सूत्रधार—सेठ हेमदत्त के घर की सजावट आज राजमहल से कम नहीं है। सेठानी हेमश्री भी अत्यधिक प्रसन्न हैं क्योंकि उनके सातवें और सबसे छोटे लाडले पुत्र की शादी होकर अत्यन्त रूपवती और गुणवान बहू से उनका आँगन महक उठा है। बल्लभपुर शहर के सभी स्त्री-पुरुष प्रीतिभोज कर प्रसन्नमना होकर जा रहे हैं और सभी ओर इसी विवाह की चर्चा है।
प्रथम दृश्य
एक व्यक्ति—भैय्या! सेठ हेमदत्त का यह सम्बन्ध तो बड़ा ही अच्छा है। बड़े अच्छे समधी मिले हैं उन्हें। हस्तिनापुर के सेठ महारथ बावन करोड़ दीनारों के स्वामी हैं और उनकी पुत्री मनोवती भी बहुत ही सुशील कन्या है।
दूसरा व्यक्ति—हाँ भइया! बड़ी ही सुन्दर जोड़ी है। जरूर मनोवती ने पूर्व जन्म में महान पुण्य अर्जित किया होगा जो उसे ऐसा घर और वर मिला। (इधर कुछ महिलायें भी चर्चा कर रही हैं।)
पहली महिला—अरी बहन! अपने सेठ हेमदत्त बहुत बड़े जौहरी हैं। छप्पन करोड़ दीनारों के मालिक हैं और इनके समधी भी तो बहुत बड़े जौहरी हैं। वे भी तो बल्लभपुर शहर में बहुत विख्यात पुरुष हैं।
दूसरी महिला—बहन! सम्पत्ति का क्या देखना, बस लड़के को लड़की और लड़की को पति अनुकूल चाहिये, जिससे दोनों का विवाहित जीवन सुखमय हो। फिर यदि पैसा भाग्य में है तो लड़का अपनी मेहनत से खुद ही धनी बन जाता है और नहीं है तो करोड़ों का धन भी समाप्त हो जाता है।
तीसरी महिला—मैं तो अपनी कन्या के लिये धर्मात्मा पति की ही कामना करती रहती हूँ।
चौथी महिला—सच है बहन, मेरी लड़की का पति दुव्र्यसनी है। उसने अपने पिता की करोड़ों की सम्पत्ति व्यसन में उड़ा दी, यहाँ तक कि बेटी के गहने भी बेच डाले। सच, मेरा मन तो बड़ा ही दु:खी है।
पाँचवीं महिला—जरूर इस मनोवती ने महान पुण्य किया होगा, तभी इसे सर्वगुणसम्पन्न पति मिला है। (इधर शहर में चर्चायें चल रही हैं, उधर सेठजी आनन्दपूर्वक अपने रिश्तेदारों से हँसी-मजाक कर रहे हैं, तभी सेठानीजी पहुँचती हैं। सभी रिश्तेदार चले जाते हैं, तब सेठानी उदासमुख होकर उचित स्थान पर बैठ जाती हैं, तब सेठजी आश्चर्य से कहते हैं।)
सेठजी—क्या बात है, सेठानी ? इस खुशी के माहौल में आप इतनी उदास क्यों हैं ? घर में कामकाज के लिये इतने दास-दासियाँ हैं फिर भला आप इतना क्यों थक गयीं ?
सेठानी—स्वामी! मैं काम से नहीं थकी हूँ, अपितु मेरी चिन्ता का कुछ और ही कारण है।
सेठजी—क्या हुआ ? जरा मुझे भी तो बताओ।
सेठानी—नई बहू तो मौन बैठी है, कुछ बोलती ही नहीं है।
सेठजी—(जोर से हँसकर) अरे! तो इसमें इतनी चिन्ता की क्या बात है ?
सेठानी—अभी तक घर में किसी महिला ने खाना नहीं खाया और आप कहते हैं कि कैसी चिन्ता ?
सेठजी—क्यों भाई! खाना क्यों नहीं खाया ?
सेठानी—देखिये ना, जब जीमन निपट चुका और सभी मेहमान भी खा चुके तो मैंने बहू के पास जाकर भोजन करने के लिये कहा और मुझे खड़े-खड़े घण्टों निकल गये पर वह कुछ बोलती ही नहीं।
सेठजी—(आश्चर्य से) अरे! यह रंग में भंग कहाँ से आ गया। (एक मिनट सोचकर) आप चिन्ता न करें, नई है ना, संकोच कर रही होगी। आप भोजन कर लें, बाद में देखा जायेगा। (सेठानी वापस चली जाती हैं, सभी लोग भोजन कर लेते हैं। मनोवती प्रसन्नमना णमोकार का जाप्य कर रही है। दूसरे दिन भी यही हुआ, तब सेठजी के कहने पर घर के किसी भी सदस्य ने भोजन नहीं किया। तब भी भेद नहीं खुला तब सेठजी ने हस्तिनापुर खबर भेज दी, जिसे सुनकर सभी घबरा गये और पुत्र मनोज को बल्लभपुर भेज दिया।)
दूसरा दृश्य
(हस्तिनापुर में सेठ मनोरथ का घर)
सेठानी महासेना—(चिंतित होकर) हे प्रभो! विदा करते समय मैंने मनोवती को कितनी अच्छी-अच्छी शिक्षायें दी थीं, पर यह क्या हो गया ?
सेठ महारथ—हाँ, मैंने भी तो शिक्षा दी थी कि बड़ों की आज्ञा का पालन करना और छोटों पर प्यार रखना, तभी घर का वातावरण स्वर्ग जैसा रहेगा। मुझे अपनी कन्या पर विश्वास है फिर पता नहीं क्या कारण है कि वह तीन दिन से भूखी है। (महासेना रो पड़ती है, तब सेठजी सांत्वना देते हैं।) अरे! आप इतनी समझदार होकर यह बच्चों जैसे कार्य क्यों कर रही हैं ? धीरज रखो, मनोज गया तो है, व्यर्थ संकल्प-विकल्प मत करो।
सेठानी महासेना—सच है, पुत्रियों के पीछे सदैव दु:ख ही रहते हैं। युवा होने पर ब्याह की चिन्ता। विदा हो तो दु:ख, उसे याद करके तड़पते रहो और यदि ससुराल में सुख न हो तो भी रात-दिन चिन्ता।
सूत्रधार—सेठजी बार-बार समझाते हैं, तब वह चुप हो जाती है। सेठजी बाहर चले जाते हैं। उधर मनोज बल्लभपुर पहुँचते हैं, तब स्वागत के पश्चात् सेठजी कहते हैं।
तीसरा दृश्य
(बल्लभपुर, सेठ हेमदत्त का घर)
सेठ हेमदत्त—भइया! आपकी बहन ने तीन उपवास कर लिये, आज चौथा दिन है। क्या वह कोई व्रत कर रही है या कोई और कारण है ? पहले उसका निर्णय करो फिर कोई और बात होगी।
मनोज—(जाकर बहन से मिलता है और कहता है) बहन! तुमने यह क्या किया ? इस मंगलमय वातावरण को क्यों अमंगलीक कर दिया ? तुमने भोजन क्यों नहीं किया ?
