—गीता छंद—
तीर्थंकरों के समवसृति में जो महर्षी तिष्ठते।
वे सात भेदों में रहें निज मुक्तिकांता प्रीति तें।।
केवलि, विपुलमति, अवधिज्ञानी, पूर्वधर ऋषिवर वहाँ।
विक्रियधरा शिक्षक व वादी मैं उन्हें वंदूं यहाँ।।
(१)
—दोहा—
समवसरण में ऋषभ के, ऋषि चौरासि हजार।
नमूँ नमूँ मैं भक्ति से, नमत खुले शिव द्वार।।
चाल-बंदों दिगम्बर गुरुचरण……
पुरुदेव के मुनि केवली हैं बीस सहस प्रमाण।
इन भक्ति नौका जो चढ़ें वे लहें पद निर्वाण।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर१।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१।।
मुनि विपुलमति बारह सहस अरु, सात शतक पचास।
ये मन:पर्यय ज्ञान से नित, करें भुवन प्रकाश।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२।।
पुरुदेव के ऋषि अवधिज्ञानी, नौ हजार प्रमाण।
इन वंदते भव व्याधि का हो, शीघ्र ही अवसान१।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।३।।
श्री ऋषभ जिनके पूर्वधर, सब पूर्व ज्ञानी ख्यात।
उन कही संख्या चार सहस सु सात सौ पच्चास।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।४।।
विक्रियाधारक मुनि वहाँ छह शतक बीस हजार।
वे भव्यजन को तृप्त करते तरणतारणहार।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।५।।
श्रीऋषभ के शिक्षक मुनी इक शतक चार हजार।
पुनरपि पचास गिने गये, इनसे खुले शिव द्वार।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।६।।
वादी मुनी बारह सहस अरु सात शतक पचास।
ये वाद करने में कुशल नित करें धर्म प्रकाश।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।७।।
(२)
—दोहा—
अजितनाथ के पास में, एक लाख ऋषि संत।
वंदूं भक्ती भाव से, निज सुख सुधा पिबंत।।
चाल-बंदो दिगम्बर गुरुचरण……
मुनि केवली श्री अजित के सब कहें बीस हजार।
मैं सप्त परमस्थान हेतू नमूँ शत शत बार।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।८।।
मुनि विपुलमति मनपर्ययी, करते जगत उद्योत।
बारह हजार सु चार सौ, पच्चास शिवसुख स्रोत।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।९।।
मुनि अवधिज्ञानी नव सहस अरु चार सौ विख्यात।
सर्वावधी धारें महामुनि मैं नमूँ नत माथ।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१०।।
श्री अजित जिनके समवसृति में पूर्वधर मुनि ख्यात।
वे तीन सहस व सात सौ पच्चास हैं कुशलात।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।११।।
मुनि विक्रियाधर चार सौ अरु कहे बीस हजार।
वे आत्मरस अमृत पियें करते स्वपर उपकार।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१२।।
शिक्षक मुनी इक्किस सहस छह सौ जगत् सुखकार।
निज साम्यरस पीयूष पीते, नाथ भक्ति अपार।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१३।।
निज समय ज्ञानी पर समय के वाद में विख्यात।
बाहर हजार सु चार सौ उन वंदते सुखसात।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१४।।
(३)
—दोहा—
संभव जिनके पास में, ऋषि रहते दो लाख।
गुरूभक्ति से नित्य मैं, नमूँ जोड़ जुग हाथ।।
चाल-बंदौ दिगम्बर गुरुचरण……
ऋषि केवली पंद्रह सहस रहते समवसृति मध्य।
उनको नमूँ वे भक्तगण को दे रहें सुख नव्य।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१५।।
मुनि विपुलमति मनपर्ययी नरलोक सब जानंत।
बारह हजार सु एक सौ पच्चास गुणमणिवंत।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१६।।
मुनि अवधिज्ञानी नौ सहस छह सौ कहें जगमान्य।
