(तीनलोक के जिनमंदिर पुस्तक से – गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित )
(प्रश्नोत्तर लेखिका- आ़. सुदृष्टिमती माताजी)
प्रश्न १- ज्योतिषी देवो की ज्योतिषी यह संज्ञा किस कारण है ?
उत्तर- सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारे ५ प्रकार के ज्योतिषी देव- ज्योतिर्मय हैं इनकी ज्योतिषी यह सार्थक संज्ञा है।
प्रश्न २- चन्द्रमा, सूर्य में इन्द्र व प्रतीन्द्र कौन है ?
उत्तर- चन्द्रमा इन्द्र है, सूर्य प्रतीन्द्र है।
प्रश्न ३- सूर्य चन्द्र आदि देवो की सूर्यादि संज्ञा किस कर्मोदय से है ?
उत्तर- ज्योतिषी देवो की सूर्य चन्द्र आदि संज्ञा नामकर्म के उदय से होती है।
प्रश्न ४- सूर्य और चन्द्रबिम्ब में लगी मणियों के किस कर्म का उदय है ?
उत्तर- सूर्य विमान में लगी मणि में आताप नामकर्म का उदय है। और चन्द्र विमान में लगी मणि के उद्योत नामकर्म का उदय है।
प्रश्न ५- आताप व उद्योत नामकर्म किसे कहते है ?
उत्तर- जिसका मूल शीत और आभा उष्ण हो वह आताप नामकर्म है तथा जिसका मूल भी शीत हो और आभा भी शीत हो उसे उद्योत नामकर्म कहते है।
प्रश्न ६- ज्योतिषी के विमानो का आकार कैसा है ?
उत्तर- सर्व ही ज्योतिषी देवो के विमान उत्तानस्थित (ऊपर मुख कर रखे हुये) अर्ध गोलक के आकार वाले है।
प्रश्न ७- ज्योतिषी देवो के कितने प्रकार है उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर- ज्योतिषी देव ५ प्रकार के होते है चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, और प्रकीर्णक तारा। ये ज्योतिषी देव लोक के अंत में घनोदधिवातवलय को छूते है।
विशेष इतना है कि पूर्व पश्चिम दक्षिण और उत्तर भागो में अन्तर है इसलिये ज्योतिषी देव उस घनोदधि वातवलय को नहीं छूते है।
प्रश्न ८- सम्पूर्ण ज्योतिषी देवो का प्रमाण कितना है ?
उत्तर- सम्पूर्ण ज्योतिषी देवो का प्रमाण असंख्यात है।
प्रश्न ९- प्रत्येक चंद्र की गृहसंख्यार बतलाओ ?
उत्तर- प्रत्येक चंद्र की गृहसंख्या ८८ है।
प्रश्न १०- एक एक चंद्र की नक्षत्र संख्या का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- एक एक चंद्र के २८ नक्षत्र होते है।
प्रश्न ११- २८ नक्षत्र कौनसे होते हे उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर- कृतिका, रोहिणी, मृगर्शीषा, आद्र्रा, पुनर्वसु, पुण्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हसन, चित्रा, स्वाति, विशाख, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषज् , पूर्वभाद्रपदा, उतरभाद्रपदा, रेवती, अश्वनी, और भरणी ये २८ नक्षत्रो के नाम है।
प्रश्न १२- एक एक चंद्र के तारो का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- एक एक चंद्र के छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ा कोड़ी तारे होते है।
प्रश्न १३- चन्द्रमा का विमान चित्रा पृथ्वी से कितने योजन ऊपर है ?
उत्तर- चित्रा पृथ्वी से ८०० योजन जाकर आकाश में चन्द्रो के मण्डल है।
प्रश्न १४- चन्द्रमा के विमान का आकार बताओं?
उत्तर- उत्तान अर्थात् उर्धवमुखरूप से अवस्थित अर्धगोलक के खमान चन्द्रो के मणिमय विद्यमान है।
प्रश्न १५- चन्द्रमा मंद किरणो का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- चन्द्रमा के विमान की पृथ्क पृथ्क अतिशय शीतल एवं मंदकिरणे १२००० हाजर प्रमाण है।
प्रश्न १६- चन्द्रमा के विमान में स्थित पृथिवी जीव किस कर्म उदय से युक्त है ?
उत्तर- चन्द्रमा के विमान स्थित पृथ्वी जीव चूंकि उद्योत नामकर्म के उदय से संयुक्त है इसलिये वे प्रकाशमान अतिशय मंद शीतल किरणों से संयुक्त होते है।
प्रश्न १७- चन्द्रविमानो में से प्रत्येक का उपरिम तल के विस्तार का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- एक योजन के इकसठ भाग करने पर ५६ भाग ।
प्रश्न १८- अपने को जो सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते है क्या है ?
उत्तर- यह उनके विमानो के नीचे होने वाला गोलाकार भाग है।
प्रश्न १९- सभी ज्योतिषक देवो के विमान के आकार आदि की विशेषता बतलाओ ?
उत्तर- ज्योतिष्क सभी देवो के विमान अर्धगोलक के सदृश है तथा मणिमय तोरणो से अलंकृत होते हुये निरन्तर देव देवियों से एवं जिनमन्दिरों से सुशोभित है।
प्रश्न २०- जम्बूद्वीप के सभी ज्योतिष्क देव क्या करते है ?
उत्तर- जम्बूद्वीप के सभी ज्योतिष्क देव मेरूपर्वत को १,१२१ योजन छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते है।
प्रश्न २१- ज्योतिर्वासी देवो के विमान इस चित्रा पृथ्वी से कितने योजन की प्रारम्भ होरक कितने योजन तक की ऊँचाई तक स्थित है?
उत्तर- चित्रा पृथ्वी से ८९० योजन से प्रारम्भ होकर ९०० योजन की ऊँचाई तक ११० योजन में स्थित है।
प्रश्न २२- सूर्य के विमान का परिमाण कितने योजन है ?
उत्तर- सूर्य का विमान ४८ \६१योजन है। यदि एक योजन में ४००० मील से गुणा किया जाये तो ३१४७- ३३\ ६१ मील होता है।
प्रश्न २३- चंद्र के विमान कितने योजन का है?
उत्तर- चंद्र का विमान ५६ ६१ योजन अर्थात् ३६७२-८ \६१ मील है।
प्रश्न २४- शुक्र का विमान कितने योजन का है ?
उत्तर- शुक्र का विमान १ कोश का है यह कोश लघुर कोश से ५०० गुणा है। अत: ५०० २ १००० मील का आता है इसी प्रकार आगे भी लगाना।
प्रश्न २५- ताराओं के विमानो का सबसे जघन्य प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- ताराओं के विमानो का सबसे जघन्य प्रमाण १ ४ योजन अर्थात् २५० मील का है।
प्रश्न २६- उक्त सभी विमानो की मोटाई का प्रमाण कितना है ?
उत्तर- सभी विमानो की मोटाई का प्रमाण अपने अपने विमानों के विस्तार से आधी आधी मानी है।
प्रश्न २७- राहु के विमान व केतु के विमान कहाँ है ?
उत्तर- राहु के विमान चन्द्रविमान के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य के विमान के नीचे रहते है अर्थात् ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेंधागुल) प्रमाण ऊपर चन्द्र सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते ही रहते हैं।
प्रश्न २८- ग्रहण किसे कहते हैं ?
उत्तर- राहु केतु के विमान ६-६ महिने में पूर्णिमा एवं अमावस्या को क्रम से चंद्र, सूर्य के विमानो ढक देते है इसेही ग्रहण कहते है।
बिम्बो का प्रमाण योजन से मील से किरणे
सूर्य ४८ \६१ योजन ३.१४७-३३ \६१ १२,०००
चन्द्र ५६ \६१ योजन ३.६७२-८ \६१ १२,०००
शुक्र एक कोश १००० मील २५००
बुध कुछ कम आधा कोश कुछ कम ५०० मील मंदकिरणे
मंगल कुछ कम आधा कोश कुछ कम ५०० मील मंदकिरणे
शनि कुछ कम आधा कोश कुछ कम ५०० मील मंदकिरणे
गुरू कुछ कम एक कोश कुछ कम १००० मील मंदकिरणे
राहु कुछ कम एक कोश कुछ कम ४००० मील मंदकिरणे
केतु कुछ कम एक कोश कुछ कम ४००० मील मंदकिरणे
तारे १\ ४ २५० मील मंदकिरणे
ग्रहण के समय दीक्षा विवाह, आदि शुभकार्य वर्जित माने है। तथा सिद्धान्तर ग्रंथो का स्वाध्याय का भी निषेध किया है।
प्रश्न २९- ज्योतिषी देवो के वाहन देव कितने और कौन कौन से हैं ?
उत्तर- सूर्य व चन्द्र के विमानों को अभियोग्य जाति के देव पूर्वादि दिशा में सिंह, हाथी, बैल और घोड़े के आकार को धरकर ४-४ हजार ऐसे १६,००० देव खींचते रहते है। इसीप्रकार से ग्रहो के ८०००, नक्षत्रों के ४०००,ताराओं के २००० देव वाहन जाति के है।
प्रश्न ३०- सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र आदि की गति परिमाण बतलाओ?
उत्तर- गमन में चन्द्रमा सबसे मंद, सूर्य शीघ्रगामी, इसके अधिक शीघ्रगामी ग्रह, ग्रहो से शीघ्रतर नक्षत्र, नक्षत्रो से भी शीघ्रतर गतिवाले तारागण होते है।
प्रश्न ३१- सूर्य की शीत और उष्ण किरणो का कारण क्या है?
उत्तर- पृथ्वी के परिणामस्वरूप (पृथिवीकायिक) चमकीली धातू से सूर्य का विमान बना हुआ है जो कि अकृत्रिम है। इस सूर्य के बिम्बस्थित पृथ्वीकायिकर जीवों के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणे चमकती है तथा उसके मूल में उष्णता न होकर सूर्य की किरणों में ही उष्णता होती है। इसलिये सूर्य की किरणे उष्ण है।
प्रश्न ३२- चन्द्रमा की शीत व उष्ण किरणो का कारण क्या है?
उत्तर- चन्द्रमा के बिम्ब में स्थित जीवो के उद्योत नामकर्म का उदय होने से जिसके निमित्त से मूल में तथा किरणों में सर्वत्र ही शिथिलता पायी जाती है इसीप्रकार ग्रह नक्षत्र तारा आदि सभी के बिम्ब-विमानो के पृथ्वीकायिक जीवों के भी उद्योत नामकर्म का उदय पाया जाता है।
प्रश्न ३३- ज्योतिषी देवो के विमानो में जिनालय की संख्या बतलाओ ?
उत्तर- ज्योतिषी के विमानो में स्थित जो असंख्यात जिनालय है उन जिनालयों स्थित जिनप्रतिमाओं के समूह की, मै मोक्ष प्राप्ति के हेतु नित्य ही वन्दना करता हूँ।
प्रश्न ३४- ज्योतिदेवो के विमानों में जिनमन्दिर कहाँ होते है ?
उत्तर- ज्योतिर्देवों के विमानों में बीचोबीच में एक एक जिनमन्दिर है।
प्रश्न ३५- जिनमन्दिरों के चारों और क्या है ?
उत्तर- जिनमन्दिर के चारो और ज्योतिर्वासी देवो निवास स्थान बने है।
विशेष- प्रत्येक विमान की तटवेदी चार गोपुरों से युक्त है। उसके बीच में उत्तमवेदी से युक्त जिनचैत्यालय है।
प्रश्न ३६- जिनमन्दिर किस विशेषप्रकार के वैभव से सहित होते है ?
