मंदिर में परकोटे, मुख्यद्वार, लघुद्वार, बाहर की दीवालें, अन्दर के बहुभाग तैयार हो चुके हैं। अन्दर की दीवालों पर स्वर्ण से, पन्ना, माणिक्य, मरकत आदि से नाना प्रकार के चित्रों का काम शुरू हो गया है। कहीं पर श्री जिनेन्द्रदेव के पंचकल्याणकों का प्रदर्शन इतना भावपूर्ण है कि दर्शक के नेत्र हटाये नहीं हटते हैं। कहीं पर भगवान् ऋषभदेव के दशभवों का विस्तार दिखाया जा रहा है और कहीं पर चक्रवर्तियों का वैभव, उनका चक्ररत्न अपनी प्रभा के समूह से बहुत दूर तक प्रकाश पैâला रहा है। कुमार बुद्धिसेन मनोवती के समक्ष निर्माण के संबंध में और चित्रों के संबंध में विचार-विमर्श कर रहे हैं।
‘‘यदि आप कहें तो एक बड़े हाल में श्री जिनेन्द्रदेव के समवसरण का सुन्दर भव्य चित्र बनवा दूँ और उसमें अनेक प्रकार के नग जड़वाकर बहुत आकर्षक करवा दूँ।’’
‘‘अवश्यमेव बनवाइये। उसमें मानस्तंभ, सरोवर, खाई, परकोटे, धूलीसाल कोट, कल्पवृक्ष भूमि, प्रासाद भूमि आदि दृश्य बहुत ही बढ़िया होने चाहिए और गन्धकुटी में माणिक्य रत्न से कमलासन बनवाइये।’’
‘‘कल से यह काम भी चालू करा दूँगा। मजदूर, चित्रकार, मिस्त्री आदि काम करने वाले लोग दिन पर दिन दूर-दूर से आते ही जा रहे हैं। वहाँ पहुँचकर जब मैं कार्य की प्रगति देखता हूँ तो बड़ा आनन्द आता है।’’
कुटुम्बियों को मजदूरी करते देख मनोवती हुई चिन्तित, माता हेमश्री को महल में नियुक्त किया-
मनोवती कुछ गंभीर हो जाती है और कुछ क्षण चुप रहती है। सोचती है कि देखो! अपने कुटुम्ब के लोग मजदूरी में लग रहे हैं जबकि हजारों आदमी काम में जुटे हुए हैं। यह अनर्थ वैâसे रोका जाये ? सच है……कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है, इनका भी क्या दोष है ? उन लोगों का भाग्य अभी तीव्र रूप से फल दे रहा है……।
‘‘क्यों, आप क्या सोचने लगीं ?’’
‘‘स्वामिन्! अब आप अपने कुटुम्बियों को अवकाश देकर परिचय स्थापित कीजिए।’’
बुद्धिसेन हँस पड़ते हैं-
‘‘प्रिये! तुम्हें इसकी इतनी चिंता क्यों है ?……अच्छा! कुछ दिन और निकल जाने दो फिर जैसा तुम कहोगी, वैसा ही होगा।’’
‘‘अच्छा! तो आप अपनी माँ को हमारे यहाँ भेज दीजिए। मैं हमेशा अकेली रहती हूँ एक वृद्धा महिला यहाँ रहनी भी तो चाहिए……।’’
कुछ घर का काम धंधा करेंगी, मुझे थोड़ी सुविधा मिलेगी……..।
‘‘ठीक, अभी मैं जाता हूूँ, भेज दूँगा।’’
कुछ क्षण बाद ही वृद्ध हेमश्री महल में आ जाती है। बेचारी अन्य दासियों के साथ कोई भी काम करना चाहती है किन्तु मनोवती उसे रोक देती है। वह घबराकर बोलती है-
‘‘सरकार ने मुझे यहाँ महल में आपके पास काम-काज टहल सेवा करने के लिए भेजा है।’’
‘‘हाँ, हाँ! मुझे भी मालूम है अम्माजी! बैठो, अभी तो तुम आराम करो, बहुत सी दासियाँ हैं, अपना-अपना काम कर रही हैं। अभी तो तुम्हारे लायक कोई काम नहीं दिख रहा है जो होगा सो मैं बताऊँगी।’’
मनोवती ने हेमश्री से प्रेमपूर्ण व्यवहार—
मनोवती बहुत ही प्रेम से उनसे बोलती है और हर काम से उसे रोक देती है। बड़े प्रेम से उत्तम भोजन कराती है फिर पूछती है-
‘‘अम्माजी, तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं ?’’
हेमश्री सकुचाती हुई धीरे-धीरे बोलती है-‘‘मेरे पतिदेव हैं, छह लड़के और उनकी बहुएं हैं तथा बहुओं के बच्चे-बच्चियाँ हैं।’’
‘‘सब कहाँ पर हैं ?’’
‘‘यहीं पर नूतन मंदिर के पास मालिक ने एक झोंपड़ी बता दी है, हम लोग वहीं पर रहते हैं। बेटे-बहू दिन भर मजदूरी करते हैं ना…….।’’
‘‘अच्छा-अच्छा! तो तुम यहाँ आ गई, अब वहाँ खाना कौन बनायेगा ?’’
‘‘बहुएं अपने आप……..।’’
‘‘वे तो सब मजदूरी में लगे हैं ना।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘तो ऐसा करो, लो यह भोजन तुम ले जावो और सबको जिमाकर आ जावो। हाँ, देखो! किसी को मालूम नहीं पड़ना चाहिए, हाँ……..।’’
हेमश्री कुछ क्षण के लिए स्तब्ध हो जाती है फिर मनोवती के द्वारा स्वयं हाथ से दिये गये अनेक सरस पकवान, खीर, पूरी, मावा, मलाई आदि से सहित भोजन को डब्बों में भरकर ले जाती है। कुटिया में पतिदेव के समक्ष पहुँचकर सब सामान रखती है। इतने में सभी लड़के और बहुयें भी आ जाती हैं क्योंकि प्रबंधक महोदय इन्हें सबसे पहले वेतन देकर निपटा कर भेज देते हैं। सेठ हेमदत्त इतना सब भोजन पकवान देखकर पूछते हैं-
‘‘तू यह सब कहाँ से ले आयी ?’’
‘‘आज मुझे राजजमाई ने अपने महल में रानी के पास टहल के लिए भेजा था, वहीं पर मैं दिन भर थी। मैं आपसे क्या कहूँ ? उसने मुझसे रत्ती भर काम नहीं कराया। बस भोजन करा दिया और बिठा दिया, उसी ने यह सब भोजन अपने हाथ से दिया है। वह साक्षात् लक्ष्मी है लक्ष्मी!’’
राजमहल से हेमश्री द्वारा लाए भोजन को देख हेमदत्त को अपनी गलती का एहसास हुआ-
हेमदत्त कुछ क्षण तक भावों की तरंगों में डूबने उतराने लगते हैं। कोई एक दिन ऐसा था जो कि अभी स्मृतिपथ से दूर नहीं हुआ है ओह!!……..क्या वे दिन भूले जा सकते हैं ? अभी कितने दिन हुए ? शायद एक वर्ष भी तो नहीं हुआ। लेकिन…….लेकिन……संकट में एक दिन भी वर्ष जैसा निकलता है, लगता है कि कितने युग निकल गये हमें इसी दुरावस्था में……।
सेठ की आँखों से बरसात शुरू हो जाती है। वे सोचते ही चले जा रहे हैं देखो ना…..हमारे घर में क्या कमी थी ? हर दिन उत्त्ाम-उत्तम भोजन! बिना खीर के क्या कभी नौकरों को भी खिलाया गया था ? क्या कोई भिखारी दरवाजे से बिना पेट भर भोजन खाये गया था ? फिर भी कौन से ऐसे कर्म का उदय आ गया है कि जिससे हम लोगों की यह दुर्दशा हो रही है। ओह!…..क्या पता इसी जन्म का पाप हो, क्या पता किसी बहुत पुराने कर्म का विपाक हो, क्या मालूम ?…….
एक समय वह था कि जब छोटी बहू के लिए गजमोतियों से भरा रत्नों का कोठार खोल दिया था, उस बात को अभी बहुत दिन तो नहीं हुए और एक समय यह आया कि हेमश्री ने, बहुओं ने भी लकड़ी के बोझ सिर पर रखकर गाँव में बेचे हैं व हम लोगों ने भी दिन भर जंगल में लकड़ियाँ बीन-बीन कर बोझ बनाये माथे पर रखकर बेचे हैं और…..और फिर भी तो पेट नहीं भर सके। ऐसे दुर्दिन वैâसे आ गये ?
क्या बुद्धिसेन ही मेरे घर में पुण्यवान् था ? क्या उसकी बहू ही लक्ष्मी थी ?…….अन्यथा यदि ऐसा न माना जाये तो उनको घर से निकालते ही ऐसा क्यों हो जाता ? चन्द दिनों में सारी छप्पन करोड़ दीनारें कहाँ गईं ?…..अरे! महिलाओं के गहने जेवर भी तो गिरवी रख दिए गए थे ? जब उतने से भी दैव को सन्तुष्टि नहीं हुई तो हवेलियों को गिरवी रख दिया गया। इतने पर भी दुर्दैव ने विराम नहीं लिया तो जंगलों में जाकर लकड़ियाँ ला-लाकर बेच-बेचकर उदरपूर्ति करना चाही।…… आह! जब इस काम से भी हम लोग पेट नहीं भर सके तो शहर छोड़कर भीख मांगते खाते यहाँ तक आ पहुँचे।
यहाँ भाग्य ने कुछ रहम किया है कि जिससे राजजमाई के मंदिर निर्माण कार्य में मजदूरी तो मिल गई, अभी तक तो कोई भी कहीं भी हम लोगों को नौकरी देना ही नहीं चाहता था……। अब बेचारी हेमश्री जिसने कभी पच्चीसों दासियों से टहल कराई थी, राजसुख भोगा था, मखमल के गद्दे पर ही लेटती थी।…..कभी जिसको शृंगार कराने के लिए, वस्त्रालंकार कराने के लिए धायें रहती थीं…..हाय, हाय! आज वह राजघराने में टहल करने के लिए जाय ? सच है भाग्य की बड़ी विडम्बना है।
पिता के आंसुओं को देख सभी पुत्र अधीर हो उठे-
पिताजी विचार सागर में मग्न हैं। धनदत्त, सोमदत्त आदि लड़के और धनश्री, सोमश्री आदि बहुएं कुछ ही क्षण में भोजन के बारे में सारी स्थिति समझ लेती हैं और तनिक विश्रांति लेकर अपने-अपने बच्चों को संभाल कर वहीं पर आ जाती हैं। हेमश्री और धनदत्त, हेमदत्त की आँखों से गिरते हुए अविरल अश्रुओं को देखकर अधीर हो उठते हैं-
‘‘इस समय आप क्योें रो रहे हैं ?’’
आँसू पोंछते हुए-
‘‘कोई खास बात नहीं है।’’
‘‘तो भी अकस्मात् आपको रोना क्यों आया ?’’
‘‘बेटा धनदत्त! सामने रखे हुए इतने भोजन सामान को देखकर सहसा अपने पुराने दिनों की स्मृति ताजी हो उठी…….।’’
सभी लोग कुछ एक क्षण, पिछले दिनों को याद कर दुःख से आहत हो उठते हैं। पुनः हेमश्री कहती है-
‘‘अब आप भी कुछ क्षण के लिए अपना उपयोग बदलिए, मुख धोइये और भोजन कीजिए। कृतकर्म जब उदय में आता है, तब उसका फल तो भोगना ही पड़ता है। जितनी शान्ति से उसे भोगा जाता है उतना ही वह आगे के लिए कर्मों का बंध कम करता है। फिर आप तो स्वयं समझदार हैं। अब चिन्ता छोड़िए…….।’’
‘‘हाँ, हाँ, माँ ठीक कह रही है पिताजी! अब आप शान्ति से भोजन कीजिए। सदा दिन एक से नहीं रहते हैं। कभी न कभी दिन सुधरेंगे, सुख के बाद दुःख के दिन आये हैं और कभी सुख के दिन भी आ सकते हैं।’’
हेमश्री पतिदेव का मुख धुलाकर उन्हें भोजन परोसती है। तब तक धरसेन केले के बड़े-बड़े पत्ते तोड़कर लाकर सभी के आगे पत्तल रख देता है। माँ सभी को एक साथ भोजन करा रही है। छोटे-छोटे बच्चे भी आज बहुत दिन बाद गुझिया-लड्डू पाकर खुश हो रहे हैं और नाच-नाचकर खा रहे हैं। हेमश्री शाम को वापस महल में मनोवती के पास पहँुच जाती है। मनोवती प्रतिदिन उत्तम-उत्तम भोजन बना-बनाकर हेमश्री के हाथ से सबके लिए भेज देती है और किसी को भी पता नहीं चलने देती है।
हेमश्री और मनोवती का वार्तालाप, पूर्व स्मृतियाँ हुईं पुनर्जीवित-
एक दिन सहज ही मनोवती कहती है-
‘‘अम्मा जी! आवो, जरा मेरे केश तो देखो और चोटी कर दो।’’
‘‘बहूरानी! आप करोड़पति की बहू और मैं एक दरिद्रा।……दीन रंक हुए हम लोग दर-दर फिर रहे हैं, आपके यहाँ आकर अपना पेट भर रहे हैं।……मेरा तो आपके पास आने का मुख नहीं पड़ता है।’’
इतनी बात सुनते ही मनोवती के नेत्र सजल हो गये । इस संसार में यह लक्ष्मी अतिशय चंचल है। अहो! इसका क्या विश्वास करना ? देखो ना…..यह प्रत्यक्ष में मेरी सासू है और मैं इसकी पुत्रवधू हूँ किन्तु हाय!……इनकी सम्पत्ति नष्ट हो गई इसलिए यह मेरे निकट आने में सकुचा रही हैं। धिक्कार हो! इस धन को धिक्कार हो!……पुनः दिलासा देते हुए कहती है-
‘‘कोई बात नहीं, चिन्ता मत करो, आवो……आवो।’’
कुछ क्षण के लिए हेमश्री सकुचाई खड़ी रहती है जैसे कि मानो उसके पैर ही नहीं आगे बढ़ना चाहते हैं।
‘‘आ जाओ, अम्मा जी! क्योें संकोच करती हो ? आ जाओ।’’
हेमश्री पास आकर अपने कपड़े संभालकर इस तरह बैठती है कि जिससे बहूरानी को अपने कपड़ों का स्पर्श न हो जावे। पुनः काँपते हुए हाथों से उनकी चोटी की रेशमी डोरी खोलती है और रेशम जैसे मुलायम केशों को खोलने लगती है। कुछ क्षण में ही उसकी आँखों से अश्रु की झड़ी लग जाती है और हेमश्री अपने अविरल अश्रुओं को अपने अंचल में ही समेटती चली जा रही है। कुछ देर में उसे सिसकी आने लगी और वह अपने को नहीं संभाल सकी, फफक कर रो पड़ी……।
‘‘ऐ!! यह क्या ?……..अम्मा जी! तुम क्यों रोने लगीं……. बोलो तो सही।’’
बेचारी हेमश्री कुछ दूर सरक कर अपने आंचल से अपना मुँह ढँककर फूट-फूटकर रोने लगी मानो उसके धैर्य का बांध ही टूट गया हो। मनोवती ने जैसे-तैसे करके उसे सांत्वना दी और रोने का कारण कहने को कहा-
‘‘रानी साहिबा! मैं……यदि पहले की अपनी बातें कहूँ तो आज उन पर कोई विश्वास नहीं करेगा। किसी को भी मेरा पहले का जीवन सच नहीं लगेगा।
‘‘नहीं, नहीं ऐसी बात नहीं है, तुम कहो तो सही! तुम कुछ भी चिन्ता मत करो और सभी बातें ज्यों की त्यों कहो।’’
तब हेमश्री सामने एक तरफ बैठकर हाथ जोड़कर कहती हैं-
‘‘महारानी जी! हम लोग ऐसे रंक नहीं थे। बल्लभपुर शहर में हमारे पति बहुत बड़े विख्यात जौहरी थे। मेरे घर में छप्पन करोड़ दीनारें होने से छप्पन ध्वजाएं फहराती हुई हमारे पतिदेव का यश विस्तार रही थीं। हमारे सात पुत्र थे जिसमें ये सबसे बड़ा धनदत्त है जो कि साथ में है और सबसे छोटा पुत्र बुद्धिसेन था उसका ब्याह होकर….. हाय!……अभी एक वर्ष भी नहीं हुआ होगा…..।’’
फिर वह सिसक-सिसक कर रो पड़ती है, बोल नहीं पाती है किन्तु मनोवती उस समय बहुत ही कारुण्य मुद्रा से श्रवण कर रही है-
‘‘बोलो, बोलो! अम्मा जी! न घबराओ, सभी पर सब तरह के दिन आ सकते हैं, देखो ना! भगवान् रामचन्द्र को राजगद्दी होने वाली थी किन्तु वन की शरण लेनी पड़ी।……इसलिए धैर्य रखो और पूरी बात कहो!’’
