एक राजु लम्बा-चौड़ा और एक लाख योजन ऊँचा मध्यलोक है। इस मध्यलोक में सभी द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं। ये सब गोलाकार हैं। इनमें से पहले द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है और अंतिम समुद्र का नाम स्वयंभूरमण समुद्र है। ये सब द्वीप-समुद्र एक दूसरे को वेष्टित किये हुए वलयाकार (चूड़ी के समान आकार के) हैं। इनमें से जो पहला द्वीप है वह थाली के समान आकार वाला है।
सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खंडित कर वङ्काा पृथ्वी के ऊपर हैं। अर्थात् एक हजार योजन गहरे हैं और सभी द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं।
प्रथम द्वीप-समुद्र से प्रारम्भ करके सोलह द्वीप और समुद्रों के नाम बताते हैं।
1. | जम्बूद्वीप | लवण समुद्र |
2. | धातकीखण्ड द्वीप | कालोद समुद्र |
3. | पुष्करवर द्वीप | पुष्करवर समुद्र |
4. | वारुणीवर द्वीप | वारुणीवर समुद्र |
5. | क्षीरवर द्वीप | क्षीरवर समुद्र |
6. | घृतवर द्वीप | घृतवर समुद्र |
7. | क्षौद्रवर द्वीप | क्षौद्रवर समुद्र |
8. | नंदीश्वर द्वीप | नंदीश्वर समुद्र |
9. | अरुणवर द्वीप | अरुणवर समुद्र |
10. | अरुणाभास द्वीप | अरुणाभास समुद्र |
11. | कुण्डलवर द्वीप | कुण्डलवर समुद्र |
12. | शंखवर द्वीप | शंखवर समुद्र |
13. | रुचकवर द्वीप | रुचकवर समुद्र |
14. | भुजगवर द्वीप | भुजगवर समुद्र |
15. | कुशवर द्वीप | कुशवर समुद्र |
16. | क्रौंचवर द्वीप | क्रौंचवर समुद्र |
.इस प्रकार सोलह द्वीप और सोलह समुद्रों के नाम बताये हैं। ये सब एक दूसरे को चारों तरफ से घेरे हुए हैं।
इनमें से जम्बूद्वीप का प्रमाण एक लाख योजन है। इसके आगे इस जम्बूद्वीप को वेष्टित किये हुये लवण समुद्र का व्यास दो लाख योजन है। ऐसे ही आगे के द्वीप और समुद्र पहले-पहले से दूने-दूने विस्तार वाले हैं।
इन बत्तीस द्वीप-समुद्रों के आगे होने वाले असंख्यात द्वीप-समुद्रों के नाम नहीं लिखे जा सकते हैं। अत: अन्त के भी सोलह द्वीप और सोलह समुद्रों के नाम शास्त्र में बताये गये हैं।
इन्हें अंतिम समुद्र से प्रारम्भ करने पर देखिये—
1. | स्वयंभूरमण समुद्र | स्वयंभूरमण द्वीप |
2. | अहीन्द्रवर समुद्र | अहीन्द्रवर द्वीप |
3. | देववर समुद्र | देववर द्वीप |
4. | यक्षवर समुद्र | यक्षवर द्वीप |
5. | भूतवर समुद्र | भूतवर द्वीप |
6. | नागवर समुद्र | नागवर द्वीप |
7. | वैडूर्य समुद्र | वैडूर्य द्वीप |
8. | वङ्कावर समुद्र | वङ्कावर द्वीप |
9. | कांचन समुद्र | कांचन द्वीप |
10. | रूप्यवर समुद्र | रूप्यवर द्वीप |
11. | हिंगुल समुद्र | हिंगुल द्वीप |
12. | अंजनवर समुद्र | अंजनवर द्वीप |
13. | श्याम समुद्र | श्याम द्वीप |
14. | सिंदूर समुद्र | सिंदूर द्वीप |
15. | हरिताल समुद्र | हरिताल द्वीप |
16. | मन:शिल समुद्र | मन:शिल द्वीप |
ये सोलह समुद्र और सोलह द्वीप हैं। अन्त में स्वयंभूरमण द्वीप है। पुन: उसे वेष्टित कर सबसे अंत में स्वयंभूरमण समुद्र है।
इसलिये सर्वप्रथम तो द्वीप है और अन्त में समुद्र है ऐसा समझना।
इन द्वीपों में किस-किस में क्या-क्या है और समुद्रों में से किस-किस का जल वैâसा है ? यह बताते हैं—