उत्तर- जिनमन्दिर मोती और सुवर्ण की मालाओं से रमणीय एंव उत्तम वङ्कामय किवाड़ो से संयुक्त दिव्य चन्द्रापको से सुशोभित है। वे जिन भवन देदीप्यमान रत्नदीपको से सहित अष्ट महामंगल द्रव्यो से सहित वन्दनमाला, चमर, क्षुद्र, घंटिकाओं के समूह से शोभायमान है। उन जिनभवनो में स्थान स्थान पर विचित्र रत्नो से निर्मित नाट्यशाला अभिषेक सभा एवं विविधप्रकार की क्रीड़ाशालाये बनी हुई है। वे जिनभवन समुद्र सदृश गम्भीर शब्द करने वाले, मर्दल पटह आदि विविध प्रकार के दिव्यवादित्रो से नित्य शब्दायमान है उन जिनभवनों में तीन छत्र सिंहासन, भामण्डल और चामरों से युक्त जिनप्रतिमाये विराजमान है।
प्रश्न ३७- जिमन्दिरों के भगवान के आजु बाजु में किनकी मूर्तियाँ होती है ?
उत्तर- जिनेन्द्र प्रसादो में श्री देवी, श्रुतदेवी, यक्षी एवं सर्वाण्हय सन्त् कुमार यक्षो की मूर्तियाँ भगवान के आजुबाजु में शोभायमान होती है।
प्रश्न ३८- स्वर्ग के सब देव उनकी पूजा करते है ?
उत्तर- सब देवगाढ़ भक्ति से जल, चन्दन, तंदुल, पुष्प, नैवेद्य, द्वीप, धूप और फलों से पश्पिूर्ण नित्य ही उनकी पूजा करते है।
प्रश्न ३९- अमावस्यार का दिन कब होता है ?
उत्तर- राहु का विमान प्रतिदिन एक एक मार्ग में चन्द्रबिम्ब की १५ दिन तक एक एक कलाओं को ढकना रहता है। दस प्रकार राहुबिम्ब के द्वारा चन्द्र १ ही कला दिखती है वह अमावस्या का दिन होता है।
प्रश्न ४०- पूर्णिमा किसे कहते है ?
उत्तर- फिर वह राहु प्रतिपदा के दिन से प्रत्येक गली में १-१ कला को छोड़ते हुये प्रौणिमा को १५ कलाओं को छोड़ देता है तब चन्द्र बिम्ब पूर्ण दिखने लगता है उसे पूर्णिमा कहते है। इस प्रकार कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष का विभाग हो जाता है।
प्रश्न ४१- चन्द्रग्रहण किसे कहते है ?
उत्तर- ६ मास में पूर्णिमा के दिन चन्द्रविमान पूर्ण आच्धादित हो जाता है उसे चन्द्रग्रहण कहते है।
प्रश्न ४२- सूर्यग्रहण किसे कहते है ?
उत्तर- ६ मास में सूर्य के विमान को अमावस्या के दिन केतु का विमान ढक देता है उसे सूर्य ग्रहण कहते है।
प्रश्न ४३- ज्योतिर्वासी देवो की आयु बतलाओ ?
उत्तर- चन्द्रमा की उत्कृष्ट आयु- १ पल्य, १ लाख वर्ष।
सूर्य की उत्कृष्ट आयु – १ पल्य १ हजार वर्ष।
शुक्र की उत्कृष्ट आयु- १ पल्य, १०० वर्ष।
वृहस्पति की उत्कृष्ट आयु – १ पल्य की।
बुध, मंगल, आदि की आयु- १/२ पल्य की।
ताराओं की उत्कृष्ट आयु – १/४ पल्य की।
प्रश्न ४४- ज्योतिष्क देवागंनाओं की आयु का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- ज्योतिष्क देवागंनाओं की आयु अपने अपने पति की आयु के अर्ध प्रमाण है।
प्रश्न ४५- चक्रवर्ती सूर्यविमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन करता है ?
उत्तर- जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्यविमान में स्थित जिनबिंब का दर्शन करते है। इस समय सूर्य अभ्यन्तर गली की परिधि ३,१५,०७९ योजन ६० मुहूर्त में पूरा करता है। इस गली में सूर्य निषध पर्वत पर उचित होता है।वहाँ से उसे अयोध्या नगरी के ऊपर आने मु ९ मुहूर्त लगते है। अब जब वह ३,१५०८९ योजन प्रमाण उस वीधी को ६० मुहूर्त मे पूर्ण करता है जब तक वह ९ मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पूरा करेगा, इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ३,१५०८९/६०*९ =४७२६३७/२० योजन अर्थात् मिल होता है। (१८९०५३४०००, मील है) चक्रवर्ती के चक्षुा इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय इतनी ही है।
प्रश्न ४६- एक चंद्र का परिवार बतलाओ ?
उत्तर- ज्योतिषी देवो में चन्द्रमा इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र है। अत: एक चन्द्र के सूर्यप्रतीन्द्र, ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६,६९७५ कोड़ाकोड़ी तारे है ये सब परिवार देव है।
प्रश्न ४७- जंबूद्वीप में कितने चंद्र है ?
उत्तर- दो चंद्र है।
प्रश्न ४८- सूर्य और चन्द्र के कितनी प्रमुख देवियाँ है तथा प्रत्येक देवी के आश्रित और कितनी देवियाँ है ?
उत्तर- सूर्य और चंद्र के ४-४ प्रमुख देवियाँ है। और प्रत्येक देवी की ४ आश्रित ४-४ हजार देवियाँ है।
प्रश्न ४९- कोड़ाकोड़ी का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ा कोड़ी संख्या आती है। १०००००००*१०००००० =१०००००००००००००
प्रश्न ५०- एक तारे से दूसरे तारे का जघन्य अन्तर बतलाओ ?
उत्तर- एक तारे से दूसरे तारे का जघन्य अन्तर १४२६/७ मील अर्थात् १/७ महाकोश है इसका लघुकोश ५०० का गुणा होने से ५०० १/७ हुआ इसका मिल बनाने पर ५०० गुणा होने से ५००/७ हुआ उसका मील बनाने पर ५००/७*२ =१४२-६/९ हुआ।
प्रश्न ५१- एक तारे से दूसरे तारे का मध्यम अन्तर कितना है ?
उत्तर- ५० योजन (२,००,००० २ लाख मील) १योजन कोश ५० १ लाख कोश ।
प्रश्न ५२- ढाईद्वीप एवं दो समुद्र सम्बंधी सूर्य चन्द्रादिको का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- जम्बूद्वीप २ चंद्रमा २ सूर्य।
लवणसमुद्र में ४ चंद्रमा ४ सूर्य।
धातकी खंड द्वीप में १२ चन्द्रमा १२ सूर्य।
कालोदधि समुद्र में ४२ चन्द्रमा ४२ सूर्य।
पुष्करार्ध द्वीप में ७२ चन्द्रमा ७२ सूर्य है।
विशेष- सर्वत्र ही १-१ सूर्य (प्रतीन्द्र) ८८-८८ ग्रह २८-२ नक्षत्र एवं ६६ हजार ९७५ कोड़ाकोड़ीर तारे है। इतने प्रमाण परिवार देव समझना चाहिये।
प्रश्न ५४- ढाई द्वीप के आगे आगे चन्द्रमा सूर्य की क्या व्यवस्था है ?
उत्तर- ढाई द्वीप के आगे आगे असंख्यात द्वीप एवं समुद्र पर्यन्त दूने दूने सूर्य होते गये है।
प्रश्न ५५- जंबूद्वीप का विस्तार कितने योजन का है ?
उत्तर- जंबूद्वीप १ लाख योजन का है। (१०००००*४०००=४००००००००) ४० करोड़ मील है।
प्रश्न ५६- सूर्य का गमन पृथ्वीतल से कितने योजन ऊपर है ?
उत्तर-सूर्य का गमनक्षेत्र पृथ्वीतल से ८०० योजन (८००*४००० =३२०००००) ३२ लाख मील ऊपर है
प्रश्न ५७- सूर्य का गमन क्षेत्र जंबूद्वीप में कितना है ?
उत्तर- इस जंबूद्वीप के भीतर १८० योजन एवं लवणसमुद्र में ३३० ४८/६१ योजन है अर्थात् समस्तगमनक्षेत्र ५१० ४८\६१ योजन या २०४३१४७ १३/६१ मील है।
प्रश्न ५८- सूर्य के गमन क्षेत्र प्रमाण में कितनी गलियाँ है?
उत्तर- सूर्य के गमन क्षेत्र प्रमाण में १८४ गलियाँ है।
प्रश्न ५९- १८४ गलियों में सूर्य के संचार का क्रम बतलाओ ?
उत्तर- १८४ गलियों में सूर्य क्रम से एक-एक गली में संचार करते है।
प्रश्न ६०- जंबूद्वीप में कितने सूर्य कितने चन्द्रमा है ?
उत्तर- जंबूद्वीप में दो सूर्य- दो चन्द्रमा है।
प्रश्न ६१- ५१० ४८/६१ योजन गमन क्षेत्र सूर्य बिम्ब की १-१ गली का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- सूर्य बिम्ब एक एक गली ४८/६१ योजन प्रमाण वाली है।
प्रश्न ६२-एक गली से दूसरी गली का अन्तराल प्रमाण बतलाओं ?
उत्तर- एक गली से दूसरी गली का अन्तराल २-२ योजन का है।
प्रश्न ६३- कुल गलीयों का अंतराल क्षेत्र बतलाओ ?
उत्तर- १८४ गलियों का प्रमाण ४८/६१*१८४=१४४ ४८/६१ योजन हुआ । इस प्रमाण को ५१० ४८/६१ योजन गमन क्षेत्र में से घटाने पर ५१० ४८/६१ -१४४ ४८ /६१ =३६६ योजन कुल गलीयाँ का अंतराल क्षेत्र रहा (५१०-१४४ =३६६ योजन)
प्रश्न ६४- एक गली से दूसरी गली का अंतराल २-२ योजन कैसे आता है ?
उत्तर- कुलगलीयों का अंतराल क्षेत्र ३६६ योजन एक कम गलियों का अर्थात् गलीयों का अन्तर १८३ है। उसका भाग देने से गलियों के अन्तर का प्रमाण ३६६/१८३=२ योजन (८००० मील) का आता है।
प्रश्न ६५- सूर्य के प्रतिदिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- एक गली से दूसरी गली का अन्तर जो २ योजन है इस अन्तर में सूर्य की १ गली का प्रमाण ४८/६१ योजन को मिलाने से सूर्य के प्रतिदिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण २ ४८/६१ योजन ११,१४७ ३३/६१ मील का हो जाता है।
विशेष- इन गलियों में एक एक गली में दोनो सूर्य आमने सामने रहते हुये १ दिन रात्री (३० मुहूर्त) में एक गली के भ्रमण को पूरा करते है।
प्रश्न ६६- दोनो सूर्यो का आपस में अन्तराल का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- जब दोनो सूर्य अभ्यन्तर गली में रहते हे तब आमने सामने रहने से सूर्य से दूसरे सूर्य का आपस में अन्तर ९९,६४० योजन (३९,८५,५६०००० मील) का रहता है।स (९९,६४०*४०००)
प्रश्न ६७- प्रथम गली में स्थित सूर्य का मेरू से अन्तर का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- प्रथम गली में स्थित सूर्य का मेरू से अन्तर ४४,८२० है।(१,८९,२८०००० मील) का रहता है। (४४,८२० ४०००)
विशेष- अर्थात् १ लाख योजन प्रमाण वाले जंबूद्वीप में से जंबूद्वीप सम्बंधी दोनो तरफ से सूर्य का गमन क्षेत्र को घटाने से १ लाख – १८२*२ =३६० । (१ लाख-३६०,९९,६४० योजन आता है।
तथा इसमें मेरूपर्वत का विस्तार घटाकर कर शेष को आधा करने से मेरू से प्रथमवीधि में स्थित सूर्य का अन्तर निकलता है। ९९६४० १०००० (मेरूपर्वत की परिधि) ८९६४०/२= ४४८२० योजन |
प्रश्न ६८- एक मुहूर्त में सूर्य के गमन का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- जब सूर्य प्रथमगली में रहता है तब एक मुहूर्त में ५२५१ २९/६० योजन (२१,००५९,४३३ १/३ मील) गमन करता है। अर्थात् प्रथमगली की परिधि का प्रमाण ३,१५०८९ योजन है, उनमें ६० मुहूर्त का भाग देने से उपर्युक्त संख्या आती है। क्योंकि २ सूर्यो के द्वारा ३० मुहूर्त में १ परिधि पूर्ण होती है। अत: एक परिधि के परिभ्रमण में कुल ६० मुहूर्त लगते है अत: ६० का भाग दिया जाता है।
उसी प्रकार जब सूर्य बाह्यगली में रहता है तब बाह्य परिधि में ६०का भाग देने से ३१८३१४/६०=४३०५ १४/६० योजन (२१२२०९३३ १/३ मील) प्रमाण १ मुहूर्त में गमन करता है। (२ करोड़ १२ लाख २० हजार ९ सौ तैतीस)
प्रश्न ६९- एक मिनिट में सूर्य का गमन का प्रमाण बतलाओं?