बेचारी जैसे-तैसे हृदय थामकर सिसकते हुए ही बोलती है-‘‘बहूजी! मैं क्या बताऊँ ? उसकी शादी हस्तिनापुर में हो गई। बहुत बड़े घराने की बहू मेरे घर में आ गई। मैं क्या बताऊँ…….वह तो साक्षात् लक्ष्मी ही थी।…..उसने ऐसी प्रतिज्ञा ली हुई थी कि जब मैं गजमोती भगवान् के सामने चढ़ाऊँगी, तभी भोजन करूँगी। मेरे पतिदेव ने कोठार खोल दिया, मोतियों के ढेर के ढेर लगे हुए थे। उसने गजमोती चढ़ाये और पुनः खाना खाया। हाय रे!
फिर बेचारी रो पड़ती है।
‘‘अम्माजी! तुम इतना न घबराओ……’’
‘‘कुछ पूर्व के पाप कर्म का तीव्र उदय आ गया…..तब घर से हमारे प्यारे पुत्र को निकाल दिया……गया। वह हस्तिनापुर चला गया, वहाँ से उसकी पत्नी भी उसके साथ हो ली, अब तक हम लोगों को पता नहीं चला कि वे दोनों कहाँ हैं ?’’
फिर माथे पर हाथ रखकर बिलख-बिलख कर रोती है-
‘‘हाय बेटा! तुम कहाँ चले गए ? रानी जी! मैं सच्ची कहती हूँ तुमसे, जिस दिन से वे बेटे और बहू घर से गये हैं बस उसी दिन से मेरी लक्ष्मी कहाँ चली गयी ? कुछ पता नहीं…….. कुछ ही दिन में सारी सम्पत्ति समाप्त हो गई। हाय! हाय! हम रंक बने मारे-मारे फिर रहे हैं। आपके केश खोलते ही आपके शिर में यह एक चिह्न जो मैंने देखा मेरी बहू के शिर में भी ऐसा ही चिह्न था।’’
अतः इसे देखते ही मेरा जी भर आया……।’’
हेमश्री की करुण कथा सुन मनोवती ने दिखाया कृत्रिम क्रोध, महल से निकाला—
मनोवती ने सारी बात सुन ली यद्यपि हृदय द्रवित हो उठा था फिर भी उसने मन की बात मन में ही छिपा कर बनावटी क्रोध दिखाते हुए कहा-‘‘अब क्या हमें तू अपनी बहू बना रही है? ……अरी चमेली! इधर आ।’’
दासी काम छोड़कर दौड़कर आती है-
‘‘हाँ जी, आ गई! क्या आज्ञा है महारानी जी ?’’
‘‘तू इस वृद्धा को महल से बाहर कर दे!’’
‘‘जैसी आपकी आज्ञा!’’
चमेली हेमश्री का हाथ पकड़ कर जल्दी-जल्दी उसे महल से बाहर निकाल देती है और आकर बोलती है-
‘‘निकाल दिया, महारानी जी! निकाल दिया।’’
हेमश्री ने सारी घटना पति व पुत्रों को बताई—
हेमश्री महल के बाहर खड़ी-खड़ी सोच रही है कि यह क्या हो गया ? अब क्या होगा ? मैं अपने पतिदेव को या पुत्रों को वैâसे मुँह दिखाऊँ ? जाकर उनसे क्या कहूँ ? कुछ क्षण रोकर कलेजा शांत करके स्खलित पग रखते हुए जैसे-तैसे अपनी झोपड़ी में पहुँचती है। हेमदत्त को कुछ आहट होने से पूछते हैं-कौन है ? तब वह अन्दर पहुँचकर फूट-फूटकर रोने लगती है।
‘‘आखिर हुआ क्या ? बोलो तो सही। केवल रोने मात्र से मैं क्या समझ सकूँगा ?’’
जैसे-तैसे आँसू पोंछते हुए और सिसकते हुए बोलती है-
‘‘मालकिन ने मुझे महल से निकाल दिया।’’
‘‘क्यों ?’’
पति के बहुत कुछ धैर्य बँधाने के बाद वह धीरे-धीरे सारा किस्सा सुना देती है।
‘‘अफसोस! तूने गजब कर दिया।’’
हेमदत्त क्रोध में आपे से बाहर हो जाते हैं इसी बीच में एक-एक करके छहों लड़के और बहुएँ भी आ जाती हैं और उन्हें भी सारा हाल सुना दिया जाता है। अब क्या देखना ?….एक-एक में एक से बढ़कर क्रोध भभक उठता है। सभी एक-एक करके हेमश्री को फटकारना शुरू कर देते हैं इतना ही नहीं…….।
‘‘हाय! तूने यह क्या कर डाला ? कौन तो बहू और कहाँ के पुत्र ? और कहाँ की तू पहिचान कराने लगी ?’’
‘‘हाय! हम लोग दर-दर की ठोकरें खाते-खाते यहाँ आये, जरा सी बैठने की जगह मिली, पेट को सहारा मिला और तूने सब वापस गँवा दिया।’’
‘‘जा, जा! चली जा इस झोपड़ी से, जल्दी निकल जा। अब हम लोग भी इस झोपड़ी में तुझे रहने नहीं देंगे।’’
हेमश्री के कृत्य से दुखी पुत्रों ने उसे मार-पीटकर घर से निकाल दिया—
धनदत्त उठकर उसे धक्का देकर निकालने की कोशिश करता है कि वह शोक में पागल हो जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ती है। कोई पुत्र पत्थर उठाकर उसे मारने दौड़ता है तो कोई कंकड़ फेंकता है तो कोई लकड़ियों से पीटने लगता है। कोई धक्का देता है तो कोई बहू लात से मारने दौड़ती है। हेमदत्त अब चुपचाप पत्नी पर होने वाले असह्य अत्याचार को देख रहे हैं और कुछ सोच-सोच फूट-फूटकर रो रहे हैं। हेमश्री पुत्रों के और पुत्र-वधुओं के द्वारा मार खाते हुए उनकी गालियाँ सुनते हुए बहुत ही घबरा उठती है और जोर-जोर से चिल्लाने लगती है-
‘‘हाय! मैं मरी, मैं मरी! हाय, हाय! मेरा कोई रक्षक नहीं है। बचाओ-बचाओ! भगवान मेरी रक्षा करो। मैंने क्या पाप किए हैं ? जो कि एक दुःख से नहीं छूटी और दूसरा छाती पर आ पड़ा। अब मैं कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? अरे रे! निपूतों! तुम सब मिलकर मुझे क्यों मार रहे हो ?….. अकेला मेरा भाग्य ही खोटा है क्या ?……..
अरे प्यारा बेटा बुद्धिसेन! तू कहाँ है ? तेरे जाने के बाद ही तो मेरी मिट्टी पलीत हुई है। मैं न घर की रही न दर की।
इतना सुनते ही लड़कों का क्रोध और भी अधिक भभक उठा। वे सभी आपे से बाहर हो गये और जोर-जोर से बकने लगे-
‘‘जा, जा, तू उसी बुद्धिसेन को ढूंढ़! अब यहाँ हम लोगों के पास रहने की जरूरत नहीं है। बस जब देखो, जब बुद्धिसेन लाडला बेटा और मनोवती। इसके सिवाय और तुझे कुछ दिखता है ? और जभी तो वहाँ जाकर भी गम नहीं खाई। रानी साहिबा के सिर में भी तुझे बहू की खोपड़ी ही दिखाई देने लगी और तभी तो सारा अनर्थ करके आ गई।’’
‘‘अरे दुष्टों! तुम सबने मिलकर ही तो उसको निकाला है और उसी पाप का फल भोग रहे हो। फिर भी उसके नाम से तुम लोगों को आग लगती है ? तुम सब बड़े कर्महीन हो और बुद्धिहीन हो। तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये हैं तभी तो माँ को पत्थर से मार रहे हो।’’
क्रोध के आवेश में आकर हेमश्री आगबबूला हो उठती है। इतने में ही सोमदत्त, विनयदत्त आगे बढ़कर जबरदस्ती उसे घसीट-घसीट कर दरवाजे तक पहुँचा देते हैं और बहुयें आगे बढ़कर बड़बड़ाती हुईं दरवाजे की साँकल लगा लेती हैं।
‘‘हाय! मैं कहाँ जाऊँ ? कपूतों! तुमको नव-नव महीने उदर में रखा है। तुम मेरी यह दशा कर रहे हो ? मैं मर जाऊँगी। पतिदेव! तुमने तो स्वप्न में भी कभी एक शब्द तिरस्कार का नहीं कहा था और अब तुमको भी क्या हो गया है ? खोलो-खोलो, दरवाजा खोलो।’’
हेमश्री का करुण क्रंदन—
बेचारी हेमश्री फड़फड़ाती हुई बेहोश हो जाती है और कुछ देर बाद होश में आती है तब देखती है कि मैं घसीट कर अपनी झोंपड़ी के दरवाजे से दूर कर दी गई हूँ। वह कुछ एक क्षण विचार कर उठकर धीरे-धीरे वन की ओर जाने की राह पकड़ती है और बार-बार मार्ग में गिर पड़ती है, तब मार्ग में एक झाड़ के नीचे बैठकर अकेली जोर-जोर से करुण क्रंदन करते हुए विलाप करती है-
‘‘अरे दुर्दैव! तुझे और भी जितना दुःख देना है एक साथ ही दे ले। खूब दुःख दे ले। अरे निष्ठुर विधाता! तुझे दया तो वैâसे आएगी ? क्योंकि मैंने ही तो पूर्व जन्म में ना, ना, पता नहीं इसी जन्म में कुछ पाप संचित किया है, उसका फल तो मुझे ही भोगना पड़ेगा। हे भगवन्! तुमको भी मेरे ऊपर करुणा नहीं आती है। प्रभो! तुम जो जगत् में करुणासागर के नाम से प्रसिद्ध हो। हे तीनलोक के नाथ जिनेन्द्रदेव! अब आप मेरे ऊपर दयादृष्टि करो। अब मैं इतने अधिक दुःखों को सहने में समर्थ नहीं हूँ।
हाय! मेरा प्यारा बेटा बुद्धिसेन! तू इस जन्म में मुझे मिलेगा या नहीं ? एक बार स्वप्न में ही मुझे दर्शन दे दे। अपनी माँ की ऐसी दुर्दशा को तू एक बार तो देख ले। तू कहाँ है ? किस देश में है ? तू किस स्थिति में है ? अरे तू सुखी है कि तू भी दुःखी है ? अपनी स्थिति को तो बता दे ?
मेरी बहूरानी मनोवती! तुम भी वैâसी हो ? तुम्हारी प्रतिज्ञा वैâसे पल रही है ? तुमने तुम्हारे पीहर के सुख को ठोकर मार दिया, तुम्हें गजमोती कहीं मिली होगी या नहीं ? बताओ तो सही। तुम्हारे अपमान से ही……तुम्हारा घर में आना रोक देने से ही तो हम सबों ने यहाँ तक दुर्दिन देखे हैं।’’
कुछ देर तक ठण्डी साँस लेकर बैठ जाती है। फिर-फिर छोटे बेटे और बहू को याद कर रोने लगी। आँखें लाल-लाल हो गई हैं और ऊपर से खूब ही सूज गई हैं। मुख की सूरत अत्यन्त विरूप हो रही है। सारी धोती आँसुओं से भीग चुकी है। पेट खाली है और अन्न का ठिकाना भी नहीं रहा है। सोच रही है-अब पुनः मुझे भीख माँगकर ही तो पेट भरना पड़ेगा।
‘‘अरे विधाता! अब तू मुझे उठा ले, अब मैं अधिक दुःख नहीं देख सवूँâगी।…..बेटे तो बहुओं की वजह से भी कठोर अति कठोर हो सकते हैं लेकिन पतिदेव को इतना क्रोध वैâसे आ गया ? उनके हृदय में भी मेरे प्रति करुणा भाव क्यों नहीं रहा ?……ओह! मैं बहुत बड़ी भूल कर रही हूँ। मेरे पाप कर्मों के उदय से ही तो सब निष्ठुर हो रहे हैं। दैव निष्ठुर हैं, पतिदेव निष्ठुर हैं, छह-छह बेटे हैं वे भी निष्ठुर हैं और सभी बहुएं निष्ठुर हैं। और तो क्या ?……जिसने इतनी सहानुभूति, इतनी करुणा दिखलाई थी वह दयावन्ती देवी राजजमाई की राजपत्नी भी तो निष्ठुर हो गयीं। अब केवल मात्र भगवान तेरा ही एक सहारा है। अब इस पर्याय में मेरा कोई नहीं है। जब तक धन था, हजारों नौकर काम करते थे, जगह-जगह व्यापार चलते थे। तब मैं भी क्या किसी रानी-महारानी से कम सुखी थी ? मुझे क्या कुछ कमी थी ?……खैर, अब तो जो दिन आये हैं, उनसे ही तो निपटना है।
प्रभो! दयानिधे! करुणा करो, मुझे दया की भीख देवो। मैं कब तक इस पापी पेट के पीछे दर-दर भीख माँगती फिरूँ ? हाय!……पतिदेव और सात-सात पुत्रों के जीवित रहते हुए भी मैं भीख माँगूँ ? अरी लक्ष्मी ? तू वेश्या से भी अधिक अविश्वसनीय है। आज किसी की, कल किसी की। तुझे धिक्कार हो! धिक्कार हो!…..अरे दुर्दैव! तुझे भी धिक्कार हो! इस मेरे हीन-दीन जीवन को भी धिक्कार हो!…..
