ आदि अनेक यंत्र हैं। ६४ ऋद्धि का भी यंत्र है। नागौर के शास्त्र भंडार में एक विस्तृत विजय पताका यंत्र है—उसमें सारे अंक यंत्र गर्भित हैं। इनके लिखने की विधि और फल का भी विस्तृत वर्णन है। जैसे कितनी भी संख्या का यन्त्र बनाना है—उसके लिये १६ कोष्ठ का यंत्र बनाकर इस विधि से भरना चाहिए—उसका सूत्र है ‘‘इच्छाकृतार्धं कृत रूप हीनं, धने९ ग्रहे षोडश सप्त चाष्टौ। तिथि१५ दशां से प्रथमे च कोष्टे, द्वि २ सप्त ७ षट् ६ त्रि ३ अष्ट कु १— वेद ४ बाण ५ । किसी भी सम संख्या का यंत्र बनाना हो तो—उस संख्या में दो का भाग देना चाहिये ओर जो उसमें लब्ध आता है उसमें एक कम करके दूसरे कोष्ठ में, स्थापन करना चाहिये। तदनंतर एक—एक हीन करके क्रम से घने (नौवें) कोष्ठ में, सोलहवें कोष्ठ में, सप्त कोष्ठ में, अष्ठम कोष्ठ में, पन्द्रहवें कोष्ठ में, दशवें कोष्ठ में और प्रथम कोष्ठ में स्थापना करनी चाहिए। शेष कोष्ठों में क्रम से २—७—८—१—४ और पांच लिखना चाहिये। जैसे हमें एक सौ सोलह का यंत्र बनाना है—तो सर्वप्रथम इसका आधा (५८) करना चाहिये। तदनंतर इसमें से एक घटाकर दूसरे कोठे में स्थापित करना चाहिए। तदन्तर एक एक कम करके ९ वें सौलवें, सातवें, आठवे, पन्द्रहवें, दशवें और प्रथम कोष्ठ में स्थापित करना चाहिए। उसके बाद दो, सात, छह, तीन, आठ, एक चार और पांच को लिखना चाहिये। कुछ मंत्र ऐसे भी हैं जिनमें बीजाक्षर और अंक दोनों रहते हैं। इन यंत्रों को काम में लेने के लिये सर्व प्रथम गुरु की शरण लेना चाहिये। इस प्रकार अनेक विध यंत्रों की आराधना से भी अनेकों कार्य सिद्ध होते हैं।
तंत्र :— इन ही यंत्र और मन्त्रों को भोजपत्र पर लिखकर भुजा, मस्तक और गले में धारण करते हैं—वह तंत्र कहलाता है ऋषि मंडल स्तोत्र में लिखा है कि—आचाम्ल तप करके ऋषि मंडल के आठ हजार जप करने से इच्छित कार्यो की सिद्धि होती है। आचाम्लादि तप: कृत्वा पूजयित्वा जिनावलिं। अष्ट साहस्रिको जाप्य: कार्यस्ततसिद्धि हेतवे।
यंत्र— ऋषि मंडल यंत्र को ताम्र पत्र—स्वर्ण पत्र, रजत पत्र आदि पर लिखकर पूजा करने से घर में सुख और शांति रहती है।१
तंत्र— इस यंत्र को भोजपत्र पर लिख कर मस्तक—भुजा—कंठ आदि में धारण करने से भूत—पिशाच व्यंतर देवों की बाधा दूर हो जाती है तथा वात—पित्त—कप जनित अनेक रोग उपशांत हो जाते हैं।२ जो मानव इन तंत्रोें के द्वारा अन्य पुरुषोें की हानि लाभ करते हैं वे तांत्रिक कहलाते हैं। इसप्रकार जैन ग्रन्थोें मेें मंत्र, यंत्र और तंत्रों का उल्लेख पाया जाता है तथा पूर्व काल में इनका जिन्होेंने प्रयोग किया है उनके उदाहरण भी मिलते हैं। जैसे सिद्ध यंत्र की आराधना करके मैना— सुन्दरी ने अपने पति श्रीपाल का कुष्ट रोग दूर दिया था। शांतियंत्र की आराधना करने से मरी रोग दूर हुआ था। भक्तामर के ४८ काव्यों के यंत्र बनाकर पूजन करने से जिन—जिन ने फल प्राप्त किया है उनके नामों का उल्लेख भी पाया जाता है। मन्त्र के जाप्य से जो आपत्तियां दूर होती हैं उनका वर्णन तो प्रत्येक ग्रन्थ में हैं। विषापहार स्तोत्र में लिखा है कि— औषधि, मणि आदि सब एक तरफ हैं ओर वीतराग प्रभु के नामाक्षर जाप्य एक तरफ हैं। इसके जाप्य से सर्व आपत्तियां दूर होती हैं