उत्तर- एक मिनिट में सूर्य की गति ४,४७६२३ ११/१८ मील प्रमाण है। अर्थात् एक मुहूर्त की गति में ४८ मिनिट भाग देने से १ मिनिट की गति का प्रमाण आता है। यथा २,१२,२०९३३ १/३ /४८ =४,४७,६२३ ११/१८ योजन।
प्रश्न ७०- दक्षिणायन एवं उत्तरायण कब प्रारम्भ होता है?
उत्तर- श्रावणकृष्णा प्रतिपदा के दिन जब सूर्य अभ्यन्तर मार्ग (गली) में रहता है तब दक्षिणायन प्रारम्भ होता है और जब १८४ वीं (अन्तिम गली) में पहुँचता है तब उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। अतएव ६ महीने में उत्तरायण तथा ६ महीने में दक्षिणायन होता है।
प्रश्न ७१- जब दोनों सूर्य अन्तिम गली में पहुँचते है तब दोनों सूर्यो का परस्पर में अन्तर बतलाओ?
उत्तर- जब दोनों सूर्य अन्तिम गली में पहुँचते है तब एक सूर्य से दूसरे सूर्य के बीच का अंतराल १,००६६० योजन, (४,०२६,४०००० मील का रहता है)
अर्थात् जंबूद्वीप १ लाख योजन है। तथा लवणसमुद्र में गमन का क्षेत्र ३३० योजन है उसे दोनों तरफ से लेकर मिलाने पर १०००००+३३०+३३०=१००६६० योजन होता है। अंतिम गली में अन्तिम गली का यही अंतर है।
प्रश्न ७२- अधिक दिन व मास का क्या क्रम हैं ?
उत्तर- जब सूर्य एक पथ से दूसरे पथ में प्रवेश करता है तब मध्य के अंतराल २ योजन (८००० मील) को पार करते हुये ही जाता है अतएव इस निमित्त से १ दिन में १ मुहूर्त की वृद्धि होने से १ मास में ३० मुहूर्त (१ अहोरात्र) की वृद्धि होती है।
अर्थात् यदि एक पथ को लांघने में दिन का ६१ वाँ भाग (१/६१) उपलब्ध होता हे तो १८४ पथो के १८३ अंतरालो को लांघने में कितना समय लगेगा १/६१*१८३/१=३ दिन तथा दो सूर्य सम्बंधी ६ दिन हुये।
इस प्रकार प्रतिदिन १ मुहूर्त (४८ मिनिट) की वृद्धि होने से १ मास में १ दिन तथा १ वर्ष में १२ दिन की वृद्धि हुई एवं इसी क्रम से दो वर्ष में २४ दिन तथा ढाईवर्ष में ३० दिन (१ मास) की वृद्धि होती है तथा ५ वर्ष में (१ युग) २ मास अधिक हो जाते है।
प्रश्न ७३- कृष्णपक्ष व शुक्लपक्ष रकी आगमानुसार क्या व्यवस्था है?
उत्तर- पहले से दूसरी गली में प्रवेश करने पर चंद्रमंडल के १६ भागो में एक भाग राहु के गमन विशेष से ढक जाता हैर ऐसे ही १५ दिन तक १-१ कला ढकते ढकते अमावस्या के दिन एक ही कला रह जाती है। प्रतिपदा से राहु के गमन विशेष से १-१ कला खुलती जाती है। १६ कला के पूर्ण होने पूर्णिमा होती है।
प्रश्न ७४- अढ़ाई द्वीप के चन्द्र (परिवार सहित)
उत्तर- द्वीप समुद्रो के नाम चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारो की संख्या
जंबूद्वीप में २ २ १७६ ५६ ६६,६७५२ कोड़ाकोड़ी
लवणसमुद्र में ४ ४ ३५२ ११२ ६६,६७५४ कोड़ाकोड़ी
धातकी खंडद्वीप १२ १२ १०५६ ३३६ ६६,६७५ १२ कोड़ाकोड़ा
कालोदधि समुद्र में ४२ ४२ ३६९६ ११७ ६६,९७५ २४ कोड़ाकोड़ी
पुष्करादर्ध में ७२ ७२ ६३३६ २०१६ ६६,९७५ ७२ कोड़ाकोड़ी
कुलयोग १३२ १३२ ११.६१६ ३६९६ ८८,४०७०० कोड़ाकोड़ी
प्रश्न ७५- चन्द्र की गलियो का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- सूर्य के समानय ही ५१०-४८/६१ योजन प्रमाण क्षेत्र ही चंद्र का गमन क्षेत्र है। इस गमन क्षेत्र में चंद्र की १५ गलियाँ है। चंद्र बिम्बप्रमाण ५६/६१ योजन की एक एक गली है एवं ३५-२१४/४२७ योजन प्रमाण एक एक गली का अंतराल है। प्रतिदिन दो चन्द्रमा आमने सामने रहते हुये ६२-२३/२२१ मुहूर्त काल में एक गली का भ्रमण पूरा करते है।
प्रश्न ७६- चंद्रमा एक मिनिट में कितना गमन करता है बतलाओ ?
उत्तर- चन्द्रमा एक मिनिट में लगभग ४,२२,७९७ मील प्रमाण गमन करता है।
प्रश्न ७७- चंद्रमा एक मुहूर्त में कितना गमन करता हैं ?
उत्तर- चंद्रमा एक मुहूर्त में ५०३७७७४४/१३,७५५ योजन प्रमाण गमन करता है।
प्रश्न ७८- लवणसमुद्र में ज्योतिषी देवो का गमन क्षेत्र बतलाओ ?
उत्तर- लवणसमुद्र में ५१०़४८/६१ योजन प्रमाण वाले दो गमन क्षेत्र है उन १-१ क्षेत्रों में २-२ सूर्य चंद्र संचार किया करते है एक एक चंद्र के परिवार में पूर्वोक्त प्रमाण ग्रह, नक्षत्र, तारे कहे गये है।
प्रश्न ७९- धातकी खंड आदि द्वीप समुद्रों में ज्योतिषी देवो के गमन का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- धातकीखंडद्वीप में १२ सूर्य व १२ चन्द्रमा हैं। इनके ६ गमन क्षेत्र है। जो कि ५१,०४८/६१ योजन प्रमाण वाले ही है। कालोदधि समुद्र में ४२ सूर्य, ४२ चंद्रमा है। इनके लिये २१ गमन क्षेत्र है। पुष्करार्ध में ७२ सूर्य, ७२ चंद्रमा है इसके लिये ३६ गमनक्षेत्र वहाँ है वे भी ५१,०४८/६१ योजन प्रमाण वाले है। इन एक एक गमन क्षेत्र में दो सूर्य और दो दो चंद्र भ्रमण किया करते है। सभी के परिवार देव पूर्वोक्त प्रमाण है।
प्रश्न ८०- धु्रव ताराओं का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- जंबूद्वीप में ३६, लवणसमुद्र में १३९, धातकीखंड द्वीप में कालोदधि में ४१,१२० पुष्करार्ध में ५,३२,३०० धु्रव तारे है।
प्रश्न ८१- ढाईद्वीप के आगे ज्योतिषी देव गमन करते है?
उत्तर- नहीं। ढाईद्वीप के आगे सभी ज्योतिष्क देव एवं तारे स्थिर ही है।
प्रश्न ८२- मानुषोत्तर पर्वत से बाहर जो असंख्यात द्वीप और समुद्र है उनमें मनुष्य उत्पभ होते है?
उत्तर- मानुषोत्तर पर्वत के बाहर असंख्यात द्वीप समुद्र है उनमें न तो मनुष्य उत्पभ ही होते है और न वहाँ जा ही सकते है।
प्रश्न ८३- ढाईद्वीप के आगे असंख्यात द्वीप समुद्र में कितने सूर्य चन्द्रमा हैं ?
उत्तर- ढाईद्वीप के आगे असंख्यात द्वीप व समुद्र है उनमें दूने दूने चन्द्रमा एवं दूने दूने सूर्य होते गये हैं।
प्रश्न ८४- दिनपक्ष आदि काल का विभाग किस कारण से होता है?
उत्तर- ढाईद्वीप के भीतर के ही सूर्य चन्द्र आदि मेरू की प्रदक्षिणा क्रम से भ्रमण किया करते है। इनके गमन से ही दिन पक्ष आदि का काल विभाग होता है।
प्रश्न ८५- मानुषोत्तर पर्वत के बाहर आधा पुष्कर द्वीप का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- आठ लाख योजन का है।
प्रश्न ८६- पुष्करर्ध में कितने सूर्य और चन्द्रमा है?
उत्तर- पुष्करार्ध में १२६४ सूर्य और इनते ही चन्द्रमा है।
प्रश्न ८७- मानुषोत्तर पर्वत से कितने योजन की दूरी पर प्रथम वलय हैं ?
उत्तर- मानुषोत्तर पर्वत से ५०००० योजन दूरी पर प्रथमवलय है।
प्रश्न ८८- इस प्रथमवलय में कितने सूर्य व चन्द्रमा दिखता हैं ?
उत्तर- इस वलय के इधर के पुष्करार्ध द्वीप के ७२ से दूने ७२+७२=१४४ सूर्य एवं १४४ चन्द्रमा हैं।
प्रश्न ८९- प्रथमवलय से दूसरे वलय का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- प्रथमवलय से १००००० (१ लाख) योजन जाकर दूसरा वलय है। ऐसे १००००० (१लाख) योजन दूर से यहाँ ८ वलय है।
प्रश्न ९०- दूसरे आदि वलय में कितने कितने सूर्य चन्द्रमा है?
उत्तर- प्रथमवलय में १४४ दूसरे वलय में ४ और बढ़ा दीजिये तीसरे में १५२ ऐसे प्रत्येक वलय में ४-४ बढ़ते गये हैं आठो वलयों में कुल मिलाकर १२६४ सूर्य हुये है।
प्रश्न ९१- आगे पुष्करवर समुद्र का व्यास कितना हैं ?
उत्तर- ३२ लाख योजन का है।
प्रश्न ९२- पुष्करसमुद्र में वलय संख्या कितनी हैं ?