हेमश्री बुद्धिसेन और मनोवती से मिलने हेतु हुई आकुलित—
बेचारी हेमश्री इधर अकेली बैठी-बैठी अपने इस जीवन से ऊब उठती है और फिर सहसा सोचने लगती है कि इस दुःखी जीवन से मर जाना ही अच्छा है। फिर-फिर अकस्मात् ही बुद्धिसेन के मुख को देखने के लिए उत्कंठित हो उठती है और उनका मन पंछी तड़पने लगता है-
‘‘बेटा तू कहाँ है ? एक बार मुुझे किंचित् सान्त्वना दे दे। इस जीवन में मुझे फिर अब तेरा सलोना मुख देखने को मिलेगा या नहीं ? बोल तू बोल! जहाँ कहीं भी हो, एक बार बोल दे! नहीं तो मैं इस जीवन को, इस निंद्य पराधीन स्त्री पर्याय को समाप्त कर दूँ। कहीं कुएं- बावड़ी में पड़कर या गले में फाँसी लगाकर मर जाऊँ। एक बार-एक बार तो इस संकट से छुटकारा पा लूँ। अफसोस! मैं क्या कह रही हूँ ? क्या मरने से दुःख छूट जायेंगे ? अरे! जो बाँधे हैं कर्म मैंने, उनका फल तो आज क्या, कल या परसों या किसी जन्म में भोगना ही पड़ेगा।
हे त्रिभुवन के स्वामी! आप ही इन दुष्कर्मों से छुटकारा दिला सकते हैं, अन्य कोई नहीं। अब मेरी रक्षा करो, रक्षा करो प्रभो! मुझे सद्बुद्धि दो।’’
इधर हेमश्री को निकाल देने के बाद हेमदत्त सोच रहे हैं कि हाय! मैंने यह क्या किया ? मैं इन आँखों से उसका इतना अपमान कैसे देखता रहा ? मुझे आज क्या हो गया ?….
‘‘अरे कपूतों! तुमने अपनी माँ को इतना क्यों मारा ? उसे झोपड़ी से बाहर क्यों निकाल दिया ? हाय रे दुर्दैव! तू यह सब क्या कर रहा है ? क्या मेरा जीवन अब यही दृश्य देखते-देखते निकलेगा। मैं तो मर जाऊँगा!……ओह!! यह क्या हो गया ? वह बेचारी कहाँ जायेगी ? कहाँ रहेगी ? क्या खाएगी और क्या पियेगी ?…….’’
‘‘यह दुष्ट बुड्ढा भी अब चैन नहीं लेने देगा! उठो! आप लोग अब इसे भी निकाल बाहर करो। मेरे से अब इसका रोना, बिलखना और चिल्लाना नहीं सहन हो रहा है।’’
‘‘अरी बहू! तू क्या बक रही है ? तुझे बहुत ही साहस हो गया है जो तू आज सास-ससुर के अनादर पर ही तुल गई है। सासू को तो निकाल दिया और अब मुझे भी निकालना चाहती है। लो, तुम लोग सुख से रहो, मैं भी जाता हूँ। अरे! जब इतने दिन दर-दर पर भीख माँगते फिरे हैं तो कुछ दिन और माँग लेंगे।’’
सेठ जी उठकर जाने को होते हैं कि छठा पुत्र धरसेन उठकर दौड़कर हाथ पकड़ लेता है और चिपट कर जोर-जोर से रोने लगता है। हेमदत्त कुछ देर बाद बेटे के आँसू पोंछकर अपना मन मसोस कर बैठ जाते हैं परन्तु हेमश्री की याद में बार-बार बेचैन हो उठते हैं। फिर…….कुछ क्षण बाद बुद्धिसेन पुत्र को याद करके जोरों से विलाप करने लगते हैं-
‘‘अरे बेटा बुद्धिसेन! जब से मैंने तेरे को घर से निकाला है तभी से तो ये दुर्दिन आये हैं। उस समय मेरी बुद्धि वैâसे भ्रष्ट हो गई ? मुझे क्या हो गया था ?…..ओह!…..सच है—विनाशकाले विपरीत बुद्धिः….बहू मनोवती! तू वैâसी धर्मात्मा थी, तेरी प्रतिज्ञा की निन्दा का ही फल तो हम सभी भोग रहे हैं। अब एक बार इस जीवन में तुम दोनों मुझे मिल जावो! बस! मैं इसी आशा में अपने प्राण टिकाये हुए हूँ अन्यथा अब मैं जीवित नहीं रह सकता था……।
‘‘पिताजी! अब आप चुप रहो, बिल्कुल चुप हो जावो। दो-तीन घण्टों से लगातार आपस में कुहराम मचा हुआ है। अब चुपचाप बैठे रहो…….।’’
सेठ हेमदत्त बिल्कुल चुप हो जाते हैं लेकिन चुपचाप बिना खाए-पिए अपनी फटी चादर में मुँह छिपाकर लेट जाते हैं। वे लाख कोशिश करते हैं कि अश्रु बंद हो जावें किन्तु आँखों से आँसुओं की धारा चालू ही है।
पुत्र धनदत्त आदि भी जब शांत होते हैं, तब अपने द्वारा किये गये माता के अपमान को स्मरण कर रो पड़ते हैं। सभी पश्चात्ताप करने लगते हैं कि हाय! हमने यह क्या कर डाला ? यह सब दुर्दैव का ही विचित्र खेल है, ऐसा कहकर संतोष की साँस लेकर सोमश्री आदि द्वारा बनाये गये कुछ रूखे-सूखे भोजन को करके बैठ जाते हैं।
मनोवती अपने महल में कुछ चिंतित सी बैठी हुई है। दासियाँ अपने काम में लगी हुई हैं। कुछ देर बाद मनोवती पूछती है-
‘‘चमेली! ओ चमेली!’’
‘‘जी हाँ, आई!’’
‘‘अरी क्यों री! आज अभी तक चंपा नहीं आई ?’’
‘‘आती ही होगी!’’
इसी बीच में चंपा आकर महारानी जी को नमस्कार करके बैठ जाती है और कुछ कहना चाहती है किन्तु रुक जाती है-
‘‘बोल ना! क्या हुआ ?’’
‘‘महारानी जी! वहाँ तो महान् उत्पात हो गया।’’
‘‘ऐं! उत्पात! क्यों उस बुढ़िया ने वहाँ जाकर क्या कहा ?’’
‘‘मुझे यह तो कुछ मालूम नहीं किन्तु सभी परदेशियों ने मिलकर उस बुढ़िय्ाा को बहुत मारा और धक्के-मुक्के दे देकर उसे गिरा दिया। फिर बेचारी को खींच-घसीटकर झोंपड़ी से बाहर कर दिया।
‘‘अच्छा!…..और फिर वह कहाँ गई ?’’
‘‘पता नहीं, वह तो कहीं जंगल की तरफ चली गई है।’’
‘‘हाय! दुर्दैव! तू बड़ा ही निर्दयी है।……अच्छा, चम्पा! तू जल्दी से जा और स्वामी को यहाँ जल्दी से जल्दी आने की सूचना कर दे।’’
‘‘जो आज्ञा!’’
कुछ देर बाद कुमार बुद्धिसेन पधारते हैं। मनोवती विनय से उठकर पतिदेव का स्वागत करती है, उनके उचित आसन पर विराजने के बाद आप स्वयं पास में ही बैठ जाती है।
‘‘कहिए! क्या आज्ञा है ?’’
मनोवती हाथ जोड़कर निवेदन करती है-
‘‘स्वामिन्! आपके बड़े भाई पिता के समान हैं। वे सिर पर भार ढो रहे हैं और आप अपनी आँखों से देख रहे हो। बस, अब बस होवे, अब आप शीघ्र ही उन सबको बुलवा लो।’’
मुस्कराकर-
‘‘प्रिये! मैं इन लोगों से खूब ही मजदूरी करवाऊँगा। इन लोगों ने मेरे से बहुत ही गर्व किया है। मैं जब तक अपने मन की पूरी नहीं निकाल लूँगा, तब तक परिचय नहीं कराऊँगा।’’
‘‘यदि आप अब मेरी नहीं मानोगे, तो देखो मैं क्या करूँगी ?’’
मनोवती की बात न मानने से वह पति पर हुई क्रोधित—
कुछ क्रोध में आ जाती है। तब बुद्धिसेन हँस पड़ते हैं और पूछते हैं-‘‘क्या करोगी ? बताओ!’’
‘‘आपको हँसी आ रही है और मुझे गुस्सा आ रहा है। अफसोस है कि आप राजलक्ष्मी के गर्व में अपने कर्तव्य को बिल्कुल भूल रहे हो। आपके जीवन को धिक्कार है! आप अपने भाईयों से मजदूरी करा रहे हो और अभी तक आपकी हविश पूरी नहीं हुई है।….आपको शर्म आनी चाहिए।…..मैं सच कहती हूँ कि अब मुझसे यह सब देखा नहीं जाता है। अब आप बैठे रहिए, मैं उन सभी को अभी-अभी यहाँ पर बुलवाए लेती हूँ और उन्हें उत्तम वस्त्राभूषण पहनाकर कुछ धन सम्पत्ति सौंपती हूँ।
क्या सब आपकी ही चलेगी, मेरी कुछ भी नहीं चलेगी ?……मैं खूब ही आपकी बुराई करूँगी। महाराज यशोधर के पास मैं स्वयं जाकर सारी स्थिति कहूँगी कि आपके जमाई अपने भाई-भावजों से मजदूरी करवा रहे हैं। आपको जो जंचे सो कीजिए और मुझे भी जो जँच रहा है…..उचित प्रतीत हो रहा है सो मैं करूँगी, अब मैं भी आपकी एक नहीं सुनूँगी।’
मनोवती के क्रोध को देख बुद्धिसेन ने कुटुम्बियों को बुलाया राजमहल में—
बुद्धिसेन मनोवती का गुस्सा देखकर और उसकी इस तरह की धमकी सुनकर सिहर उठते हैं। मन में सोचते हैं कि अब इसको पूर्णतया रोष उत्पन्न हो चुका है। अब यदि मैं इसकी नहीं मानूँगा तो निश्चित ही यह कुछ न कुछ उपाय अवश्य करेगी और राजा तक मेरी बात पहुँचाकर मेरी भर्त्सना करवायेगी। कुछ क्षण तक माथा नीचे करके सोचते रह जाते हैं। मनोवती पुनः बोल उठती है-
‘‘अब मैं इस घटना को देख सकने के लिए एक क्षण भी समर्थ नहीं हूँ। या तो आप उन्हें बुलवाइये या मैं
बुलवाऊँ ?’’
‘‘प्रिय बल्लभे ? आप इतनी अधिक नाराज न होइए! मैं…….आपकी आज्ञा के अनुरूप ही कार्य करूँगा।’’
‘‘तो जल्दी कीजिए, अभी-अभी सबको बुलवाइये!’’
‘‘प्रिये! अभी दिन में यह काम ठीक नहीं रहेगा। थोड़ा अंधेरा पड़ते ही किंकरों को भेजकर सबको बुलवाये लेता हूँ। अब आप जरा सी भी चिन्ता न करें।’’
राजाज्ञा सुन सभी कुटुम्बी हुए चिन्तित—
दिन अस्त होते ही मालिक की आज्ञा से कर्मचारी वहाँ झोपड़ी में पहुँचता है। जहाँ पर कई घण्टों से मारपीट का और रोने-धोने का अत्यन्त कलहकांड होकर अभी-अभी ऊपर से किंचित् शांत वातावरण हुआ ही था कि कर्मचारी पहुँचता है। उसे देखकर सबके होश उड़ जाते हैं।
‘‘हाँ, तुम लोगों को स्वामी ने बुलाया है, जल्दी चलो। सभी लोग बहुत ही जल्दी चलो।’’
हेमदत्त की जरा सी आँखें झपकी ही थीं कि कर्मचारी की आवाज सुनकर चौंक उठते हैं।
‘‘कौन है ?’’
‘‘मैं राजा का चपरासी हूँ।’’
‘‘क्या आदेश है ?’’
‘‘बस, चलिए, तुम सभी को महाराज ने अभी-अभी बुलाया है।’’
हाय!……अब और यह क्या बला आ गई ? अरे! हेमश्री न जाने क्या कह आई है कि जो हम सबको ही बुलाया गया है। पता नहीं अब क्या होगा ?
सभी बेचारे जहाँ के तहाँ कीलित जैसे हो जाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि किसी के भी शरीर में प्राण नहीं हैं। सभी निश्चेष्ट हो गये हैं इतने में कर्मचारी पुनः बोलता है-
‘‘हाँ भाई! क्या बात है ? तुम लोग देरी क्यों कर रहे हो ?’’
सेठ हेमदत्त उठकर जैसे-तैसे साहस बटोर कर पूछते हैं-
‘‘भाई क्या बात है ? हम सभी को एक ही साथ मालिक ने क्यों बुलाया है ? क्या आप…..बता सकेंगे ?’’
‘‘मुझे क्या मालूम ? मुझे तो बस इतना ही आदेश मिला है कि नम्बर १०१७ वाली झोपड़ी के सभी मजदूरों को मेरे महल में जल्दी ही ले आवो।!’’
‘‘अरे बेटा धरसेन! ओ धरसेन! जा बाहर देख तो सही, तेरी माँ कहाँ है ?’’
‘‘अब उसे और भी आपत्ति में क्यों डालो पिताजी! पता नहीं कि उसने वहाँ क्या-क्या कहा है कि जिससे हम सबको बुलवाया गया है और पता नहीं कि अब वहाँ क्या-क्या दंड भुगतना पड़ेगा, अभी तक भीख माँगकर या मजदूरी करके पेट तो भर रहे थे और क्या पता अब जेलों में सड़ना पड़े ?’’