मनोवती—भैय्या! मैंने मुनिराज से यह नियम लिया था कि जब मैं जिनमंदिर में भगवान के सामने गजमोती चढ़ाऊँगी तभी भोजन करूँगी, किन्तु यहाँ मुझे कहीं गजमोती नहीं दिखे, अत: तुम कुछ मत बोलो बस मुझे घर ले चलो। मैं वहीं गजमोती के पुँज चढ़ाकर जिनदर्शन करके भोजन करूँगी। (मनोज हेमदत्त से जाकर बहन को भेजने का निवेदन करते हैं।)
मनोज—सेठजी! आप चिन्ता न करें। मेरी बहन बहुत भोली और संकोची है, यह घर पहुँचकर भोजन कर लेगी।
सेठजी—आपकी यह बात कुछ महत्त्व नहीं रखती है। देखिये, जो भी कारण हो आप स्पष्ट बतायें। मैं भोजन करने के बाद बहू को तुम्हारे साथ विदा कर दूँगा। (जब मनोज ने सारी स्थिति स्पष्ट की तब सेठजी हँस पड़े और बोले।)
सेठजी—(अन्दर जाकर) बेटी मनोवती! तूने व्यर्थ ही संकोच किया। मुझे क्यों नहीं बताया? (पुन: भण्डारी को बुलाकर) भण्डारी जी! मेरी बेटी के लिये भण्डार खोल दो। यह जितने चाहे उतने गजमोती चढ़ाकर दर्शन करे।
भण्डारी—जो आज्ञा, सेठजी। सूत्रधार—मनोवती प्रसन्नमना होकर सास-श्वसुर की आज्ञा से स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर गजमोती डिब्बी में रखती है और जिनमंदिर में पहुँचकर जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करके भाई के साथ विदा हो जाती है। सभी उसके धैर्य की सराहना करते हैं कि बहू तो बहुत ही सुलक्षणा है और नियम पालन में दृढ़ है। उधर मनोवती तो हस्तिनापुर पहुँच जाती है और उधर मंदिर में मालिन उन मोतियों को देखकर अतीव प्रसन्न है और उसे अपने पति को दिखाती हुई कहती है।
चौथा दृश्य (जिनमंदिर)
(मंदिर के निकट बने एक कमरे में मालिन अपने पति से कहती है।)
मालिन—अजी सुनते हो! देखो न! कितने बेशकीमती मोती हैं।
माली—(उन्हें देखकर आश्चर्य से) हे भगवान! घोर आश्चर्य! न जाने कितनी पीढ़ियों से हम इस मंदिर की सेवा करते आ रहे हैं लेकिन मेरे पुरखों ने भी ऐसा बढ़िया मोती कभी नहीं देखा। आज मेरे नगर में ऐसा कौन-सा पुण्यवान आया है, जो इन मोतियों को चढ़ा गया। कहीं देवता तो नहीं आये मंदिर में ? मैंने बाबा के मुख से ऐसे किस्से बहुत बार सुने हैं। खैर! कुछ भी हो। देख! चुन्नू की माँ! इन्हें हम अपने घर में न रखकर राजा को दे देंगे अन्यथा पता चलने पर वह मुझे चोर समझकर मेरी सारी संपत्ति ले लेंगे और देश से निकाल देंगे। (पुन: कुछ सोचते हुए) देख, ऐसा कर, बाग से बढ़िया चमेली के फूल लाकर उनकी माला बनाकर राजमहल में ले जाना, तुझे इनाम भी मिलेगा। समझ गयी ना… थोड़ा चतुराई से काम लेना।
सूत्रधार—मालिन सुन्दर हार गूँथकर राजमहल में जाकर महाराज की छोटी रानी के गले में पहना देती है और रानी खुश होकर उसे बहुत से स्वर्णमुद्राएँ पुरस्कार में देती है। उधर बल्लभपुर के राजा गुरुदत्त को पता चलता है कि उनकी बड़ी रानी मनोरमा विक्षिप्त अवस्था में है तो वह महल में पहुँचकर उससे मिलते हैं और उसकी मन:स्थिति देखकर दंग रह जाते हैं।
-अन्त:पुर का दृश्य-
राजा मरुदत्त—प्रिये! अकस्मात् ही आपकी चिन्ता का क्या कारण है ? किसकी मृत्यु नजदीक आई है जिसने तुम्हारे मन को व्यथित किया है ? शीघ्र स्पष्ट करो।
महारानी—(आँसू पोंछते हुए) महाराज! अब मैं इस घर में जीवित नहीं रह सकती। मेरा इतना अपमान! आपका प्रेम एकमात्र कुसुमा रानी पर है, मेरे प्रति तो दिखावटी प्रेम है। बस! अब तो मुझे विष चाहिये बस। (महाराज निश्चेष्ट से होकर एकदम महारानी को देखते ही रह जाते हैं पुन: सांत्वना देते हुए कहते हैं।)
महाराज—प्राणबल्लभे! तुमने ऐसी कल्पना भी कैसे कर ली ? क्या मैंने कभी तुम्हारी उपेक्षा की है ? अब मेरे हृदय को और व्यथित मत करो और कहो किसने तुम्हें कष्ट दिया है ?
महारानी—बस, बस! अब इन चिकनी-चुपड़ी बातों को रहने दीजिये। अब तो जो होना था वह हो चुका, अब मुझे इस संसार में रहकर ऐसा अपमान नहीं झेलना है।
महाराज—देवी! मैं कोई केवलज्ञानी तो हूँ नहीं, तुम बतलायेगी नहीं तो कैसे जानूँगा कि बात क्या है? अच्छा! तुम अपने अपमान को बताओ तो सही और मुझे मेरे प्रेम में उत्तीर्ण होने का मौका तो दो।
महारानी—स्वामी! आप ही बताइये ? जब एक मालिन मेरा अपमान कर सकती है तब इससे बढ़कर दु:ख मेरे लिये क्या हो सकता है ?
महाराजा—(आश्चर्य से) अरे! मालिन द्वारा अपमान ? ऐसा क्या हुआ ?