उत्तर- वहाँ ३२ वलय है।
प्रश्न ९३- प्रत्येक वलय में चन्द्रमा व सूर्य का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- बाह्य पुष्कर द्वीप के १२६४ को दूना करने से २५२८ सूर्य हुये प्रथम वलय में २५२८ सूर्य और चन्द्रमा है। दूसरे आदि वलयों में ४-४ बढ़ते हैं ३२ वलयों का जोड़ ८२८८० होता हैं।
प्रश्न ९४- आगे के द्वीप समुद्रो में चन्द्रमा व सूर्य के प्रमाण की व्यवस्था क्या है?
उत्तर- आगे के द्वीप के प्रथम वलय में इसे दूगुना ८२८८०*२=१६५७६० सूर्य हुये। सभी द्वीप समुद्रो में प्रत्येक वलय का अन्तर १००००० (१लाख) योजन का है समुद्र तट या वेदी तट से ५०,००० हजार योजन का है। द्वीप से समुद्र में और समुद्र से द्वीप प्रारम्भ से पूर्व द्वीप या समुद्र के सूर्यो से संख्या दूनी हो जाती है आगे उसी द्वीप या समुद्र के प्रत्येक वलय में ४-४ बढ़ जाते है।
प्रश्न ९५- सर्वत्र चंद्र के परिवार देव कितने हैं ?
उत्तर- सर्वत्र १ चंद्र, १सूर्य, ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६९७५ कोड़ाकोड़ी परिवार देव हैं।
प्रश्न ९६- स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त सूर्य चन्द्रो का प्रमाण कितना हो जाता है?
उत्तर- अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र में सूर्यो का प्रमाण असंख्यात हो जाता है।
प्रश्न ९७- क्या ज्योतिष्क वासी देवो भवनों में जिनमन्दिर हैं ?
उत्तर- हाँ । सभी ज्योतिषक वासी देवो के भवनों का १-१ जिनमन्दिर हैं। ऐसे ज्योर्तिवासी गृह सम्बंधी असंख्यात जिनभवनों को हमारा नमस्कार होवे।
प्रश्न ९८- सूर्य का ताप मेरूपर्वत के मध्यभाग से लेकर कहाँ फैतला हैं ?
उत्तर- सूर्य का ताप मेरूपर्वत के मध्यभाग से लेकर लवणसमुद्र के छठे भाग तक फैलता है। अर्थात् लवणसमुद्र का विस्तार २००००० लाख योजन है।उसमें ६ का भाग देकर, १लाख जम्बूद्वीप का आधा ५०००० (५० हजार) मिलाने से (२०००००/६ ५०००० ८३३३३ १/३ योजन (३३३३३३३३३ १/३ मील) तक प्रकाश फैलता है।
प्रश्न ९९- सूर्य का प्रकाश नीचे की ऊपर की और कहाँ तक पैâलता हैं ?
उत्तर- सूर्य का प्रकाश नीचे की और चित्रा पृथ्वी की जड़ तक अर्थात् चित्रा पृथ्वी से एक हजार योजन नीचे तक एवं ऊपर सूर्य बिम्ब ८ योजन पर है अत: १०००+८००=१८०० योजन । ७२००००० मील (७२लाख मील) तक फैलता है। और ऊपर की और १०० योजन (४००००० मील) तक फैलता है।
प्रश्न १००- लवणसमुद्र के छठे भाग की परिधि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- लवणसमुद्र के छठे भाग की परिधि का प्रमाण ५,२७०४६ योजन (२१२८१८४,००० मील) है।
प्रश्न १०१- समय किसे कहते हैं ?
उत्तर- जितने काल में एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश को लाँघता है उतने काल को एक समय कहते हैं।
प्रश्न १०२- आवली किसे कहते हैं ?
उत्तर- असंख्यातों समय की एक आँवली होती हैं।
प्रश्न १०३- उच्छ्वास, स्तोक, लव आदि किसे कहते हैं ?
उत्तर- संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास होता है। ७ उच्छ्वासो का एक स्तोक, ७ स्तोको १ लव, ३८ १/२ लवो की १ नाली अर्थात् घटिका। २४ मिनिट की १ घड़ी होती है उसे ही नाली या घटिका कहते है।२ घटिका का १ मुहूर्त होता है। ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है। एवं ३० मुहूर्त का एक दिनरात होता है अथवा २४ घंटे का एक दिन रात होता है।
१५ दिन का १ पक्ष, २ पक्ष का १ मास, २ मास की एक ऋतु, ३ ऋतु का १ अयन, २ अयन का १ वर्ष, ५ वर्षो का १ युग होता है।
प्रश्न १०४- प्रति ५ वर्ष के पश्चात् सूर्य कौनसी गली में रहता हैं ?
उत्तर- प्रति ५ वर्ष के पश्चात् सूर्य श्रावण कृष्णा १ को पहली गली में आता हैं।
प्रश्न १०५- देवो के कितने भेद हैं?
उत्तर- देवो के ४ भेद हैं भवनवासी व्यन्तरवासी, ज्योतिर्वासी, एवं वैमानिक।
प्रश्न १०६- सम्यग्दृष्टि जीव कहाँ उत्पभ होते है?
उत्तर- सम्यग्दृष्टि जीव वैमानिक देवो में ही उत्पभ होते हैं।
प्रश्न १०७- वैमानिक देवो सम्यग्दृष्टि उत्पभ होते हैं भवनत्रिक में क्यों नहीं ?
उत्तर- क्योंकि ये जिनमत के विपरीत धर्म को पालने वाले है। उन्मार्गचारी हैें, निदानपूर्वक मरने वाले हैं,अग्निपात, ज्ञंझावात आदि से मरने वाले है। अकामनिर्जरा करने वाले हैं। पंचाग्नि आदि कुतप करने वाले है। या सदोष चारित्र पालन करने वाले हैं। एवं सम्यग्दर्शन से रहित ऐसे जीव इन ज्योतिष्क आदि देवों में उत्पभ होते हैं।
प्रश्न १०८- ज्योतिर्वासी देव के सम्यक्तव उत्पति के कारण बतलाओ ?
उत्तर- ये देव भी भगवान के पंचकल्याणक आदि विशेष उत्सवों के देखने से या अन्यदेवो की विशेष ऋद्धि (विभूति) आदि को देखने से या जिनबिम्ब दर्शन आदि कारणों से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकते हैं। अनेक प्रकार की अणिमा, महिमा, आदि ऋद्धियों से युक्त इच्छानुसार अनेक भोगा का अनुभव करते हुये यत्र तत्र क्रीड़ा आदि के लिये परिभ्रमण करते रहते हैं।
प्रश्न १०९- स्वर्ग के देव, तीर्थंकरो के पंचकल्याणकों में या क्रीड़ा आदि के लिये, मूल शरी जाते है?
उत्तर- ये तीर्थंकर देवो के पंचकल्याणक महोत्सव में या क्रीड़ा आदि केलिये अपने मूल शरीर को छोड़कर कही नही जाते है। विक्रिया के द्वारा दूसरा शरीर बनाकर हैं सर्वत्र आते रहते हैं।
प्रश्न ११०- यदि कदाचित् सम्यक्तव को नहीं प्राप्त कर पाये तो भवनत्रिक जीव की क्या गति होती हैं ?
उत्तर- यदि कदाचित् वहाँ पर सम्यक्तव को नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो मिथ्यात्व के निमित्त से मरण ६ महिने पहले से ही अत्यन्त दुखी होने से आर्तध्यानपूर्वक मरण करके मनुष्य गति में या पंचेन्द्रिय तिर्यंचो में जन्म लेते है। यदि आत्यधिक संक्लेश परिणामों से मरते हैं तो एकेन्द्रिय –पृथ्वी, जल, वनस्पतिकायिक में जन्म ले लेते है।
प्रश्न १११- कर्मभूमिज के बाल के ८ अग्रभागो का एक लिक्षा आदि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- कर्मभूमिज के बाल के ८ अग्रभागो का १ लिक्षा ८ लिक्षा का १ जूं ८ जूं का १ जौ ८ जौ का १ अंगुल
प्रश्न ११२- परमाणु किसे कहते है ?
उत्तर- पुद्गल के सबसे छोटे अविभागी टुकड़े को परमाणु कहते हैं। ऐसे अनंतानंत परमाणुओं का १ अवसभासन
८ अवसभासन का -१ सन्नासन।
८ सन्नासन का – १ मुटिरेणु।
८ मुटिरेणु का – १ प्रसरेणु।
८ प्रसरेणु का- १ रथरेणु।
रथरेणु का उत्तमभोगभूमिज के बल का १ अग्रभाग (उत्तमभोगभूमिज के बाल के ८ अग्रभागो को – (मध्यम भोगभूमिज के बाल का १ अग्रभाग)
मध्यमभोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभागो का – (जघन्य भोगभूमिज के बाल का एक अग्रभाग)
जघन्य भोगभूमिज के ८ बाल के अग्रभागो का – (कर्मभूमिज के बाल का १ अग्रभाग)
प्रश्न ११३- जौ का १ अंगुल होता है उसे क्या कहते है?
उत्तर- ८ जौ का १ अंगुल होता है उसे ही उत्सेधांगुल कहते है।
प्रश्न ११४- पाद बालस्ति आदि किसे कहते हैं ?
उत्तर- ६ उत्सेंधांगुल का १ पाद होता है।
२ पाद का एक बालस्ति होता हैं।
२ बालस्ति का एक हाथ होता हैं।
२ हाथ का एक रिक्वूâ होता हैं।
२ रिक्वूâ का एक धनुष होता हैं।
२००० धनुष का एक कोस होता हैं।
४ कोस का एक लघु योजन होता हैं।
५०० योजन का एक महायोजन होता हैं।
प्रश्न ११५- उत्सेधांगुल से कितने गुणा प्रमाणांगुल होता है ?
उत्तर- उत्सेधांगुल से ५०० गुणा प्रमाणांगुल होता है।
प्रश्न ११६- एक महायोजन में कितने कोस होते हैं ?
उत्तर- १ महायोजन में २०० कोस होते हैं।
प्रश्न ११७- एक राजु का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- एक राजु असंख्यात योजन का होता हैं। एक कोस में कितने धनुष होते हैं। २००० धनुष का १ कोस होता हैं।
प्रश्न ११८- एक धनुष कितने हाथ होते हैं ?
उत्तर- ४ हाथ का १ धनुष होता हैं।
प्रश्न ११९- १ कोस में हाथ का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- १ कोस में ८००० हाथ होते हैं।
प्रश्न १२०- एक कोस में मिल का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- एक कोस में दो मिल होते हैं।
प्रश्न १२१- एक मील कितने हाथ प्रमाण का होता हैं ?
उत्तर- एक मील ४००० हाथ प्रमाण का होता हैं।
प्रश्न १२२- एक महायोजन में कितने मील होते हैं ?
उत्तर- एक महायोजन दो हजार कोस का होता है एक कोस में २ मील मानने से १ महायोजन में (२०००*२=४०००) ४००० मील हो जाते है।
प्रश्न १२३- ४००० हजार मील के कितने हाथ होते है ?
उत्तर- ४००० हजार मील के हाथ बनाने के लिये १ मील सम्बंधी ४००० हाथ से गुणा करने पर ४०००*४००० १६,०००००० अर्थात् १ महायोजन में १ करोड़ ६० लाख हाथ हुये।
प्रश्न १२४- जैनसिद्धान्त के अनुसार लघु योजन व महायोजन का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- जैन सिद्धान्त में ४ कोस का लघु योजन एवं २००० कोस का महायोजन माना हैं।
प्रश्न १२५- ज्योतिबिम्ब और उनकी ऊँचाई आदि वर्णन कौनसे योजन से माना हैं ?