धरसेन बीच में ही बाहर निकल जाता है और आगे बढ़कर कुछ दूर जाता है कि सामने के झाड़ के नीचे से करुण क्रंदन की आवाज आ रही है। उसी आवाज के सहारे उस झा़ड के नीचे पहुँच जाता है। देखता है माँ खूब छाती कूट-कूटकर रो रही है। वह उससे चिपट जाता है और वह भी जोर-जोर से रोने लगता है। माँ को अंधेरी रात में बेटे का सहारा मिलते ही वह कुछ शाँत होती है। तब धरसेन सिसकियाँ भरते हुए कर्मचारी के आदेश को सुना देता है। सुनते ही माता अत्यर्थ रूप से काँपने लगती है। फिर बोलती है-
‘‘बेटा! मैंने जो कुछ किया है, उसका फल मुझे ही भोगना उचित है। सभी को क्यों ? चलो, चलो, कुछ भी होगा तो मैं ही अकेली निपटूँगी। बीच में सभी को दंड का भागीदार नहीं बनाऊँगी चलो, बेटा!……मैं चल रही हूॅँ।
‘‘माँ! तुम्हें चलने की शक्ति कहाँ है ? तुम मेरी पीठ पर बैठो, मैं तुम्हें ले चलूँगा।’’
‘‘नहीं, बेटा! मैं चलूँगी, पैदल चलूँगी, तू चिंता मत कर।’’
धरसेन का हाथ पकड़कर हेमश्री उठती है और चल पड़ती है। अंधेरे में कई जगह ठोकर और टक्कर लगती है। ‘‘बेटा! अभी न जाने कितने दिन अपने भाग्य में ठोकर खाना लिखा है। कौन जाने ?’’
‘‘माँ! तुम ही यदि इतनी अधीर होवोगी तो हम लोगों का क्या होगा ?’’
‘‘क्या करूँ बेटा! अब धैर्य नहीं रहा, अब तो बार-बार यही भाव आता है कि अपघात करके मर जाऊँ किन्तु बस एक बुद्धिसेन का मोह मुझे रोक रहा है।’’
धीरे-धीरे बातें करते दोनों माँ और बेटे अपनी झोंपड़ी के सामने पहुँचते हैं, तब तक सब लोग साहस करके उठ खड़े हो जाते हैं। माता को सामने देखते ही लड़के भड़क उठते हैं-
‘‘अरी माँ! तू वहाँ क्या कह आई है ? चल, अब सबके गले में फाँसी लगवायेगी…..देख’’
सेठ हेमदत्त बीच में बात काट देते हैं-
‘‘बस बस, अब हल्ला-गुल्ला बंद करो, चुपचाप रास्ते में चलो। बहुत हो लिया……जो होना होगा सो होगा ? अब ज्यादा बकवास मत करो। हाँ, मेरी मानो तो सब लोग णमोकार मंत्र का जाप करते चलो।’’
सब लोग चुपचाप मन में, महामंत्र का स्मरण करते हुए चले जा रहे हैं।
सभी ने महल में किया प्रवेश—
सिपाही के साथ-साथ सब लोग महल के अन्दर घुसते हैं तत्काल ही फाटक बंद कर दिया जाता है। अब तो सबके सब एकदम सन्न हो जाते हैं और निश्चित कर लेते हैं कि हम लोगों पर भारी संकट आ गया है। राजमहल के समान उस महल में भी चारों तरफ सुन्दर-सुन्दर स्थल दर्शनीय हैं परन्तु वे बेचारे आकस्मिक संकट की भावी आशंका से थर-थर, थर-थर कांपते हुए एक से एक दरवाजे पार करते चले जा रहे हैं।
सभी लोग अन्दर के माणिक चौक में पहुॅुंचते हैं जहाँ पर राजा बुद्धिसेन अपनी रानी मनोवती के साथ रत्नजटित उच्च आसन पर सुखासन से बैठे हुए हैं। मालूम होता है कि साक्षात् इन्द्र ही अपनी इन्द्राणी के साथ अमरपुरी की सुधर्मा सभा में विराजमान हैं। उनको देखते ही ये लोग वङ्का से आहत हुए के सदृश एक कोने में ही खड़े रह गये, आगे नहीं बढ़ पाए।
बुद्धिसेन-मनोवती एवं कुटुम्बीजनों का रोमांचकारी मिलन—
सामने सबको देखकर बुद्धिसेन तत्क्षण ही आसन से उठ खड़े हुए और जल्दी-जल्दी आगे बढ़कर हाथ जोड़कर ‘हे पूज्य पिता!….कहते हुए और नमस्कार करते हुए सेठ हेमदत्त के चरणों में पड़ गए और मनोवती भी हाथ जोड़कर नमस्कार करती हुई उन्हीं के साथ खड़ी हुई हेमश्री के चरणों में पड़ गई।
‘‘अरे अरे, यह क्या ? मैं रंक मजदूर…….और आप राजा।…….’’ऐसा बोलते हुए और घबराते हुए हेमदत्त जल्दी-जल्दी काँपते हुए हाथों से उन्हें उठाने लगा-
‘‘पिताजी! मैं वही आपका पुत्र हूँ कि जिसे आपने घर से निकाल दिया था।’’
सेठजी एकदम आश्चर्यचकित हो स्तब्ध रह जाते हैं और उसे गले से लगा लेते हैं। उनका एकदम जी भर जाता है और वे बड़ी जोरों से रो पड़ते हैं। बुद्धिसेन सिसकी भरने लगते हैं। उस समय ऐसा मालूम पड़ता है कि इतने दिनों से सेठ हेमदत्त ने जो भी दुःख भोगा है, वे सब एकदम आँसू के बहाने से अब सारे के सारे बाहर निकलकर कहीं को प्रयाण कर रहे हैं अथवा पुत्र और पुत्र-वधू के वियोग से जो पश्चात्ताप, संताप और संक्लेश को किया है, वह सब हृदय के बाँध को तोड़कर बाहर एक साथ आता चला जा रहा है। कुछेक क्षण तक पिताजी पुत्र को अपनी छाती से चिपकाये हुए हैं और छोड़ नहीं रहे हैं उन्हें ऐसा लगता है कि कहीं फिर यह मुझसे विमुक्त न हो जाये।…….हेमदत्त अपनी भुजाओं से अलग करते हुए उसके मस्तक पर हाथ फेरते हैं और उसकी आँखों के अश्रुओं को पोंछते हुए बोलते हैं-
‘‘बेटा! मैंने तुझे निकालकर बहुत ही दुःख दिया है और जिसके फलस्वरूप हम सभी ने भी असंख्य दुःख झेले हैं……’’।
कुमार बुद्धिसेन माता के चरणों का स्पर्श करते हैं और हेमश्री भी पुत्र को अपने दिल से लगाकर अपने आँसुओं से ही मानों उसका अभिषेक कर रही हैं। अनन्तर क्रम-क्रम से अपने भाईयों के चरण स्पर्श करते हुए कुमार बुद्धिसेन सबसे गले मिलते हैं तथा क्रम-क्रम से भावजों को भी प्रणाम करते हैं। मनोवती भी ससुर हेमदत्त के चरणों का स्पर्श करके सासू को नमस्कार करके क्रम-क्रम से सभी जेठ और जेठानियों के चरण-स्पर्श करती है। सभी मनोवती को गले लगाकर खूब रोती हैं।
ऐसा लगता है कि जो इन लोगों ने ‘जिनदर्शन प्रतिज्ञा’ की निंदा करके पापपुंज संचित किया था, वही सब पापसमूह अब बुद्धिसेन और मनोवती के स्पर्श से अश्रुओं के बहाने निकलकर भागा जा रहा है चूँकि अब उसको यहाँ किसी के पास ठहरने की हिम्मत नहीं रही है।
अनन्तर सब लोग अपने-अपने अश्रुओं को रोककर एकटक-अपलक कुमार के मुख को ताकते हैं, उसको पहिचानने की कोशिश करते हैं, तब कहीं बड़ी मुश्किल से कुछ तिल, व्यंजन आदि चिन्हों से उसको पहिचान पाते हैं कि सचमुच में यह वही तो हमारा प्यारा पुत्र है और बंधुवर्ग भी समझ लेते हैं कि यह वही पुण्यशाली लक्ष्मी का स्वामी मेरा प्यारा छोटा भाई है कि जिसको हम सभी ने तो गोद में खिलाया था।
सभी ने अपने दु:ख-सुख बांटे—
बुद्धिसेन सबको साथ लेकर चौक में बिछे हुए मखमल के गद्दे पर बैठ जाते हैं और पिता से उनके दुःखों की कहानी पूछते हैं-
‘‘पूज्य पिता! आपको अपना देश बल्लभपुर छोड़े कितने दिन हुए हैं ? आप यहाँ इस दशा में वैâसे ?’’
‘‘बेटा! मेरा किसी जन्म का कुछ पुण्य तेरे पास ले आया, नहीं तो हम लोगों ने तुझे निकालकर जो पाप कमाया था, शायद उसका फल जीवन भर भी भोगने से नहीं छूटता किन्तु……न जाने किस जन्म के पुण्य ने मेरा साथ दिया है।’’……
हेमश्री मनोवती को बार-बार अपनी छाती से चिपका-चिपका कर कहती है-
‘‘बेटी मनोवती! तेरे वियोग से हमने न जाने क्या-क्या संकट झेले हैं ?’’
बुद्धिसेन बहुत ही आश्चर्य से पूछते हैं-
‘‘पिताजी! इतने करोड़ों की सम्पत्ति का अकस्मात् क्या हुआ ? क्या राजा ने लुटवा लिया या चोर डाकू लूट ले गये या अग्नि लग गयी ? आखिर आप लोग ऐसे सम्पत्तिहीन-दीन वैâसे हो गये ?’’……
‘‘क्या पता, बेटा! तुम्हें निकाल देने के बाद अकस्मात् सारी सम्पत्ति कहाँ चली गई कुछ पता नहीं चला ?…..क्या कहूँ बेटा!’’
फिर अश्रु आ जाते हैं-
‘‘पिताजी! अब आप अश्रु बिल्कुल न लाइये। क्या पता किस समय किसके वैâसे दिन आ जाते हैं ? कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। अब आप पूर्ण शान्त होइये।’’
‘‘प्यारे बेटा! छह महीने भी नहीं हुए थे कि जब घर में खाने को दाना नहीं रहा। सारा कोठार जो कि रत्नों से, हीरों से, गजमोतियों से भरा हुआ था, वह सब खाली का खाली भाँय-भाँय कर रहा था। तब हमने तुम्हारी माता हेमश्री के गहने गिरवी रखे, फिर सभी बहुओं के गहने भी गिरवी रख दिये। जब फिर भी पेट के लाले पड़ गये, तब दुकानों को गिरवी रखना शुरू किया। जब सब दुकानें हाथ से निकल गईं तब हवेलियों को भी बेचना शुरू किया। बल्लभपुर के एक भाग की सारी ही हवेलियाँ तो हमारी थीं……किन्तु हाय! जब सब हवेलियाँ बिक गईं मात्र जिसमें रहते थे वो ही बची तो उसे भी गिरवी रख दिया। ओह! बेटा इतने से भी दुर्दैव को शान्ति नहीं मिली तो जंगल में गये और घास-फूस की झोंपड़ी बनाकर रहने लगे……’’
दिन भर लकड़ी काटते, इधर-उधर से बीनते और गठ्ठर बनाकर सिर पर रखकर शहर में बेचने जाते-
इतना सुनते ही बुद्धिसेन रो पड़े-
‘‘हाय पिताजी! यह क्या करना पड़ा…..अरे दुष्ट दैव! तूने यह क्या किया…… ?’’
‘‘अरे बेटा! दैव ने इतने पर भी संतोष नहीं किया। हम लोग पेट नहीं भर पाये, तब बल्लभपुर छोड़कर बाहर निकले। अब हम लोगों से लकड़ी बीनना और बेचना भी नहीं हो पाया। इधर-उधर भटकते रहे कि कोई कुछ नौकरी पर लगा ले तो कहीं पड़े रहें किन्तु किसी ने भी नौकरी नहीं देना चाहा……..हाय! बेटा! क्या कहूँ ? कोई हँसते, कोई अपरिचित समझ कर बोलते कि ‘‘अरे! ये कोई चोर लुटेरे फिर रहे हैं इन्हें अपने गाँव में नहीं रुकने देना।……’’
‘‘फिर आप यहाँ वैâसे आये ?’’