महारानी—राजन्! आज वह एक सुन्दर हार बनाकर लायी थी जिसमें एक-एक फूल के बीच ऊँची जाति के सुन्दर गजमोती गुँथे थे और उसने वह हार आपकी प्राणप्यारी छोटी रानी को पहना दिया। यह सब आपके द्वारा उसको अत्यधिक प्रेम करने का ही तो नतीजा है।
महाराजा—(सारी बात समझकर क्रोधित होते हुए) बस महारानी बस! इतनी छोटी सी बात के लिये इतना विषाद। अरे! मैं तुम्हारे लिये एकमात्र गजमोती का हार बनवाऊँगा, उस हार की क्या बात है। चलो, उठो और दु:ख त्यागकर मुख धो लो।
सूत्रधार—राजा स्वयं महारानी का हाथ पकड़कर उठाकर मुख धुलवाते हैं और वातावरण शान्त हो जाता है। दूसरे दिन राज्यसभा में राजा अपने मंत्री से सारे जौहरियों को बुलाने का आदेश देते हैं। सारे जौहरी आपस में विचार-विमर्श करके राजदरबार में उपस्थित होते हैं। तब महाराज सम्मान सहित सबको बिठाकर मुस्कुराते हुए सुन्दर शब्दों में कहते हैं।
राजदरबार का दृश्य—यहाँ सुन्दर वेशभूषा में जौहरियों को बैठा दिखावें।)
महाराजा—महानुभावों! आप लोग जौहरी हैं, अत: गजमोती पैदा कर दीजिये और जो कीमत लगे उसे हमसे ले लीजिये। (सभी एक-दूसरे का मुख देखने लगते हैं और स्वयं को असमर्थ जानकर एक स्वर में कहते हैं।)
सभी जौहरी—महाराज! यह काम हममें में कोई भी नहीं कर सकता है। गजमोती पैदा करना कठिन ही नहीं असम्भव है।
महाराजा—देखो! सभी लोग कुछ क्षण सोच लो फिर अपने को तोलकर बोलो। (सभी जौहरी स्वयं को असमर्थ पाते हैं और महाराज को हाथ जोड़कर मना कर देते हैं। उस समय सेठ हेमदत्त भी मना कर देते हैं, पुन: सभी कहते हैं।)
सभी जौहरी—महाराज! कुछ और आज्ञा दीजिये कि जिसका हम लोग पालन कर सके।
महाराजा—बस! हमें इस समय गजमोतियों की ही आवश्यकता है। लेकिन ध्यान रखना, अगर किसी के यहाँ गजमोती का पता लग गया तो इतना कड़ा दण्ड दूँगा कि उसकी खाल खींचकर उसमें भूसा भरवा दूँगा। (क्रोधित महाराजा को मंत्रीगण शांत कर देते हैं और सभी जौहरी अपने-अपने घर आ जाते हैं।)
सूत्रधार—सेठ हेमदत्त चिंतित अवस्था में अपने घर आ जाते हैं और दरवाजे बन्द कर अपने छहों पुत्रों को बुलाकर जब सारी बात बताते हैं तो सभी एकदम से बुद्धिसेन को घर से निकाल देने की बात कहते हैं जिससे कि यह विपदा टल सके। अनेक ऊहापोह के बाद सेठजी जब इस बात के लिये राजी हो जाते हैं तब बहू को कोसते हुए कागज पर बुद्धिसेन के लिये कुछ लिखना चाहते हैं पर पुत्रमोह में जब नहीं लिख पाते हैं तब धनदत्त कागज कलम लेकर आदेश लिख देता है और धाय को बुलाकर बाहर बैठा देता है। बुद्धिसेन के आने पर धाय उसे वह कागज दे देती है। सीधा-सादा बुद्धिसेन उस आदेश को पाकर स्तब्ध हो जाता है किन्तु उसे अपने पापकर्म का उदय समझकर दु:खी मन से वहाँ से चल पड़ता है। उधर बुद्धिसेन के न आने पर जब माता चिंतित होकर पूछती है तब उसे सारी बात बता दी जाती है जिसे सुनकर वह बार-बार रोती और बेहोश हो जाती है। तब सेठ हेमदत्त उसे सान्त्वना देते हैं और जैसे-तैसे सेठ और उनके छहों पुत्र मिलकर उन्हें संभाल लेते हैं। सभी पुत्र भी कभी-कभी दोनों को याद कर रोने लगते हैं किन्तु कर्मों की विचित्र गति को जानते हुए सभी स्वयं को समझा लेते हैं। उधर बुद्धिसेन पैदल चलते-चलते, जगह-जगह पूछते-पूछते आखिर में हस्तिनापुर के बाहर बगीचे में पहुँच जाते हैं। अपने मान-अपमान, विवाह आदि की स्मृति करते हुए वहीं बगीचे में ही सो जाते हैं। सुबह मालिन जब बगीचे में आती है तो सोते हुए सेठजी के जंवाई को देखकर आश्चर्यचकित रह जाती है और सेठजी को सूचित करती है।)
पाँचवां दृश्य
(मालिन सेठजी के घर पर पहुँचकर)
मालिन—सेठजी! प्रणाम! आपके जंवाई साहब आपके बगीचे में पधार गये हैं, आप जल्दी जाइये।
सेठजी—(आश्चर्य से) क्या, बुद्धिसेन जी आये हैं ?
मालिन—जी सरकार, वे ही हैं।
सेठजी—(चिंतित होकर) ओह! इस संसार में लक्ष्मी का कोई भरोसा नहीं है। जरूर कोई संकट आया होगा, कुछ भी हो उन्हें जल्दी से घर लाना है। (सेठजी बगीचे में जाकर बुद्धिसेन को जगाकर बड़े प्रेम से उसे घर ले आते हैं और महिलाओं को कड़ी सूचना कर देते हैं कि कोई भी इनसे आने का कारण न पूछें। लेकिन दिनभर महिलाओं में कानाफूसी चलती रहती है वे आपसमें वार्ता करती हैं।)
पहली महिला—बहन! यदि अपने में से कोई पूछेगा तो सेठजी बहुत क्रोधित होंगे। अत: मनोवती को इनके पास भेज दो वही कारण समझ लेगी और सेठजी भी नाराज नहीं होंगे।
दूसरी महिला—हाँ, आपने बहुत अच्छा उपाय सोचा। चलो चलकर अपनी सेठानी को तो मना लें। (महिलायें जाकर सेठानी जी को मना लेती हैं और रात्रि में मनोवती को उनके पास भेज देती हैं। तब मनोवती वहाँ जाकर संकोच छोड़कर हाथ जोड़कर पूछती है।)
मनोवती—प्राणनाथ! आज अकस्मात् आपका शुभागमन कैसे हुआ ? कृपया मुझे बताकर मन हल्का करें।
बुद्धिसेन—प्रिये! कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। चूँकि घर में छहों भाई कुशल व्यापारी हो चुके हैं अत: उन्हें शायद मेरी जरूरत नहीं है। इसी कारण से पिता ने मुझे देश से निकाल दिया। जो भी कारण हो मुझे खुद स्पष्ट नहीं मालूम। (दु:खी हो जाते हैं।) (मनोवती पति के निर्वासन का समाचार सुनकर अत्यन्त दु:खी होती है और कुछ क्षण स्तब्ध रह जाती है, पुन: साहस करके कहती है।)
मनोवती—स्वामी! अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं कुछ निवेदन करूँ ? (बुद्धिसेन सिर हिलाते हैं तब मनोवती कहती है) स्वामी! आप पुरुष हैं आपको किस बात की चिंता, पुरुषार्थ के बल पर मनुष्य बड़े-बड़े कार्य कर सकता है। आप बिल्कुल निश्चिन्त होकर सुखद भविष्य का निर्माण कीजिये।
बुद्धिसेन—यही तो मैंने भी सोच रखा है। यहाँ तो मैं तुम्हें सूचना देने मात्र आया हूँ। तुम यहीं सुख से रहो मैं दूसरे देश में जाकर धन कमाकर वापस आकर तुम्हें ले जाऊँगा। (इतना सुनकर मनोवती दु:खी हो जाती है और पति की ओर देखते हुए कहती है।)
मनोवती—यह आप क्या कह रहे हैं ? आप यहीं रहिये और मेरे पिता की सम्पत्ति में से कुछ धन लेकर व्यापार शुरू कीजिये।
बुद्धिसेन—नहीं प्रिये! यह कदापि संभव नहीं है। मैं ससुराल में रहकर अपने माता-पिता को लजाना नहीं चाहता। इसलिये मैं यहाँ किसी भी हालत में नहीं रह सकता। (मनोवती के बार-बार समझाने पर भी जब बुद्धिसेन रुकने को तैयार नहीं होते हैं तब वह कहती है।)
मनोवती—स्वामी! यदि आपका यही निर्णय है तो मैं आपके साथ ही चलूँगी।
बुद्धिसेन—(समझाते हुए) देखो! मैं तुम्हें इधर-उधर लेकर कहाँ फिरूँगा ? फिर तुम भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी के कष्ट कैसे सहन कर पाओगी ? त्तुम यहीं रहो, मैं शीघ्र ही आ जाऊँगा।
मनोवती—और आप कैसे सहन करेंगे ?