उत्तर- महायोजन से ही माना हैं।
प्रश्न १२६- अंगुल के कितने भेद है? उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर- अंगुल के ३ भेद उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और श्रायांगुल ।
प्रश्न १२७- उत्सेधांगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर- बालाग्र, लिक्षा, जूँ और जौ से निर्मित जो अंगुल होता है वह उत्सेधांगुल हैं।
प्रश्न १२८- प्रमाणांगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर- पाँचसौ उत्सेधांगुल प्रमाण एक प्रमाणांगल होता हैं।
प्रश्न १२९- एक अंगुल प्रमाणांगुल प्रमाण किसका प्रमाणांगुल हैं ?
उत्तर- अवसर्पिणी काल के प्रथम भरत चक्रवर्ती एक अंगुल प्रमाणांगुल के प्रमाण वाला हैं।
प्रश्न १३०- आत्मांगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर- जिस जिस काल में भरत और ऐरावतक्षेत्र में जो मनुष्य हुआ करते हैं उस उस काल में उन्हीं उन्हीं मनुष्य के अंगुल का आत्मांगुल हैं।
प्रश्न १३१- लघुयोजन महायोजन किसे कहते हैं ?
उत्तर- इस उत्सेधांगुल से ही उत्सेधकोस एवं ४ उत्सेध से एक योजन बनता है यह लघुयोजन कहलाता हैं। उत्सेधयोजन से ५००सौ गुणा प्रमाण महायोजन होता हैं।द्वीप, समुद्र कुलपर्वत, वेदी, जगती, नदी, सरोवर, कुण्ड, भरत आदि क्षेत्रो का प्रमाण महायोजन से होता हैं।
प्रश्न १३२- उत्सेधांगुल से किसका प्रमाण मापा जाता हैं ?
उत्तर- देव मुनष्य, तिर्यंच एवं नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवो के निवास स्थान व नगर आदि का प्रमाण उत्सेधांगुल उत्सेध कोस से होता हैं।
प्रश्न १३३- प्रमाणंगुल से किन किन का माप होता हैं ?
उत्तर- द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड, सरोवर, जगती और भरतादि क्षेत्र इस सबका प्रमाण प्रमाणांगुल से जान जाता हैं।
प्रश्न १३४- आत्मांगुल से किन किन का प्रमाण होता हैं ?
उत्तर– झारी, र्पण, कलश, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल मूसल शक्ति, तोमर, बाण, नाली, अक्षर, चामर, दुनर्वाभ , पीठ छत्र मनुष्यों के निवास, स्थान, नगर, और उद्यान आदि का प्रमाण आत्मांगुल से समझना चाहिये।
प्रश्न १३५- सूर्य के १८४ गलियों के उदयस्थान बतलाओ ?
उत्तर- सूर्य के उदय निषध और नील पर्वत पर ६३ हरि और रम्यक क्षेत्रो में २ तथा लवणसमुद्र में ११९ हैं ६३+२+११९=१८४ हैं।इस प्रकार १८४ स्थान हैं।
प्रश्न १३६- चंद्रमा की कितनी गलियाँ हैं ?
उत्तर- चंद्रमा की १५ गलियाँ हैं।
प्रश्न १३७- चंद्रमा की १५ गलियों के मध्य नक्षत्रों की कितनी गलियाँ हैं ?
उत्तर- चन्द्रमा की १५ गलियों के मध्य में १८ नक्षत्रों की ८ ही गलियाँ हैं।
प्रश्न १३८- चंद्रमा की प्रथमगली में कितने नक्षत्र संचार करते हैं ?
उत्तर- चंद्रमा की प्रथमगली में अभिजित् श्रवण, घमिष्ठा, शतभिषज् पूर्वाभाद्रपदा, रेवती उत्तराभाद्रपदा अश्विनी, भरिणी, स्वाती, पूर्वाफाल्गुनी, एवं उतराफाल्गुनी ये १२ नक्षत्र संचार करते हैं।
प्रश्न १३९- चन्द्रमा की तृतीयगली में कितने नक्षत्र संचार करते हैं ?
उत्तर- चन्द्रमा की तृतीयगली में पुनर्वसु और मघा ये दो नक्षत्र संचार करते हैं।
प्रश्न १४०- छठी गली में कौनसे नक्षत्र का गमन होता है?
उत्तर- चन्द्रमा की छठी गली में कृतिका नक्षत्र का गमन होता हैं।
प्रश्न १४१- चन्द्रमा की ७वीं गली में कौनसे नक्षत्र का गमन होता हैं ?
उत्तर- चन्द्रमा की ७वीं गली में रोहिणी तथा चित्रानक्षत्र का गमन होता हैं।
प्रश्न १४२- आठवीं गली में कितने नक्षत्र का गमन होता हैं ?
उत्तर- विशाखा नक्षत्र का गमन होता हैं।
प्रश्न १४३- दसवीं गली में कौनसे नक्षत्र का गमन होता हैं ?
उत्तर- दसवीं गली में अनुराधा नक्षत्र का गमन होता हैं।
प्रश्न १४४- ग्यारहवीं गली कौनसे नक्षत्र का गमन होता हैं ?
उत्तर- ग्यारहवीं गली में ज्येष्ठ नक्षत्र का गमन होता हैं।
प्रश्न १४५- पंद्रहवीं गली में कितने नक्षत्रों का गमन होता हैं ?
उत्तर- पंद्रहवी गली में – हस्त, मूल पूर्वषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, मृगशीर्षा, आद्र्रा, पुष्य तथा आश्लेषा, नामक ८ नक्षत्र संचार करते हैं। ये नक्षत्र क्रमश: अपनी अपनी गली में ही भ्रमण करते हैं।
विशेष- सूर्य-चन्द्र के समान अन्य अन्य गलियों में भ्रमण नहीं करते हैं।
प्रश्न १४६- उर्धवलोक का प्रारम्भ कहाँ से होता हैं ?
उत्तर- मेरूचूलिका के उत्तरकुरू क्षेत्रवर्ती मनुष्य के एक बालाग्र के अंतर से प्रथम स्वर्ग का प्रथम इन्द्रक स्थित हैं। अर्थात् मेरू के चूलिका के ऊपर से एक बाल के अंतर से उर्धवलोक प्रारम्भ होता हैं।
प्रश्न १४७- उर्धवलोक का प्रमाण बतलाइयें ?
उत्तर- यह उर्धवलोक १लाख, ६१योजन, ४२५ धनुष, एक बालकम सातराजु प्रमाण हैं। अर्थात् मध्यलोक १ लाख ४० योजन ऊँचे- सुमेरू प्रमाण हैं और चूलिका से प्रथम स्वर्ग में १ बाल का अन्तर हैं। एवं लोकशिखर के नीचे २१ योजन, ४२५ धनुष जाकर अन्तिम इन्द्रक हैं। अत: १ लाख ४०योजन २१ योजन ४२५ धनुष १ बाल प्रमाण सात राजु में कम हो गया हैं।
प्रश्न १४८- उर्धवलोक किसे कहते हैं ?
उत्तर- मध्यलोक के ऊपर ७ राजु ऊँचा उर्धवलोक हैं। वस्तुत: मध्यलोक की नगण्य ऊँचाई (१लाख ४० योजन) उर्धवलोक से ही ली गई हैं।
प्रश्न १४९- उर्धवलोक में क्या क्या हैं ?
उत्तर- उर्धवलोक में १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश और ५ अनुत्तर विमान हैं और सबसे ऊपर सिद्ध शिला अवस्थित हैं।
प्रश्न १५०- उर्धवलोक के कितने भेद हैं ? उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर- उर्धवलोक के दो भेद हैं, कल्प और कल्पातीत।
प्रश्न १५१- कल्पोपभ देव किसे कहते हैं ?
उत्तर- १६ स्वर्गो में उत्पभ होने वाले देव कल्पोपभ कहे जाते हैं।
प्रश्न १५२- कल्पातीत देव किसे कहते हैं ?
उत्तर- नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पभ होने वाले देव कल्पातीत कहलाते हैं।
प्रश्न १५३- स्वर्ग के देवो की कल्पसंज्ञा क्यों हैं ?
उत्तर- स्वर्ग के १२ कल्प कहलाते हैं।
सौधर्म- ईशानयुगल के २ इन्द्र
सानत्कुमार माहेन्द्र युगल के २ इन्द्र
ब्रह्मा ब्रह्मोत्तर युगल का १ इन्द्र
लान्त कापिष्ट युगल का १ इन्द्र
शुक्र महाशुक्र युगल का १ इन्द्र
शतार सहस्रार युगल का १ इन्द्र
आनत प्राणत युगल के २ इन्द्र
आरण अच्युत युगल के २ इन्द्र ऐसे १२ इन्द्र होते हैं इनके स्थानों की कल्पसंज्ञा होने से १२ कल्प कहे जाते हैं।
प्रश्न १५४- १६ स्वर्गो के नाम बतलाइये ?
उत्तर- सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र महाशुक्र, शतार सहस्रार,आनत प्राणत, आरण और अच्युत।
प्रश्न १५५- १६ स्वर्ग से ऊपर के देवो की कल्पातीत क्यों कहलाते हैं ?
उत्तर- १६ स्वर्ग के ऊपर ९ ग्रैवेयक ९ अनुदिश और ५ अनुत्तर विमान हैं इनमें इन्द्र सामानिक, त्रायस्ंत्रश आदि भेद न होने से ये कल्पातीत कहे जाते हैं यहाँ के सभी इन्द्र अहमिन्द्र कहलाते हैं।
प्रश्न १५६- कल्पातीत देवो के कितने भेद हैं और कौन कौन से हैं ?
उत्तर- ९ ग्रैवेयक ९ अनुदिश ५ अनुत्तर ये २३ भेद कल्पातीत के हैं।
प्रश्न १५७- ९ ग्रैवेयक के ९ भेद कौन कौन से है ?
उत्तर- अध:स्तन, मध्यम, और उपरिम ग्रैवेयक के ३-३ भेद होते हैं अत: ग्रैवेयक ९ हुये।
प्रश्न १५८- सर्वार्थसिद्धि विमान से कितने योजन सिद्धशिला हैं ?
उत्तर- सर्वार्थसिद्धि विमान से १२ योजन ऊपर जाकर दिव्य रूपवाली सिद्धशिला अवस्थित हैं।
प्रश्न १५९- नव अनुदिश के नाम बतलाओ ?
उत्तर- नव ग्रैवेयक के ऊपर ९ अनुदिश हैं। अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन, सोम, सोमप्रभ, अंक, स्फटिक और आदित्य, ये नव अनुदिश विमान हैं।
प्रश्न १६०- ये नव अनुदिश विमानो के दिशाओं में रहने का क्रम क्या हैं ?
उत्तर- अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, और वैरोचन ये चार श्रेणीबद्ध विमान क्रम से पूर्व दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित हैं। सोम, सोमप्रभ, अंक, और स्फटिक ये ४ श्रेणी बद्ध विमान क्रम से चार विदिशाओं में स्थित हैं। इन सबके मध्य में आदित्य नामक विमान स्थित हैं। इस प्रकार ये ९ अनुदिश विमान हैं।
प्रश्न १६१- ९ अनुदिश के ऊपर अनुत्तर विमान है उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर- विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये ५ अनुत्तर हैं।
प्रश्न १६२- पाँच अनुत्तर विमानो की दिशायें कौनसी हैं ?
उत्तर- विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार श्रेणीबद्ध विमान क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में एक एक हैं। इनके मध्य में सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रक विमान हैं। इस प्रकार ५ अनुत्तर विमान हैं।
प्रश्न १६३- ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर विमान इनकी कल्पातीत संज्ञा क्यों हैं ?
