—पदम कुमार पाटोदी, मक्सी’
श्री अतिशय क्षेत्र मक्सी पार्श्वनाथ सेण्ट्रल रेलवे की भोपाल-उज्जैन शाखा पर मक्सी नामक स्टेशन से लगभग तीन कि.मी. दूर है। स्टेशन से लगभग एक फर्लांग दूर दिगम्बर जैन धर्मशाला भी है। क्षेत्र पर दो मंदिर हैं। उज्जैन से यह क्षेत्र ३६ कि.मी. है और इन्दौर से ७२ कि.मी.। क्षेत्र के लिए उज्जैन, इन्दौर, शाजापुर से बराबर बसें मिलती हैं। यहाँ पोस्ट आफिस है। इसका जिला शाजापुर है। गाँव का नाम, जहाँ यह क्षेत्र है, कल्याणपुर है।
यह क्षेत्र भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा के अतिशयों के कारण अतिशय क्षेत्र कहलाता है। इस मूर्ति के विविध चमत्कारों की कथाएँ जनश्रुतियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। महमूद गजनवी ने भारत के विभिन्न भागों पर १००० से १०२७ तक अनेक बार आक्रमण किये। आक्रमण करने में उसका मुख्य ध्येय इस्लाम का प्रचार, भारतीयों को इस्लाम की दीक्षा देना, भारत के मंदिर और मूर्तियों का विनाश करना, यहाँ से धन लूटना और अपने साथ अधिक से अधिक हाथी और गुलामों को गजनी ले जाना था। वह जब देश को रौंदता हुआ और मंदिरों, मूर्तियों का भंजन करता हुआ मक्सी आया, उस समय रात्रि हो गयी थी। उसने सैनिकों को विश्राम करने की आज्ञा दी। प्रात:काल होने पर पार्श्वनाथ की विख्यात मूर्ति और मंदिर को तोड़ने की उसकी योजना थी। किन्तु रात में वह भयानक रूप से बीमार पड़ गया। उसे अन्त:- अनुभव होने लगा कि यह यहाँ के पार्श्वनाथ का चमत्कार है। उसने फौज को आदेश दिया कि वे जैनियों के इस मंदिर और मूर्ति को कोई नुकसान न पहुँचावें। बल्कि उसने कृत्य के प्रायश्चित्तस्वरूप मंदिर के मुख्य द्वार पर ईरानी शैली के पाँच वँâगूरे बनवा दिये, जिससे इस घटना की स्मृति सुरक्षित रह सके तथा अन्य कोई मुस्लिम आक्रान्ता इस पर आक्रमण न करे। ये वंâगूरे मंदिर के द्वार पर अब तक बने हुए हैं। लगता है कि उक्त घटना महमूद गजनवी की न होकर मालवा के किसी सुलतान की है क्योंकि महमूद मालवा में तो आ ही नहीं पाया था। सुलतान का क्या नाम था, यह तो ज्ञात नहीं हो सका किन्तु उपर्युक्त घटना में सत्य अवश्य मालूूम पड़ता है। एक और भी अनुश्रुति है। कुछ चोर ताला तोड़कर चोरी करने के इरादे से मंदिर में घुसे। वे माल-असबाब की गठरी बाँधकर चलने लगे लेकिन वे अन्धे हो गये। वे रात भर परिक्रमा में घूमते रहे, किन्तु मार्ग नहीं मिला। सुबह होने पर वे माल सहित पकड़े गये। यह निश्चित है कि मक्सी के पार्श्वनाथ चमत्कारी हैं और यहाँ अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इसलिए यहाँ के सम्बन्ध में अनके रहस्यपूर्ण िंकवदन्तियाँ प्रचलित हो गयी हैं। आज भी अनेक जैनेतर लोग भी यहाँ मनौती मानने आते हैं।
