छत्तेहिं एयछत्तं भुंजइ पुह्वी सवत्तपरिहीणो।
चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं।।४९०।।
विजयपडाएहिं णरो संगाममुहेसु विजइओ होइ।
छक्खंडविजयणाहो णिप्पडिवक्खो जसस्सी य।।४९२।।
अर्थ–छत्र–प्रदान करने से मनुष्य, शत्रुरहित होकर पृथिवी को एक छत्र भोगता है। तथा चमरों के दान से चमरों के समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है, अर्थात् उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं।।४९०।।
अर्थ–जिन–मंदिर में विजय पताकाओं के देने से मनुष्य सुदर्शन मेरू के ऊपर क्षीरसागर के जल से सुरेन्द्र प्रमुख देवों के द्वारा भक्ति के साथ अभिषिक्त किया जाता है।।४९२।।
(वसुनंदि श्रावकाचार)