‘‘फिर बेटा! हम लोग दर-दर भीख माँगने लगे।’’
मनोवती इतना सुनते ही बिलखने लगी-
‘‘हाय! पिताजी! आप लोग…….इतने उत्तम कुलीन जौहरी और भीख माँगना पड़ा।’’
‘‘हाँ बेटी! इन्हीं हाथों को पसारकर एक-एक पैसा, दो-दो पैसा झेला है और उनसे भोजन लेकर पेट भरना चाहा। कहीं पर भिक्षा में जो भी रूखी-सूखी रोटियाँ मिलीं, उन्हें सबने मिलकर खाया लेकिन पेट नहीं भर पाये फिर बेटा! घूमते-घूमते भटकते-भटकते हम लोग यहाँ रतनपुर के बगीचे में आये। वहाँ से शहर में आकर जब भीख माँग रहे थे तो ‘सुखपाल जौहरी’ जिनके यहाँ अपनी दुकान से बहुत बार हीरे, मोती, पन्ने भेजे जा चुके हैं, जो कि अपने ग्राहकों में विशेष एक ग्राहक थे। उन्होंने हम लोगों को देखा और कहा कि भाई! तुम लोग उत्तम कुल के दिखते हो, मालूम पड़ता है कि किसी आकस्मिक आपत्ति से परेशान हुए हो। भाई! तुम लोग भीख क्यों मांगते हो ? किसी के यहाँ नौकरी या मजदूरी करके उदर भरो तो अच्छा रहेगा। मैंने कहा कि हम अपरिचित लोगों को कोई भी नौकरी देने को तैयार नहीं होते हैं। उसने समझाया और कहा कि यहाँ राजा के जमाई हैं जो कि बहुत से गाँवों के मालिक भी हैं। वे यहीं रतनपुर में बहुत विशाल जिनमंदिर का निर्माण करा रहे हैं, तुम वहाँ चले जाओ। तुम्हें वहाँ मजदूरी अवश्य मिलेगी। मैंने कहा कि हम लोगों को यदि आप वहाँ मजदूरी दिला देंगे तो आपका बड़ा अहसान होगा। वे बेचारे हमारे साथ हो लिए और हमें ले जाकर आपके पास पहुँचाकर आपसे निवेदन किया किंतु बेटा! अभी एक वर्ष भी तुझे छोड़कर नहीं हुआ है और हम में से किसी ने भी तुझे नहीं
पहचाना…..। और तू भी तो हम लोगों को इस दुरवस्था में नहीं पहचान पाया…..।’’
माता-पिता से काम कराने को लेकर बुद्धिसेन के मन में हुई आत्मग्लानि—
बुद्धिसेन इतना सुनते ही एक बार मनोवती की ओर देखते हैं, पुनः लज्जा से माथा झुका लेते हैं और उनकी आँखों से अश्रु बहने लगते हैं। फिर रूँधे हुए कंठ से बोलते हैं-
‘‘पूज्य पिता! क्षमा कीजिए मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है, मैं अधम हूँ, पापी हूँ……।’’
‘‘ऐ बेटा! तुम यह क्या कह रहे हो ? तुमने भला क्या अपराध किया ? अपराधी तो हम लोग हैं कि जिन्होंने तुझ जैसे रत्न को बिना अपराध के घर से निकाल दिया।’’
‘‘नहीं पिताजी! हमने बहुत बड़ा अपराध किया है।’’
‘‘पिताजी! मैंने तत्क्षण ही आपको, माँ को, सब भाईयों को और भावजों को पहिचान लिया था और इसलिए मैं वहाँ से उठकर महल में आया। आपकी पुत्रवधू मनोवती से यह बात कह सुनाई कि सभी लोग हमारे यहाँ मजदूरी करने आये हैं। इन्होंने बहुत कुछ समझाया कि अब आप परिचय कराके उन्हें सुखी करो परन्तु मुझे बहुत ही गुस्सा चढ़ा हुआ था, मैंने इनकी नहीं मानी और कहा कि मैं इनसे अपना बदला अवश्य चुकाऊँगा। इन लोगों ने गर्व में आकर मुझे निकाल दिया है। अब मैं एक बार मजदूरी कराकर अनन्तर भेद खोलूँगा। तब भी मनोवती जी ने यह आग्रह किया कि आप माता-पिता से बोझा नहीं उठवाना, मैंने इतनी बात इनकी मान ली।
अनन्तर आज मध्यान्ह में मनोवती जी ने अतीव हठ पकड़ लिया कि आज परिचय कराना ही है अन्यथा मैं सबको बुलाकर परिचय स्थापित किये देती हूँ। तब मैंने अभी आप लोगों को बुलाया है अन्यथा कुछ दिन और भी मजदूरी करवाता।’’
‘‘किन्तु बेटा! इसमें तेरा क्या अपराध है ? यह तो हम लोगों ने ही अपने किये का फल पाया है।’’
बुद्धिसेन द्वारा क्षमायाचना करने से सबको आत्मग्लानि हुई—
बुद्धिसेन पश्चात्ताप से पीड़ित होकर बार-बार अपनी निन्दा करता है और भाई-भावजों से भी क्षमायाचना करता है-
‘‘हे भाई! आप लोग मेरे पूज्य पितातुल्य हैं फिर भी क्रोध में आकर मैंने आप लोगों से मजदूरी कराई है सो अब आप सब मुझे क्षमा कर दें। बड़े लोगों का स्वभाव क्षमा का ही होता है और छोटे लोग बालकवत् अपराध किया करते हैं। भाभी जी! आप लोग मेरी माता के तुल्य हैं फिर भी मैंने आपके सिर पर बोझ रखवाया है सो क्षमा करें।’’
सब आश्चर्य से सोच रहे हैं कि ओहो! हम लोगों ने इनके साथ तो सही में बिना कारण अन्याय किया है। अपराधी तो हम लोग हैं और उल्टे इनकी विवेकशीलता, उदारता तो देखो! जो कि ये उल्टे हम लोगों से क्षमायाचना कर रहे हैं। सभी लोग स्तब्ध रह जाते हैं पुनः धनदत्त कहता है-
‘‘भाई! सच में देखा जाये तो अपराधी हम लोग ही हैं, आप नहीं हैं।’’
बीच में हेमदत्त सही स्थिति को स्पष्ट करते हुए बोलते हैं-
‘‘बेटा! यह तो तुझे मालूम ही है कि मनोवती ने घर में आकर अपनी प्रतिज्ञा पालने हेतु तीन उपवास कर लिये थे। अनन्तर तुम्हारे साले मनोजकुमार ने आकर भेद खोला, तब मैंने अपना कोठार खोल दिया, जिसमें इतने गजमोती थे कि जीवन भर मनोवती उनके पुंज जिनदेव के समक्ष चढ़ाती रहती तो भी वे समाप्त नहीं होते।’’
दीर्घ निःश्वास लेकर-
‘‘किन्तु होनहार बलवान् होती है। मनोवती ने एक बार ही गजमोती मंदिर में चढ़ाया था और अपने पीहर चली गई। इधर राजा मरुदत्त ने सभी जौहरियों को एक साथ सभा में बुलवाया और गजमोती की मांग की। हम लोगों में पहले यह निर्णय हो चुका था कि सभी जौहरी राजदरबार में एक ही उत्तर देवेंगे अतः उस समय सभी जौहरियों ने गजमोतियों के बारे में ना कर दिया और सबके साथ मैंने भी ना कर दिया।
हाय बेटा! मेरे ना कर देने से बड़ा अनर्थ हो गया। राजा ने आवेश में आकर कहा कि यदि आज या कल क्या, वर्षों बाद भी किसी के यहाँ गजमोती दिख गई तो उसे प्राणदंड दिया जायेगा और उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी।…..घर आकर मैं बहुत ही चिंतित हुआ। अपने इन धनदत्त आदि छहों बेटों को बुलाकर विचार-विमर्श किया। अन्त में निर्णय यह रहा कि बुद्धिसेन को ही घर से निकाल दिया जाये तभी अपने धन की और प्राणों की रक्षा है। अन्यथा मनोवती आयेगी, गजमोती चढ़ायेगी पुनः राजा के कोप का भाजन हम लोगों को बनना ही पड़ेगा।
ओह! बस निर्बुद्धिक होकर हम लोगों ने तुुझे घर से निकल जाने का आदेश दे दिया। बेटा! तेरी माँ को तो तेरे निकल जाने के बाद ही पता चला है। बाद में यह तो बहुत दुःखी हुई है। खैर! जैसा हम लोगों ने किया….और तो क्या मनोवती की प्रतिज्ञा की भी हम लोगों ने निंदा की, उसकी भी निंदा की, कि यह वैâसी तो प्रतिज्ञा और वैâसी तो बहू ? इत्यादि शब्दों में अवहेलना की, मन में वैâसे दुर्भाव किये। बस, उसी का फल तो इतने दिनों से भोग रहे हैं…..अतः हम सभी लोग अपराधी हैं। बेटा! तुम उदार हृदय होकर अब हम सबको क्षमा कर दो।’’
सभी ने मनोवती व बुद्धिसेन से क्षमायाचना की—
सभी भाई-भावज भी एक स्वर से क्षमा माँगते हैं-
‘‘भाई! हम लोगों का अपराध क्षमा कर दो।’’
कुमार बुद्धिसेन नीचा माथा कर लेते हैं और सकुचाते हुए कहते हैं-‘‘पूज्य तात्! आपका क्या दोष है ? हमने तो पूर्व में कुछ अशुभ कर्म संचित किये होंगे, उन्हीं का फल ऐसा मिला है। इसमें आप लोग तो बस निमित्तमात्र हैं। अब आप अपने इस संताप को छोड़ दीजिए और शांतचित्त होइये।’’
कुछ क्षण बाद बिल्कुल शांत वातावरण होने पर पुनः हेमदत्त कहते हैं-
‘‘बेटा बुद्धिसेन! घर से निकलने के बाद तुम्हें कैसे-कैसे प्रसंग आये ? कहो तो सही!’’
बुद्धिसेन ने घर छोड़ने के बाद के प्रसंग सुनाए—
तब कुमार बुद्धिसेन ने भी न अति संक्षेप और न अति विस्तार से सुनाना शुरू किया-
‘‘पिताजी! मैं हस्तिनापुर पहुँचकर केवल देश निर्वासन का समाचार सुनाकर विदेश गमन हेतु स्वीकृति चाहता था किन्तु मनोवती ने बहुत हठ पकड़कर मेरा साथ किया। यहीं रतनपुर के बगीचे में हम तीन दिन बाद आ पहुँचे। इन्होंने एक नग दिया, जिसे गिरवी रखकर मैं बराबर तीन दिन तक भोजन का सामान लाता रहा। ये भोजन बनाती रहीं और मुझे जिमाती रहीं तथा आप स्वयं उपवास करती गईं। मैंने इन्हें अतीव कमजोर देखकर यही अनुमान लगाया कि मेरे निर्वासन के दुःख से और मुझसे अभी कोई व्यापार नहीं जम रहा है इसी चिंता से ये कमजोर होती जा रही हैं किन्तु आठवें दिन मैं तो रतनपुर शहर में व्यापार हेतु ही घूम रहा था, वहाँ बगीचे में इनकी प्रतिज्ञा की दृढ़ता से, इनके पुण्य प्रभाव से देवों ने आकर धरती में ही दिव्यविशाल मंदिर का निर्माण कर दिया और वहाँ रत्नों की जिनप्रतिमाएँ विराजमान कर दीं। इनके पैर के नीचे की शिला सरकी और इन्होंने उसे उठाकर नीचे जाकर स्नान आदि करके श्री जिनेन्द्रदेव का दर्शन पूजन किया। वहीं पर रखे हुए गजमोतियों के पुंज को लेकर प्रभु के चरण निकट चढ़ाकर अपना जीवन कृतार्थ किया।
‘‘पिताजी! इन्होंने तो ऐसे दिव्य मंदिर का दर्शन मुझे भी नहीं कराया। स्वयं ही दर्शन करके कृतकृत्य हो गईं।’’
पिताजी हँस पड़ते हैं और हर्ष में विभोर होकर सभी लोग एक साथ बोल पड़ते हैं-
धन्य हो मनोवती! तुम धन्य हो! ओहो!….तुमने अपनी प्रतिज्ञा से देवों के आसन कंपा दिये…….। तुम महा पुण्यशालिनी हो। सचमुच में तुम्हारे पुण्य की महिमा अपार है! हाँ, यही कारण है कि तुम्हारी प्रतिज्ञा की निंदा से हम लोग क्या से क्या हो गये! अरे! किन-किन परिस्थितियों का सामना नहीं किया ?’’
जय हो, जय हो! जैनधर्म की जय हो! श्री जिनेन्द्रदेव की जय हो। प्रभो! आपके प्रसाद से ही सब सुख और सुमंगल होते हैं!…..
‘‘अनन्तर क्या हुआ बेटा ?’’
‘‘अनन्तर इन्होंने आठवें दिन भोजन किया और फिर भी मुझे कुछ नहीं बताया। इसके बाद इन्हें मन्दिर जी से आते समय दो मोती मिले थे सो एक मोती मुझे देकर कहा कि इसे राजा को
भेंट करो। मैंने वैसा ही किया, तब राजा ने मेरा परिचय पूछकर और जौहरी पुत्र जानकर एक हवेली में ठहरा दिया।’’
‘‘अच्छा! तो तत्काल ही तुम सुखी हो गये!’’
‘‘हाँ पिता जी!’’
बुद्धिसेन ‘नर-मादा’ मोती का पूरा किस्सा सुना देते हैं, जिसको सुनकर सभी लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। इसके बाद राजा के द्वारा गुणवती के विवाह से लेकर जिनमंदिर निर्माण के कार्य की प्रेरणास्रोत ये मनोवती ही है, यहाँ तक का इतिहास सुना देते हैं। सभी प्रसन्नचित्त होकर मनोवती की और उसके गजमोती चढ़ाने की प्रतिज्ञा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। सभी लोग प्रत्यक्ष में तत्क्षण ही प्रतिज्ञा के महान उत्तम फल को और उसकी अवहेलना से हुए अतीव हीन निकृष्ट फल को देखकर बराबर धर्म की प्रशंसा करते हुए अपने दुष्कृत्यों की निंदा करते हैं।
कुमार बुद्धिसेन पिता के पैर दबाते हुए बार-बार उनके शरीर में, गले में प्रकट रूप से दिखती हुई हड्डियों को, नसों को देख-देखकर विह्वल हो उठते हैं।
‘‘ओह पिताजी! आप कितने कमजोर हो गये हैं। सारा बदन का रंग काला पड़ गया है।
हेमदत्त हँस पड़ते हैं-
‘‘बेटा! अब सब वापस ठीक हो जायेगा।’’
बुद्धिसेन ने सभी को शहर से दूर ठहराकर भव्यता से उनका प्रवेश कराया—