इस क्षेत्र का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। इसके संबंध में भी एक िंकवदन्ती अवश्य प्रचलित है। प्राचीन काल में शाजापुर-उज्जैन मार्ग पर मक्सी गाँव में एक ब्राह्मण राहगीरों को पानी पिलाया करता था। एक रात में उसे स्वप्न में कोई दिव्य पुरुष कह रहा था—जहाँ तेरी प्याऊ है, उसके नीचे जमीन में भगवान हैं। उन्हें तू निकाल। दूसरे दिन उसने जमीन खोदी तो पार्श्वनाथ की मूर्ति निकली। ब्राह्मण को अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि भगवान ने प्रकट होकर उसे दर्शन दिये हैं। उसने अपनी झोंपड़ी में मूर्ति विराजमान कर ली। वह भैरव मानकर इसकी पूजा करता था। इसके ऊपर तेल-सिन्दूर चढ़ाता। धीरे-धीरे लोगों को इसके बारे में पता चलता गया। लोग यहाँ आते, मनौती मानते। एक बार एक दिगम्बर जैन श्रेष्ठी को किसी अपराध में वैद करके उज्जैन ले जाया गया। श्रेष्ठी का पुत्र अपने पिता से मिलने उज्जैन जा रहा था। मार्ग में मक्सी में वह उक्त ब्राह्मण की प्याऊ पर पानी पीने रूका। बातों-बातों में उसे भैरव के चमत्कारों का पता चला। उसने भैरव जी के दर्शन किये और मनौती मानी, ‘‘अगर मेरे पिता वैद से मुक्त हो जायेंगे तो मैं तुम्हारे लिए एक मंदिर बनवाऊँगा।’’ मनौती मानकर वह चल दिया। उस रात को उज्जैन नरेश को स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्न में राजा को कोई आदेश दे रहा था—‘‘तुम शाजापुर के श्रेष्ठी को अविलम्ब मुक्त कर दो।’’ राजा ने प्रात:काल होते ही श्रेष्ठी को मुक्त कर दिया। श्रेष्ठी का पुत्र उज्जैन पहुँचकर अपने पिता से मिला। वहाँ से दोनों पिता-पुत्र घर पहुँचे। रात को श्रेष्ठी पुत्र को स्वप्न में एक दिगम्बर मुनि के दर्शन हुए। वे श्रेष्ठीपुत्र से कह रहे थे—‘‘तुम मक्सी मेें जिसे भैरव समझ रहे हो, वे तो भगवान पार्श्वनाथ हैं।’’ श्रेष्ठी पुत्र प्रात: होते ही अपने इष्ट-मित्रों के साथ मक्सी पहुँचा। वहाँ देखा कि प्रतिमा का तेल-सिंदूर अपने आप साफ हो चुका है। अब भगवान पार्श्वनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा वहाँ विराजमान थी। सबने भक्तिभाव से भगवान के दर्शन किये और उनकी पूजा की। श्रेष्ठी पुत्र ने मक्सी में एक विशाल मंदिर निर्माण कराया। उसमें पार्श्वनाथ प्रतिमा विराजमान कराकर अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण किया। इस िंकवदन्ती में घटनामूलक परिचय तो है किन्तु मंदिर निर्माण के सम्बन्ध में विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती। अन्य भी कोई स्रोत नहीं है, जिससे मंदिर-निर्माता का नाम और परिचय ज्ञात हो सके। किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भगवान पार्श्वनाथ की यह मनोज्ञ प्रतिमा दिगम्बर परम्परा की है। इस मंदिर का निर्माण किसी अज्ञात दिगम्बर धर्मानुयायी ने कराया है। प्रारम्भ से इस मंंदिर का स्वामित्व, व्यवस्था और अधिकार दिगम्बर समाज के अधीन रहा है। यहाँ के मंदिर, धर्मशाला, तालाब, बगीचा आदि का निर्माण दिगम्बर समाज ने कराया है। पहले यहाँ दिगम्बर समाज के लोगों की संख्या बहुत थी। किन्तु आजीविका और व्यापार की दृष्टि से अधिकांश दिगम्बर जैन अन्यत्र चले गये। अवसर पाकर यहाँ के ब्राह्मण पुजारियों ने मंदिर के पीछे देहरियों में महादेव, हनुमान, विष्णु एवं नवग्रह की मूर्तियाँ रख दीं। मुसलमानों ने मंदिर के पीछे बगीचे के पास अपनी कब्रें बना