बुद्धिसेन—महिलाओं और पुरुषों में अन्तर है, तुम अपना विचार बदल दो और मेरे प्रस्थान में विघ्न मत बनो।
मनोवती—स्वामिन्! कभी-कभी महिलायें पुरुषों की अपेक्षा संकटों को और अच्छी तरह झेल लेती हैं। मैंने दिगम्बर मुनि के पास रहकर सभी विद्याएँ सीख ली हैं। मैं भी सती सीता के समान आपके साथ चलूँगी। मैं अपना विचार बिल्कुल भी नहीं बदल सकती।
(सूत्रधार—जब बुद्धिसेन मनोवती को ले जाने को तैयार नहीं होते, तब वह अपघात करने की बात कहती है और घबराकर रोने लगती है तब बुद्धिसेन उसे ले जाने को तैयार हो जाते हैं और कहते हैं कि आप सभी आभूषणों का त्याग कर मेरे साथ चल सकती हैं। मनोवती तत्क्षण् ही सारे आभूषण उतार देती है और एकमात्र सौभाग्य का चिन्ह मंगलसूत्र पहनकर अर्धरात्रि में खिड़की के रास्ते पति के साथ णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए चल देती है। दोनों सुकुमार दम्पत्ति नंगे पैर कंकड़-पत्थर की परवाह न करते हुए जा रहे हैं। मार्ग में उन्हें देखकर अनेक लोग आश्चर्य करते हुए अनेक प्रश्न भी करते हैं पर दोनों मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाते हैं। बगैर खाए-पिए चलते-चलते उन्हें तीन दिन और तीन रात्रि बीत जाते हैं आखिरकार चौथे दिन दोनों रतनपुर के सुन्दर बगीचे में पहुँचते हैं और वहीं ठहर जाते हैं। तब बुद्धिसेन मनोवती के धैर्य की प्रशंसा करते हैं। मनोवती उनके पैर दबाने लगती है और थके हुए बुद्धिसेन सो जाते हैं। मनोवती पास के सरोवर में स्नान करके उलझे केश सुलझाती है, तभी केश में उलझा एक बेशकीमती रत्न उसके हाथ में आ जाता है, तब तक बुद्धिसेन भी आ जाते हैं। तब मनोवती उन्हें सारी बात बताकर वह नग गिरवी रखकर भोजन की सामग्री लाने का आग्रह करती है। बुद्धिसेन उसे लेकर जाते हैं और शीघ्र ही भोजन-सामग्री लाते हैं। मनोवति पति को भोजन कराकर व्यापार के सिलसिले में पति को शहर भेज देती है और स्वयं का भोजन भूखों को देकर स्वयं णमोकार मंत्र का जाप्य करती है। पति के वापस आने पर उसके मुरझाये हुए चेहरे के बारे में पूछने पर भी न बताकर वह प्रसन्नता का अभिनय करती है। धीरे-धीरे सात दिन बीत जाते हैं, मनोवती की स्थिति गम्भीर है तब वह भगवान का स्मरण करती है।)
मनोवती—(हाथ जोड़कर) हे भगवन्! आपके सिवाय मेरा अब यहाँ कोई रक्षक नहीं है। मेरे भाग्य ने ही मेरे पति को घर से निकाल दिया और मेरी प्रतिज्ञा अब भी मेरे पति को संकट में डाल सकती है पर कुछ भी हो मैं अपनी प्रतिज्ञा को भंग नहीं कर सकती। हे नाथ! मैं जब तक भगवान के सम्मुख गजमोती नहीं चढ़ाऊँगी तब तक भोजन नहीं करूँगी। अब आप ही मेरे लिये शरणभूत हैं। आपकी भक्ति से तो बड़े-बड़े विघ्न दूर हो जाते हैं तब भला मेरी प्रतिज्ञा क्यों नहीं पूरी होगी ? क्या मेरे हृदय में सच्ची भक्ति नहीं है ? (प्रार्थना करते-करते मनोवती ध्यान में कुछ क्षण एकाग्र हो जाती है, तभी उसका पैर एकदम धंसने लगता है। वह आश्चर्यचकित हो देखती है तो वहाँ एक शिला है जो सरक रही है वह धीरे से शिला उठाती है और उसे सीढ़ियाँ दिखती हैं जिससे वह नीचे उतर जाती है तब वह क्या देखती है ?)
मनोवती—(आश्चर्य से) अहा! यह विशाल जिनमंदिर! चारों तरफ रत्नों की जगमगाहट। (जोर-जोर से णमोकार महामंत्र पढ़ती है। पुन:) ऐसा मंदिर मैंने आज तक नहीं देखा ? कैसी सुन्दर रत्नमयी जिनेन्द्र प्रतिमा है, सिंहासन, चामर, छत्र आदि दिव्य विभूति, चलूँ, स्नान करके पूजन कर लूँ। (पुन: एक ओर देखकर) अरे वाह! गजमोतियों का ढेर। (अत्यन्त खुश होकर स्नान आदि कर भगवान का अभिषेक पूजन करती है और मनमाने गजमोती चढ़ाकर स्वयं को धन्य समझती है, कि आज मुझे स्त्रीपर्याय से छूटने का सर्वोत्तम कारण सम्यग्दर्शन महारत्न मिल गया है। पुन: वापस आते समय उसे दो मोती दिखाई देते है जिन्हें वह उठाकर शिला के ऊपर आ जाती है और शिला ढक देती है। कुछ क्षण पति की प्रतीक्षा करती है और उनके आने पर भोजन का सामान मंगवाकर भोजन बनाकर पति को खिलाती है पुन: स्वयं खाती है।)
सूत्रधार—बन्धुओं! सचमुच धन्य है यह प्रतिज्ञा और धन्य है वह दृढ़ता, धन्य है ऐसा धैर्य और साहस, जिसकी प्रतिज्ञापूर्ति के लिये देवता भी कटिबद्ध हो गये और अर्धनिमिष में जिनमंदिर बना दिया। सचमुच यह मनोवती कन्या धन्य है। (मनोवती भोजन के पश्चात् पति से व्यापार आदि के सिलसिले में जानकारी लेती है और उन्हें निराश देखकर समझाती हुई कहती है।)
मनोवती—(पति को एक मोती देते हुए) स्वामी! अब आप उठिये, चिन्ता छोड़िये और जहाँ आपने नग गिरवी रखा है उनसे एक मुहर लेकर राजदरबार में जाइये। यदि द्वारपाल रोके तो उसे वह मुहर दे दीजिये और राजा को भेंटरूप में यह मोती दे दीजिये, फिर देखिये! भाग्य कैसे पलटा खाता है।
(सूत्रधार—बुद्धिसेन मनोवती के कहे अनुसार मोती लेकर राजदरबार में जाकर उन्हें भेंट करता है। राजा उस मोती को बार-बार देखते हैं और आश्चर्य से पूछते हैं।)
राजदरबार का दृश्य
बुद्धिसेन—(दरबार में पहुँचकर महाराज को प्रणाम करके) हे महाराजाधिराज! आपको मेरा प्रणाम हो!