प्रथम जम्बूद्वीप में, द्वितीय धातकीखण्ड में और तृतीय पुष्करवर द्वीप के आधे भाग में मनुष्यों का आवास है अर्थात् इन ढाई द्वीपों में भोगभूमि और कर्मभूमियों में मनुष्यों का जन्म होता रहता है। पुष्करवर द्वीप के बीचों-बीच में चूड़ी के समान आकार वाला गोलाकार मानुषोत्तर पर्वत है। इससे परे मनुष्यों का निवास नहीं है।
इससे आगे आधे पुष्करवर द्वीप में और समस्त असंख्यात द्वीपों में तथा स्वयंभूरमण द्वीप के आधे भाग में तिर्यंचों का निवास है। ये तिर्यंञ्च भोगभूमिज हैं। युगल ही उत्पन्न होते हैं, एक पल्य की उत्कृष्ट आयु प्राप्त करते हैं और अन्त में मरकर देवगति को प्राप्त कर लेते हैं। यथा—
‘‘जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करार्ध और स्वयंभूरमण नामक जो चार द्वीप हैं उनको छोड़कर शेष असंख्यात द्वीपों में उत्पन्न हुए जो पंचेन्द्रिय संज्ञी, पर्याप्तक तिर्यंच जीव हैं वे पल्यप्रमाण आयु से युक्त, दो हजार धनुष ऊँचे, सुकुमार कोमल अंगों वाले, मंदकषायी, फल भोजी हैं। ये युगल-युगल उत्पन्न होकर चतुर्थ भक्त से भोजन करते हैं अर्थात् एक दिन छोड़कर भोजन करते हैं। ये सब मरकर नियम से सुरलोक को जाते हैं। उनकी उत्पत्ति सर्वदर्शियों द्वारा अन्यत्र नहीं कही गई हैं।’’
इसके अनन्तर आधे स्वयंभूरमण द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में जो तिर्यंच हैं वे कर्मभूमिया कहलाते हैं। अर्थात् स्वयंभूरमण द्वीप में भी बीचों-बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत के सदृश एक पर्वत है उसका नाम स्वयंप्रभ पर्वत है। इस पर्वत के इधर-उधर भोगभूमिज तिर्यंच हैं और उसके परे कर्मभूमिज तिर्यंच हैं। भोगभूमिज तिर्यंचों में विकलत्रय जीव (दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय) नहीं होते हैं। ये कर्मभूमि में ही होते हैं।
अकृत्रिम जिनमंदिर-जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अकृत्रिम, अनादिनिधन जिनमंदिर हैं आगे नहीं हैं। इन सब मंदिरों की संख्या ४५८ है।
लवण समुद्र, वारुणीवर समुद्र, घृतवर समुद्र और क्षीरवर समुद्र इन चारों का जल अपने नामों के अनुसार है। अर्थात् लवण समुद्र का जल खारा है, वारुणीवर समुद्र का जल मद्य के समान है, घृतवर समुद्र का जल घी के समान है और क्षीरवर समुद्र का जल दूध के समान है। इसी क्षीरवर समुद्र के जल से तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
कालोदधि समुद्र, पुष्करवर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र इन तीनों का जल, जल के सदृश ही स्वाद वाला है। शेष सभी समुद्रों का जल इक्षुरस (ईख—गन्ने के रस) के समान मधुर है।
लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरमण समुद्र में ही जलचर जीव हैं, अन्य किसी समुद्र में नहीं हैं।
त्रसनाली के बहुमध्य भाग में चित्रा पृथ्वी के ऊपर पैंतालीस लाख योजन प्रमाण विस्तार वाला अतिगोल मनुष्य लोक है। इस मनुष्य लोक की ऊँचाई एक लाख योजन है। इसकी परिधि एक करोड़, ब्यालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनन्चास (१,४२,३०,२४९) योजन है। और इसका क्षेत्रफल एक सौ साठ खरब, ९ अरब, ३ करोड़, एक लाख, पच्चीस हजार योजन (१६०,०९,०३,०१,२५०००) है।