दीं। अव्यवस्था के इसी काल में श्वेताम्बरों ने अपनी विधि से पूजा करना और क्षेत्र की सम्पत्ति पर अधिकार जमाने का प्रयत्न करना प्रारंभ कर दिया। इस अतिशय क्षेत्र का उल्लेख भट्टारक सुमतिसागर (सोलहवीं शताब्दी के मध्य में), भट्टारक ज्ञानसागर (सोलहवीं शताब्दी के अन्त में), भट्टारक जयसागर (सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध), भट्टारक ब्रह्महर्ष (सन् १८४३-१८६६) ने अपनी रचनाओं में किया है। इनसे पूर्ववर्ती मदनकीर्ति और आचार्य जिनप्रभ सूरि ने ‘शासन-चतुिंस्त्रशिका’ तथा ‘विविध-तीर्थकल्प’ में इस क्षेत्र का कोई उल्लेख नहीं किया। ये दोनों विद्वान १३ वीं-१४ वीं शताब्दी के हैं। इन दोनों ने ही तत्कालीन प्रसिद्ध तीर्थों के सम्बन्ध में परिचयात्मक प्रकाश डाला है, किन्तु मक्सी पार्श्वनाथ का उल्लेख तक नहीं किया। इससे लगता है कि इस क्षेत्र के अतिशयों की ख्याति इन विद्वानों के काल में नहीं हो पायी थी, जबकि इन दोनों ने ही मालवा के अभिनंदननाथ जिन की स्तुति की है और बताया है कि यवनों द्वारा यह प्रतिमा तोड़ी जाने पर वह पुन: जुड़ गयी और अवयवों सहित वह ठीक हो गयी। उसके पश्चात् उस प्रतिमा में अनेक चमत्कार प्रकट हुए। ‘विविध-तीर्थकल्प’ में तो अवन्तिदेश के इस अभिनंदननाथ जिन की घटना के सम्बन्ध में यह भी बताया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंह देव के शासन-काल से कुछ वर्ष पूर्व में हुई थी। उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मक्सी पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र की स्थापना १४ वीं शताब्दी के पश्चात् कभी हुई है। सम्भवत: पार्श्वनाथ की यह मूर्ति किसी मंदिर में थी। मंदिर को आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया। १४ वीं-१५ वीं शताब्दी में यह मूर्ति भूगर्भ से निकाली गयी है और मंदिर का निर्माण करके उसमें यह विराजमान की गयी। तब से इसके अतिशयों की प्रसिद्धि हुई और यह अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हो गया। लेकिन सोलहवीं शताब्दी में यह क्षेत्र ख्याति के शिखर पर पहुँच चुका था। भट्टारक ज्ञानसागर ने इस क्षेत्र के संबंध में जैसी प्रश्ांसा की है, उससे इस धारणा की पुष्टि होेती है। उन्होंने लिखा है-
‘‘मालवा देश मझार नयर मगसी सुप्रसिद्धह। महिमा मेरु समान निर्धनकू धन दीधह।
मगसी पारसनाथ सकल संकट भयभंजन। मनवांछित दातार विघनकोटि मद गंजन।
रोग शोक भय चोर रिपु तिस नामे दूर पले। ब्रह्म ज्ञानसागर बदति मनवांछित सधलोें फले।।
—सर्वतीर्थ वन्दना—२४
इसमें ज्ञानसागर जी ने मक्सी के पार्श्वनाथ को समस्त संकटों को दूर करने वाला, मनोकामना पूर्ण करने वाला, विघ्नों का हर्ता, रोग-शोक, भय, चोर-शत्रु इनको दूर करने वाला बताया है। अवश्य ही भट्टारक जी के काल में मक्सी के पार्श्वनाथ की प्रसिद्धि इसी रूप में रही होगी।