राजा—कहिए महानुभाव! आप कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? आपका शुभ नाम क्या है ? आपके साथ कौन-कौन हैं और आप कहाँ ठहरे हैं ?
बुद्धिसेन—मेरा नाम बुद्धिसेन है महाराज! मैं बल्लभपुर के प्रख्यात जौहरी हेमदत्त सेठ का पुत्र हूँ। मेरी धर्मपत्नी मेरे साथ है और मैं शहर के बाहर मकरकेतु नाम के बगीचे में ठहरा हुआ हूँ। राजन! मैं आपके लिए भेंट स्वरूप यह मोती लाया हूँ। कृपया इसे स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत कीजिए।
राजा—(मोती को लेकर देखते हैं और कहते हैं) ओह! ऐसा दिव्य मोती तो मेरे राजकोश में कहीं भी नहीं है। पुन: बुद्धिसेन से) हे श्रेष्ठवर! आपकी यह भेंट हमें स्वीकार है, आइए आसन ग्रहण कीजिए। (पुन: मंत्री से) मंत्री जी! खजांची साहब को बुलवाइए।
मंत्री—जो आज्ञा राजन्! (सेवक को खजांची को बुलाने का आदेश देते हैं, सेवक खजांची को बुलाकर लाता है और राजा के आदेश से उन्हें उत्तम-उत्तम वस्त्राभूषण आदि देता है पुन: राजा कहते हैं।)
राजा—मंत्री जी! आप स्वयं जाकर शहर के भीतर उत्तर दिशा वाली सबसे बड़ी हवेली खुलवाकर वहाँ इनके आवास आदि की पूर्ण व्यवस्था कीजिये। (पुन: दूसरे मंत्री से) हे मंत्रिन्! आप जरा रत्नपारखी पुष्पराज जी को तो बुलवाइये।
मंत्री—जो आज्ञा महाराज। (तत्काल ही रत्नपारखी आते हैं और मोती की जाँचकर आश्चर्य से कहते हैं।)
पुष्पराज—हे राजन्! इतना बढ़िया मोती इस पृथ्वीलोक पर मिलना कठिन है। यह दिव्य मोती है और अमूल्य है।
राजा—फिर भी इसका कुछ मूल्य तो होगा ?
पुष्पराज—राजन्! अगर कीमत ही आंकनी है तो यह पचास करोड़ मोहरों से कम नहीं है।
(सूत्रधार—राजा आश्चर्यचकित हो भण्डारी को वह मोती सुरक्षित रखने के लिये देते हैं और भण्डारी उसे तिजोरी में रख देता है। उधर बुद्धिसेन जाकर मनोवती को सारा समाचार सुनाते हैं। चूँकि मंत्री स्वयं साथ में थे अत: बुद्धिसेन पत्नी को लेकर शहर की हवेली में आ जाते हैं। प्रात: मनोवती दोनों ही मोती अपने पास देखती है और उसका रहस्य समझ जाती है। वह पुन: एक मोती राजा को भेंट करने के लिये देती है किन्तु जब राजा पहला मोती मांगते हैं तब वह उसके न मिलने से दंग रह जाते हैं। राजा भण्डारी पर क्रोधित होकर उसे मृत्युदण्ड की आज्ञा देते हैं तब बुद्धिकुमार राजा को समझाकर उसकी जोड़ी का मोती लाने का आश्वासन देते हैं। उस समय सारे दरबारी बुद्धिसेन की प्रशंसा करते हैं। वापस आकर बुद्धिसेन मनोवती से सारी बात बताते हैं तब मनोवती उन नर-मादा मोती की कहानी और अपनी प्रतिज्ञा आदि का सारा वृतान्त सुना देती है जिसे सुनकर बुद्धिसेन आश्चर्यचकित होकर अपने भाग्य को धन्य मानते हैं। आधी रात्रि में वह मोती पुन: मनोवती के पास आ जाता है। प्रात: जब बुद्धिसेन मोती लेकर दरबार में राजा को भेंट करते हैं तब राजा भण्डारी को बुलाकर मोती लाने को कहते हैं किन्तु डिब्बा खाली देख क्रोध से आगबबूला हो जाते हैं तब राजा को सम्बोधित कर बुद्धिसेन कहते हैं।)
बुद्धिसेन—राजाधिराज! आप नाराज मत हों और इन मोतियों का रहस्य देखिये। यह नर-मादा मोती हैं, एक साथ ही रहते हैं। चूँकि मैं एक ही मोती लाता था अत: वह उड़कर दूसरे के पास चला जाता था इसमें आपके भण्डारी का कोई दोष नहीं है, यह इस मोती का स्वभाव है। (दूसरा मोती देकर) लीजिये महाराज! यह मादा मोती है। अब ये दोनों ही आपके यहाँ रहेंगे।
राजा—(अत्यधिक प्रसन्न होकर सोचते हैं) यह उत्तम कुल में उत्पन्न बुद्धिमान, पुण्यवान जीव है, क्यों न मैं अपनी कन्या गुणवती इसे दे दूँ। (पुन: प्रत्यक्ष में) हे कुमार! मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूँ और अपनी गुणवती कन्या से आपका विवाह करना चाहता हूँ, कृपया उसे स्वीकार कर हमें कृतार्थ करें।
(सूत्रधार—बुद्धिसेन सिर झुकाकर मौन स्वीकृति देते हैं और राजा ज्योतिषी को बुलाकर शुभ मुहूर्त में उनका विवाह सुनिश्चित कर देते हैं। बुद्धिसेन घर आकर मनोवती को सभी बात बताते हैं। बैसाख सुदी तीज के शुभ दिन बुद्धिसेन का विवाह राजकन्या गुणवती से हो जाता है और राजा उसे चौथाई राज्य दे देते हैं। अब बुद्धिसेन जौहरी पुत्र नहीं अपितु राजा हो गये। सर्वत्र उसी की चर्चा है। बुद्धिसेन विवाह के बाद राजसुख में ऐसा लीन हुए कि वह मनोवती के पास जाना ही भूल गये और जब उन्हें याद आया तो वह मिलने के लिये पहुँच जाते हैं।)
—मनोवती की हवेली का दृश्य—
मनोवती—(कटाक्ष करके) अरे स्वामी! आप तो राज-जमाई हो गये फिर भला आज इधर कैसे आ गये ? कोई विशेष कारण ?