मनुष्य लोक के द्वीप समुद्र-इस ४५ लाख योजन प्रमाण मनुष्य लोक के बीचों-बीच में जम्बूद्वीप है जो कि एक लाख योजन व्यास वाला, गोलाकार है। इसको चारों तरफ से वेष्टित कर दो लाख योजन विस्तृत चूड़ी सदृश आकार वाला लवण समुद्र है। इसे वेष्टित कर चार लाख योजन विस्तृत धातकी खण्ड है। इसे घेर कर आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोद समुद्र है। इसको वेष्टित कर सोलह लाख योजन विस्तृत पुष्करवर द्वीप है। इस द्वीप के ठीक बीच में चूड़ी सदृश आकार वाला एक मानुषोत्तर पर्वत है। इस पर्वत तक ही मनुष्य लोक की सीमा है। इसलिये एक लाख योजन जम्बूद्वीप, दो-दो लाख योजन दोनों तरफ का लवण समुद्र ऐसे चार लाख आदि सभी को जोड़ देने से १ + २ + २ + ४ + ४ + ८ + ८ + ८ + ८ = ४५ लाख योजन प्रमाण यह मनुष्य लोक हो जाता है।
ढाई द्वीप, दो समुद्र-इस मनुष्य लोक में एक जम्बूद्वीप, द्वितीय धातकी खण्ड तथा तृतीय पुष्करवर द्वीप का आधा पुष्करार्ध द्वीप ये मिलकर ढाई द्वीप हैं। लवण समुद्र और कालोद समुद्र ये दो समुद्र हैं।
एक लाख योजन विस्तृत इस जम्बूद्वीप के ठीक बीच में सुदर्शन मेरु पर्वत है। यह एक लाख चालीस योजन ऊँचा है, इसकी नींव एक हजार योजन है और चूलिका ४० योजन है। इसकी चौड़ाई पृथ्वी पर १० हजार योजन है, घटते हुए अग्रभाग पर ४ योजन मात्र है।
इस जम्बूद्वीप में दक्षिण से लेकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी इन छह पर्वतों से ये सात क्षेत्र विभाजित हैं। इन पर्वतों पर ठीक बीच-बीच में क्रम से पद्म, महापद्म, तिंगिच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह सरोवर हैं। इन सरोवरों से १४ महानदियाँ निकलती हैं जो कि दो-दो युगल से सात क्षेत्रों में बहती हैं। उनके नाम हैं—गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रुप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा।
अकृत्रिम चैत्यालय-सुदर्शन मेरु के १६ + गजदंत के ४ + जम्बू-शाल्मलि वृक्ष के २ + वक्षार के १६ + विजयार्ध के ३४ + कुलाचलों के ६ ऐसे = ७८ अकृत्रिम जिनमंदिर जम्बूद्वीप में हैं।
यह द्वितीय द्वीप चार लाख योजन विस्तृत है। इसके दक्षिण-उत्तर में चार लाख योजन लम्बे, एक हजार योजन चौड़े दो इष्वाकार पर्वत हैं। इनके निमित्त से धातकीखण्ड के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भाग हो गये हैं। दोनों भागों में विजय, अचल नाम के दो सुमेरु पर्वत, भरत, हैमवत आदि सात क्षेत्र, हिमवान् आदि कुलाचल और गंगा आदि महानदियाँ हैं। अत: धातकीखण्ड में प्रत्येक रचना जम्बूद्वीप से दूनी है। अन्तर इतना ही है कि यहाँ पर क्षेत्र आरे के समान आकार वाले हैं। तथा दो इष्वाकार पर्वत के दो जिन मंदिर अधिक हैं। यहाँ पर जम्बूवृक्ष के स्थान पर धातकी वृक्ष है।
पुष्करार्ध द्वीप में भी दक्षिण और उत्तर में आठ लाख योजन लम्बे दो इष्वाकार पर्वत हैं। बाकी शेष रचना धातकी खण्डवत् है। यहाँ पर मेरु के नाम मन्दरमेरु और विद्युन्माली मेरु हैं तथा यहाँ के क्षेत्र भी आरे के समान हैं। यहाँ जम्बूवृक्ष के स्थान पर पुष्कर वृक्ष है। जम्बूद्वीप के क्षेत्र-पर्वतों की जितनी लम्बाई-चौड़ाई आदि है उनकी अपेक्षा धातकीखण्ड के क्षेत्रादि की अधिक है तथा पुष्करार्ध के क्षेत्रादि की उनसे भी अधिक है। जैसे जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र का विष्कम्भ ५२६ योजन है। धातकी खण्ड के भरत क्षेत्र का बाह्य विष्कम्भ १८५४७ योजन है। पुष्करार्ध के भरत क्षेत्र का बाह्य विष्कम्भ ६५४४६ योजन है।
लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट पर २४ और बाह्य तट पर भी २४ द्वीप हैं। इसी तरह कालोद समुद्र के अभ्यन्तर और बाह्य दोनों तट सम्बन्धी २४, २४ द्वीप हैं। कुल मिलाकर २४ ± २४ ± २४ ± २४ · ९६ कुमानुष द्वीप हैं। ये सभी द्वीप जल से एक योजन ऊपर हैं।
इनमें जन्म लेने वाले मनुष्य एक जंघा वाले, पूँछ वाले, सींग वाले आदि विकृत आकार के होते हैं।
दिशागत द्वीपों के मनुष्य गुफाओं में निवास करते हैं और वहाँ की अत्यन्त मीठी मिट्टी का भोजन करते हैं। विदिशागत आदि शेष द्वीपों के मनुष्य वृक्षों के नीचे निवास करते हैं और कल्पवृक्षों से प्रदत्त फलों का भोजन करते हैं। यहाँ पर युगलिया स्त्री-पुरुष जन्म लेते हैं और एक पल्य की आयु को भोगकर युगल ही मरण करते हैं। यहाँ की सारी व्यवस्था जघन्य भोगभूमि सदृश है। इन मनुष्यों के जो कान और मुख के आकार पशु आदि के सदृश बताये हैं उनसे अतिरिक्त शेष सारे शरीर का आकार मनुष्य सदृश ही है। इसीलिए ये कुमानुष कहलाते हैं। यहाँ कर्मभूमि में कोई भी जीव कुत्सित पुण्य संचित करके कुमानुष योनि में जन्म ले लेते हैं।१
इस प्रकार से ढाई द्वीप और दो समुद्र में भोगभूमि, कुभोगभूमि तथा आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्ड तथा विद्याधर श्रेणी की अपेक्षा मनुष्यों के निवास स्थान पाँच प्रकार के हो गये हैं। जम्बूद्वीप में जितनी रचना है संख्या में उसकी अपेक्षा दूनी रचना धातकीखण्ड में तथा वैसी ही पुष्करार्ध में है। जैसे कि जम्बूद्वीप में भोगभूमि ६ हैं, तो धातकीखण्ड में १२ इत्यादि। सबका स्पष्टीकरण—शाश्वत भोगभूमि ६ x ५ = ३० (हैमवत, हरि, देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक्, हैरण्यवत) शाश्वत कर्मभूमि ३२ x ५ = १६० (विदेह सम्बन्धी)।
अशाश्वत भोगभूमि १० (५ भरत, ५ ऐरावत के आर्यखण्ड में षट्कालपरिवर्तन के ३-३ काल में)।
अशाश्वत कर्मभूमि १० (५ भरत, ५ ऐरावत के आर्यखण्ड के छह काल परिवर्तन में ३-३ काल में)।
आर्यखण्ड १७० (विदेह १६० + भरत ५ + ऐरावत ५ = १७०)
म्लेच्छ खण्ड ८५० (यहाँ के मनुष्य क्षेत्र से म्लेच्छ हैं, कुछ मनुष्य जाति और क्रिया से म्लेच्छ नहीं भी हैं)।
विद्याधर श्रेणी २४० (यहाँ के मनुष्य आकाशगामी आदि विद्या से सहित होते हैं)।
कुभोगभूमि ९६ (लवण समुद्र की ४८ + कालोद समुद्र की ४८ = ९६)।
1. सुमेरु पर्वत | 5 | 2. जम्बू, शाल्मली आदिवृक्ष | 10 |
3. गजदंत | 20 | 4. कुलाचल (हिमवान आदि) | 30 |
5. वक्षार | 80 | 6. विजयार्ध | 170 |
7. वृषभाचल | 170 | 8. इष्वाकार | 4 |
9. नाभिगिरि | 20 |
1. पाँच सुमेरु के | 80 | 2. जम्बू आदि दश वृक्ष के | 10 |
3. बीस गजदंत के | 20 | 4. तीस कुलाचल के | 30 |
5. अस्सी वक्षार के | 80 | 6. एक सौ सत्तर विजयार्ध के | 170 |
7. चार इष्वाकार के | 4 | 8. मानुषोत्तर पर्वत की चार दिशा के ४ | 4 |