यह मंदिर मूलत: दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का था और इसकी व्यवस्था आदि भी सदा से दिगम्बर जैन समाज की एक निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती थी। इसका निर्माण भी दिगम्बर जैन समाज ने केवल अपने द्रव्य से कराया था। मंदिर से संबंधित मकान, बगीचा आदि सभी चल-अचल सम्पत्ति दिगम्बर जैन समाज ने ही बनवायी थी। मंदिरों में जो मूर्तियाँ हैं, वे सभी दिगम्बर आम्नाय की हैं। यहाँ कभी-कभी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग भी दर्शनों के लिए आ जाते थे। भगवान के दर्शन-पूजन से किसी को वंचित न रखा जाये, इस नीति के अनुसार उस समय की प्रबन्ध समिति ने श्वेताम्बर लोगों का दर्शन-पूजन करने से कभी नहीं रोका। पूजा के प्रश्न और सम्पत्ति की मालिकी को लेकर श्वेताम्बर समाज ने विवाद खड़ा कर दिया। जब विवाद किसी प्रकार समाप्त नहीं हुआ, तब केस अदालत में गया। तब अगस्त १८८२ में पंचनामे द्वारा यह तय हुआ कि बड़े मंदिर में दोनों समाजों को अपनी-अपनी आम्नाय के अनुसार दर्शन-पूजन करने दिया जाये। पैâसले में प्रात: ६ बजे से ९ बजे तक का समय पूजन के लिए दिगम्बर जैन समाज को दिया गया। उसके बाद का समय श्वेताम्बर समाज को दिया गया। दर्शन के लिए किसी के ऊपर समय का प्रतिबन्ध नहीं रखा गया। पैâसले में बड़ा मंदिर श्वेताम्बर समाज के प्रबन्ध में दिया गया और छोटे मंदिर का प्रबन्ध दिगम्बर समाज के। तत्कालीन ग्वालियर महाराज का आदेश स्पष्ट है कि सुपुर्दगी का अर्थ मालिकी नहीं, केवल ट्रस्टीशिप है क्योंकि मंदिर की मालिकी देवता में निहित है। इनकी आय उनकी होगी, जिनके सुपुर्द यह है। किसी सम्प्रदाय का कोई व्यक्ति, जो किसी मंदिर के दर्शन, पूजन को जाये, वह कोई नयी बात नहीं करेगा। दिगम्बर अपनी मान्यतानुसार बड़ी मूर्ति का अभिषेक, दर्शन और पूजन करते हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे। इसके बाद सदा के लिए दोनों का विवाद समाप्त करने के लिए ग्वालियर महाराज ने बड़े मंदिर की सुपुर्दगी और व्यवस्था श्वेताम्बर समाज से लेकर दिनाँक ४-५-१९२१ की आज्ञा द्वारा पंचकमेटी के सुपुर्द कर दी। इस कमेटी में दो दिगम्बर, दो श्वेताम्बर और ग्वालियर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को सम्मिलित किया गया। मुख्य न्यायाधीश की ओर से जिले का कलेक्टर नियुक्त किया गया। सन् १९२७ में ग्वालियर दरबार की आज्ञा से नियुक्त सुपरिण्टेण्डेण्ट ने श्वेताम्बर-दिगम्बर पंचोें के सामने मंदिर की सब मूर्तियों का विवरण तैयार किया था। उसकी पुस्तिका भी बनकर प्रकाशित हुई थी। उसमें देवरियों की सभी मूर्तियाँ दिगम्बर बतलायी हैं। कानून ने बहुत स्पष्ट निर्णय दिये हैं किन्तु श्वेताम्बर लोगों ने मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् की दिगम्बर प्रतिमा को श्वेताम्बर आम्नाय की बनाने के कई बार प्रयत्न किये। इस बीच ४२ दिगम्बर मूर्तियों पर नेत्र जड़ दिये गये हैं। वर्तमान में स्थिति इस प्रकार है १. छोटे मंदिर और उसकी धर्मशाला पर दिगम्बर जैन समाज का पूर्ण अधिकार है। २. बड़े मंदिर में प्रात: ६ बजे से ९ बजे तक दिगम्बर समाज का कोई भी यात्री दिगम्बर आम्नाय के अनुसार स्वतन्त्रतापूर्वक पूजा-प्रक्षाल कर सकता है। ३. दिगम्बर समाज को अधिकार है कि पूजा के समय मूलनायक श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति पर किसी तरह का शृंगार होवे तो उसे अलग कर देवे। ४. दिगम्बर यात्री जब भी दर्शन करना चाहें, उन्हें दर्शन करने से नहीं रोका जा सकता।