उत्तर- इनमें अहमिन्द्र रहते है इन विमानो में सभी अहमिन्द्र हैं इन्द्र की कल्पना का अभाव है इसलिये इन विमानो की कल्पातीत संज्ञा हैं।
प्रश्न १६४- १६ स्वर्गो के नाम के साथ उनके अवस्थान को बतलाओ ?
उत्तर- सौधर्म और ईशान स्वर्ग क्रमश: दक्षिण और उत्तर में अवस्थित हैं। सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्त और कापिष्ट ये स्वर्ग भी दक्षिण उत्तर दिशाओं के आश्रित अवस्थित हैं। शुक्र और महाशुक्र ये युग्म रूप से अवस्थित हैं। शतार सहस्रार, आनत और प्राणत, आरण और अच्युत ये भी एक बाद एक युग्म रूप से अवस्थित हैं। इस प्रकार ये १६ स्वर्ग उर्धवलोक में अवस्थित हैं।
प्रश्न १६५- सौधर्म आदि इन्द्रो में कितने दक्षिणेन्द्र हैं ?
उत्तर- सौधर्म सानत्कुमार, ब्रह्म, लान्तव, आनत, आरण ये ६ दक्षिणेन्द्र हैं।
प्रश्न १६६- ६ दक्षिणेन्द्र की क्या विशेषता हैं ?
उत्तर- छहों ही दक्षिणेन्द्र एक भव अवतारी है पूर्वोपार्जित महापुण्य से युक्त और जिनेन्द्र भगवान की अपूर्व भक्ति के रस से सहित होते हैं।
प्रश्न १६७- उतरेन्द्र आदि संज्ञा किन देवो की हैं ?
उत्तर- सर्व देवो से नमस्कृत सम्यग्दर्शन से शुद्ध और जिनेन्द्र पूजा में तल्लीन रहने वाले ईशान, माहेन्द्र शुक्रस्वर्ग का शुक्र, शतार प्राणत और अच्युत नाम के ये ६ इन्द्र उतरेन्द्र हैं।
प्रश्न १६८- कल्प और कल्पातीत देवो का और सिद्धशिला का अवस्थान बतलाओ ?
उत्तर- दक्षिण और उत्तरदिशाओं में १६ स्वर्ग युग्मरूप से ऊपर ऊपर अवस्थित है। अर्थात् एक युगल के ऊपर दूसरा, दूसरे ऊपर तीसरा आदि । १६ स्वर्गो के ऊपर तीन अधोग्रैवेयको की (एक ऊपर एक) अवस्थित हैंं इनके ऊपर तीन मध्यम ग्रैवेयक, और उनके ऊपर तीन उर्ध्व ग्रैवेयक स्थित हैं। इन ग्रैवेयको के ऊपर चार दिशाओं में चार, चार विदिशाओ में चार और एक मध्य में इस प्रकार नवदिशो की स्थिति हैं। नव अनुदिश के ऊपर ५ अनुत्तर हैं विमान हैं जो चारदिशाओं में चार और मध्य में उपमारहित सर्वार्थसिद्धि नामक विमान अवस्थित हैं। सर्वार्थसिद्धि विमान से १२ योजन ऊपर जाकर दिव्यरूप वाली सिद्धशिला अवस्थित हैं।
प्रश्न १६९- उर्ध्वलोक कितने राजु प्रमाण है स्पष्ट करो ?
उत्तर- मध्यलोक के ऊपरी भाग में सौधर्म विमान के ध्वजदंड तक १ लाख ४० योजन कम- १-१/२ राजु प्रमाण ऊँचाई है- अर्थात् कुछ कम १-१/२ राजु में सौधर्म ईशान स्वर्ग
१-१/२ राजु में सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग
१/२ राजु में ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग
१/२ राजु में लान्तव कापिष्ट स्वर्ग
१/२ राजु में शुक्र महाशुक्र स्वर्ग
१/२ राजु में सतार, सहस्रार स्वर्ग
१/२ राजु में आनत प्राणत स्वर्ग
१/२ राजु में आरण अच्युत स्वर्ग
१ राजु में ९ ग्रैवेयक, १० अनुदिश ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी है। इसप्रकार ७ राजु में उर्धवलोक हैं।
प्रश्न १७०- स्वर्गो में कुल इन्द्रक विमान संख्या कितनी हैं ?
उत्तर- स्वर्गो में कुल इन्द्रक विमान संख्या ६३ हैं।
प्रश्न १७१- सौधर्म युगल स्वर्ग के इन्द्रक विमान संख्या उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर- सौधर्म स्वर्ग में इन्द्रक विमान संख्या ३१ है उनके नाम ऋतु, विमल, चंद्र, वल्गु, वीर, अरूण, नंदन, नलिन, वंâचन, रोहत, पंच, मरूत, ऋद्धीश, वैडूर्य, रूचक, रूचिर, अंक, स्फटि, तपनीय, तपनीय, मेघ, अभ्र, हारिद्र, पद्म, लोहित, व्रज, नंद्यावर्त, प्रभाकर, पृष्ठक, गज, मित्र, और प्रभा।
प्रश्न १७२- सानत्कुमार आदि स्वर्गो के इन्द्रक विमान संख्या, उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर- सानत्कुमार युगल में- ७ इन्द्रक विमान है उनके नाम निम्न हैं। अंजन, वनमाल, नाग, गरूड, लांगल बलभद्र और चक्र।
बहमयुगल में- इन्द्रक विमान संख्या ४ हैं, उनके नाम निम्न हैं- अरिष्ट, देवसमिति, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर।
लान्तव युगल में- इन्द्रक विमान संख्या २ है उनके नाम निम्न हैं ब्रह्महृदय लांतव कल्प ।
महाशुक्र युगल में- इन्द्रक विमान संख्या १ हैं उसका नाम शुक्र (महाशुक्र)
सहस्रार युगल में- इन्द्रक विमान संख्या १ है- शतार (सहस्रार)
आनत दो युगल में- इन्द्रक विमान संख्या ६ हैं उनके नाम निम्न हैं आनत, प्राणत, पुष्पक, शातंकर, आरण अच्युत।
अध:स्तन ग्रैवेयक ३ में- इन्द्रक विमान संख्या ३ है उनके नाम निम्न है सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध ।
मध्यम ग्रैवेयक ३ में- इन्द्रकविमान संख्या ३ हैं यशोधर, सुभद्र सुविशाल
उपरिम ग्रैवेयक ३ में- इन्द्रक विमान संख्या ३ है- उनके नाम निम्न है सुमनस, सौमनस, प्रीतिंकर।
अनुदिश ९ में- इन्द्रक विमान संख्या एक है उसका नाम आदित्य हैं।
अनुत्तर ५ में- इन्द्रक विमान संख्या १ है- सर्वार्थसिद्धि । इस प्रकार कुल मिलाकर ६३ इन्द्रक विमान है।
प्रश्न १७३- विमानो का आधार बतलाओ ?
उत्तर- सौधर्मस व ईशान के विमान घन जल के आधार हैं। सानत्कुमार,महेन्द्र के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं। आगे चार युगलो के विमान जल व पवन इन दोनों के आधार हैं आतन प्राणत से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त सभी विमान शुद्ध आकाश तल में स्थित हैं।
प्रश्न १७४- देवो के भवन कहाँ पर हैं ?
उत्तर- इन्द्रक व श्रेणीबद्ध विमानों के ऊपर समचतुष्कोण लंबे विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं।
प्रश्न १७५- देवो को प्रासाद किसके बने हुये है उनकी विशेषता बतलाओ ?
उत्तर- ये सब प्रासाद सुवर्णमय, स्फटिक, मणिमय, मरकत, माणिक्य, इन्द्रनील मणियों से निर्मित, उत्तम तोरणो से सुन्दर द्वारों वाले सात, आठ, नो दस इत्यादि विचित्र भूमियों से भूषित, उत्तम रत्नों से विभूषित, अनेक यंत्रो से रमणीय रत्नदीपक, कालागुरू आदि धूपो की गंध से व्याप्त, आसन, शाला, नीट्यशाला, क्रीड़म शाला आदि को से शोभायमान, सिंहासन, गजासन, मकुरासन, मयूरा आसन आदि से परिपूर्ण, विचित्र मणीमय, शय्यासनो से कमनीय, नित्य, विमलस्वरूप वाले कांतिमान अनादि निधन हैं।
प्रश्न १७६- बारह कल्पो की विमान संख्या को कैसे निकाला जा सकता हैं ?
उत्तर- सौधर्म स्वर्ग में इन्द्रक विमान ३१, श्रेणीबद्ध ४,३७१, प्रकीर्णक ३१ लाख ९५ हजार ५९/५ इन तीनों को जोड़ देने से पूर्वोक्त सौधर्म ३२लाख, विमान हो जाते हैं। ऐसे ही सर्वत्र इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक की विमान संख्या जोड़ देने से उन उन कल्प संबंधित विमानो की संख्या हो जाती ।
प्रश्न १७७- पहला इन्द्रक आदि विमानों का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- पहला इन्द्रक विमान ४५ लाख योजन का है और अन्तिम इन्द्रक १० लाख योजन का है, दूसरे से लेकर ६०वें तक मध्यम प्रमाण है अर्थात् प्रथम इन्द्रक ४५ लाख का है उसमें ७.,९६७,२३/३१ योजन को घटा दीजिये। दूसरे इन्द्रक का प्रमाण ४४२९०३२८/३१ योजन आता है ऐसे ही ६०वें इन्द्रक तक ७०९६७२३/३१ योजन प्रमाण घटाते जाइयें । अन्तिम इन्द्रक १ लाख योजन का हो जायेगा।
प्रश्न १७८- इन्द्रक विमान कैसे हैं ?
उत्तर- ये सभी इन्द्रक एक से ऊपर एक होने से भवनो के खन के समान हैं।
प्रश्न १७९- एक एक इन्द्रक विमान का आपस में अन्तराल कितना हैं ?
उत्तर- एक एक इन्द्रक का आपस में अंतराल असंख्यात योजन हैं।
प्रश्न १८०- श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमान कहाँ हैं ?
उत्तर- सब इन्द्रको की चारो दिशाओ में श्रेणीबद्ध और विदिशाओं से प्रकीर्णक विमान हैं। ऋतु नामक प्रथम इन्द्रक विमान की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ६२ श्रेणीबद्ध विमान हैं । इसके आगे आदित्य नामक ६०वें इन्द्रक पर्वत शेष इन्द्रको की प्रत्येक दिशा में एक एक कम होते गये हैं। अंतिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक की चारों दिशाओं में १-१ श्रेणीबद्ध विमान विजयादि नाम के हैं।
प्रश्न १८१- पहले स्वर्ग के ३१ इन्द्रको की संख्या कैसे आती हैं ?
उत्तर- प्रथम ऋतुइन्द्रक के चारों दिशाओं के ६२-६२ मिलकर ६२*४=२४८ विमान हुये। इसप्रकार आगे आगे एक इन्द्रक सम्बंधी श्रेणीबद्ध विमानों में ४-४ घटते गये हैं। ऐसे ही पहले स्वर्ग के ३१ इन्द्रको की संख्या बना लिजिये।
प्रश्न १८२- सभी इन्द्रक विमान और श्रेणीबद्ध आकारादि कैसे होते हैं ?
उत्तर- सभी इन्द्रक विमान और श्रेणीबद्ध विमान गोल है, दिव्यरत्नों से निर्मित ध्वजा तोरणों से सुशोभित है।
प्रश्न १८३- प्रकीर्णक विमानो कहाँ हैं
उत्तर- इन्द्रक व श्रेणीबद्ध विमानो के अंतराल में विदिशाओं में पुष्पो के सदृश रत्नप्रभ उत्तम प्रकीर्णक विमान हैंं
प्रश्न १८४- श्रेणीबद्ध विमानो का विस्तार कितना हैं ?