जम्बूद्वीप से आठवाँ द्वीप नंदीश्वर द्वीप है। यह नंदीश्वर द्वीप समुद्र से वेष्टित है। इस द्वीप का मण्डलाकार से विस्तार एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। इस द्वीप में पूर्व दिशा में ठीक बीचों-बीच अंजनगिरि नाम का एक पर्वत है। यह ८४००० योजन विस्तृत और इतना ही ऊँचा समवृत—गोल है तथा इन्द्रनील मणि से निर्मित है। इस पर्वत के चारों ओर चार दिशाओं में चार द्रह हैं, इन्हें बावड़ी भी कहते हैं। ये द्रह एक लाख योजन विस्तृत चौकोन हैं। इनकी गहराई एक हजार योजन है, इनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है, ये जलचर जीवों से रहित हैं। इनमें एक हजार उत्सेध योजन प्रमाण विस्तृत कमल खिल रहे हैं। इन वापियों के नाम दिशा क्रम से नन्दा, नन्दावती, नन्दोत्तरा और नन्दिघोषा हैं। इन वापियों के चारों तरफ चार वन—उद्यान हैं जो कि एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन चौड़े हैं। ये पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन हैं। इनमें से प्रत्येक वन में वन के नाम से सहित चैत्यवृक्ष हैं। प्रत्येक वापिका के बहु मध्य भाग में दही के समान वर्ण वाले दधिमुख नाम के उत्तम पर्वत हैं। ये पर्वत दश हजार योजन ऊँचे तथा इतने ही योजन विस्तृत गोल हैं। वापियों के दोनों बाह्य कोनों पर रतिकर नाम के पर्वत हैं। जो कि सुवर्णमय हैं, एक हजार योजन विस्तृत एवं इतने ही योजन ऊँचे हैं।
इस प्रकार पूर्व दिशा सम्बन्धी एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर ऐसे तेरह पर्वत हैं। इन पर्वतों के शिखर पर उत्तम रत्नमय एक-एक जिनेन्द्र मन्दिर स्थित हैं।
जैसे यह पूर्व दिशा के तेरह पर्वतों का वर्णन किया है वैसे ही दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में भी तेरह-तेरह पर्वत हैं। उन पर भी एक-एक जिनमंदिर हैं। इस तरह कुल मिलाकर १३ + १३ + १३ + १३ = ५२ जिनमंदिर हैं।
जैसे पूर्व दिशा में चार वापियों के क्रम से नंदा आदि नाम हैं। वैसे ही दक्षिण दिशा में अंजनगिरि के चारों ओर जो चार वापियाँ हैं उनके पूर्वादि क्रम से अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका ये नाम हैं। पश्चिम दिशा के अंजनगिरि की चारों दिशाओं में क्रम से विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये नाम हैं तथा उत्तर दिशा के अंजनगिरि की चारों दिशागत वापियों के रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा नाम हैं।
चौंसठ वन-इन सोलह वापिकाओं के प्रत्येक के चार-चार वन होने से १६ x ४ = ६४ वन हैं। प्रत्येक वन में सुवर्ण तथा रत्नमय एक-एक प्रासाद है। उन पर ध्वजायें फहरा रही हैं। इन प्रासादों की ऊँचाई बासठ योजन और विस्तार इकतीस योजन है तथा लम्बाई भी इकतीस योजन ही है। इन प्रासादों में उत्तम-उत्तम वेदिकायें और गोपुर द्वार हैं। इनमें वन खण्डों के नामों से युक्त व्यंतर देव अपने बहुत से परिवार के साथ रहते हैं।
बावन जिनमंदिर-इस प्रकार नंदीश्वर द्वीप में ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख और ३२ रतिकर ये ५२ जिनमंदिर हैं। प्रत्येक जिनमंदिर उत्सेध योजन से १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७५ योजन ऊँचे हैं। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ गर्भगृह हैं और प्रत्येक गर्भगृह में ५०० धनुष ऊँची पद्मासन जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। इन मंदिरों में नाना प्रकार के मंगलघट, धूपघट, सुवर्णमालायें, मणिमालायें, अष्ट मंगलद्रव्य आदि शोभायमान हैं।
इन मन्दिरों में देवगण जल, गंध, पुष्प, तंदुल, उत्तम नैवेद्य, फल, दीप और धूपादि द्रव्यों से जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुतिपूर्वक पूजा करते हैं।