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मक्सी बस्ती के मध्य में अवस्थित है। यहाँ परकोटे के अंदर दो मंदिर और धर्मशालाएँ हैंं। परकोटे के मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर दायीं ओर बड़ा मंदिर (मुख्य मंदिर) है तथा बायीं ओर धर्मशाला बनी हुई है। मंदिर में प्रवेश करने पर सामने एक चबूतरे पर भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। मूर्ति की अवगाहना ३ फुट ६ इंच है। चबूतरा दो फुट ऊँचा है। मूर्ति के नीचे कोई पीठासन नहीं है। मूर्ति के सिरपर सप्त फणावली सुशोभित है। यह मूर्ति अत्यन्त सौम्य, शान्त एवं मनोज्ञ है। मुख पर सहज वीतरागता अंकित है। यह बलुआ पाषाण की है और इसके ऊपर ओपदार पालिश की हुई है। मूर्ति के दर्शन करने पर दृष्टि और मन उसी पर केन्द्रित हो जाते हैं और हृदय भक्ति के सरस भावों से परिपूर्ण हो आता है। यह प्रतिमा भगवान के उस वीतराग रूप की साक्षात् प्रतीक है, जब भगवान अन्तर्बाह्य परिग्रह से रहित होकर पद्मासन मुद्रा में ध्यानावस्थित थे। उनके नेत्र ध्यानावस्था में अर्धोन्मीलित थे, दृष्टि नासा के अग्रभाग पर स्थिर थी और परम शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाश करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखरूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर अर्हंत परमेष्ठी हुए। अष्ट प्रातिहार्ययुक्त उसी अवस्था की यह मूर्ति है। प्रतिमा की फणावली के दोनों पाश्र्वों में दो गज हैं। उनमें नीचे दो पुरूष खड़े हैं। बायीं ओर के पुरूष के हाथ में माला है। दायीें ओर के पुरूष के हाथ में कुछ नहीं है। उनसे नीचे दोनों पाश्र्वों में चमरवाहन नागेन्द्र खड़े हुए हैं। ये सभी काली पालिश से रंगे हुए हैं। इन्हें किन्हीं अनाड़ी हाथों ने गढ़ा है। लगता है भगवान् का यह सम्पूर्ण परिकर बाद में निर्मित हुआ है। इस मूर्ति पर कोई लेख या लांछन नहीं है। सर्पफण-मण्डल के कारण पार्श्वनाथ की पहचान हो जाती है। जब यह प्रतिमा भूगर्भ से निकाली गयी, तब चरण चौकी भूगर्भ में ही दबी रह गयी। अत: यह किस काल में निर्मित हुई, इसका कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लोग भक्तिवश इसे चतुर्थ काल अर्थात् ईसा पूर्व छटी-सातवीं शताब्दी की कहते हैं। पालिश के कारण इसके पाषाण की भी परीक्षा नहीं हो सकती। साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर देखें तो मदनकीर्ति यतिवर की ‘शासनचतुिंस्त्रशिका’ और ‘विविधतीर्थकल्प’ में या उनसे पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थ में इस प्रतिमा की चर्चा नहीं मिलती। सम्भव है, यह परमार काल की रचना हो। यदि यह अनुमान सत्य हो तो यह स्वीकार करना होगा कि अपने प्रारम्भिक काल में यह विशेष प्रसिद्ध नहीं थी। मुस्लिम काल मेें इसका मंदिर