तथा सर्व सम्पत्ति अनायास प्राप्त होती है। पूर्व में मंन्त्रों के जाप्य से दूर स्थित पुरुष को समीप बुला लिया जाता था। सर्प का विष दूर कर दिया जाता है। तंत्र भी बहुत उपयोगी है— जैसे भक्तामर काव्य यंत्र लिखकर बांधने से अनेक प्रकार की बाधायें दूर हो जाती हैं। जब भविष्यदत्त बुद्धदत्त के साथ विदेश जाने लगा—तब मुनिराज ने उसको एक तंत्र दिया था, जिससे उसकी सारी आपत्तियां दूर हो गर्इं। कल्याणमन्दिर भक्तामर स्तोत्रादि में लिखा है कि इस यंत्र को लिखकर कटि भाग में बांधने से गर्भ का स्तंभन होता है। इसके बांधने से भूत प्रेत की बाधा दूर हो जाती हैं। इन ही मन्त्र और यन्त्रों का अंतरंग जल्प से चिंतवन करने से धर्मध्यान की उत्पत्ति होती है क्योंकि जिस प्रकार मन्त्रों और यंत्रों में बीजाक्षर का जाप्य किया जाता है। उसी प्रकार मन को एकाग्र करके उनका ध्यान भी किया जाता है। उन मन्त्रों का ध्यान करना पदस्थ नाम का ध्यान है। इस ध्यान से असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है। सिद्ध पूजा की स्थापना में सिद्ध यन्त्र की विधि लिखी है और लिखा है कि जो इसका ध्यान करता वह मुक्ति का प्यारा होता है। इससे जाना जाता है कि यह मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र मन की स्थिरता के कारण होने से ध्यान का अंग भी हैं। इन मन्त्रों को सिद्ध करके भी अनेक कार्य किये जाते हैं। मन्त्र को सिद्ध करने के लिये मन्त्रशास्त्र के अनुसार प्रथम गणित से देखना चाहिये। जिस मन्त्र की साधना करना है उस मन्त्रों के अक्षरों को तीन से गुणा करके अपने नाम के अक्षरों को उसमें मिला देवें। उस संख्या में १२ का भाग देने पर यदि ५—९ शेष रहे तो मन्त्र शीघ्र सिद्ध होगा। ६—१० शेष रहने पर देर से सिद्ध होगा। ७—११ शेष रहने पर सिद्ध होता है। ८—१२ शेष रहने पर सिद्ध नहीं होगा। मन्त्र का जो प्रथम अक्षर है उससे लेकर इस कोठे में से गणना करनी चाहिए अपने नामाक्षर तक सिद्ध—साध्य, सुसाध्य असिद्ध। यदि असिद्ध आता है तो उस जाप्य को छोड़ देना चाहिये।, परन्तु णमोकार मन्त्र ही आदि के लिए यह विधान नहीं है यह विधान देवताओं की आराधना के लिये है। तंत्र लिखने की विधि—— तंत्र अष्ट गंध (अगर—तगर—गोरोचना—कस्तूरी—चन्दन—केशर) की स्याह बनाकर लिखना चाहिये। स्याह बनाते समय शुद्ध पानी डालना चाहिये। कभी केशर—कस्तूरी—कपूर—चन्दन और गोरोचन इन पांच गंधों से भी लिखा जा सकता है। ‘‘यक्ष कर्दम’’ केशर—कस्तूरी—चन्दन—कपूर—अगर—गोरोचन—हिंगुल—रजतांगी—अम्बर सोने का वर्क, मिरच कंकौभ, कंकोल, इनका रस तैयार कर पवित्र य कटोरी में स्यायी बनाकर लिखना चाहिये। अनार, चमेली और सुवर्ण की शलाका से लिखना चाहिये। यंत्र भोजपत्र पर वा शुद्ध कागज पर लिखना चाहिये। तंत्र में लिखते समय गलती नहीं होना चाहिये। काटे हुये अक्षर का यंत्र काम में नही आता हैं। लिखते समय अंक की संख्या एक आदि से ही लिखनी चाहिये। जैसे पन्द्रह का यंत्र लिखा उसमें प्रथम एक पुन: दो आदि क्रम से लिखना चाहिये। इसप्रकार मन्त्र तंत्र यंत्र का प्रयोग करना चाहिये। इन मन्त्र यन्त्र तन्त्रों से शास्त्र भरे हुये है, उनका निरीक्षण करके गुरु की आज्ञा से आराधना करनी चाहिये।