बुद्धिसेन—(शर्मिन्दा होकर सोचते हैं) ओह! मैंने बहुत बड़ी गलती की है। (मौन रहते हैं।)
मनोवती—(पुन:) स्वामिन्! वे बातें को सर्वथा भूल जाने की हैं कि आपको आपके पिता ने घर से निकाल दिया, आप हस्तिनापुर आये, मैंने हठपूर्वक आपका साथ दिया। हाँ! आप अब राज्यवैभव में इतना डूब गये कि आपको मेरी याद ही नहीं आई, खैर आज आपको मेरी याद कैसे आ गयी ? (एक क्षण रुककर पुन:) देखिए स्वामी! ऐसी कोई बात नहीं है। अगर आप मुझे भुला दें तो आपको कोई हानि नहीं किन्तु इसी तरह राज्यसुख में जिनधर्म को कभी न भूल जाना जिसके प्रसाद से यह वैभव मिला है।
बुद्धिसेन—(अपराध स्वीकार करते हुए सिर नीचा कर) प्रिये! मुझसे यद्यपि बहुत बड़ा अपराध हुआ है फिर भी आपका हृदय विशाल है, आप एक बार मुझे क्षमा कर दें और जो भी आदेश दें मैं करने के लिये तैयार हूँ।
मनोवती—(शांत होकर, विनम्र शब्दों में) स्वामी! आपने धर्म का प्रत्यक्ष फल देखा है अत: मेरी इच्छा है कि आप एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाइये।
बुद्धिसेन—(प्रसन्न होकर) आपने बहुत ही उत्तम बात सोची। मैं शीघ्र ही ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवाकर कार्य प्रारम्भ करवाता हूँ। अच्छा, अब और आदेश करें।
मनोवती—(हँसकर) मैंने तो जो कहना था कह दिया, अब आप ही सुनाइये।
(सूत्रधार—इस प्रकार मधुर वार्तालाप करते हुए रात्रि बीत जाती है। प्रात:काल बुद्धिसेन राजदरबार में पहुँचकर महाराज से जिनमंदिर बनवाने की इच्छा व्यक्त करते हैं और स्वीकृति पाते ही शिलान्यास विधिपूर्वक कार्य प्रारम्भ हो जाता है। अच्छे-अच्छे कारीगर उसे बनाने में लगे हैं। इस मंदिर की चर्चा दूर-दूर तक है, तमाम मजदूर काम पर चले आ रहे हैं। और बन्धुओं! अब हम ले चलते हैं आपको वहाँ, जहाँ से निकाले जाने पर बुद्धिसेन आज यहाँ पहुँचे। ही जाँ, वल्लभपुर। किन्तु दैव की लीला बड़ी ही विचित्र है। सारे परिवारीजन निर्धन हो चुके हैं और देखिये वह भी भीख माँगते-माँगते रतनपुर पहुँच गये हैं। सचमुच उनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी है। भीख माँगते-माँगते उन्हें पता चलता है कि यहाँ का राजा मंदिर बनवा रहा है और वहीं पहुँच जाते हैं। उस समय सुखपाल नाम के जौहरी उसके चेहरे को देख उच्चकुलीन और संकटग्रस्त जानकर उन्हें मजदूरी दिलवाने साथ ले जाते हैं अत: उन्हें मजदूरी मिल जाती है। जौहरी राजा और मंत्री के पास पहुँचते हैं।)
जौहरी सुखपाल कुमार—प्रणाम राजन्!
बुद्धिसेन—अरे जौहरी जी! कहिये आपने किस कारण से मेरा स्थान पवित्र किया ?
जौहरी—श्रीमानजी! ये कुछ परदेसी लोग हैं, बेचारे बड़े दु:खी हैं। कृपया आप इन्हें भी अपने यहाँ नौकरी पर रख लें।
बुद्धिसेन—(उन्हें हाथ जोड़े देख आश्चर्य से अपलक देखते हुए) ओह! ये मेरे माता-पिता और भैय्या-भाभी! ये ऐसी अवस्था में कैसे आ गये ? आखिर क्या हुआ ? इनकी छप्पन करोड़ दीनारें कहाँ गयीं ? और यह मुझे पहचान भी नहीं रहे हैं। (पुन: सेठजी से) ठीक है सेठजी! आप निश्चिन्त होकर जाइये। इन सबका काम हो जायेगा। (जौहरी के जाने के बाद) तुम लोग बैठो! अभी दो घण्टे में हम तुम्हें काम पर लगा देंगे।
(सूत्रधार—बुद्धिसेन वहाँ से जल्दी से उठकर आकर मनोवती को सारी बात बताते हैं, पुन: एक बार उन सब पर क्रोधित भी हो जाते हैं किन्तु मनोवती के समझाने पर शान्त हो जाते हैं। जब मनोवती उन्हें मिलन हेतु कहती है तब एक बार सबक सिखाने और मजदूरी करवाने की इच्छा से बुद्धिसेन उन्हें मनोवती के लाख समझाने पर भी मजदूरी पर लगा देते हैं। पुन: मनोवती के बार-बार कहने पर वृद्ध माता-पिता को कार्य पर न लगाकर वैसे ही वेतन दिलवा देते हैं। भाई-भाभी से कड़ी मेहनत करवाते हैं। मनोवती प्रबन्धक को बुलाकर सारी स्थिति समझकर उसे समझाकर उनसे हल्के-फुल्के काम करवाती है और परिवारीजनों को मजदूरी पर लगे देखकर मन ही मन दु:खी हो बुद्धिसेन को सासू माँ को अपने यहाँ रखने पर राजी कर लेती है। हेमश्री महल में आ जाती है किन्तु मनोवती उससे काम न लेकर बड़े प्रेम से बोलती है और भोजन करवाकर स्वयं की असलियत न प्रगट करते हुए उनके हाल-चाल पता करती है तथा उन सबके लिये उत्तम-उत्तम पकवान आदि भिजवाती है। पकवान आदि देखकर जब सेठ हेमदत्त व पुत्र-पुत्रवधू आदि सब पूछते हैं तब सारी बात बता देती है। जिसे सुनकर सब लोग प्रसन्न हो जाते हैं किन्तु बेचारे सेठजी अपने पुराने दिन, अपनी पुत्रवधु और बेटे को याद करके रोने लगते हैं। उन्हें रोता देखकर कारण जान एक बार तो सभी दु:खी हो जाते हैं पुन: कर्मों की लीला समझ शान्त हो जाते हैं। मनोवती प्रतिदिन सभी के लिये उत्तम-उत्तम पकवान भेज देती है और कोई जान भी नहीं पाता। एक दिन मनोवती अम्माजी से कहती है।)
अगला दृश्य
(महल का दृश्य, मनोवती बैठी है और कह रही है।)
मनोवती—अम्माजी! आओ, जरा मेरे केश तो देखो और चोटी कर दो।
हेमश्री—अरी बहूरानी! आप करोड़पति की बहू और मैं दरिद्र। मेरी तो आपके पास आने की हिम्मत ही नहीं हो रही।
मनोवती—(सजल नेत्रों से सोचते हुए) अहो! इस चंचला लक्ष्मी को धिक्कार हो। यह सचमुच मेरी सास हैं और मैं इनकी बहू। किन्तु दरिद्र अवस्था के कारण मेरे पास आने मे सकुचा रही हैं। (पुन: कहती हैै) कोई बात नहीं, चिन्ता मत करो, आओ… आओ। क्यों संकोच करती हो ? (हेमश्री कांपते हाथों से उसकी चोटी खोलती है और उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है फिर वह अपने को सम्भाल नहीं पाती और सिसक-सिसक कर रो पड़ती है, तब मनोवती कहती है।)
मनोवती—ऐं! यह क्या ? अम्मा जी! तुम रोने लगीं, क्या हुआ ? (बार-बार सान्त्वना देने पर हेमश्री कहती है।)
हेमश्री—रानी साहिबा! यदि मैं एक बात कहूँ तो मेरी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा। सब उसे झूठ समझेंगे।
मनोवती—नहीं, नहीं! ऐसी बात नहीं है। कहो, क्या कहना चाहती हो। चिन्ता मत करो, और जो भी बात हो कहो। (तब हेमश्री बुद्धिसेन की शादी से लेकर अब तक की सारी घटना सुना देती है और उसकी प्रतिज्ञा आदि के बारे में बताकर बहू-बेटे को यादकर रो पड़ती है, पुन: कहती है।)
हेमश्री—रानी जी! आपके केश खोलते ही आपके सिर में एक चिन्ह देखकर मुझे मेरी बहू की याद आ गयी। (यद्यपि मनोवती द्रवित हो उठती है, किन्तु मन की बात छिपाकर बनावटी क्रोध से कहती है।)
मनोवती—(क्रोध से) अब क्या हमें तू अपनी बहू बना रही है ? अरी चमेली! इधर आ।
दासी चमेली—(दौड़कर आती है) हाँ जी, आ गयी! क्या आज्ञा है महारानी जी ?