तोड़ दिया गया या टूटकर गिर गया होगा और यह प्रतिमा मंदिर के अवशेषों में दब गयी होगी। जब भूगर्भ से निकालकर विराजमान किया गया, तब इसके चमत्कारों का सौरभ बिखरा। मूल वेदी के दायें और बायें पाश्र्व में एक-एक वेदी है, जो चबूतरेनुमा है। बायीं ओर की वेदी पर कृष्णवर्ण के पार्श्वनाथ विराजमान हैं। दायीं ओर की वेदी पर नेमिनाथ स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूलत: प्रतिमा श्वेत पाषाण की है, किन्तु किन्हीं लोगों ने काला लेप लगाकर इसे कृष्ण वर्ण की बना दी है। इसके दोनों पाश्र्वों में दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। ये सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नाय की हैंं। इस वेदी पर सप्त धातु की चन्द्रप्रभ स्वामी की एक प्रतिमा विराजमान है। उसका मूर्तिलेख निम्न भाँति पढ़ा गया है— ‘विक्रम संवत् १८९९ वर्षे मार्गशीर्षे शुक्लपक्षे ११ बुधवारे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये….टीकमगढ़ निवासी चौधरी लक्ष्मणस्तस्य भ्राता…..प्राण सुखस्तेन प्रतिमेयं श्री क्षेत्र मक्सीमध्ये प्रतिष्ठिता’। टीकमगढ़ निवासी चौधरी लक्ष्मणदास प्राणसुखदास ने यहाँ के छोटे मंदिर का निर्माण किया था और उसमें मूलनायक सुपार्श्वनाथ विराजमान किये थे। इस पर भी वही लेख अंकित है। ये दिगम्बर धर्मानुयायी श्रावक थे। टीकमगढ़ में उनके वंशज अब तक विद्यमान हैं। सभामण्डप में चव्रेश्वरी और पद्मावती की मूर्तियाँ हैं। चव्रेश्वरी की एक मूर्ति ताक में है। जिसके ऊपरी भाग पर आदिनाथ भगवान् की दिगम्बर प्रतिमा विराजमान है। इस मंदिर के सिरदल पर मध्य में नेमिनाथ तथा इधर-उधर खड्गासन दिगम्बर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। बड़े मंदिर की पलिमा (परिक्रमा) में ४२ देहरियाँ (छोटे देवालय) बनी हुई हैं। इनमें ४ देहरियाँ खाली खड़ी हुई हैं। इनमें जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विराजमान हैं। सेठ जीवराज पापड़ीवाल एक धर्मात्मा दिगम्बर श्रावक थे। उन्होंने विक्रम संवत् १५४८ वैशाख सुदी ३ को सैकड़ों-हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी। प्रतिष्ठाचार्य थे भट्टारक जिनचन्द्र। उन्होंने मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराके गाड़ियों में उन्हें भरवाकर विभिन्न स्थानों के मंदिरों को भेज दिया। यही कारण है कि उत्तर भारत का शायद ही कोई मंदिर ऐसा होगा जिसमें जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति विराजमान न हो। प्राय: उनकी सभी मूर्तियों पर लेख रहता हैै। यह मूर्ति-लेख बहुधा निम्न प्रकार का या इससे मिलता-जुलता रहता है— ‘संवत् १५४८ वैशाख सुदि ३ श्रीमूलसंघे भट्टारक जिनचंद्रदेव साहु जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमति सौख्यं शहर मुड़ासा श्री राजस्य सिंह रावल।’ भट्टारक जिनचंद्र दिगम्बर परम्परा में बलात्कारगण की दिल्ली-जयपुर शाखा के भट्टारक थे। वे भट्टारक शुभचंद्र (सं.