अर्धरात्रि का समय हो रहा है। मनोवती जेठानी के बच्चों को प्यार करके वहीं सुला रही है। तब बुद्धिसेन कुछ सोचकर सहसा बोल उठते हैं-
‘‘प्रिये! भंडारी से कहकर भंडार खुलवाओ और वस्त्रों से, अलंकारों से सबको सुसज्जित करो।’’
मनोवती तथैव व्यवस्था में लग जाती है। बुद्धिसेन कहते हैं-
‘‘पिताजी! अब आप लोग वस्त्र परिवर्तित करके रथों में बैठकर इस शहर से पाँच-सात मील दूर बल्लभपुर के मार्ग में चले जाइये और वहीं पर ठहरिये। जब राजा को पता चलेगा कि अपने समधी सकुटुम्ब आ रहे हैं, तब वे आपके स्वागत के लिए आयेंगे और आपका महोत्सव के साथ इस शहर में प्रवेश कराया जावेगा।’’
पिता ने कुछ सोचकर बेटे की बात मान ली और बुद्धिसेन ने स्वयं अपने हाथों से पिताजी के वस्त्र बदले, भाइयों को वस्त्र बदलाये। उन्हें सुन्दर-सुन्दर रत्नों के, हीरों के अलंकार पहनाये और सभी के गले में गजमोतियों के सुन्दर-सुन्दर हार पहनाये। मनोवती ने सासूजी को बढ़िया साड़ी पहनाई और जेवर पहनाये, सभी जेठानी की साड़ियाँ बदलाई और सभी को बढ़िया-बढ़िया जेवर पहिनाये।
कुछ विश्वस्त लोगों के साथ जल्दी से जल्दी उन्हें रथ में, पालकियों में बिठाकर बाहर भेज दिया और उनके साथ में तमाम द्रव्य, हाथी, घोड़े, वाहन, परिकर, कर्मचारी आदि भी भेज दिये। वे लोग वहाँ से जाकर सात मील पहले एक बगीचे में ठहर गये।
राजा के पास कुटुम्बियों के आने की सूचना भेजी—
मध्याह्न में राजा के पास कुमार ने सूचना भेज दी कि मेरे पिताजी सपरिवार पधारे हुए हैं। यहाँ से सात मील दूरी पर हैं। कल सुबह रत्नपुर के बगीचे में आ जावेंगे। राजा को समाचार मिलते ही उनके हर्ष का पार नहीं रहा, यशोधर महाराज ने सारे शहर में घोषणा कर दी कि हमारे समधी जी पधारे हुए हैं। सारे शहर के नर-नारियों को हमारे साथ कल प्रातः उनके स्वागत हेतु चलना है। सारा शहर झंडियों से, तोरणद्वारों से, चन्दन के छिड़काव से, फूलों की मालाओं से और आम्र, अशोक तथा कदली के पत्तों से बहुत ही सुन्दर सजाया गया है।
महाराज यशोधर प्रातःकाल अपने परिवार के साथ तथा बुद्धिसेन जमाई, उनकी भार्या मनोवती और गुणवती के साथ, अमात्य मंत्री, सेनापति, राजश्रेष्ठी, जौहरी आदि नागरिक जनों के साथ-साथ बड़े ही लवाजमे सहित निकलते हैं। कितने ही तरह के मंगल बाजे बज रहे हैं। सौभाग्यवती महिलाएं मंगलगीत गा रही हैं। सभी लोग चलकर शहर के बाहर बगीचे में पहुँचते हैं।
राजा यशोधर और बुद्धिसेन कुमार अपनी-अपनी रानियों के साथ अपने-अपने रथ से उतर पड़ते हैं। बगीचे में आगे बढ़कर समधी से मिलते हैं। उस समय बाजों की गंभीर ध्वनि से आकाश मंडल गुंजायमान हो उठता है। सब एक-दूसरे के गले लगकर शरीर की कुशल क्षेम पूछकर माता हेमश्री से मिलकर यथोचित अभिवादन कर उनसे शहर में पधारने की प्रार्थना करते हैं। वे लोग भी प्रसन्नपूर्ण मुखमुद्रा से सभी का यथोचित सत्कार करके सबके साथ वहाँ से प्रस्थान कर देते हैं। शहर में महलों की अटारियों पर उनके प्रवेश को देखने हेतु लाखों नर-नारी खड़े हुए हैं। सड़कें खचाखच भरी हुई हैं। कर्मचारीगण बड़ी मुश्किल से भीड़ को हटा पाते हैं जब वहाँ से इन लोगों के रथ आगे बढ़ पाते हैं। जनता आपस में उनका परिचय दे रही है। देखो ना, ये रथ पर बुद्धिसेन के साथ बैठे हुए महानुभाव उनके पिताजी मालूम पड़ रहे हैं। ये अन्य रथों पर अपनी-अपनी भार्यायों के साथ उनके भाई हैं। ये देखो! सामने रथ पर मनोवती और गुणवती के बीच में जो बैठी हुई हैं, वे ही तो बुद्धिसेन महाराज की माता हैं।
……कुछ घण्टों के बाद सब लोग राजमहल तक आ जाते हैं। महाराज आज दिन सबको राजमहल में ही ठहराते हैं। सब लोगों को भोजन पान कराते हैं। सारे गाँव के लोगों को जिमाते हैं।
…..दूसरे दिन सभी परिवार को कुमार बुद्धिसेन अपने महल में ले जाते हैं और उनका यथोचित आदर सत्कार करके भोजन कराते हैं और सभी भाइयों के लिए अलग-अलग बड़ी-बड़ी हवेलियाँ खुलवा देते हैं।
…..सभी परिवार के लोग सब तरफ से सुखी हैं। शाम को कुमार अपने महल में जब बैठते हैं तब सभी परिवार के लोग एकत्रित हो जाते हैं। मनोरंजन के साथ-साथ मंदिर निर्माण की गतिविधियों पर विचार-विमर्श चलता रहता है। कुमार स्वयं अपने हाथों से प्रतिदिन पिताश्री के चरण दबाते हैं और मनोवती सासूजी की सेवा करती रहती हैं।
सेठ हेमदत्त कभी-कभी पिछले दिनों की याद कर सिहर उठते हैं। हेमश्री भी सोचती हैं कि देखो! कर्मों की लीला कितनी विचित्र है! एक दिन यह बहूरानी महारानी और मैं उसकी नौकरानी थी। इसके बुलाने पर भी इसके पास जाने को सकुचाती थी और आज यह उदारमना देवी मेरी सेवा टहल कर रही है।
सभी लोग प्रत्यक्ष में पाप के फल से दुःख उठा चुके हैं अत: अब धर्म की निन्दा से, धर्मात्मा की निंदा से परिपूर्णतया निवृत्त हो चुके हैं। अब तो खूब ही रुचि से जिनेन्द्रदेव की पूजा में तत्पर हो रहे हैं। हमेशा धर्मचर्चा के सिवाय अब अन्य कुछ बातें किसी को भी नहीं सुहाती हैं। मनोवती को सब लोग साक्षात् धर्म की मूर्ति समझ रहे हैं। धर्मध्यानपूर्वक सभी का समय सुख शांति से व्यतीत हो रहा है।
कुछ दिन बाद कुमार बुद्धिसेन मंदिर का विस्तृत वर्णन करते हुए पुनः मनोवती से पूछते हैं-
‘‘आपने जो देवों द्वारा रचित दिव्य जिनमंदिर का दर्शन किया है, उसमें की कोई और भी सुन्दर आकृति (डिजाइन) बताओ जो कि वहाँ पर किंचित् रूप में बनवाई जा सके।’’
‘‘मैंने जो कुछ भी बढ़िया आकार देखा था, वह सब बता दिया है और प्रायः वह किसी न किसी अंश में बन चुका है। यद्यपि उसमें विशेषताएं तो बहुत सी थीं किन्तु अब मुझे स्मरण में पूरी तौर से नहीं आ रही हैं।’’
‘‘तो अब अपना निर्माण कार्य पूरा हो लिया है। अब तो वह जिनमंदिर देखते ही बनता है और जब इसमें जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाएँ विराजमान हो जावेंगी फिर क्या पूछना!’’
‘‘स्वामिन्! अब बहुत शीघ्र ही प्रतिष्ठा विधि करवाकर जिनेन्द्रदेव की रत्नमयी प्रतिमाएं विराजमान करवाइये। अब किंचित् भी देर न कीजिए।’’
‘‘तो ठीक है प्रिये! मैं अभी महाराज के पास पहुँचकर प्रतिष्ठा का निर्णय लिये लेता हूँ।’’
कुमार बुद्धिसेन सभा में पहुँचकर महाराज यशोधर को प्रणाम कर यथोचित आसन पर बैठ जाते हैं। परस्पर में कुशल क्षेम होने के बाद मंदिर निर्माण की चर्चा चलती है। आगे उसी विषय में बुद्धिसेन कहते हैं-
‘‘महाराजाधिराज! मंदिर का कार्य सुचारुतया सम्पन्न हो चुका है। आप एक बार चलकर अवश्य ही निरीक्षण कीजिए।’’
‘‘बहुत अच्छा! अवश्य चलूँगा।’’
‘‘महाराज! अब पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा कराने की भी आज्ञा दीजिए।’’
महाराज प्रसन्नता व्यक्त करते हुए-
‘‘बहुत अच्छी बात है, वुँâवर साहब! बहुत ही विशेषरूप में प्रतिष्ठा होनी चाहिए। अच्छा! मंत्री महोदय! ज्योतिषीजी महाराज को बुलवाइये।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज!’’
‘‘हाँ, कुंवर जी! देखिये, जो भी सहायता आप हमसे चाहें, हम सब कुछ करने को तैयार हैं……।’’
इसी चर्चा के बीच में ज्योतिषीजी आ जाते हैं और यथोचित अभिवादन कर बैठ जाते हैं।
‘‘हाँ, पंडितजी! श्री जिनेन्द्रदेव की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का बहुत ही उत्तम मुहूर्त निकालिये।’’
पंडित जी मुहूर्त देखकर राजा को बतला देते हैं। राजा भण्डारी से पंडित के लिए यथोचित भेंट मँगवाकर उन्हें दे देते हैं। राजा पुनः कहते हैं-
‘‘आप अब कुंकुम पत्रिका लिखवाइये और सभी देशों में, शहरों में, नगरों में तथा सभी ग्रामों में भिजवाइये।
कुमार बुद्धिसेन वहाँ से आकर अपनी प्राणवल्लभा मनोवती को सारा समाचार सुना देते हैं पुनः सायंकाल में पिताजी के समक्ष अपने सभी परिवार को बिठाकर सारी खुशखबरी बता देते हैं। सभी लोग आनन्दविभोर हो जाते हैं।
दूसरे दिन प्रातःकाल से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। सर्वत्र उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम के सभी छोटे-बड़े ग्रामों और शहरों में कुंकुम पत्रिकाएं भेजी जाती हैं। चतुर्विध संघों को प्रार्थना करके उनका पदार्पण कराते हैं तथा बड़े-बड़े प्रतिष्ठाचार्य पंडित लोगों को आमंत्रित करते हैं। बड़े-बड़े महल, मकान खाली कर-करके खुले कर दिये गये हैं और शहर के बाहर बगीचों में तमाम तंबू डेरे लगाये गये हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े पांडाल बनाये गये हैं। सारा शहर ध्वजा-पताकाओं से, तोरणों से, वंदनवारों से और बड़े-बड़े तोरणद्वारों से सजाया गया है।
सभी को बांटा गया किमिच्छक दान-
राजा यशोधर ने सर्वत्र शहर में घोषणा कर दी है कि कोई भी यात्री किसी से कुछ माँगे तो अविलम्ब दिया जाये और उसकी कीमत कागज में लिखकर हमारे खजांची के पास भेज दी जाये। सभी का कुल खर्चा हमारी कोठी से होवेगा। यदि कदाचित् किसी यात्री से कोई अपराध बन जावे तो वह माफ कर दिया जावे। राजा ने कुमार बुद्धिसेन के पास भी व्यवस्था के लिए अपनी बहुत कुछ सेना भेज दी।
बुद्धिसेन कुमार ने भी अपने बड़े-बड़े कोठार और भंडार खोल दिये हैं और खजांची को आज्ञा दे दी है कि खुले हाथों और खुले मन से खर्चा करो। किसी को किंचित् भी तकलीफ नहीं होने पावे। लाखों यात्री देश-देश से आ रहे हैं, कोई अपने-अपने रिश्तेदारों के यहाँ, कोई शहर की हवेलियों में, मकानों में और कोई-कोई यात्री बगीचों में बने हुए तंबू डेरों में ठहर रहे हैंं बहुत से व्यवस्थापक चारों तरफ नियुक्त किये गये हैं। शहर की गली-गली में डगर-डगर में धूम-धाम मच रही है।
सौधर्म इन्द्र एवं शचि इन्द्राणी का निर्णय-
बुद्धिसेन की छोटी पत्नी गुणवती गर्व में फूल रही है। मेरे प्रति मेरे पतिदेव का अधिक प्रेम है। अतः मैं ही प्रमुख इन्द्राणी बनूँगी। शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को जब इस बात का पता चलता है तो वे लोग एकांत में बैठकर विचार-विमर्श करके महाराज यशोधर के दरबार में पहुँचते हैं। महाराज उन पंचजनों का यथोचित सत्कार करके प्रश्न करते हैं-
‘‘कहिए श्रीमन्महोदय! आप लोगों का आगमन इस समय वैâसे हुआ ? मेरे लिए कोई खास आज्ञा हो तो फरमाएँ।’’
‘‘महाराजाधिराज! आप जैसे धर्मात्मा और धर्म का सही मूल्यांकन करने वाले ऐसे राजा को पाकर हम धन्य हैं।…..महाराज! आज आने का खास कारण यह है कि इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के सौधर्म इन्द्र कौन बनेंगे ?’’
‘‘सौधर्म इन्द्र के अधिकारी तो बुद्धिसेन कुमार हैं ही, इसके लिए हमारा निर्णय क्या लेना ?’’
‘‘फिर महाराज! उनकी शची इंद्राणी का स्थान किन्हें मिलना चाहिए ?’’
‘‘विद्वज्जनों! उनकी जो मनोवती धर्मपत्नी हैं वे ही शची इन्द्राणी बनेंगी।’’
‘‘महाराज! गुणवती जी राजपुत्री हैं उनको…..’’