उनके नमन से भव्यजन भी बनें सुर नर मान्य।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१७।।
संभव जिनेश्वर समवसृति में, पूर्वधर मुनिनाथ।
इक्कीस शतक पचास हैं, मैं नमूँ नाय सुमाथ।।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१८।।
विक्रिय धरें मुनि आठ सौ माने उनीस हजार।
जो वंदते गुरु चरण उनको मिले सौख्य हजार।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।१९।।
इक लाख उनतिस सहस शिक्षक तीन सौ परिमाण।
नित भव्यजन को देय शिक्षा करें भवि कल्याण।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२०।।
वादी मुनी बारह सहस निज पर समय का ज्ञान।
परवादियों का मानमर्दन करें समकितवान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२१।।
(४)
—दोहा—
अभिनंदन जिनके यहाँ, तीन लाख ऋषिवृंद।
धर्ममूर्ति जिनरूप को, नमूँ हरो जग फंद।।
चाल-बंदो दिगम्बर गुरुचरण……
ऋषिकेवली वहँ राजते सोलह हजार प्रमाण।
उन वंदना से भव्यजन करते स्व पर पहिचान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२२।।
मुनि विपुलमति राजे वहाँ मनपर्ययी गुणखान।
इक्कीस सहस सु छह शतक पच्चास सब सुखदान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२३।।
मुनि अवधिज्ञानी नव हजार सु आठ सौ गुणखान।
उन ज्ञान में सब मूर्त वस्तू दिख रही अमलान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२४।।
तीर्थेश अभिनंदन समवसृति में ऋषीगण मान्य।
मुनि पूर्वधर पच्चीस सौ संपूर्ण श्रुत की खान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२५।।
वहाँ विक्रियाऋद्धी मुनी उन्नीस सहस महान्।
वे भक्तगण के रोग शोक विपत्ति हरण प्रधान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२६।।
शिक्षक मुनी दो लाख तीस हजार और पचास।
जो करें वर्णरसादि विरहित स्वात्मतत्त्व विकास।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२७।।
वादी मुनी इक सहस माने वाद में परवीण।
जो सर्वजन की आधि व्याधी करें क्षण में क्षीण।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, मिले भवदधि तीर।।२८।।
(५)
—दोहा—
सुमतिनाथ के पास में, तीन लाख ऋषिराज।
बीस हजार कहें सभी, नमूं सरें सब काज।।
—राग भरतरी-दोहा—
केवलि ऋषि तेरह सहस, मुनि परिषद् निवसंत।
उनके ज्ञानादर्श में, लोक अलोक झलकंत।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।२९।।
विपुलमती दश सहस हैं, चार शतक मुनिराज।
चार ज्ञानधारी गुरू, देवें निज साम्राज।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३०।।
अवधिज्ञानि ग्यारह सहस, मूर्तिक सब जानंत।
समवसरण में नाथ के, आतम ध्यान धरंत।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३१।।
सुमतिनाथ के पास में, रत्नत्रय आधार।
पूर्वधारि चौबीस सौ, वंदूं सुखदातार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३२।।
अठरह हजार चार सौ, विक्रियधारी साधु।
वर्ण गंध रस स्पर्श से, शून्य स्वात्मरस स्वादु।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३३।।
दोय लाख चौवन सहस, तीन शतक पच्चास।
शिक्षक मुनि गुणनिधि भरें, वंदूं मन उल्लास।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३४।।
परवादी को जीतने, कुशल विजेता ईश।
दश हजार अरु चार सौ, कहे पचास मुनीश।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३५।।
(६)
—दोहा—
पद्मप्रभू जिननाथ के, समवसरण में साधु।
तीन लाख मानें तथा, तीस हजार अबाधु।।