१४५०-१५०७) के शिष्य थे। इनका भट्टारक काल संवत् १५०७ से १५७१ तक माना जाता है। आपने अपने जीवन काल में अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी। यहाँ की सभी देहरियों में सेठ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विराजमान हैं। अत: ऐसा लगता है कि देहरियों की प्रतिष्ठा पापड़ीवाल ने ही करायी थी और इन प्रतिमाओं को यहाँ विराजमान किया था। यदि यह मान लिया जाये कि पापड़ीवाल ने देहरियों की प्रतिष्ठा नहीं करायी, तब भी यह तो स्वीकार करना होगा कि मूलत: यह मंदिर दिगम्बर परम्परा का था। इसलिए भी श्री पापड़ीवाल ने यहाँ मूर्तियाँ भिजवायीं क्योंकि उन्होंने किसी श्वेताम्बर मंदिर में मूर्तियाँ नहीं भिजवायी थीं। देहरी नं. ३९ में नन्दीश्वर द्वीप की रचना है। इसमें ५२ प्रतिमाएँ हैं। इनमें ४४ प्रतिमाएँ खड्गासन हैं, शेष पद्मासन हैं और दिगम्बर हैं। नन्दीश्वर द्वीप की यह रचना दिगम्बर परम्परा के अनुसार हैै। श्वेताम्बर परम्परा में तो इस प्रकार की नन्दीश्वर रचना कहीं नहीं मिलती। बड़े मंदिर में एक शिलालेख (नं.१) है, जिसमें उल्लेख है कि इस मंदिर का निर्माण संग्रामसिंह सोनी ने संवत् १४७२ में कराया जो माण्डवगढ़ के सुलतान महमूद खिलजी का खजांची था। मूर्ति की प्रतिष्ठा संवत् १५१८ में की गयी। शिलालेख पर संवत् १६६७ उत्कीर्ण है। किन्तु शिलालेख की लिपि के आधार पर यह शिलालेख अति आधुनिक प्रतीत होता है। प्राचीन संवत् डालकर नये शिलालेख बनवाने और उनसे अपने पक्ष की पुष्टि करने का इतिहास पुराना है। बड़े मंदिर से दक्षिण की ओर इस अहाते में ऊँचे चबूतरे पर छोटा मंदिर है। यह सुपार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर कहलाता है। इस मंदिर में गर्भालय तथा महामण्डप बना हुआ है। गर्भालय में भगवान् सुपार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी अवगाहना २ फुट ६ इंच है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८९९ में हुई। प्रतिमा चौरस वेदी में विराजमान है। इस मंदिर और मूर्ति की प्रतिष्ठा टीकमगढ़ निवासी सेठ लक्ष्मणदास प्राणसुखदास ने करायी थी, जिन्होंने बड़े मंदिर की चन्द्रप्रभ भगवान् की धातु-मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी। सुपार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा के साथ ही चन्द्रप्रभ की भी प्रतिष्ठा हुई थी। उन्होेंने एक मूर्ति छोटे मंदिर में मूलनायक के रूप में विराजमान कर दी और धातु-मूर्ति बड़े मंदिर में। बड़ा मंदिर तब तक दिगम्बर परम्परा का मान्य मंदिर था और दिगम्बर समाज के ही अधिकार में था। मूलनायक भगवान् सुपार्श्वनाथ के दोनों पाश्र्वों में महावीर और सुपार्श्वनाथ की मूँगिया वर्ण की पद्मासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। इनकी अवगाहना १ फुट ८ इंच है। इसके आगे की कटनी पर भ.पार्श्वनाथ की १ फुट ४ इंच उन्नत संवत् १५४८ की तथा भ.