मनोवती—तू इस वृद्धा को महल से बाहर कर दे।
दासी चमेली—जैसी आपकी आज्ञा।
(सूत्रधार—दासी हेमश्री को बाहर निकाल देती है। हेमश्री बहुत परेशान है कि यह मुझसे क्या हो गया ? अब मैं पति और पुत्रों को क्या जवाब दूँगी ? पुन: घर जाकर जब सारा वृतान्त उन्हें सुनाती है तब सभी क्रोधित हो जाते हैं और बेटे-बहू तो उसे मारपीट कर घर से निकाल देते हैं। बेचारी अपने छोटे बेटे-बहू को याद करती हुई घर के बाहर पड़ी है। हेमदत्त के समझाने पर भी वह माँ को अन्दर नहीं लाते हैं। तब सेठजी घर से निकलना चाहते हैं, किन्तु पुत्र धरसेन के पकड़ लेने पर रुक जाते हैं और छोटे पुत्र को याद करते-करते रोते रहते हैं। उधर जब मनोवती को अपनी विश्वसनीय दासी द्वारा सेठ हेमदत्त व हेमश्री आदि का सारा वृत्तान्त पता चलता है तो वह बुद्धिसेन से बार-बार आग्रह करती है किन्तु जब वह नहीं मानते तब क्रोधित हो राजा को यह बात बताने के लिये तैयार हो जाती है तो बुद्धिसेन सोच में पड़ जाते हैं। पुन: सेवकों को कुछ रात्रि होने पर उन्हें बुलाने के लिये भेजते हैं, परन्तु यह खबर पाकर सबके होश उड़ जाते हैं कि अब हमें न जाने क्या सजा मिलेगी ? पुत्र धरसेन जाकर माँ को भी ढूँढ लाता है। एक बार तो सारे पुन: माँ पर क्रोधित हो जाते हैं परन्तु सेठ हेमदत्त के समझाने पर शान्त होकर महल में पहुँच जाते हैं। महल के फाटक बन्द हो जाते हैं, तब सब काँप उठते हैं और राजा बुद्धिसेन और महारानी मनोवती के पास येन-केन-प्रकारेण पहुँच जाते हैं। तब बुद्धिसेन आगे बढ़कर कहते हैं।)
बुद्धिसेन—(आसन से खड़े होकर हाथ जोड़कर) हे पूज्य पिता! (चरणों में गिर जाते हैं, मनोवती भी हेमश्री के चरणों में पड़ जाती है।)
सेठ हेमदत्त—अरे, अरे! यह क्या ? मैं एक मजदूर हूँ और आप राजा (कहते-कहते काँपते हुए हाथों से उन्हें उठाता है)।
बुद्धिसेन—पिताजी! मैं आपका वही पुत्र हूँ जिसे आपने घर से निकाल दिया था।
सेठ हेमदत्त—(गले लगाकर जोर-जोर से रोते हुए) अरे पुत्र! तू मुझे छोड़कर कहाँ चला गया था। बेटा! मैंने तुझे निकालकर बहुत ही दु:ख दिया है जिसके फलस्वरूप हम सबने असंख्य दु:ख झेले हैं।।
(सूत्रधार—बुद्धिसेन माता के चरण स्पर्श करते हैं, माता भी जोर-जोर से रो पड़ती है। पुन: बारी-बारी से सारे भाइयों के चरण स्पर्श करते हुए गले मिलते हैं और भाभियों को प्रणाम करते हैं। मनोवती सास-श्वसुर, जेठ-जेठानी सभी के चरण स्पर्श करती है। सभी मनोवती को गले लगाकर रोती हैं।) (यहाँ यह दृश्य दिखावें।) (बुद्धिसेन सबको लेकर मखमल के गद्दे पर बैठ जाते हैं तब बुद्धिसेन पूछते हैं।)
बुद्धिसेन—पूज्य पिताजी! आपको अपना देश छोड़े हुए कितने दिन हुए हैं ? आप यहाँ इस दशा में कैसे ?
सेठ हेमदत्त—बेटा! मेरा किसी जन्म का पुण्य तेरे पास ले आया। नहीं तो तुझे निकालकर जो पाप हमने कमाया था वह जीवन भर भोगने पर भी नहीं छूटता।
सेठानी—(मनोवती को चिपकाकर) बेटी मनोवती! तेरे वियोग में हमने न जाने क्या-क्या संकट झेले हैं।
(सूत्रधार—सेठ हेमदत्ता अपनी पूरी करुण कथा सुनाते हैं कि किस तरह लक्ष्मी उनसे रूठी ओर उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं। तब बुद्धिसेन उनसे मजदूरी करवाने के लिये क्षमायाचना करते हुए मनोवती की प्रशंसा करते हैं कि इसी के समझाने से ही आज हमारा मिलन हुआ है। पुन: पिता के पूछने पर अपनी बल्लभपुर से निकलने के बाद आज तक की सारी दु:ख-सुख मिश्रित कथा सुनाते हैं। सभी मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा की प्रशंसा करते हैं। पुन: बुद्धिसेन कहते हैं।)
बुद्धिसेन—(मनोवती से) प्रिये! भण्डारी से कहकर भण्डार खुलवाओ और सभी को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करो।
मनोवती—जी स्वामी! (उठकर व्यवस्था में लग जाती है।)
बुद्धिसेन—पिताजी! आज सब लोग वस्त्र परिवर्तित कर रथ में बैठकर बल्लभपुर के मार्ग में जाकर ठहरिये। जब राजा को अपने समधी के आने की बात पता लगेगी तब महोत्सव के साथ आपका स्वागत करेंगे। सेठ हेमदत्त—ठीक है पुत्र।
(सूत्रधार—सभी सुन्दर-सुन्दर वस्त्रादि पहनकर विश्वस्त लोगों के साथ रथ, पालकी आदि में बैठकर सात मील दूर एक बगीचे में ठहर जाते हैं। मध्यान्ह में राजा को सूचना मिलने पर वे उन सबका भव्य स्वागत करते हैं। सभी सुखपूर्वक हवेलियों में रहते हुए सुख-ऐश्वर्य का उपभोग कर रहे हैं। पंचकल्याणक की तैयारियाँ जोरों पर चल रही हैं। चूँकि बुद्धिसेन राजा की दो रानियाँ हैं अत: लोग सोच रहे हैं कि कौन-सी रानी शची इन्द्राणी बनेगी। तब बुद्धिसेन युक्ति से गुणवती रानी को समझा लेते हैं और मनोवती को यह सौभाग्य प्रदान करते हैं। धूमधाम से पंचकल्याणक सम्पन्न हो रही है। सर्वत्र इसी की चर्चा है। यह खबर बल्लभपुर नरेश के पास भी पहुँचती है। महाराज मरुदत्त के पास आकर बल्लभपुर के सारे जौहरी जब बुद्धिसेन और मनोवती के विवाह, दर्शन प्रतिज्ञा आदि की सम्पूर्ण कथा सुनाते हैं तब राजा को सहसा विश्वास नहीं होता। पुन: जब वह कहते हैं कि स्वयं सेठ हेमदत्त वही हैं तब राजा को बहुत पश्चाताप होता है कि मेरे कठोर आदेश के कारण ही सेठ हेमदत्त के परिवार को इतने दु:ख उठाने पड़े। अत: शीघ्र ही मंत्रियों को बुद्धिसेन को सपरिवार लाने के लिये भेजते हैं।)