‘‘नहीं, नहीं! इस विषय में राजपुत्री से क्या संबंध ? पहली बात तो मनोवती बड़ी रानी है, फिर दूसरी बात यह है कि यह सारा अचिन्त्य माहात्म्य तो उन्हीं का ही है अतः न्याय से उन्हीं को प्रमुख इन्द्राणी का अधिकार देना होगा।’’
‘‘जय हो, महाराज यशोधर का यश विश्वव्यापी बने।’’
सब लोग बड़े आदर से महाराज के गुणों की प्रशंसा करते हुए वहाँ से निकल कर सीधे बुद्धिसेन के दरबार में पहुँचते हैं और राजा का आदेश सुना देते हैं। बुद्धिसेन भी यथोचित न्याय को पाकर हर्षातिरेक से रोमांचित हो उठते हैं अपनी प्रिया मनोवती को सारा समाचार सुनाकर पुनः गुणवती जी के महल में पहुँच कर उसे भी प्रिय हित मधुर वचनोें से समझा-बुझाकर इन्द्राणी बनने के लिए तैयार करते हैं-
‘‘देखो प्रिये! यह मनोवती मेरे साथ न आती तो मैं आज न जाने कहाँ होता! मैं तुम्हें भला वैâसे पा सकता था ? इसलिए महाराज का न्याय यथोचित ही है। अब तुम किसी प्रकार का मन में विषाद मत करो और प्रसन्नमना होकर मनोवती की सहचारिणी बनो।’’
भव्यतापूर्वक सम्पन्न हुई पंचकल्याणक प्रतिष्ठा—
प्रातःकाल से अनेकों तरह के मंगल बाजे बज रहे हैं। प्रतिष्ठा विधि का कार्यक्रम प्रारंभ हो चुका है। धनदत्त, सोमदत्त आदि छहों भाई भी ईशान, सनत्कुमार आदि इन्द्र बने हुए हैं। कुल सभी मिलकर सौ इन्द्र अपनी-अपनी इन्द्राणियों के साथ आकर विधान मंडप में उपस्थित हो चुके हैं। ऐसा लग रहा है कि मानों साक्षात् सौधर्म इन्द्र ही अपने चतुर्निकाय के सभी इन्द्रों और परिवार देवों के साथ उपस्थित हैं। पिता हेमदत्त और माता हेमश्री खुशी से फूल रहे हैं। उन्हें बुद्धिसेन के विवाह में जो आनन्द आया था, आज उससे करोड़ों गुणा अथवा यों कहिए असंख्य गुणा आनन्द आ रहा है।
सेठानी हेमश्री बार-बार मनोवती की प्रतिज्ञा की प्रशंसा कर रही है। सेठ हेमदत्त भी प्रतिज्ञा के प्रत्यक्ष फल को देख-देखकर धर्म के प्रति अपना संवेग भाव वृद्धिंगत कर रहे हैं। विधिवत् पाँचों कल्याणकों द्वारा रत्नों के जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा हो रही है। मूलनायक भगवान् ऋषभदेव का सर्वश्रेष्ठ धर्म वृद्धिंगत हो रहा है।
बुद्धिसेन कुमार के आदेश से उनके खजांची लोगों से द्रव्य लेकर, भोजन विभाग के व्यवस्थापक लोग बहुत ही सुन्दर भोजन की व्यवस्था बनाये हुए हैं। सभी यात्री लोग वहीं भोजनशाला में भोजन करते हैं। शहर के सभी स्त्री-पुरुष भी वहीं भोजनशाला में जीमते हैं। आगन्तुक दर्शकगण जो इतर-अजैन लोग हैं, उनके लिए पृथव्â भोजनशालाएं खुली हुई हैं। गरीबों के लिए तथा अंधे, लंगड़े आदि के लिए अलग भोजनालय खुले हुए हैं। वहाँ पर दिन के बारह घंटे सदावर्त चल रहा है।
प्रतिष्ठा मण्डप की शोभा का वर्णन अपार है। बावन गज के चौक (चबूतरे) पर रत्नों के चूर्ण और मोतियों से मंडल पूरा गया है। सर्वत्र रत्न, हीरे, मोती, माणिक, मरकत, पन्ना, स्फटिक, वैडूर्य आदि मणियों की शोभा ही दिखाई देती है। श्री ऋषभदेव की विशाल मूर्ति उत्तम पुखराज मणि से निर्मित अतीव सुन्दर समचतुरस्त्र संस्थान आदि उत्तम लक्षणों से विशेष है। भामंडल आदि आठ प्रातिहार्य और आठ प्रकार के मंगल द्रव्यों से वेदिका विशेष रूप से सुसज्जित हो रही है।
सभी इन्द्रगण नाना प्रकार के रेशमी आदि दिव्य शुभ्र धोती और दुपट्टे को धारण किये हुए हैं। नाना प्रकार के अलंकार और यज्ञोपवीत से विभूषित हैं और मस्तक पर सुन्दर मुकुट बांधे हुए हैं। इन्द्राणियाँ भी दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर मस्तक में मुकुट लगाए हुए अपने पति के हर एक कार्य में सहयोगिनी हो रही हैं। इस प्रकार से सात दिन तक प्रतिष्ठा विधि चलती है। अन्तिम आठवें दिन रथयात्रा का महामहोत्सव मनाया जाता है। श्री जिनबिंब को रथ में विराजमान करके सारे शहर में श्रीविहार कराया जाता है। उस समय हजारों हाथी, घोड़े, रथ, पालकी आदि उस उत्सव में आगे-आगे चल रहे हैं। महाराज यशोधर स्वयं नंगे पैर श्रीविहार के साथ-साथ चल रहे हैं। अनंतर इन्द्राणी मनोवती के साथ सौधर्मेन्द्र बुद्धिसेन की गाँठ जोड़कर सूत फेरने की विधि उत्सव के साथ सम्पन्न की जाती है। उस समय बाजों की ध्वनि से सारा शहर और आकाश मण्डल मुखरित हो उठता है। इस तरह आनंद मंगलपूर्वक बिना किसी विघ्न-बाधा के आठ दिन में विधि-विधान का कार्य संपूर्ण किया जाता है।
नवमें दिन सभी देश-विदेश के यात्रियों का यथोचित सम्मान करते हुए बुद्धिसेन महाराज सबको विदाई दे रहे हैं किन्तु बल्लभपुर और हस्तिनापुर के सभी यात्रियों को उन्होंने और एक दिन के लिए अतीव आग्रह करके रोक लिया है। उस दिन उन सबका विशेष आदर सम्मान करके दसवें दिन उन लोगों की भी विदाई कर दी।
सर्वत्र मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा और बुद्धिसेन के पुण्य की चर्चा फैल गई—
सर्वत्र शहर में और अपने-अपने देश को वापस जाने वाले यात्रियों के समूह में बस एक ही चर्चा चल रही है।
‘‘ओहो! देखो तो सही, मनोवती देवी यह हस्तिनापुर के जौहरी सेठ महारथ जी की सुुपुत्री हैं। इनने मुनिराज के पास यह प्रतिज्ञा ली थी कि ‘‘मैं जिनेन्द्रदेव के बिम्ब के समक्ष गजमोतियों को चढ़ाकर ही भोजन करूँगी।’’ प्रारंभ में ससुराल में आते ही तीन उपवास कर डाले पुनः गजमोती चढ़ाकर चौथे दिन भोजन किया।…………अनंतर पति के देशनिर्वासन के बाद उनके साथ नंगे पैर पैदल चलकर इस रतनपुर बगीचे में आई। देवों द्वारा निर्मित किये गये जिनमंदिर में गजमोती चढ़ाकर आठवें दिन भोजन किया था। इसी प्रतिज्ञा के प्रभाव से ही उसने अपने पतिदेव को और अपने को आज इतने ऊँचे उन्नति के शिखर पर चढ़ाया है।’’
‘‘देखो ना! कितना विशाल जिनमंदिर बना है। कितने रत्नों का प्रकाश उसमें जगमगा रहा है। एक सौ आठ बड़े-बड़े शिखर हैं और उन्हीं में छोटे-छोटे शिखर हैं। कुल मिलाकर एक हजार आठ शिखर बने हुए हैं और सभी पर सुवर्णों के, मणियों के कलश चढ़ाये गये हैं।’’
‘‘हाँ भाई! राजा यशोधर ने इन्हें अपनी पुत्री ब्याह दी है और इन्हें अपने विशाल राज्य का चौथाई भाग दे दिया है। इसलिए ये अब सेठ पुत्र नहीं रहे हैं ये राजजमाई हैं।’’
‘‘नहीं नहीं! ये तो अब स्वयं राजा ही हैं। बहुत से गाँवों के स्वामी हैं। इनके वैभव का क्या कहना ? सच है! इन्होंने अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग कर लिया है। जिनबिम्ब प्रतिष्ठा से और जिनमंदिर निर्माण से बढ़कर तीनों लोकों में कोई भी महान पुण्य कार्य न था, न है और न होगा। अरे भाई! यदि तीन लोकों के सारे पुण्य को इकट्ठा करके तराजू के एक पलड़े में रखो और एक जिनमंदिर बनवाकर प्रतिष्ठा कराके उसमें जिनबिंब विराजमान करने के पुण्य को एक पलड़े में रखो तो इस जिनमंदिर के पुण्य का पलड़ा ही भारी हो जावेगा।’’
इस तरह नाना प्रकार से उभय दम्पत्ति की तथा मनोवती की प्रतिज्ञा की और प्रतिष्ठा संबंधी विशेषता की चर्चायें करते हुए तमाम लोग भी महान पुण्य का अर्जन करते चले जा रहे हैं।
बल्लभपुर नरेश महाराज मरुदत्त अपने सिंहासन पर आरूढ़ हैं। मंत्रीगण उनके निकट में बैठे हुए हैं और जैसी की वापस आए हुए प्रजाजनों के मुख से रतनपुर में हुई प्रतिष्ठा की चर्चा सुनी है, वही सुना रहे हैं-
‘‘महाराज! उस प्रतिष्ठा की अपनी विशेषता यह रही कि राजजमाई ने सभी लाखों यात्रियों को विदाई के समय एक-एक रत्नहार भेंट में दिए हैं और वस्त्र भी दिये हैं। करोड़ों याचकों को मुँह माँगा दान दिया गया है। आठ दिन तक तो इतने लोगों ने भोजन किया है, कहते हैं कि शायद उनकी संख्या चक्रवर्ती के कटक के लोगों की संख्या से कम नहीं होगी।
‘‘हाँ महाराज! इस समय तो यह प्रतिष्ठा अपने आप में एक अद्भुत ही हुई है।’’
द्वारपाल आकर नमस्कार करके निवेदन करता है-
‘‘महाराजाधिराज की जय हो। महाराज! अपने नगर के जौहरी लोग पधारे हुए हैं।’’
‘‘हाँ, अन्दर आने दो।’’
सभी लोग आकर यथोचित भेंट रखकर विनय करके बैठ जाते हैं-‘‘कहिए! जौहरी जी कहिए! आप लोग रतनपुर से सकुशल तो आ रहे हैं ? कहिए प्रतिष्ठा संंबंधी कोई विशेष वार्ता कहिए!’’
‘‘महाराज! हम लोग विशेष वार्ता सुनाने ही आये हैं।’’
लोग कुछ सकुचाते हैं-
‘‘कहिए ना!’’
‘‘महाराज! लगभग एक वर्ष हुए होंगे, आपने एक दिन सभा में सभी जौहरियों को बुलाया था……।’’
‘‘हाँ, हाँ! गजमोतियों की मांग की थी मैंने…..।’’
‘‘हाँ महाराज! उसी दिन जौहरी हेमदत्त ने भी गजमोती के बावत ना कर दिया था।’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’
‘‘फिर महाराज! वे घर पहुँचे और चिंतित हो गये। चूँकि उनकी छोटी बहू जो कि हस्तिनापुर से आई थी, उसकी जिन मंदिर में गजमोती चढ़ाने की प्रतिज्ञा थी और सेठ जी के घर न जाने कितने गजमोती कोठार में भरे पड़े थे। बहू आयेगी, गजमोती चढ़ायेगी तो क्या होगा ?……इसी डर से सेठ जी ने अपने छोटे पुत्र को घर से निकाल दिया।’’
आश्चर्य और खेद के साथ-
‘‘अरे! यह क्या हुआ ? फिर वह कहाँ है ?’’
‘‘महाराज! वह हस्तिनापुर से अपनी भार्या मनोवती को लेकर रतनपुर चला गया। वहाँ पर बगीचे में मनोवती को गजमोती चढ़ाये बिना सात उपवास हो गये…..। अनन्तर देवों ने दर्शन कराकर उसकी प्रतिज्ञा निभाई और उसी समय ‘नर-मादा’ ऐसे दो मोती देवों ने ही उसे दिये। जिनके फलस्वरूप वह बुद्धिसेन राजा का जमाई हुआ।’’
आश्चर्य से-
‘‘अच्छा!’’
‘‘हाँ महाराज! यह प्रतिष्ठा उसी ने तो कराई है। सारे कार्य में प्रेरणा एकमात्र उस मनोवती महिलारत्न की ही है।’’
‘‘यह बात सत्य है या किंवदन्ती मात्र है ?’’
‘‘नहीं महाराज! बिल्कुल सत्य है। मैंने स्वयं देखा कि प्रतिष्ठा के आठ दिन बाद सब यात्री तो चले गये परन्तु कुमार ने बल्लभपुर के सभी यात्रियों को तथा हस्तिनापुर के यात्रियों को आग्रहपूर्वक रोक लिया और उनका विशेष सत्कार किया।’’
अन्य जौहरीगण भी स्वतः देखी सुनी बातों को सुनाने लगते हैं-
‘‘महाराज! मैंने स्वयं देखा, हस्तिनापुुर के सेठ महाराज जी अपनी पुत्री मनोवती के माथे पर हाथ फेरते हुए कह रहे थे कि बेटी मनोवती! तू बिना कुछ कहे सारे जेवर आभूषण उतारकर वहीं पलंग पर डाल कर चली आई थी। तब हम लोगों के शोक का पारावार नहीं था और अब तेरी इस उन्नति को, तेरी प्रतिज्ञा के इस माहात्म्य को देखकर मेरी खुशी का भी पार नहीं है।’’
‘‘महाराज! स्वयं अपने नगर के सेठ हेमदत्त सपरिवार वहीं पर रहते हैं।’’
‘‘अरे! वे यहाँ से कब चले गये ?’’
‘‘राजन्! अपने पुत्र को निकालने के बाद वे चन्द दिनों में अपने आप ही सम्पत्ति और श्री से विहीन हो गये।’’
‘‘अपराध क्षमा हो! मैंने तो सुना है कि उन्होंने दुकानों और मकानों को तथा औरतों के जेवरों को भी कुछ बेच खाया, कुछ गिरवी रखकर उससे पेट भरा।’’
‘‘अरे! मैंने तो यहाँ तक सुना है कि उन्होंने कुछ दिन यहीं पर जंगल से सपरिवार सिर पर लकड़ियों के गट्ठर लाकर बेचे हैं।’’
‘‘हाय, हाय! यह सब बातें मुझे क्यों नहीं बताई गईं ?’’
‘‘और तो क्या महाराज! वे देश छोड़कर भीख माँगते-माँगते रतनपुर पहुँचे और वहाँ पर कुछ दिनों तक इसी मंदिर के निर्माण कार्य में मजदूरी भी की है।……अनंतर जब कुमार बुद्धिसेन को मालूम हुआ, तब उसने इनका परिचय कराकर राजा के द्वारा इनका सम्मान कराया है।’’
‘‘ओह! मंत्री! मेरे निमित्त से मेरे शहर के इतने पुण्यशाली संपत्तिशाली जौहरी को ऐसे-ऐसे संकटों का सामना करना पड़ा। धिक्कार हो मुझे! जो कि मेरे कठोर अनुशासन के निमित्त से ऐसा नररत्न बुद्धिसेन रतनपुर में कीर्ति पताका फहरा रहा है। मंत्रिन्! अब उन सबको अपने शहर में वापस लाओ।’’
‘‘महाराज! वे बुद्धिसेन वहाँ पर यशोधर महाराज के बहुत कुछ राज्यभाग के अधिकारी हैं। अब वे वहाँ पर राज्य कर रहे हैं। वे यहाँ वापस वैâसे आयेंगे ?’’
‘‘नहीं मंत्रिन्! तुम स्वयं वहाँ जाओ और कुमार बुद्धिसेन से समझाकर कहो कि महाराजा मरुदत्त सब प्रकार से क्षमायाचना करा रहे हैं और वे अब तुम्हारे वियोग से बहुत दुःखी हैं…..। वे तुम्हारे वहाँ चले बिना अब अपने प्राणों को भी धारण करने में असमर्थ हैं।’’
सम्पूर्ण समाचार ज्ञात होने पर बल्लभपुर नरेश बुद्धिसेन से मिलने को हुए व्याकुल, मंत्री को लाने हेतु भेजा-
महाराजा मरुदत्त पश्चात्ताप से आहत हो बुद्धिसेन से मिलने के लिए विह्वल हो उठते हैं-
‘‘मंत्रिन्! अब इस कार्य में एक क्षण की भी देरी करना उचित नहीं है।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज! मैं स्वयं अभी-अभी प्रस्थान की तैयारी कर रहा हूँ। मैं लेकर ही आऊँगा, आप निश्चिंत होइये।’’
मंत्री महोदय कुछ परिकर अपने साथ लेकर रतनपुर पहुँचते हैं। कुमार बुद्धिसेन बल्लभपुर के मंत्री महोदय का यथोचित सम्मान करते हैं।
‘‘कुमार! अब आप अपनी जन्मभूमि बल्लभपुर शहर को पवित्र कीजिए। महाराज आपको विशेष याद कर रहे हैं।’’
बुद्धिसेन किंचित् मुस्कराकर बोलते हैं-
‘‘मंत्री महोदय! अब बल्लभपुर में हमारे पैर रखने की आवश्यकता ही क्या है ?’’
