एक पंडित मरण (ज्ञानपूर्वक मरण) सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है। अत: इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाए। एकं पण्डितमरणं, प्रतिपद्यते सुपुरुष: असम्भ्रान्त:। क्षिप्रं स मरणानां, करिष्यति अन्तम् अनन्तानाम्।।
असम्भ्रान्त (निर्भय) सत्पुरुष एक पण्डित मरण को प्राप्त होता है और शीघ्र ही अनन्त मरण का बार—बार के मरण का अन्त कर देता है। मिथ्यादर्शनरक्ता: सनिदाना:, कृष्णलेश्यामवगाढा:। इति ये म्रियन्ते जीवास्तेषां, दुर्लभा भवेद् बोधि:।।
इस संसार में जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदानपूर्वक तथा प्रगाढ़ कृष्ण लेश्या सहित मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि—लाभ दुर्लभ है। सम्यग्दर्शनरक्ता: अनिदाना:, शुक्ललेश्यामवगाढ़ा। इति मे म्रियन्ते जीवास्तेषां, सुलभा भवेद् बोधि:।।
जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर निदानरहित तथा शुक्ल लेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है। आराधनाया: कार्ये, परिकर्म सर्वदा अति कर्त्तव्यम्। परिकर्मभावितस्य खलु, सुखसाध्या आराधना भवति।।
(इसलिए मरणकाल में रत्नत्रय की सिद्धि या सम्प्राप्ति के अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह) पहले से ही निरन्तर परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि का अनुष्ठान या आराधना करता रहे, क्योंकि परिकर्म या अभ्यास करते रहने वाले की आराधना सुखपूर्वक होती है। आउक्खयेण मरणं।
मरण आयुष्य (कर्म) के क्षय से हुआ करता है।