अगला दृश्य
रतनपुर में राजा बुद्धिसेन के महल का दृश्य-(बल्लभपुर के मंत्री आदि रतनपुर पहुँचते हैं, वहाँ कुमार उनका स्वागत-सत्कार आदि करके यथोचित आसन देते हैं।)
मंत्री—कुमार! अब आप अपनी जन्मभूमि बल्लभपुर को पवित्र कीजिये। महाराज आपको विशेष याद कर रहे हैं।
बुद्धिसेन—(मुस्कुराकर) मंत्री महोदय! अब बल्लभपुर को हमारी क्या आवश्यकता है ? देखिये! मेरा चलना असम्भव लग रहा है। महाराज यशोधर मुझे नहीं छोड़ेंगे। महाराज से मेरा हाथ जोड़कर नम्र निवेदन है कि हम एक बार उनसे मिलने अवश्य आयेंगे, किन्तु वहाँ रहना…।
मंत्री—(बीच में) बुद्धिसेन कुमार! आप बुद्धिमान हैं। इस विषय पर आप गहराई से सोचें। अगर हम अकेले गये तो महाराज अन्न-जल त्याग देंगे।
बुद्धिसेन—ठीक है मंत्रिवर! मैं विचार कर बताता हूँ (चले जाते हैं)। (बुद्धिसेन सीधे महल में पहुँचकर मनोवती को सारी स्थिति बताते हैं तब मनोवती कहती है।)
मनोवती—स्वामी! अब आपके लिये बल्लभपुर चलना ही उचित है।
बुद्धिसेन—प्रिये! मैं तो नहीं जा सकता। हाँ, पिताजी-माताजी आदि जाते हैं तो उन्हें नहीं रोकूगा। मनोवती(समझाते हुए) स्वामी! अब आपका यहाँ रुकना कदापि उचित नहीं है। यहाँ सब आपको राजजमाई के रूप में जानते हैं, अत: अपने देश में चलकर अपने पिता का नाम चलाना चाहिये।
बुद्धिसेन—(सोचते हुए) बिल्कुल सच कहा। हमारा बल्लभपुर जाना ही उचित है। आपने उचित सलाह दी है। मैं पिताजी से मिलकर सारी स्थिति बताकर राजा से आज्ञा लेता हूँ।
(सूत्रधार—बुद्धिसेन पिता से सलाह करके दरबार में जाकर महाराज को सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराकर बहुत से द्रव्य, हाथी, घोड़े आदि वैभव सहित सपरिवार सबसे विदा लेते हुए वहाँ से चल पड़ते हैं। राजा दु:खी मन से उन सभी को विदा करते हैं। बल्लभपुर के निकट बगीचे में पहुँचकर सभी लोग वहीं ठहर जाते हैं। राजा को जब यह समाचार मिलता है तो पूरे नगर सहित उन सबके स्वागत में जाते हैं और उन्हें वापस लाते हैं।)
-बगीचे का दृश्य-
महाराज मरुदत्त—(दु:खी हृदय से) सेठ हेमदत्त! मेरे निमित्त से तुम सबको महान संकटों का सामना करना पड़ा। अब मेरे सब अपराध क्षमा करो। कुमार बुद्धिसेन! मेरे निमित्त से ही तुम्हें देश निर्वासन मिला, तुम भी मुझे क्षमा करो।
बुद्धिसेन—(हाथ जोड़कर) महाराज! इसमें आपका क्या दोष ? मेरे ही संचित कर्मों का फल मैंने भोगा है।
सेठ हेमदत्त—महाराज! मैंने उस समय पहले असत्य भाषण कर अपराध किया। पुन: निरपराधी पुत्र को निकाला यह मेरा दूसरा अपराध था। पुन: दर्शनप्रतिज्ञा की निन्दा की यह तीसरा अपराध था। जो भी हो, इसी बहू की प्रतिज्ञा के कारण ही अब हम पहले से भी अच्छी स्थिति में हैं।
राजा मरुदत्त—(पुत्रीवत् स्नेहकर मनोवती से) बेटी! तू धन्य है। तेरा जीवन धन्य है और तेरी धर्म की श्रद्धा धन्य है। तूने साक्षात् धर्म का चमत्कार हमें दिखला दिया है। (इस प्रकार सभी बल्लभपुर में प्रवेश करते हैं और सुखपूर्वक रहने लग जाते हैं। सर्वत्र मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा की ही चर्चा हो रही है।)
नगर का दृश्य
(स्थानीय नर-नारी आपस में चर्चा कर रहे हैं।)
पहला व्यक्ति—भाई! देखो तो सही। इस मनोवती ने पूर्वजन्म में कितना पुण्य किया होगा जो कि इसे इस जन्म में इतना वैभव और यश मिला।
दूसरा व्यक्ति—नहीं भाई! इसने अपनी दर्शनप्रतिज्ञा के बल से इतना वैभव पाया है और जिनमंदिर बनवाकर तो मानो इसने अपनी संसार परम्परा को ही समाप्त कर लिया।
पहली स्त्री—भइया! हमें भी अवश्य ही कुछ-न-कुछ नियम लेना चाहिये।
दूसरी स्त्री—हाँ बहन! मैंने तो नियम लिया है कि प्रतिदिन श्रीजी के चरणों में श्रीफल चढ़ाकर ही भोजन करूँगी।
तीसरी स्त्री—बहन! तुमने क्या नियम लिया है ?
पहली स्त्री—मैं तो प्रतिदिन मुनि को आहारदान देकर ही भोजन करूँगी और तुमने ?
तीसरी स्त्री—मैंने तो प्रतिदिन आम, अंगूर आदि फलों से पूजा करने का नियम लिया है।
(सूत्रधार—इस प्रकार सभी कोई न कोई नियम लेते हैं। मेरे प्यारे भाईयों और बहनों! इसी हस्तिनापुर की पवित्र धरा पर जन्मी थी वह मनोवती, जिसकी दर्शनप्रतिज्ञा ने देवों का भी सिंहासन हिला दिया और धर्म का चमत्कार दिखला दिया। जब प्रत्यक्ष में ही प्रतिज्ञा का फल अतिशय रूप में दिखाई दे रहा है तब तो हम सभी को दृढ़ श्रद्धापूर्वक जिनेन्द्र भगवान के दर्शन की प्रतिज्ञा लेकर अपना संसार अल्प कर लेना चाहिये।)