तीनलोक के मध्य में एक राजू लम्बा, चौड़ा और एक लाख योजन ऊँचा मध्यलोक है। इस मध्यलोक में पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों के रोमों के प्रमाण द्वीप-समुद्रों की संख्या है अर्थात् सभी द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं। ये सब गोलाकार हैं इनमें से पहले द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है और अंतिम समुद्र का नाम स्वयंभूरमण समुद्र है। ये सब द्वीप-समुद्र एक दूसरे को वेष्टित किए हुए हैं, वलयाकार (चूड़ी के समान आकार के) हैं। इनमें से जो पहला द्वीप है वह थाली के समान आकार वाला है।
सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खंडित कर वज्रा पृथ्वी के ऊपर हैं अर्थात् एक हजार योजन गहरे हैं और सभी द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं।
प्रथम द्वीप-समुद्र से प्रारम्भ करके सोलह द्वीप और समुद्रों के नाम बताते हैं।
१. जम्बूद्वीप लवणसमुद्र
२. धातकीखण्ड द्वीप कालोद समुद्र
३. पुष्करवर द्वीप पुष्करवर समुद्र
४. वारुणीवर द्वीप वारुणीवर समुद्र
५. क्षीरवर द्वीप क्षीरवर समुद्र
६. घृतवर द्वीप घृतवर समुद्र
७. क्षौद्रवर द्वीप क्षौद्रवर समुद्र
८. नंदीश्वर द्वीप नंदीश्वर समुद्र
९. अरुणवर द्वीप अरुणवर समुद्र
१०. अरुणाभास द्वीप अरुणाभास समुद्र
११. कुण्डलवर द्वीप कुण्डलवर समुद्र
१२. शंखवर द्वीप शंखवर समुद्र
१३. रुचकवर द्वीप रुचकवर समुद्र
१४. भुजगवर द्वीप भुजगवर समुद्र
१५. कुशवर द्वीप कुशवर समुद्र
१६. क्रौंचवर द्वीप क्रौंचवर समुद्र
इस प्रकार सोलह द्वीप और सोलह समुद्रों के नाम बताये हैं। ये सब एक-दूसरे को चारों तरफ से घेरे हुए हैं।
द्वीप-समुद्रों का प्रमाण-इनमें से जम्बूद्वीप का प्रमाण एक लाख१ योजन है। इसके आगे इस जम्बूद्वीप को वेष्टित किए हुए लवण समुद्र के व्यास का प्रमाण दो लाख योजन है। ऐसे ही आगे के द्वीप और समुद्र पहले-पहले से दूने-दूने विस्तार वाले हैं।
इन बत्तीस द्वीप-समुद्रों के आगे होने वाले असंख्यात द्वीप-समुद्रों के नाम नहीं लिखे जा सकते हैं अत: अन्त के भी सोलह द्वीप और सोलह समुद्रों के नाम शास्त्र में बताये गए हैं।
अंतिम सोलह द्वीप समुद्रों के नाम-इन्हें अन्तिम समुद्र से प्रारम्भ करने पर देखिए-
१. स्वयंभूरमण समुद्र स्वयंभूरमण द्वीप
२. अहीन्द्रवर समुद्र अहीन्द्रवर द्वीप
३. देववर समुद्र देववर द्वीप
४. यक्षवर समुद्र यक्षवर द्वीप
५. भूतवर समुद्र भूतवर द्वीप
६. नागवर समुद्र नागवर द्वीप
७. वैडूर्य समुद्र वैडूर्य द्वीप
८. वज्रवर समुद्र वज्रवर द्वीप
९. कांचन समुद्र कांचन द्वीप
१०. रूप्यवर समुद्र रूप्यवर द्वीप
११. हिंगुल समुद्र हिंगुल द्वीप
१२. अंजनवर समुद्र अंजनवर द्वीप
१३. श्याम समुद्र श्याम द्वीप
१४. सिंदूर समुद्र सिंदूर द्वीप
१५. हरितालसमुद्र हरिताल द्वीप
१६. मन:शिल समुद्र मन:शिल द्वीप
ये सोलह समुद्र और सोलह द्वीप हैं। अन्त में स्वयम्भूरमण द्वीप है, पुन: उसे वेष्टित कर सबसे अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है।
इसलिए सर्वप्रथम तो द्वीप है और अंत में समुद्र है ऐसा समझना।
इन द्वीपों में किस-किस का जल वैâसा है ? सो ही बताते हैं-
द्वीपों में कहां क्या है-प्रथम जम्बूद्वीप में, द्वितीय धातकीखण्ड में और तृतीय पुष्करवरद्वीप के आधे भाग में मनुष्यों का आवास है अर्थात् इन ढाई द्वीपों में भोगभूमि और कर्मभूमियों में मनुष्यों का जन्म होता रहता है। पुष्पकरवरद्वीप के बीचोंबीच में चूड़ी के समान आकार वाला गोलाकार मानुषोत्तर पर्वत है। इससे परे मनुष्यों का रहना नहीं है।