ज्योतिषी, वानव्यंतर, भवनवासी और कल्पवासी देवों की देवियाँ इन जिन भवनों में भक्तिपूर्वक नाचती और गाती हैं। बहुत से देवगण भेरी, मर्दल और घण्टा आदि अनेक प्रकार के दिव्य बाजों को बजाते रहते हैं।
इस नंदीश्वर द्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक चारों प्रकार के देवगण आते हैं और भक्ति से अखण्ड पूजा करते हैं।
कुंडलवर नाम से यह ग्यारहवाँ द्वीप है। इसके ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक कुण्डलवर पर्वत है। इस पर्वत पर चारों दिशाओं में एक-एक जिनमंदिर हैं। अत: वहाँ चार जिनमंदिर हैं। ऐसे तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नाम का है। वहाँ पर भी ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक रुचकवर पर्वत है। उस पर भी चारों दिशाओं में एक-एक जिनमंदिर होने से वहाँ के भी जिनमंदिर चार हैं। इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत से बाहर में नंदीश्वर के ५२ + कुण्डलवर के ४ + रुचकवर के ४ ऐसे · ६० जिनमंदिर हैं तथा मनुष्यलोक के मानुषोत्तर पर्वत तक ३९८ जिनमंदिर हैं। ये सब ३९८ + ६० = ४५८ अकृत्रिम, अनादिनिधन जिनमंदिर हैं। इस तेरहवें द्वीप से आगे असंख्यात द्वीप-समुद्रों में अन्यत्र कहीं भी स्वतन्त्र रूप से अकृत्रिम जिनमंदिर नहीं हैं। हाँ, सर्वत्र व्यंतर देव और ज्योतिषी देवों के घरों में अकृत्रिम जिनमंदिर अवश्य हैं, वे सब गणनातीत हैं।
जम्बूद्वीप के समान ही धातकी खण्ड एवं पुष्करार्ध में २-२ मेरू के निमित्त से सारी रचना दूनी-दूनी होने से चैत्यालय भी दूने-दूने हैं। धातकी खण्ड एवं पुष्करार्ध में २-२ इष्वाकार पर्वत पर २-२ चैत्यालय हैं। मानुषोत्तर पर्वत पर चारों ही दिशाओं के ४ चैत्यालय हैं। आठवें नंदीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं के ५२ चैत्यालय हैं। ११वें कुण्डलवर द्वीप में स्थित कुण्डलवर पर्वत पर ४ दिशा सम्बन्धी ४ चैत्यालय हैं।
तेरहवें रुचकवर द्वीप में स्थित रुचकवर पर्वत पर चार दिशा सम्बन्धी ४ चैत्यालय हैं। इस प्रकार ४५८ चैत्यालय होते हैं। यथा
जम्बूद्वीप में | 78 | चैत्यालय |
धातकी खण्ड में | 156 | चैत्यालय |
पुष्करार्ध में | 156 | चैत्यालय |
धातकी खण्ड एवं पुष्करार्ध में स्थित इष्वाकार पर्वतों पर | 4 | चैत्यालय |
मानुषोत्तर पर्वत पर | 4 | चैत्यालय |
नंदीश्वर द्वीप में | 52 | चैत्यालय |
कुण्डलगिरि में | 4 | चैत्यालय |
रुचकवरगिरि में | 4 | चैत्यालय |
७८ + १५६ + १५६ + ४ + ४ + ५२ + ४ + ४ = ४५८ चैत्यालय हैं।
१. ढाईद्वीप में पाँच मेरु पर्वत हैं।
२. तेरहद्वीप तक ४५८ जिनमंदिर में ४५८ जिन-प्रतिमाएँ हैं।
३. ८२१ देवभवनों में ८२१ जिनप्रतिमाएँ हैं।
४. १७० कर्मभूमियों में १७० समवसरण हैं।
५. लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र ये दो समुद्र हैं।
६. एक सिंहासन में १०८ जिनप्रतिमाएँ हैं।
७. एक सिंहासन पर श्रीसीमंधर आदि २० जिन-प्रतिमाएँ हैं।
८. एक सिंहासन पर ऋषभदेव आदि २४ जिन-प्रतिमाएँ हैं।
९. भरत क्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र आदि के तीर्थंकरों की शांतिनाथ आदि १६ प्रतिमाएँ हैं।
१०. तीस भोगभूमि हैं। दोनों समुद्रों में कुभोगभूमि हैं।
११. इस तेरहद्वीप रचना में २१२७ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।