-आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागर जी महाराज ( समाधिस्थ )
वर्ण और जातियों की प्राचीनता के संबंध में न जाने क्यों जब-तब शंकाएँ उठायी जाती रही हैं ? बिना सोचे-समझे इस व्यवस्था को कोसा जाता रहा है और आज भी आलोचना की जा रही है, किन्तु यदि पूर्वाग्रह रहित होकर गंभीरतापूर्वक अध्ययन-मनन करें तो परिणाम कुछ भिन्न निकलता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि भगवान आदिनाथ ने छद्मस्थ होते हुए भी गृहस्थावस्था में तीन वर्णों-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की स्थापना की और चक्रवर्ती भरत ने भी गृहस्थावस्था में ही ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की, सो ठीक है। अब यदि विचार करें तो यह लक्ष्य में आए बिना रहेगा नहीं कि आदिनाथ और भरत से पूर्व तो कोई अन्य दर्शन व धर्म नहीं था, जिसका प्रभाव इन महापुरुषों पर पड़ा हो और उस आधार पर इन्होंने वर्णों की स्थापना की हो। पुन: यह भी कथन आता है कि कुलकर और नाभिराजा व मरुदेवी आदि क्षत्रिय वर्ण के थे। क्या इस कथन से यह ज्ञात नहीं होता कि वर्ण तो पहले से विद्यमान थे परन्तु व्यक्त नहीं थे। इन्होंने वर्णों को व्यक्त किया। पुनश्च, क्षत्रिय वर्ण में जो विशेष प्रभावशाली व्यक्ति हुए उन्होंने भिन्न-भिन्न वंशों-इक्ष्वाकु, सूर्य, हरि, यादव आदि का निर्माण सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए किया, वह व्यवस्था सुचारुरीत्या आज भी चली आ रही है। इसी तरह वैश्यादि वर्णो में भी विशिष्ट प्रभावक व्यक्तियों ने सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए जातियों का निर्माण किया, जो आज भी चल रहा है परन्तु आगम में इस संबंध में उल्लेख देखने में नहीं आता तथापि सामाजिक व्यवस्था ठीक बनाए रखने की आवश्यकता तो उन्हें भी थी। आज सब मर्यादाओं का लोप हो रहा है। ऐसी जानकारी भी मिली है कि वर्तमान सरकार विधवा-विवाह और विजातीय-अंतरजातीय विवाहों के लिए जनता को प्रोत्साहन प्रलोभन दे रही है कि जो इन बंधनों को छोड़कर आगे आएगा उसे अच्छी नौकरी व पदोन्नति दी जावेगी। यह कोई नई बात नहीं है। बादशाही जमाने में भी कई लोगों ने ऐसे ही प्रलोभनों में फसकर अपनी बहन-बेटियों के संबंध बादशाही जाति में (खानदान में) किये थे तथापि मर्यादावादी भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण रूप से कायम रही और आगे भी रहेगी। एक बात और ध्यान में रख लेना चाहिए कि इस हुण्डावसर्पिणी पंचमकाल में विधवा और विजातीय विवाहों से उत्पन्न हुई सन्तानों से जो जातियाँ बढ़ेंगी, उनका प्रलयकाल के अन्त में अवश्य विनाश होगा। बचेंगे वे ही जो सन्तानक्रम से अप्रकट रूप से शुद्ध चले आ रहे होंगे। वे ही विजयार्ध की गुफाओं में कुछ तो स्वयं चले जावेंगे और कुछ की रक्षा करते हुए देव ले जावेंगे क्योंकि सज्जातित्व में जो गुण होते हैं वे संकरता से उत्पन्न हुए जीवों में नहीं होते, अत: यह निश्चित समझिए कि जैसे-जैसे सज्जाति संगठन की परम्परा ढीली पड़ेगी त्यों-त्यों धार्मिक संस्कार और विचारों का भी अभाव होगा, जो आज प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। उपर्युक्त विषय के संबंध में वर्तमान में समाज के कुछ श्रीमान् गृहस्थाचार्य और धर्माचार्य भी परम्परागत लौकिक और पारलौकिक परिणति रूप मर्यादाओं को रूढ़िवाद का फतवा देकर समाज की श्रेष्ठता का घात कर उसे चतुर्थ वर्णी बनाने में लगे हैं किन्तु उन्हें यह ध्रुव सत्य जान लेना चाहिए कि उत्पत्ति रूप उच्चता का अभाव नहीं होगा। किसी काल में व्यक्तता-अव्यक्तता तो हो सकती है। यह कोई रूढ़िमात्र नहीं है, अनादि संस्कारों से पनपती हुई संस्कृति है। समाज के इन तथाकथित सुधारकों के संबंध में भी विशेष कुछ नहीं कहना कारण जिनकी स्वयं की ऐसी उत्पत्ति है तथा जो स्वयं ऐसे वातावरण व संगति में पले हैं वे वैसा ही प्रचार कर अपनी