इससे आगे आधे पुष्करद्वीप में और समस्त असंख्यात द्वीपों में तथा स्वंयभूरमण द्वीप के आधे भाग में तिर्यंचों का निवास है। ये तिर्यंच भोगभूमिज हैं। युगल ही उत्पन्न होते हैं, एक पल्य की उत्कृष्ट आयु प्राप्त करते हैं और अन्त में मरकर देवगति को प्राप्त कर लेते हैं।
जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करार्ध और स्वयंभूरमण नामक जो चार द्वीप हैं उनको छोड़कर शेष असंख्यात द्वीपों में उत्पन्न हुए जो पंचेन्द्रिय संज्ञी, पर्याप्तक तिर्यंच जीव हैं वे पल्यप्रमाण आयु से युक्त, दो हजार धनुष ऊँचे, सुकुमार, कोमल अंगो वाले, मंदकषायी, फलभोजी हैं। ये युगल उत्पन्न होकर चतुर्थ भक्त्त से भोजन करते हैं। ये सब मरकर नियम से सुरलोक में जाते हैं। उनकी उत्पत्ति सर्वदर्शियों द्वारा अन्यत्र नहीं कही गई है१।
इसके अनन्तर आधे स्वयंभूरमण द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में जो तिर्यंच हैं वे कर्मभूमियां कहलाते हैं अर्थात् स्वयंभूरमण द्वीप में भी बीचोंबीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत के सदृश एक पर्वत है उसका नाम स्वयंप्रभ पर्वत है। इस पर्वत से इधर-इधर भोगभूमिज तिर्यंच हैं और उसके परे कर्मभूमिज तिर्यंच हैं। भोगभूमिज तिर्यंचों में विकलत्रय जीव (दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इन्द्रिय) नहीं होते हैं।
अकृत्रिम जिनमंदिर-जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अकृत्रिम, अनादिनिधन जिनमंदिर हैं, आगे नहीं हैं। इन सब मंदिरों की संख्या ४५८ है।
समुद्रों में कहां-वैâसा जल है-लवण समुद्र, वारुणीवर समुद्र, घृतवर समुद्र और क्षीरवर समुद्र इन चारों का जल अपने नामों के अनुसार है अर्थात् लवण समुद्र का जल खारा है, वारूणी समुद्र का जल मद्य के समान है, घृतवर समुद्र का जल घी के समान है और क्षीरवर समुद्र का जल दूध के समान है। इसी क्षीरवर समुद्र के जल से तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
कालोदधि समुद्र, पुष्करवर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र इन तीनों के जल का स्वाद सामान्य जल के सदृश ही होता है।
शेष सभी समुद्रों का जल इक्षुरस (गन्ने के रस) के समान मधुर है।
लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरमण समुद्र में ही जलचर जीव हैं, अन्य किसी समुद्र में नहीं हैं। इस प्रकार से मध्यलोक का अतिसंक्षिप्त वर्णन किया है।
दिगम्बराचार्य गुरु सबसे बड़े वैद्य हैं
वेज्जादुरभेसज्जापरिचारय संपदा जहारोग्गं।
गुरुसिस्सरयण साहण संपत्तीए तहा मोक्खो।।
आइरिओ वि य वेज्जो सिस्सो रोगी दु भेसजं चरिया।
खेत्त बल काल पुरिसं पाऊण सणिं दढं कुज्जा।।
अर्थ-जैसे वैद्य, रोगी, औषधि और परिचारक के संयोग से आरोग्य होता है वैसे ही गुरु, शिष्य, रत्नत्रय और साधन के संयोग से मोक्ष होता है।
आचार्य वैद्य हैं, शिष्य रोगी है, औषधि चर्या है। इन्हें तथा क्षेत्र, बल, काल और पुरुष को जानकर धीरे-धीरे इनमें दृढ़ करे।
आचार्य देव वैद्य हैं, शिष्य रोगी हैं, औषधि निर्दोष भिक्षा चर्या है, शीत, उष्ण आदि सहित प्रदेश क्षेत्र हैं, शरीर की सामथ्र्य आदि बल है, वर्षा आदि काल हैं एवं जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट भेद रूप पुरुष होते हैं। इन सभी को जानकर आकुलता के बिना आचार्य शिष्य को चर्यारूपी औषधि का प्रयोग कराये ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वैद्य रोगी को आरोग्य हेतु औषधि प्रयोग कराकर स्वस्थ कर देता है।
-मूलाचार-श्री वट्टकेराचार्य