—राग भरतरी-दोहा—
केवलज्ञानी मानिये, बारह सहस प्रमाण।
पूजत स्वातम निधि मिले, शत शत करूँ प्रणाम।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३६।।
विपुलमती मुनि दस सहस, तीन शतक सुखखान।
जो पूजें उन भक्त के, भरते सर्व निधान।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३७।।
अवधिज्ञानि मुनिव्रत सहित, मानें दश हज्जार।
यथाजात मुद्रा धरें, नमत भक्त भव पार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३८।।
पद्मप्रभू के पूर्वधर, त्रय शत दोय हजार।
श्रुतकेवलि ये पूज्यवर, नमत मिले श्रुतसार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३९।।
पद्मप्रभू की सभा में, विक्रियमुनि भवि सूर्य।
सोलह हजार आठ सौ नमत मिले गुणपूर्य।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४०।।
शिक्षक मुनि दो लाख अरु, उनहत्तर हज्जार।
चतुर्गती दुख से करें, भव्यों का उद्धार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४१।।
वादी मुनिगण नव सहस, छह सौ गुणमणिधार।
जजत मिटे चहुंगति भ्रमण, मिले मोक्ष का द्वार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४२।।
(७)
-दोहा-
श्री सुपार्श्व की सभा में, तीन लाख ऋषिवृंद।
जिनमुद्राधारी गुरू, सुरनर किन्नर वंद्य।।
—राग भरतरी-दोहा—
केवलज्ञानी ऋषि वहां, ग्यारह सहस प्रमाण।
उनके केवलज्ञान में प्रतििंबबित जग जान।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४३।।
विपुलमती मुनि नव सहस, एक शतक पच्चास।
अद्भुत शशि करते सतत, भवि मन कुमुद विकास।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४४।।
अवधिज्ञानि मुनिराज हैं, नव हजार परिमाण।
नमत भव्य शिवपथ लहें, करें सर्व कल्याण।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४५।।
श्री सुपार्श्व जिन पास में, दो हजार अरु तीस।
पूर्वधारि मुनि सर्वश्रुत, पारंगत मुनि ईश।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४६।।
दश हजार त्रेपन शतक, विक्रिय ऋद्धि मुनीश।
भवदधि नौका भक्ति उन, नमूं नमाकर शीश।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४७।।
शिक्षक मुनि दो लाख अरु, चव्वालीस हजार।
नौ सौ बीस बखानिये, नमत करुँ भव पार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४८।।
वादी मुनि छह सौ कहे पुनरपि आठ हजार।
चिन्मय चिंतामणि पुरुष, करें हमें भव पार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४९।।
(८)
—दोहा—
चंद्रप्रभू की सभा में, दोय लाख ऋषिवृंद।
तथा पचास हजार भी, नमत हरे भवफंद।।
—राग भरतरी-दोहा—
केवलज्ञानी ऋषि वहां, अठरह सहस बसंत।
जो उनकी भक्ती करें, परमानंद धरंत।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५०।।
आठ सहस मुनि विपुलमति, ज्ञान धरें अभिराम।
नमत ही चिंता टले, मिले स्वात्म विश्राम।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५१।।
अवधिज्ञानि हैं दो सहस, स्वपर विकासन सूर्य।
भवभव संचित अघ सकल, नमत हुये चकचूर।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५२।।
चंदाप्रभु जिनराज के, समवसरण में पूज्य।
पूर्वधारि मुनि हैं वहाँ, चार सहस जग पूज्य।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५३।।
विक्रियधारी छह शतक, करें कर्म चकचूर।
उनकी भक्ती जो करें, करें मृत्यु को दूर।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५४।।
दोय लाख अरु दस सहस, चार शतक मुनिराज।
