स्थापना
गीता छंद
प्रभुवीर का छब्बीस सौवां, जन्म उत्सव जग प्रथित।
सब विश्व में लहरा रहा, महावीर प्रभु का धर्मध्वज।।
इन महावीर जिनेन्द्र की, स्थापना विधि हम करें।
निज सौख्य हेतू भक्ति से, अर्चें जनम दुख परिहरें।।१।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकर श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकर श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकर श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
अथ अष्टक
चौबोलछंद
गंगा यमुना सरस्वती के, संगम का जल लाया हूँ।
महावीर प्रभु के पद में, त्रयधारा देने आया हूँ।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।१।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकरश्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन केशर सुरभित घिसकर, प्रभु चरणों में चर्चु मैं।
जग संताप दूर करने को, प्रभु चरणों में प्रणमूँ मैं।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।२।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकरश्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्जवल शालि सुगंधित लेकर, पुंज चढ़ाऊं प्रभु आगे।
अक्षयपद की प्राप्ति सुखद हो, पुनर्जन्म के दुख भागें।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।३।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकरश्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला जुही चमेली सुरभित, पुष्प चढ़ाऊँ चरणों में।
कामदेवमदविजयी प्रभु की, पूजा कर लूँ सुखकर मैं।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।४।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकरश्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
फेनी गुझिया खाजे ताजे, भरकर थाल चढ़ाऊँ मैं।
क्षुधा वेदनी दूर करो प्रभु, भक्ती से गुण गाऊँ मैं।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।५।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकर श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतदीपक में ज्योति जलाकर, करूँ आरती भक्ती से।
निज घट का अज्ञान दूर हो, सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगटे।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।६।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकरश्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित खेवूँ मैं।
अशुभ कर्म को भस्मसात् कर, आतम अनुभव लेवूँ मैं।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।७।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकर श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम अंगूर सरसफल, भर कर थाल चढ़ाऊँ मैं।
जिनवर सन्निध अर्पण करके, स्वात्मसुधारस पाऊँ मैं।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।८।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकरश्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमावलि, आदिक अघ्र्य बनाऊँ मैं।
उसमें रत्न मिलाकर अर्पूं, निजगुण मणि को पाऊं मैं।।
वीर प्रभू का जन्मकल्याणक, जग में मंगलकारी है।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब जन को सुखकारी है।।९।।
ॐ ह्रीं अन्तिमतीर्थंकरश्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
महावीर अतिवीर, तुम पद पंकज में सदा।
मिले भवोदधि तीर, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, सुरभित करते दश दिशा।
महावीर पादाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
शेरछंद
जय वीर महावीर आप जन्म जब लिया।
संपूर्ण लोक में महा आश्चर्य भर दिया।।
स्वर्गों में कल्पवृक्ष पुष्पवृष्टि कर झुके।
इन्द्रों के सिंहासन भी आप-आप हिल उठें।।१।।
शीतल सुगंध वायु मंद मंद बही थी।
पृथ्वी भी तो आनंदभरी नाच रही थी।।
संपूर्ण दिशायें गगन भी स्वच्छ हुए थे।
सागर भी तो लहरा रहा हर्षातिरेक से।।२।।
व्यंतर गृहों से भेरियों के शब्द हो उठे।
भवनालयों में शंखनाद गूंजने लगे।।
ज्योतिष गृहों में सिंहनाद स्वयं हो उठा।
सुर कल्पवासि भवन में घंटा भी बज उठा।।३।।
इंद्रों के मुकुट अग्र भी स्वयमेव झुक गये।
जिन जन्म जान आसनों से सब उतर गये।।
तब इन्द्र के आदेश से सुरपंक्ति चल पड़ी।
सबके हृदय में हर्ष की नदियां उमड़ पड़ीं।।४।।
सुरपति प्रभु को गोद में ले गज पे चढ़े हैं।
ईशान इंद्र प्रभु पे छत्र तान खड़े हैं।।
सानत्कुमार औ महेन्द्र चंवर ढोरते।
सब देव देवियां बहुत भक्ती विभोर थे।।५।।
क्षण में सुमेरूगिरि पे जाके प्रभु को बिठाया।
पांडुकशिला पे नाथ का अभिषेक रचाया।।
सौधर्म इन्द्र ने हजार हाथ बनाये।
संपूर्ण स्वर्ण कलश एक साथ उठाये।।६।।
उनसे प्रभू का न्हवन एक साथ कर दिया।
जय जय ध्वनी से देवों ने आकाश भर दिया।।
सब इन्द्र औ इंद्राणियों ने न्हवन किया था।
सब देव औ देवांगनाओं ने भी किया था।।७।।
अभिषेक जल से क्षण में पयोसिंधु बना था।
देवों की सेना डूब रही हर्ष घना था।।
जन्माभिषेक जिन का स्वयं इंद्र कर रहे।
उत्सव विशेष और की फिर बात क्या कहें।।८।।
सुरपति ने पुन: प्रभू को लाके जनक को दिया।
बहु देव और देवियां सेवा में रख दिया।।
सुर धन्य वे जो नाथ संग खेल खेलते।
संसार के दु:ख संकटों को वे न झेलते।।९।।
मैं भी करूँ सेवा प्रभु की भक्ति भाव से।
मिथ्यात्व का निर्मूल हो समकित प्रभाव से।।
बस एक प्रार्थना पे नाथ ! ध्यान दीजिये।
सज्ज्ञानमती पूर्ण हो ये दान दीजिये।।१०।।
दोहा
वर्धमान गुणरत्न को, गिनत न पावहिं पार।
तीन रत्न के हेतु में, नमूं अनंतों बार।।११।।
ॐ ह्रीं अंतिमतीर्थंकर श्रीमहावीरजिनेंद्राय जयमाला पूर्णार्घंनिर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा
वद्र्धमान जिन वीरप्रभु , श्रीसन्मति महावीर।
महति महावीर आपको, जजत मिले भवतीर।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।