उत्तर- सभी श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और असंख्यात योजन प्रमाण ही इनका तिरछा अंतराल हैंं
प्रश्न १८५- सभी प्रकीर्णक विमाने का विस्तार कितना हैं ?
उत्तर- सभी प्रकीर्णक विमानों का विस्तार संख्यात असंख्यात प्रमाण हैं और इतना ही उसमें अंतराल भी हैं।
प्रश्न १८६- इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीणक इन तीन प्रकारों के विमानों के उपरिम व तल भागों में क्या हैं
उत्तर- रमणीय एक एक तट वेदी हैं। यह वेदी मार्ग, गोपुर द्वार तोरणों से सुशोभित ध्वजा पताकाओं से अत्यन्त रमणीय हैं।
प्रश्न १८७- सानत्कुमार कल्प किसका नाम हैं ?
उत्तर- सानत्कुमार युगल के ७ इन्द्रक, उनके पूर्व पश्चिम, दक्षिण के श्रेणीबद्ध एवं नैऋत्य, आग्नेय के प्रकीर्णक विमान इनका नाम सानत्कुमार कल्प हैं।
प्रश्न १८८- माहेन्द्र कल्प किसका नाम हैं ?
उत्तर- इन्हीं की उत्तरदिशा में स्थित श्रेणीबद्ध और वायव्य, ईशान के प्रकीर्णक ये माहेन्द्र कल्प हैं।
प्रश्न १८९- ब्रह्मकल्प किसका नाम हैं ?
उत्तर- ब्रह्मयुगल के ४ इन्द्रक तथा इनकी चारों दिशाओं के श्रेणीबद्ध और विदिशाओं के प्रकीर्णक इनका नाम ब्रह्मकल्प हैं।
प्रश्न १९०- लान्तव कल्प् किसका नाम हैं ?
उत्तर- लान्तवयुगल के ब्रह्महृदय आदि दो इन्द्रक उनकी चारों दिशाओं में स्थित श्रेणीबद्ध, विदिशाओं के प्रकीर्णक इनका नाम लांतवकल्प हैं।
प्रश्न १९१- महाशुक्र कल्प किसका नाम हैं ?
उत्तर- महाशुक्र का एक इन्द्रक, दिशाओं के श्रेणीबद्ध, विदिशा के प्रकीर्णक इनका नाम महाशुक्र दो कल्परूप हैंं
प्रश्न १९२- सहस्रार कल्प किसका नाम हैं ?
उत्तर- सहस्रार का इन्द्रक दिशा विदिशा के श्रेणीबद्ध प्रकीर्णक इनका नाम सहस्रार कल्प हैं।
प्रश्न १९४- आनत आरण दो कल्प किसका नाम हैं ?
उत्तर- आनतादि चार स्वर्गो में आनतादि ६ इन्द्रक, इनकी पूर्व पश्चिम, दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध नैऋत्य आग्नेय विदिशा के प्रकीर्णक इनका नाम आनत, आरण दो कल्प हैं।
प्रश्न १९५- प्राणत अच्युत कल्प किसका नाम हैं ?
उत्तर- उक्त इन्द्रक की उत्तर दिशा में श्रेणीबद्ध तथा वायव्य, ईशान दिशा के प्रकीर्णक इनका नाम प्राणत अच्युत कल्प हैं।
प्रश्न १९६- कल्पो की सीमायें कहाँ तक हैं ?
उत्तर- कल्पो की सीमायें अपने अपने अन्तिम इन्द्रको के ध्वजदंड तक हैं।
प्रश्न १९७- कल्पातीतो का अंत कहाँ तक हैं ?
उत्तर- कल्पातीतों का अंत कुछ कम लोक के अंत तक हैं।
प्रश्न १९८- सौधम्र इन्द्र कहाँ रहता हैं ?
उत्तर- सौधर्म इन्द्र के ३१ इन्द्रको में जो अन्तिम इन्द्रक है उसका नाम प्रभ हैं। इस प्रभ नामक इन्द्रक के दक्षिण श्रेणी में स्थित अठारहवाँ श्रेणीबद्ध विमान हैं उसमें सौधर्म इन्द्र रहता हैं।
प्रश्न १९९- सौधम्र इन्द्र का नगर कहाँ हैं ?
उत्तर- जहाँ सौधर्म इन्द्र रहता है वहाँ पर ८४ हजार योजन विस्तृत सुवर्णमय प्रकार से वेष्टित सौधम्र इन्द्र का नगर है।
प्रश्न २००- उक्त प्रकार की विशेष्ज्ञता व ऊँचाई व विस्तार बतलाओ ?
उत्तर- प्राकार के अग्रभाग पर कहीं पर पंक्तिबद्ध ध्वजायें कहीं पर अयूराकार यंत्रो से शोभा बढ़ रही हैं। यह प्राकार ५० योजन विस्तृत और ३०० योजन ऊँचा हैं। ५० योजन की इसकी नींव हैं।
प्रश्न २०१- प्राकार के पूर्वभाग में क्या हैं ?
उत्तर- प्राकार के पूर्व में ४०० गोपुर द्वार, १०० योजन विस्तृत, ४०० योजन ऊँचे हैं। इसका मूलभाग वज्रमय, उपरिम भाग वैडूर्यमणिमय व सर्परत्नमय हैंं
प्रश्न २०२- सौधम्र इन्द्र का स्तम्भ प्रासाद का विस्तारादि बतलाइयें ?
उत्तर- सौधर्म इन्द्र का स्तम्भ प्रासाद ६० योजन की नींव, १२० योजन विस्तृत ६०० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २०३- उक्त प्रासाद के भीतर क्या हैं ?
उत्तर- इस प्रासाद के भीतर १,६,०००० देवियों से सेवित सौधर्म इन्द्र निरन्तर सुख समुद्र में मग्न रहता हैं।
प्रश्न २०४- सौधर्म इन्द्र अग्रदेवियाँ कितनी हैं ?
उत्तर- सौधर्मइन्द्र की शची को प्रमुख करके ८ अग्रदेवियाँ है।
प्रश्न २०५- सौधर्मइन्द्र की ८ अग्रदेवियाँ अपने कितने रूप बना सकती हैं ?
उत्तर- आठो ही अग्रदेवियाँ १६-१६ हजार रूप बना सकती हैं।
प्रश्न २०६- सौधम्र इन्द्र की वल्लभा देवियाँ कितनी होती हैं ?
उत्तर- सौधर्म इन्द्र की वल्लभा देवियाँ ३२ हजार (१६०००*८+३२हजार=१६००० देवियाँ होती हैं। अग्रमहिषी में प्रमुख शची देवी है और वल्लभा में प्रमुख कनक भी हैं।
प्रश्न २०७- सौधर्म इन्द्र की ८ अग्रदेवियों के प्रासाद विस्तारादि बतलाओ ?
उत्तर- सौधर्मइन्द्र के अग्रदेवियों के आठ प्रासाद १०० योजन विस्तृत, ५०० योजन ऊँचे, ५० योजन अवगाह से सहित हैं।
प्रश्न २०८- सौधर्मइन्द्र की प्रसिद्ध श्रेष्ठ वल्लभा देवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर- सौधर्म इन्द्र की कनक श्री नाम से प्रसिद्ध श्रेष्ठ वल्लभा देवी हैं। उसका मनोहर प्रासाद सौधर्म इन्द्र के प्रासाद की पूर्व दिशा में हैं।
प्रश्न २०९- ईशान इन्द्र कहाँ रहता हैं ?
उत्तर- अन्तिम ‘प्रभ’ इन्द्रक की उत्तर दिशा में जो अठारहवाँ श्रेणीबद्ध विमान है उसमें ईशान इन्द्र रहता हैं।
प्रश्न २१०- ईशान इन्द्र के प्रासाद का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- ईशान इन्द्र के प्रासाद सौधर्मइन्द्र के समान हैं।
प्रश्न २११- ईशान इन्द्र के प्रासाद का विस्तार प्रमाण तथा वल्लभा का नाम बतलाओ ?
उत्तर- ईशान इन्द्र के प्रासाद के विस्तार का प्रमाण ८० हजार योजन तथा वल्लभा का नाम हेममाला हैं।
प्रश्न २१२- सानत्कुमार इन्द्र कहाँ रहता हैं ?
उत्तर- सानत्कुमार युगल के ७ इन्द्रको में अंतिम का नाम चक्र है इस चक्र इन्द्रक के दक्षिण में स्थित १६वें श्रेणीबद्ध विमान में सानत्कुमार इन्द्र रहता हैं।
प्रश्न २१३- सानत्कुमार के नगर का विस्तार कितना हैं ?
उत्तर- दक्षिण में असंख्यात योजन जाकर उसका ७२,००० योजन विस्तृत नगर हैं।
प्रश्न २१४- नगर के प्राकार का विस्तार आदि बतलाओ ?
उत्तर- इस नगर का प्राकार जड़ में २५ योजन एवं २५ योजन विस्तृत २५० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २१५- प्राकार की प्रत्येक दिशा में क्या हैं ?
उत्तर- उसकी प्रत्येक दिशा में ३०० गोपुर द्वार हैं।
प्रश्न २१६- गोपुर द्वारों की ऊँचाई और विस्तर का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- गोपुर द्वारों का विस्तार ९०योजन, ऊँचाई ३०० योजन हैं।
प्रश्न २१७- गोपुर द्वारो में इन्द्र के प्रासाद की ऊँचाई, अवगाह का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- वहाँ इन्द्र का प्रासाद ५० योजन अवगाह से सहित, १०० योजन विस्तृत, ५०० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २१८- सानत्कुमार इन्द्र की कितनी देवियाँ है उनमें अग्रदेवियाँ कितनी हैं ?
उत्तर- सानत्कुमार इन्द्र की ७२००० देवियाँ हैं उनमें ८ अग्रदेवियाँ हैं।
प्रश्न २१९- सानत्कुमार इन्द्र की वल्लभा देवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर- वल्लभा देवी का नाम कनकप्रभा हैं।
प्रश्न २२०- देवियो के प्रासाद की विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- देवियों के प्रासाद ९०योजन विस्तृत ४५ योजन जड़ से सहित ४५ योजन जड़ से सहित,स ४५० योजन ऊँचे।
प्रश्न २२१- देवियों के प्रासाद कहाँ हैं ?
उत्तर- ये प्रासाद उस इन्द्र प्रासाद के चारो और हैं।
प्रश्न २२२- माहेन्द्र इन्द्र का नगर कहाँ हैं ?
उत्तर- चक्र इन्द्रक की उत्तर दिशा में स्थित सोलहवें श्रेणीबद्ध विमान में माहेन्द्र इन्द्र का नगर हैं।
प्रश्न २२३- माहेन्द्र इन्द्र के नगर का विस्तार बतलाओ ?
उत्तर- ७०००० योजन विस्तार हैं।
प्रश्न २२४- माहेन्द्र इन्द्र की अग्रदेवियाँ कितनी हैं ?
उत्तर- अग्रदेवियाँ ८ हैं उनमें कनक मण्डिता नाम की वल्लभा देवी हैं।
प्रश्न २२५- देवियों के प्रासाद का प्रमाण क्या हैं ?
उत्तर- देवियों के प्रासाद सानत्कुमार इन्द्र की देवियों के प्रासादो के समान हैं।
प्रश्न २२६- ब्रह्मयुगल के नगर कहाँ हैं ?