शिक्षक माने हैं वहां, नमत मिले निजराज।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५५।
वादी मुनि जिन पास में, मानें सात हजार।
वंदत ही निजपद मिले, भरें सौख्य भण्डार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५६।।
(९)
—दोहा—
श्रीपुष्पदंत जिनराज के, समवसरण में सर्व।
दोय लाख ऋषिगण कहें, नमूँ हरूँ दुख सर्व।।
—भुजंगप्रयात छंद—
ऋषी केवली सब पछत्तर शतक जे।
उन्हीं ज्ञान में सर्व त्रैलोक्य झलके।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।५७।।
मुनी सात हज्जार अरु पाँच सौ हैं।
नमूँ मैं विपुलमति ज्ञानी गुरू हैं।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।५८।।
मुनीश्री अवधिज्ञानि चौरासि सौ हैं।
उन्हें वंदते सर्व व्याधी नशे हैं।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।५९।।
प्रभू पुष्पदंतेश की जो सभा है।
वहां पूर्वधारी सु पंद्रह शतक हैं।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६०।।
धरें विक्रिया साधु तेरह हजारा।
नमूँ मैं मिले भव समुद्री किनारा।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६१।।
मुनी एक लक्षा सु पचपन हजारा।
कहे पाँच सौ साधु शिक्षक प्रकारा।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६२।।
सुवादी मुनी छै सहस छै शतक हैं।
उन्हें शीश नाते सभी सौख्य हो हैं।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६३।।
(१०)
—दोहा—
श्री शीतल जिनराज के, समवसरण में वंद्य।
एक लाख ऋषिगण कहे, नमूँ नमूँ सुखकंद।।
-भुजंगप्रयात छंद-
वहाँ केवली सात हज्जार राजें।
सभी लोक आलोक क्षण में प्रकाशें।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६४।।
मुनीश्वर विपुलमति पछत्तर शतक हैं।
सभी इंद्र वंदें भजें भक्तिवश हैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६५।।
अवधिज्ञानि साधू बहत्तर शतक हैं।
नमें जो सभी रोग बाधा हरे हैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६६।।
ऋषी पूर्वधर शीतलेश्वर सभा मेंं।
सु चौदह शतक शीश नाऊँ उन्हें मैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६७।।
सुविक्रिय धरें साधु बारह हजारा।
नमें पाद पंकज लहें भव किनारा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६८।।
सु शिक्षक सु उनसठ सहस दो शतक हैं।
सदा इंद्र धरणेन्द्र चक्री नमें हैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६९।।
सुवादी मुनीश्वर सतावन शतक हैं।
सभी लोक में वंद्य अतिशय धरे हैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७०।।
(११)
—दोहा—
श्री श्रेयांस जिनराज के, समवसरण में साधु।
चौरासी हज्जार मुनि, नमत मिटे भव व्याधि।।
—भुजंगप्रयात छंद—
ऋषी केवली हैं सु पैंसठ शतक ही।
चतु: घातकर्मारि जेता बनें ही।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७१।।
विपुलमति मन:पर्ययी जो मुनी हैं।
कहे छै हजारा महागुण धनी हैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७२।।
अवधिज्ञानि साधू कहे छै हजारा।
क्षमा आदि से ये लहें भव किनारा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७३।।
कहे पूर्वधर साधु श्रेयांस प्रभु के।
सु तेरह शतक जीत मुद्रा धरें हैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७४।।
ऋषी विक्रियाधारि ग्यारह हजारा।
यथाजात मुद्रा महाशील धारा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७५।।
सुशिक्षक मुनी अष्ट चालिस सहस्रा।