संख्या बढ़ाने का प्रयत्न तो करेंगे ही, पर आज भी दृष्टि फैला कर देखें तो मर्यादा में निष्ठा रखने वाले चतुर्वर्णों के लोग परम्परागत भारतीय संस्कृति का दृढ़ता से श्रद्धापूर्वक अनुसरण कर रहे हैं, कुछ ही ऐसे हैं जो स्वयं नष्ट-भ्रष्ट होकर दूसरों को भी अपने समान बनाने में लगे हैं। जिस प्रकार चूहों की रक्षा का कानून बिल्ली के द्वारा नहीं बनाया जा सकता, उसी प्रकार समाज व धर्म की उपेक्षा व उल्लंघन करने वालों के द्वारा मर्यादा व संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती। इस विषय में ‘ला रिपोर्ट’ पृष्ठ २६१ पर एक फैसले में प्रीवी कौंसिल का निर्णय स्पष्ट है, यह एक मंदिर व जाति से ही संम्बद्ध है। वादी ने प्रतिवादी बेला पर जिसकी माँ क्रिश्चियन थी और पिता पारसी था और जिसका पालन-पोषण पारसी वातावरण में हुआ था, इस अाशय का केस दायर किया कि बेला को पारसी मंदिर में आने से रोका जाए। यद्यपि बेला ने इस पर दलील दी कि मैं पारसी धर्म मानती हूँ और मेरा पिता पारसी था, लोअर कोर्ट और प्रीवी कौंसिल ने यह कहते हुए मंदिर में आने से रोक दिया कि वह जन्म से पारसी नहीं है। यदि उसको आने दिया जाता है तो ट्रस्टियों के लिए नियत नियमों का उल्लंघन होता है। आज भी भारत में सामाजिक व धार्मिक मर्यादाएँ बराबर बनी हुई हैं। अधिकांश लोग उन्हीं का अनुसरण कर रहे हैं किन्तु सुधारवाद के नाम पर कुछ लोग उन्हें तोड़ने और तुड़वाने में अग्रसर हो रहे हैं । इस विषय में यह उक्ति चरितार्थ हो रही है होत भले के सुत बुरो, बुरो भले के होय। दीपक के काजल प्रकट, कमल कीच में होय।।जिन समाजों को धरेजा-नाता आदि की प्रथा के कारण हीन कहा जाता है वे तो उसमें सुधार कर मर्यादानिष्ठ बन रहे हैं और हम मर्यादा का उल्लंघन कर और दूसरों से करवा कर अपने समाज को पतन के गर्त में गिराने में लगे हैं। क्या मर्यादा की रक्षा करना हमारा कर्तव्य नहीं है ? ‘सर्वार्थसिद्धि’ में पूज्यपादाचार्य ने आर्य पांच प्रकार के कहे हैं-क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य, जाति आर्य, दर्शन आर्य और चारित्र आर्य। इससे भी यह सिद्ध होता है कि जाति पूज्यपादाचार्य से पहले भी थी। सोमदेव सूरि ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों को रत्नों की भांति जन्म से ही विशुद्ध माना तथा इनको ही जैनेश्वरी दीक्षा का पात्र या अधिकारी बताया। शूद्रों को उन्होंने आगमोक्त अपने पद के अनुकूल, आत्मकल्याण के लिए धर्मसाधना करने का अधिकारी माना है। अब रही कि उन्होंने आहार देने के योग्य चारों वर्णों के मनुष्यों (स्त्री-पुरुषों) को कहा है अर्थात् मानसिक, वाचिक, कायिकरूप से धर्मसाधन कर पुण्यसंचय करने के लिए सभी समान हैं। इस विषय में विचार करने की आवश्यकता है कि जो दीक्षा का अधिकारी नहीं वह आहारदान का अधिकारी कैसे हो सकता है ? इधर सोमदेवसूरि के वचनों को भी गलत नहीं कह सकते, उनके अभिप्राय पर चिन्तन करने की आवश्यकता है। जैसे शूद्र और त्रैवर्णिक रजस्वला स्त्री आहार के समय सम्मुख न आकर भी मन में आहारदान की अनुमोदना कर महान पुण्य संचय करते हैं तथा त्रैवर्णिक हीनांगी और विकलांगी स्त्री-पुरुष मन-वचन के माध्यम से अनुमोदना कर व सहयोग देकर ही महान पुण्याधिकारी बनते हैं, उपर्युक्त बाधाओं से रहित त्रैवर्णिक स्त्री-पुरुष ही साक्षात् अपने कर से आहार देकर संसार छेद का कारण सातिशय पुण्य अर्जन करते हैं, इस प्रकार आहारदान के प्रसंग में कोई मन से, कोई मन-वचन से तथा कोई मन-वचन-काय के द्वारा पुण्य संचय करने के अधिकारी हैं, सब अपनी-अपनी योग्यतानुसार कार्य करते हैं और करने भी चाहिए, यही आगमोक्त विधान है परन्तु वास्तविक तथ्य को जानते व देखते हुए भी जो खींचातानी के माध्यम से आर्षमार्ग को विकृत करना चाहते हैं और कर रहे हैं, यह उनका अनुचित कृत्य है और उनकी अधमता का द्योतक है। मर्यादा की रक्षा करने में ही सबका हित है।