उत्तर- बह्मयुगल के ४ इन्द्रक में अन्तिम इन्द्रक का नाम ब्रह्मोत्तर हैं उस ब्रह्मोत्तर इन्द्रक के दक्षिण में चोदहवें श्रेणीबद्ध विमान में ब्रह्मेन्द्र का नगर हैं।
प्रश्न २२७- ब्रह्मयुगल का विस्तार कितना हैं ?
उत्तर- ६०,००० योजन विस्तार हैं।
प्रश्न २२८- ब्रह्मयुगल के प्राकार का विस्तर व ऊँचाई बतलाओ ?
उत्तर- प्राकार १२ १/२ योजन विस्तृत है २०० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २२९- प्राकार की प्रत्येक दिशा में क्या हैं ?
उत्तर- प्राकार की प्रत्येक दिशा में २०० गोपुर द्वार हैं। उन गोपुर द्वारों का विस्तार ८० योजन, ऊँचाई २०० योजन हैं।
प्रश्न २३०- ब्रह्मेन्द्र के प्रासाद का विस्तार और ऊँचाई बतलाइये ?
उत्तर- ब्रह्मेन्द्र का प्रासाद ९० योजन विस्तृत, ४५० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २३१- ब्रह्मेन्द्र की अग्रदेवियाँ उनके प्रासाद का विस्तार आदि बतलाइये ?
उत्तर- बह्मेन्द्र की आठ अग्रदेवियों के प्रासाद ८० योजन विस्तृत ४०० योजन ऊँचे हैं।
प्रश्न २३२- ब्रह्मेन्द्र के आश्रित कितनी देवियाँ हैं ?
उत्तर- ३४,००० हजार देवियाँ निरन्तर उसके आश्रित रहती हैं।
प्रश्न २३३- ब्रह्मेन्द्र की वल्लभा का नाम बतलाओ ?
उत्तर- वल्लभा का नाम नीला हैं।
प्रश्न २३४- वल्लभा का प्रासाद कहाँ हैं ?
उत्तर- इसका प्रासाद इन्द्र प्रासाद के पूर्व में हैं।
प्रश्न २३५- बह्मोत्तर इन्द्र कहाँ रहता है उसकी वल्लभा देवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर- ब्रह्मोत्तर इन्द्र की उत्तरदिशागत पंक्ति के चौदहवें श्रेणीबद्ध विमान में ब्रह्मोत्तर इन्द्र रहता है उसकी वल्लभा देवी का नाम निलोत्पला है।
प्रश्न २३६- लानत्व नगर कहाँ हैं ?
उत्तर- लान्तव युगल में २ इन्द्रक है अन्तिम इन्द्रक लान्तव नामक है। इस लान्त इन्द्रक विमान से दक्षिण दिशा में पंक्ति के १२वें श्रेणीबद्ध विमान में लान्तव इन्द्र का पुर हैं।
प्रश्न २३७- लान्तव इन्द्र के नगर प्राकार का विस्तार आदि बतलाओ ?
उत्तर- नगर का विस्तार ५०,००० योजन है, उसका प्राकार ६/१/४ योजन अवगाह एव ६/१/४ योजन विस्तर से सहित, १५० योजन ऊँचा हैं। प्राकार की प्रत्येक दिशा में १६० गोपुर द्वार हैं। उनका विस्तार ७० योजन, ऊँचाई १६० योजन मात्र हैं।
प्रश्न २३८- लान्तव इन्द्र के प्रासाद का विस्तार आदि बतलाओ ?
उत्तर- लान्तव इन्द्र का दिव्य प्रासाद, ८० योजन विस्तृत, ४० योजन नींव से युक्त ४०० योजन ऊँचा है। यही लान्तव इन्द्र रहता है।
प्रश्न २३९- लान्तव इन्द्र की देवियों के प्रासाद का विस्तार आदि बतलाओ ?
उत्तर- लान्तवेन्द्र के देवियों के प्रासाद ७०योजन विस्तृत, ३५ योजन नींव से सहित ३५० योजन ऊँचे हैं।
प्रश्न २४०- लान्तवेन्द्र कितनी देवियों वेष्टित तथा अग्रदेविया कितनी है और वल्लभा देवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर- लान्तव इन्द्र १६,५०० देवियो से वेष्टित उस इन्द्र के ८ अग्रदेवियाँ है और पद्मा नाम की वल्लभा देवी हैं।
प्रश्न २४१- कापिष्ट इन्द्र कहा रहता हैं ?
उत्तर- लान्तव इन्द्र की उत्तर दिशा स्थित १२वें श्रेणीबद्ध विमान में ‘कापिष्ठ’ इन्द्र रहता हैं। जो कि लान्तव इन्द्र के समान हैं।
प्रश्न २४२- कापिष्ट इन्द्र की वल्लभा देवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर- कापिष्ट इन्द्र की वल्लभा देवी पभोपला नाम से प्रसिद्ध हैं।
प्रश्न २४३- शुक्र नामका इन्द्र कहाँ रहता हैं ?
उत्तर- शुक्र युगल में १ इन्द्रक है जिसका नाम है शुक्र, उस शुक्र विमान के दक्षिण में दसवें श्रेणीबद्ध विमान में शुक्र इन्द्र का उत्तम नगर हैं।
प्रश्न २४४- शुक्र इन्द्र के नगर का विस्तारादि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- शुक्रइन्द्र का नगर ४०,००० योजन विस्तृत हैं १२० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २४५- शुक्रइन्द्र के उत्तम प्राकार का विस्तारादि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- ४ योजन सहित, ४ योजन विस्तृत १२० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २४६- शुक्रइन्द्र के नगर के चारों और क्या हैं ?
उत्तर- नगर की प्रत्येक दिशा में १४० गोपुर द्वार हैं, उन गोपुरद्वारों का विस्तार ५० योजन, ऊँचाई ४० योजन हैं।
प्रश्न २४७- शुक्रइन्द्र के नगर में उसके प्रासाद का विस्तारादि बताइये ?
उत्तर- उस नगर में ३५ योजन जड़ से सहित ७० योजन विस्तृत, ३५०योजन ऊँचा शुक्रइन्द्र का प्रासाद हैं।
प्रश्न २४८- शुक्रेन्द्र की देवियो के प्रासादो की विस्तारादि बतलाइये ?
उत्तर- शुक्रेन्द्र की देवियों के प्रासाद ३० योजन जड़ वाले, ६० योजन विस्तृत, ३०० योजन विस्तृत ऊँचे हैं।
प्रश्न २४९- शुक्र इन्द्र की देवियों का अग्रदेवियो का वल्लभादेवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर-
शुक्रेन्द्र की देवियाँ ८,२५० हैं उनमें आङ्ग अग्रदेवियाँ है और नंदा नाम की वल्लभा देवी हैं।
प्रश्न २५०- महाशुक्र इन्द्र कहाँ रहता हैं ? उसकी वल्लभा देवी का नाम, परिवार आदि की विशेषता बतलाइये ?
उत्तर- शुक्रइन्द्र से उत्तर में १०वें श्रेणीबद्ध में महाशुक्र इन्द्र रहता है उसकी वल्लभा का नाम मंदावनी हैं। इसका परिवार और नगर शुक्रेन्द्र के समान हैं।
प्रश्न २५१- शतार इन्द्र कहाँ रहते हैं ?
उत्तर- शतार युगल में १ इन्द्रक शतार नाम का हैं। इस शतार इन्द्रक के दक्षिण में आङ्गवें श्रेणीबद्ध विमान में ३०,००० योजन विस्तृत शतार इन्द्र का पुर हैं।
प्रश्न २५२- पुर को वेष्टित प्रकार का विस्तार आदि बतलाओ ?
उत्तर- पुर को वेष्टित करके ३ योजन जड़ से सहित, ३ योजन विस्तृत १०० योजन माकार हैं।
प्रश्न २५३- प्राकार प्रत्येक दिशा में गोपुर द्वारो का विस्तारादि बतलाओ ?
उत्तर- प्राकार की प्रत्येक दिशा में १२० गोपुर द्वार है उन द्वारो का विस्तार ४०योजन, ऊँचाई १२० योजन हैं।
प्रश्न २५४- शतार इन्द्र के प्रासाद का विस्तारादि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- शतारइन्द्र का प्रासाद ३० योजन जड़वाला, ६० योजन विस्तृत, ३००योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २५५- शतारइन्द्र कितनी देविया होती है उसकी वल्लभादेवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर- शतार इन्द्र की ४,१२५ देवियाँ होती है उसकी वल्लभा देवी का नाम सुसीमा हैं।
प्रश्न २५६- शतारइन्द्र की देवियों के प्रासाद की विस्तारादि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- शतार इन्द्र की देवियों के प्रासाद २५ योजन पृथ्वी में प्रविष्ट, २५० योजन ऊँचे हैं।
प्रश्न २५७- सहस्रार इन्द्र कहाँ रहता हैं ?
उत्तर- शतार इन्द्र की उत्तर दिशा में स्थित आठवें श्रेणीबद्ध में सहस्रार इन्द्र रहता है। उसका वर्णन शतार इन्द्र के सामान हैं। उसके लक्ष्मणा नाम की वल्लभा देवी हैं।
प्रश्न २५८- अच्युत इन्द्र कहाँ रहता हैं ?
उत्तर- अनातादि ४ स्वर्गो में ६ इन्द्रक है उसमें अन्तिम इन्द्रक नाम अच्युत हैं। उसकी दक्षिण श्रेणी में स्थित छङ्गे श्रेणीबद्ध विमान में २०५००० योजन विस्तृत आरण नगर हैं।
प्रश्न २५९- आरण नगर के माकार का विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- प्राकार का अवगाह २/१/२ योजन, विस्तार १/२ योजन, ऊँचाई ८० योजन हैं।
प्रश्न २६०- प्राकार की प्रत्येक दिशा में गोपुरद्वार का प्रमाण और उनका विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- प्राकार की प्रत्येक दिशा १००-१०० गोपुर द्वार है। सभीस द्वार ३०योजन विस्तृत १०० योजन ऊँचे है।
प्रश्न २६१- आरण इन्द्र के प्रासाद का विस्तारादि का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- आरण इन्द्र का प्रासाद २५ योजन नींववाला, ५० योजन विस्तृत २५० योजन ऊँचा हैं।
प्रश्न २६२- आरण इन्द्र की देवियाँ का प्रमाण, अग्रदेवियाँ, का प्रमाण और वल्लभादेवी का नाम बतलाओ ?
उत्तर- आरण इन्द्र की २०६३ देवियाँ है, ८ अग्रदेविया है, उनमें जिनदत्ता नाम की वल्लभा देवी हैं।
प्रश्न २६३- देवियो के भवन आदि का विस्तार आदि बतलाओ ?
उत्तर- देवियो के भवन २० योजन जड़ वाले ४० योजन विस्तार वाले, २०० योजन ऊँचे हैं। वल्लभा देवियों के प्रासाद प्रमाण में देवियो के भवन के समान हैं। ऊँचाई में २२० योजन ऊँचे हैं।
प्रश्न २६४- अच्युत इन्द्र का निवास कहाँ हैं ?
उत्तर- अच्युत इन्द्रक के उत्तर में स्थित छठे मेणीबद्ध में अच्युत इन्द्र रहता है। जो आरण इन्द्र के समान सहै उसकी जिनदासी नामकी वल्लभा देवी है।
प्रश्न २६५- देवियों की उत्पत्ति कितने स्वर्ग तक होती हैं ?
उत्तर- सर्व देवियों की उत्पत्ति सौधर्म, ईशान कल्प में ही उत्पभ होती है आगे के कल्पो में नहीं।
प्रश्न २६६- दक्षिण इन्द्र सम्बंधी देवियों के सौधर्म कल्प में कितने विमान हैं ?
उत्तर- ६,००,००० अर्थात् ६ लाख विमान हैं।