द्विशत ये कहे हैं महाव्रत धरित्रा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७६।।
कहे वादकर्ता मुनी पण सहस्रा।
दिगम्बर मुनी ये धरें ध्यान शस्त्रा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७७।।
(१२)
—दोहा—
वासुपूज्य जिननाथ के, समवसरण में वंद्य।
बाहत्तर हज्जार मुनि, नमत हरूँ जगद्वंद।।
—भुजंगप्रयात छंद—
ऋषी केवली हैं वहाँ छै हजारा।
इन्होंने स्वयं पा लिया भव किनारा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७८।।
विपुलमति मुनी छै सहस मान्य जग में।
नमूँ मैं उन्हें सर्व आपद हरें वे।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७९।।
अवधिज्ञानि मुनि पाँच हज्जार चउ सौ।
सभी मूल उत्तर गुणों से सजें जो।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।८०।।
प्रभू वासुपूज्येश की जो सभा है।
वहाँ पूर्वधर इक सहस दो शतक हैं।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।८१।।
कहें विक्रियाधारि हैं दस सहस्रा।
सदा शील संयम गुणों से पवित्रा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।८२।।
मुनी एक कम होके चालिस हजारा।
पुन: दो शतक ये हि शिक्षक प्रकारा।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।८३।।
ऋषी वादि व्यालीस सौ शास्त्र माने।
नमूँ मैं उन्हें स्वात्म संपत्ति पाने।।
नमूँ भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।८४।।
(१३)
—दोहा—
विमलनाथ की सभा में, ऋषि अड़सट्ठ हजार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।
—स्रग्विणी छंद—
केवली साधु पचपन शतक मान्य हैं।
वंदते ही लहें भेद विज्ञान हैं।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।८५।।
जो विपुलमति मन:पर्ययी साधु हैं।
पाँच हज्जार पण सौ निजी स्वादु हैं।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।८६।।
अष्टचालिस शतक साधु अवधी धरें।
तीन ही ज्ञान से मोह तम परिहरें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।८७।।
श्री विमलनाथ के पूर्वधर साधु जो।
मैं नमूं नित्य ग्यारह शतक मान्य वो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।८८।।
विक्रियाधारि नौ सहस साधू कहे।
ये सदा स्वात्म के ध्यान में लीन हैं।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।८९।।
साधु अड़तीस हज्जार औ पाँच सौ।
नाम शिक्षक धरें पूजहूँ भाव सो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९०।।
साधु छत्तीस सौ वाद को जीतते।
जो नमें वो स्वयं मृत्यु को जीतते।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९१।।
(१४)
—दोहा—
श्री अनंत जिनराज के, ऋषि छ्यासष्ट हजार।
नग्न दिगम्बर रूपधर, नमूँ नमूूूूँ शत बार।।
—स्रग्विणी छंद—
केवली साधु हैं, पाँच हज्जार जो।
चार घाती हने सौख्य भंडार वो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९२।।
पाँच हज्जार विपुलामतीधर मुनी।
चार ज्ञानी इन्हीं से बनूँ मैं गुणी।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९३।।
अवधिज्ञानी तितालीस सौ जानिये।
मार्दवादी गुणों से भरे मानिये।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९४।।
श्री अनंतेशजी के समोशर्ण में।
पूर्वधर एक हज्जार वंदूं उन्हें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९५।।
आठ हज्जार हैं विक्रियाधर मुनी।
ये सभी मूल उत्तर गुणों के धनी।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९६।।