आदिनाथ की १ फुट २ इंच ऊँची लेखरहित तथा दो धातु मूर्तियाँ एक पार्श्वनाथ २ फुट २ इंच तथा चौबीसी १ फुट ८ इंच विराजमान हैं। महामण्डप में एक वेदी में भगवान् पार्श्वनाथ की कृष्ण पाषाण की ५ फुट उन्नत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह संवत् २०२५ की प्रतिष्ठित है। इस मंदिर के बराबर में एक छोटा मंदिर है। इसमें तीन दर की एक वेदी है। मध्य में भगवान् पार्श्वनाथ की कृष्ण पाषाण की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९६१ में हुई थी। इसके पाश्र्व में बायीं ओर चन्द्रप्रभ और दायीं ओर पार्श्वनाथ की श्वेतवर्ण पाषाण पर पद्मासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। दोनों ही सेठ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित हुई थीं। छोटे मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के बगल में क्षेत्र का कार्यालय है। मंदिर के पृष्ठ भाग में धर्मशाला है। मंदिर के आगे चबूतरा है। उस पर क्षेत्र के दक्षिण की ओर सड़क के लिए द्वार बना हुआ है। क्षेत्र के अहाते से पृष्ठ भाग की सड़क मिली हुई है। क्षेत्र के पीछे तालाब बना हुआ है।
छोटे मंदिर के पृष्ठ भाग में धर्मशाला बनी हुई है। इसमें ११ कमरे हैं। रसोईघर, स्नान गृह, शौचालय, बगीचा ये सब धर्मशाला के पृष्ठ भाग में हैं। जल के लिए नल और कुआँ है। प्रकाश के लिए बिजली है। नगर में सभी आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती हैं। बड़े मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने भी एक धर्मशाला है। क्षेत्र के अहाते से लगा हुआ एक अहाता और है जिसमें विश्रान्ति भवन बना हुआ है। इसके ऊपर के भाग में दिगम्बर जैन गुरुकुल है तथा नीचे का भाग यात्रियों के उपयोग के लिए है। यहाँ भी नल और बिजली की समुचित व्यवस्था है।
वर्तमान में क्षेत्र पर एक गुरुकुल चल रहा है, जिसका संचालन मालवा प्रान्तिक दिगम्बर जैन सभा बड़नगर द्वारा किया जाता है। ==
क्षेत्र की संपूर्ण व्यवस्था एक निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती है। यह समिति मध्यप्रदेशीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अधीन है। ==
इस क्षेत्र पर फाल्गुन शुक्ला ८ से १५ तक वार्षिक मेला होता है। ==
मक्सी क्षेत्र पर चल रहे निर्माण कार्यों में ऊँचाईयाँ छूते-छूते शिखर व एक डोम बनकर तैयार हो गए हैं। भगवान पार्श्वनाथ की नवीन वेदी पर शिखर बन गया है। मूलनायक के सामने कोई मूर्ति नहीं होनी चाहिए, मूलनायक दबना नहीं चाहिए यह विचार दिगम्बर गुरुओं के संबोधन से दिगम्बर समाज के श्रेष्ठी वर्ग को समझ में आया तब फैरबदल करने का मन बनाकर एक उच्च शिखर और बनाया गया जहाँ पार्श्वनाथ जी को विराजमान किया जायेगा। भगवान सुपार्श्वनाथ के साक्षात् चमत्कार स्वरूप से चल रहा निर्माणकार्य बगैर विघ्न के निरंतर आगे बढ़ने लगा है। मंदिर सभा मण्डप को बड़ा बनाकर आकर्षक रूप दिया जा रहा है। मंदिर के बाहर एक परिक्रमा बनाई गई है, जो लाल पत्थरों की कलाकृति से सजाई जा रही है। प्रवेशद्वार के साथ दूर से भगवान सुपार्श्वनाथ के दर्शन अब हो सकेगे। ==
क्षेत्र पर कुल १५ कमरे हैं। जिसमें ३ डीलक्स कमरे हैं। भोजनशाला सशुल्क है। अनुरोध करने पर भोजन तैयार होता है। औषधालय गाँव के भीतर है। क्षेत्र पर गुरुकुल व पुस्तकालय भी है।