जह चंडो वणहत्थी उद्दामो णयररायमग्गम्मि।
तिक्खंकुसेण धरिदो णरेण दिढसत्तिजुत्तेण।।
तह चंडो मणहत्थी उद्दामो विसयराजमग्गम्मि।
णाणंकुसेण धरिदो रुद्धो जह मत्तहत्थिव्य।।
अर्थ- जैसे जिसके गंडस्थल से मद झर रहा है और जो अत्यन्त कुपित हो रहा है ऐसा वनहस्ती यदि सांकल आदि बंधनों से रहित होकर नगर के राजमार्गों में दौड़ रहा है तो दृढ़ शक्तिशाली मनुष्य तीक्ष्ण अंकुश के द्वारा ही उसे वश में कर सकता है। उसी प्रकार से पंचेन्द्रियों के विषयरूपी राजमार्ग में उद्दंड फिरता हुआ मनरूपी हस्ती ज्ञानरूपी अंकुश के द्वारा ही वश में किया जाता है एवं जैसे मदोन्मत हस्ती भी वशीभूत हो जाने से स्वच्छंद कुछ भी करने में समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार से मुनि भी जब अपने मनरूपी हस्ती को वश में कर लेते हैं तो वे उसे जहां लगाते हैं, वहीं पर ठहर जाता है, व्यर्थ के दु:खदायी आर्तरौद्र ध्यान की तरफ नहीं जाता है, ऐसा अभिप्राय है।