ऊन चालिस सहस पाँच सौ मुनिवरा।
नाम शिक्षक धरें नित नमूं गुण भरा।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९७।।
वादि बत्तीस सौ शास्त्र ज्ञानी महा।
धर्म दशविध धरें नित नमूं मैं यहाँ।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९८।।
(१५)
—-दोहा—
धर्मनाथ के पास में, ऋषि चौंसट्ठ हजार।
धर्म दशों विध पूर्ण हित, नमूं भक्ति उरधार।।
—स्रग्विणी छंद—
चार हज्जार औ पाँच सौ केवली।
मृत्यु को भी हरे भक्ति ये एकली।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९९।।
चार हज्जार पण सौ विपुलमति मुनी।
वंदते ही लहूँ स्वात्म संपत् घनी।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१००।।
साधु छत्तीस सौ ज्ञान अवधी धरें।
शुद्ध चारित्र से स्वात्म सिद्धी करें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०१।।
पूर्वधर नौ शतक धर्म तीर्थेश के।
पूजते ही लहें सौख्य निर्वाण के।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०२।।
विक्रियाधर मुनी सात हज्जार हैं।
जो नमें वो बने ऋद्धि भरतार हैं।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०३।।
साधु चालीस हज्जार औ सात सौ।
नाम शिक्षक धरें नित नमूं चाव सो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०४।।
वाद जेता मुनी दो सहस आठ सौ।
नग्न मुद्रा धरें नित नमूँ ठाठ सो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०५।।
(१६)
—दोहा—
समवसरण में शांति के, ऋषिगण सर्वप्रधान।
सब बासठ सु हजार हैं, नमूँ नमूँ गुणखान।।
—स्रग्विणी छंद—
केवली चार हज्जार तिष्ठें वहाँ।
वंदते प्राप्त हो ऋद्धि सिद्धी यहाँ।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०६।।
चार हज्जार विपुलामती ज्ञानि हैं।
चार गति दु:ख से कर रहे त्राण हैं।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०७।।
तीन हज्जार हैं ज्ञान अवधी धरें।
जो नमें वे स्वयं स्वात्म पुष्टी करें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०८।।
शांति तीर्थेश के पूर्वधर आठ सौ।
चौदहों पूर्वधारी नमूं भक्ति सो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०९।।
विक्रियाधारि छै सहस साधू कहे।
रत्नत्रय को धरें आत्मशुद्धी लहें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।११०।।
एकतालीस हज्जार औ आठ सौ।
साधु शिक्षक उन्हें मैं नमूं भाव सो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१११।।
वादि चौबीस सौ साधु राजें वहाँ।
भव्य भी वंदते पाप नाशें यहाँ।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।११२।।
(१७)
—दोहा—
कुंथुनाथ के पास में, साठ हजार मुनीश।
मन वच तन से नित्य ही, नमूँ नमाकर शीश।।
—राग-टप्पा—
केवलज्ञानी प्रभु बत्तिस सौ, घाति कर्म से रहिये।
गुण आनंत चतुष्टय सहिते, वंदत ही गुण भरिये।।११३।।
गुरुदेव! दया करिये, श्रीचरणों में रख लीजिये।।गुरु.।।टेक.।।
कुंथुनाथ जिन समवसरण में, महाव्रत गुणमणि भरिये।
विपुलमती मुनि तेतिस सौ सु पचास सर्व दुख हरिये।
तुम पद पंकज सेवत भविजन मुक्तिरमा को वरिये।।गुरु.।।११४।।
अवधिज्ञानि मुनिवर पचीस सौ, नग्न रूप गुण भरिये।
रोग शोक दुख दारिद नाशें, वंदत ही सुख भरिये।।गुरु.।।११५।।
पूर्वधारि मुनि सात शतक हैं, वंदत ही दुख हरिये।
गुरुदेव! दया करिये, श्री चरणों में रख लीजिये।।गुरु.।।११६।।
विक्रियधारी इक्यावन सौ, दश धर्मों से सहिये।
उनके चरण कमल को वंदत, रोग शोक दुख हरिये।।गुरु.।।११७।।