‘‘राजन् ! यद्यपि आप यहाँ पर राज्य का भार सँभाल रहे हैं फिर भी आपके महाराजा साहब आद्योपांत आपकी सारी घटना सुनकर बहुत ही खिन्न हो रहे हैं। वे इस समय आपके वियोग से बहुत ही दुःखी हैं। यदि आप नहीं चलेंगे तो वे निश्चित ही चारों प्रकार के भोजन का त्याग कर देंगे। इसी आदेश के साथ उन्होंने मुझे आपकी सेवा में भेजा है।’’
बुद्धिसेन कुछ विचार में पड़ जाते हैं-
‘‘कुमार! अब आप किंचित् भी देरी न कीजिए। महाराज अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं।’’
‘‘मंत्री महोदय! मेरा चलना तो असंभव सा ही लगता है चूंकि महाराज यशोधर भी मुझे नहीं छोड़ेंगे।…..अतः आप महाराजश्री से हाथ जोड़कर मेरा नम्र निवेदन कीजिए कि वे समय पाकर एक बार आपसे मिलने अवश्य आवेंगे किन्तु वहाँ रहने की बात तो……।’’
‘‘बुद्धिसेन कुमार! आप महान् बुद्धिमान हैं। आपको इस विषय पर गहराई से सोचना होगा। महाराज साहब ये निर्णय कर चुके हैं कि वे मेरे अकेले वापस पहुँचते ही अन्न-जल का त्याग कर देंगे। इसमें आप बिल्कुल भी शंका न करें।’’
बुद्धिसेन से इस संबंध में मनोवती से वार्ता की-
बुद्धिसेन कुमार मंत्री को आश्वासन देकर सीधे अपने महल पहुँचते हैं और प्रिया मनोवती के सामने सारी स्थिति रख देते हैं। मनोवती कहती है-
‘‘स्वामिन्! अब आपको बल्लभपुर चलना ही उचित है।’’
‘‘प्रिये! मैं तो किसी भी हालत में जाने को तैयार नहीं हूँं।’’ हाँ! यदि माता-पिता आदि परिवार के लोग जाते हैं तो मैं रोवूँâगा नहीं।’’
‘‘प्रियतम! मैं एक बात और कहूँ।’’
‘‘कहिए।’’
‘‘यहाँ पर आपको रहना कथमपि श्रेयस्कर नहीं है। देखिये! यहाँ पर सभी लोग आपको राजजमाई के नाम से ही जानते हैं। आपके पिता का नाम यहाँ नहीं चल सकता है अतः आपको अपने ही देश में चलकर अपने पिता का नाम चलाना चाहिए। ससुराल के कुल में अपनी प्रसिद्धि पाने वाले….क्या उत्तम पुरुष माने जाते हैं ?’’
बुद्धिसेन ने सपरिवार बल्लभपुर जाने का निर्णय किया—
बुद्धिसेन कुमार सोचने लगते हैं कि बिल्कुल सच बात है। हस्तिनापुर में इसके द्वारा रोकने के आग्रह में मैंने यही हेतु उपस्थित किया था और ससुराल में रहकर अपने पिता के नाम को डुबोना उचित नहीं समझा था और अब…..यहाँ पर भी तो वही बात है अतः अब बल्लभपुर जाना ही उचित है।
‘‘ठीक है, प्रियतमे! आपने उचित सलाह दी है। अब मैं पिताजी से मिलकर सारी स्थिति का दिग्दर्शन कराके राजा से आज्ञा लेने जाऊँगा।’’
बुद्धिसेन पिता आदि को मंत्री के आने का समाचार सुनाकर उनसे मिलान करा देते हैं पुनः आप दरबार में पहुँचकर महाराज की विनय करके बैठ जाते हैंं-
‘‘महाराज! हमारे बल्लभपुर से मंत्री महोदय हमें लिवाने के लिए आये हैं, सो आप अब हमें अपने देश जाने की आज्ञा दीजिए।’’
‘‘कुमार! आपने आज ऐसी बात कही सो अब कभी नहीं कहना, क्या हम आपके बिना रह सकते हैं ?’’
‘‘महाराज! मंत्री ने ऐसा कहा कि मेरे न पहुँचने से महाराजा मरुदत्त अन्न-जल का त्याग कर देंगे…..अब हम लाचार हैं आप ही…..जैसा आदेश करेंगे, वैसा होगा।’’
‘‘ओह! यह क्या ?’’
महाराज यशोधर ने दुखी मन से दी आज्ञा-
महाराज यशोधर कुछ देर सोचकर अंत में यह समझ लेते हैं कि अब इन्हें भेजना ही पड़ेगा ? सच है……ऐसे पुण्यात्मा नररत्न को भला कौन छोड़ सकता है ? यह उसी बल्लभपुर का ही तो रत्न है। बाद में दीर्घ निःश्वास लेकर बोलते हैं-
‘‘कुमार! जब राजा का ऐसा कठोर प्रण है, तब तो हमें आपको भेजना ही पड़ेगा।’’
उसी क्षण वहाँ पर मंत्री महोदय आकर स्वयं राजा से सारी बातों का निवेदन करके उन सभी के प्रस्थान हेतु उत्तम मुहूर्त निश्चित करते हैं। महाराज यशोधर अपनी गुणवती कन्या को यथायोग्य शिक्षा देते हैं और कहते हैं-
‘‘बेटी! तुम मनोवती को अपनी बड़ी बहन समझो। वह बुद्धि में, वय में, धर्मकार्य में और पद में तुमसे बड़ी है और पतिदेव को सर्वस्व समझो। सास, ससुर, जेठानी की सेवा करो। प्रत्यक्ष में मनोवती द्वारा प्राप्त किये गये धर्म के फल को देखकर धर्म में सदैव मन लगावो।’’
अनन्तर महाराज यशोधर ने कुमार को बहुत सा द्रव्य, बहुत से हाथी, घोड़ा आदि सेना देकर विदाई समारोह किया। आप स्वयं अपने मंत्रीगण तथा नागरिक जनों के साथ सपरिवार कुमार को कुछ दूर पहुँचाने गये। गाजे-बाजे की ध्वनि से एक बार फिर शहर में महामहोत्सव दिखने लगा। सभी ने कुमार के गमन में अपने को दुःखी मानते हुए भरे हुए हृदय से विदाई दी और पुनः कभी वापस आने के लिए बार-बार प्रार्थना की।
कुमार बुद्धिसेन अपने पिता-माता, भाई-भावज और उभय भार्याओं के साथ तथा बहुत बड़ी सेना के साथ प्रस्थान करके रतनपुर के उसी बगीचे में आकर ठहर गये कि जहाँ पहले ठहरे थे। रात्रि विश्राम करके प्रातः नित्य-क्रिया से निवृत्त होकर शहर के लोगों से यथोचित वार्तालाप करके प्रेम से उन्हेंं विदा करके बल्लभपुर शहर का म्ाार्ग पकड़ा और रास्ते में जगह-जगह पड़ाव डालते हुए बल्लभपुर के निकट बगीचे में पहुँच गये।
बल्लभपुर नरेश ने सभी का किया भव्यतापूर्ण स्वागत-
बल्लभपुर नरेश ने जैसे ही सुना, मंत्री महोदय साथ में बुद्धिसेन को बड़ी धूमधाम से लेकर आ रहे हैंं, तो शहर में घोषणा कर दी कि हमारे साथ स्वागत के लिए सारे नागरिक स्त्री-पुरुष एकत्रित हो जावें। दूसरे दिन प्रातःकाल महाराज स्वयं सभी लोगों के साथ बगीचे में पहुँचते हैं और हाथी से उतरकर पैदल चलकर कुमार बुद्धिसेन के सामने आते हैं।
बुद्धिसेन भी राजा को सन्मुख आते हुए देखकर जल्दी से उठ खड़े होकर आगे बढ़कर राजा को प्रणाम करते हैं। राजा भी उन्हें तत्क्षण ही हृदय से लगा लेते हैं पुनः हेमदत्त सेठ से मिलते ही उनके नेत्र सजल हो जाते हैं-
‘‘सेठ हेमदत्त! मेरे निमित्त से तुमने कितने संकटों का सामना किया है। हाय! वैâसे-वैâसे दुःख झेलकर तुमने अपने पुत्र को वापस पाया है। अब मेरे अपराध को क्षमा कर दो। कुमार बुद्धिसेन! मेरे निमित्त से ही तो तुम्हें देश निर्वासन का कठोर दुःख भोगना पड़ा। अब तुम भी मेरे अपराध को क्षमा करो।’’
‘‘महाराज! आपका इसमें क्या दोष है ? मेरे ही संचित कर्मों का फल मैंने भोगा है।’’
सेठ हेमदत्त बोलते हैं-
‘‘महाराज! मैंने उस समय असत्य भाषण करके एक अपराध किया फिर निरपराधी पुत्र को निकाल कर दूसरा अपराध किया। अनंतर तृतीय अपराध में बहू की प्रतिज्ञा की निंदा करके जो पाप कमाया, वह सब एक साथ उदय में आ गया।…..अस्तु अब हम सब इस बहू की प्रतिज्ञा के प्रसाद से ही पुनः इतने ऊँचे उन्नति शैल पर चढ़कर आपसे पहले जैसी स्थिति तो…..क्या ? उससे अधिक उत्तम स्थिति में मिल रहे हैं।’’
राजा मरुदत्त ने मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा को सराहा-
राजा मरुदत्त मनोवती को देखकर उसे पुत्रीवत् हृदय से लगाकर माथे पर हाथ फेरकर कहते हैं-
‘‘बेटी! तू धन्य है! तेरा जीवन धन्य है! और तेरी धर्म की श्रद्धा धन्य है! तूने साक्षात् धर्म का चमत्कार, धर्म का अचिन्त्य प्रभाव प्रत्यक्ष में ही सबको दिखा दिया है।’’
इस तरह सबसे मिलकर महाराज सबको बड़े उत्सव के साथ बल्लभपुर में प्रवेश कराते हैं। पहले अपने राजभवन में ले जाकर विशेष सत्कार कर भोजन आदि कराते हैं। वस्त्रालंकार भेंट करते हैं। अनंतर राजा मरुदत्त चौथाई राज्य प्रमाण देश कुमार को भेंट रूप में देकर राजा बना देते हैं। सेठ हेमदत्त की गिरवी रखी हुई हवेली को मंत्री ने पहले से ही खाली कराकर उसे खूब सजाकर सुन्दर बनाई थी। दूसरे दिन कुमार बुद्धिसेन सपरिवार पहले जिनमंदिर में जाकर जिनदर्शन- पूजन आदि करके पुनः राजा की आज्ञा से अपने महल में प्रवेश करते हैं। आगे-आगे सेठ हेमदत्त हैं, पीछे से सेठानी हेमश्री अपने सभी सातों पुत्र और आठों बहुओं को तथा अनेकों पौत्र सभी पौत्रियों को साथ लिये हुए प्रवेश करती हैं। घर में सर्वत्र मंगलमय वातावरण है। जिधर देखो, उधर रत्नों की जगमगाहट, मोतियों की मालाएं और सुन्दर-सुन्दर तोरण बंधे हुए हैं। सर्वत्र राजमहल की शोभा छिटक रही है।
प्रजा ने भी मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा की सराहना की, सभी ने नियम-व्रत ग्रहण किए-
बहू मनोवती के घर में पैर रखते ही जो महल के बगीचे सूखे थे, हरे-भरे हो गये हैं। सूखे सरोवरों में ऊपर तक पानी लहरें ले रहा है, कमल खिल रहे हैं और हंस मिथुन क्रीड़ा कर रहे हैं। शहर के नर-नारी चारों तरफ से आ रहे हैं। सबसे मिलकर सभी लोग अपार हर्ष का अनुभव कर रहे है। सेठ हेमदत्त का मन-मयूर खुशी से नाच रहा है और सेठानी हेमश्री अपने भाग्य की सराहना कर रही हैं। धनदत्त आदि सभी पुत्र, धनश्री आदि सभी पुत्र-वधुएं कुमार बुद्धिसेन और मनोवती के धर्म की श्रद्धा को, उसके फल को देखते हुए हर्ष विभोर हो रहे हैं।
स्थानीय नर-नारी आपस में चर्चा कर रहे हैं-
‘‘भाई! देखो तो सही, इस मनोवती ने पूर्व जन्म में कितना पुण्य किया होगा! जो कि एक वर्ष में ही इतना वैभव, इतना सुयश प्राप्त कर लिया।’’
‘‘नहीं बंधु! आपको मालूम नहीं है इसने इस जन्म में ही अपनी दर्शन प्रतिज्ञा के बल से इतना वैभव और सुयश पाया है और फिर जिनमंदिर का निर्माण कराके अनंत पुण्य संचित करके अपने संसार की परम्परा को भी समाप्त ही कर दिया…..समझो।’’
‘‘मित्र! अभी-अभी रतनपुर में महामहोत्सव में क्या आपने महामुनि का उपदेश नहीं सुना था ? वे बता रहे थे कि इसने ब्याह के बाद एक पक्ष के अन्दर ही प्रतिज्ञा के बल से देवों द्वारा उपकार और महान सुख सम्पत्ति प्राप्त कर ली…..और बंधु! इनके ससुर आदिकों ने धर्म की निंदा से छह महीने के अंदर ही असंख्य दुःख झेले हैं।’’
‘‘हाँ भाई! उस उपदेश को सुनकर तो मैं समझता हूँ कि सभी यात्रियों ने ही जिनदर्शन और जिनधर्मसंबंधी कुछ न कुछ नियम अवश्य ही ले लिया है। मैंने भी तो नियम लिया है कि प्रतिदिन श्री जी के चरण सानिध्य में श्रीफल चढ़ाकर ही भोजन करूँगा।
‘‘बहन! वहाँ रतनपुर में तो सभी ने धर्मरत्न को ही लूट लिया है।’’
‘‘बहन ? तुमने क्या नियम लिया है ?’’
‘‘मैं तो प्रतिदिन मुनि को आहारदान देकर ही भोजन करूँगी और तुमने ?……’’
‘‘मैंने तो प्रतिदिन उत्तम-उत्तम अंगूर, आम्र, अनार आदि फलों से पूजा करने का नियम लिया है।’’
‘‘बहन! बहुतों ने बेला, पारिजात आदि पुष्प चढ़ाने का, बहुतों ने कमल आदि पुष्पों को चढ़ाने का, बहुतों ने सुवर्ण पुष्पों के समर्पण करने का एवं बहुतों ने प्रतिदिन लवंग, इलायची आदि चढ़ाने का, बहुतों ने अपने पुण्य वैभव के अनुसार रत्न चढ़ाने का नियम किया है तथा बहुतों ने गजमोती चढ़ाने का ही नियम लिया है।’’
‘‘क्या बताऊँ बहन! किसी ने वहाँ अणुव्रत लिए, किसी ने रात्रि भोजन त्याग व्रत, किसी ने पुष्पांजलि, मुक्तावली आदि व्रत ग्रहण किये हैं। सच है, बिना नियम के यह मनुष्य जीवन व्यर्थ ही है इसलिए कुछ न कुछ नियम अवश्य लेना ही चाहिए।’’
‘‘और फिर जब प्रत्यक्ष में प्रतिज्ञा का फल अतिशय रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है, तब तो दृढ़ श्रद्धानपूर्वक जिनदर्शन की प्रतिज्ञा लेकर अपना संसार स्वल्प कर लेना ही चाहिए।’’
‘‘हाँ हाँ, बहन! यह जिनदर्शन ही तो एक दिन अपनी आत्मा का दर्शन कराकर अपने अन्दर ही परमानन्दमय परमात्मा को प्रकट कराने वाला है……।’’