तेतालीस हजार एक सौ, पचास शिक्षक कहिये।
उनके पद पंकज को वंदत, भव भव दु:ख को दहिये।।गुरु.।।११८।।
वादी मुनिगण दो हजार हैं, उन पद वंदन करिये।
जन्म मरण के दु:ख नाश कर, निज आतम निधि भरिये।।गुरु.।।११९।।
(१८)
—दोहा—
अरहनाथ की सभा में, साधु पचास हजार।
नग्न दिगम्बर वे यती, करें जगत उद्धार।।
—राग टप्पा—
मिले समरस का झरना, गुरुदेव चरण को वंदते।।मिले.।।टेक.।।
केवलज्ञानी अट्ठाइस सौ, घातिकर्म क्षय करना।
अव्याबाध सौख्य गुणपूरित, वंदत ही भव हरना।।मिले.।।१२०।।
विपुलमती मुनि दोय हजार सु पचपन निजसुख भरना।
जो वंदें सो शिवकांता लें, वंदत ही दुख हरना।।मिले.।।१२१।।
अवधिज्ञानि मुनि अट्ठाइस सौ, सर्व जगत दुख हरना।
नमते ही निज संपत् मिलती, चहुँगति भय परिहरना।।मिले.।।१२२।।
अरहनाथ के समवसरण में, मुनिगण हैं जग शरना।
पूर्वधारि छह सौ दस मानें, वंदत ही भव हरना।।मिले.।।१२३।।
विक्रियधारी तेतालिस सौ, सर्व सौख्य अनुसरना।
जो वंदें सो निजपद पावें, पुनर्जनम नहिं धरना।।मिले.।।१२४।।
पैंतिस सहस आठ सौ पैंतिस, शिक्षक मुनि सुख भरना।
सुर नर किन्नर गुण को गाते, नित वंदत गुरु चरना।।मिले.।।१२५।।
वादी मुनि सोलह सौ मानें, सात भयों के हरना।
मैं नित वंदूं भक्ति भाव से, हो भवदधि से तरना।।मिले.।।१२६।।
(१९)
—दोहा—
मल्लिनाथ जिनराज के, ऋषि चालीस हजार।
वंदूँ मन वच काय से, शीघ्र लहूँ भव पार।।
—राग-टप्पा—
मुनिराज शरण लीजे, तुम पद पंकज मैं नमूं।।मुनिराज.।।टेक.।।
केवलज्ञानी प्रभु बाइस सौ, उनमें जग दीपे।
चार चतुष्टय लक्ष्मी के वर, वंदत सुख सीझे।।मुनि.।।१२७।।
विपुलमती मुनि सत्रह सौ पच्चास वहाँ दीखें।
सर्व मूलगुण उत्तर गुण के मूर्तिरूप दीखें।।मुनि.।।१२८।।
अवधिज्ञानि मुनि बाइस सौ हैं, मोह शत्रु जीतें।
रुचि से वंदत पाप नशावो गुण कीर्तन कीजे।।मुनि.।।१२९।।
मल्लिनाथ के समवसरण में, मुनिगण बहु दीखें।
पूर्वधारि पण सौ पचास हैं, कर्म अरी जीतें।।मुनि.।।१३०।।
विक्रियधारी मुनि उनतिस सौ समरस में भीजे।
पंच महाव्रत समिति गुप्ति के स्वामी सुख कीजे।।मुनि.।।१३१।।
शिक्षक मुनि उनतिस हजार हैं, निज सुखरस पीते।
जो भविजन उनको नित वंदें, उनके दुख छीजें।।मुनि.।।१३२।।
वादी मुनि चौदह सौ उनका नित वंदन कीजे।
नवनिधि सुख संपति संतति की नित वृद्धी कीजे।।मुनि.।।१३३।।
(२०)
—दोहा—
मुनिसुव्रत जिननाथ के, ऋषिगण तीस हजार।
मुनिव्रत मेरे पूर्ण हों, नमूँ नमूँ शत बार।।
—राग-टप्पा—
हों मुझको सुखकारी, श्री नग्न दिगम्बर साधु जी।हों.।।टेक.।।
केवलज्ञानी प्रभु अठरह सौ, घाति करम हारी।
त्रिभुवन जन से पूजित भगवन्, भवदुख परिहारी।।हो.।।१३४।।
विपुलमती मुनि पंद्रह सौ हैं, त्रिभुवन मनहारी।
रोग शोक दुख संकट नाशें, वंदत्ा सुखकारी।।हों.।।१३५।।
अवधिज्ञानि गुरु अठरह सौ हैं, निज गुण भंडारी।
क्षायिक समकित रत्न धरें वो, वंदूं रुचिधारी।।हों.।।१३६।।
मुनिसुव्रत के समवसरण में मुनिपद के धारी।
पूर्वधारि गुरु पाँच शतक हैं, भव भव भयहारी।।हों.।।१३७।।
विक्रियधारी मुनि बाइस सौ, सब जग हितकारी।
जो वंदें सो पाप नशावें, पावें शिवनारी।।हों.।।१३८।।
हैं इक्किस हजार मुनि शिक्षक, सब जन मनहारी।
चंद्र किरणवत् वचन शांतिप्रद, शिक्षा सुखकारी।।हों.।।१३९।।
वादी मुनि बारह सौ मानें, तीन रत्नधारी।
वंदत ही सब व्याधि दूर हों, त्रिभुवन हितकारी।।हों.।।१४०।।
(२१)
—-दोहा—
नमिनाथ की सभा में, ऋषिगण बीस हजार।
जिनगुण संपद हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।
—चाल-हे दीनबंधु……..
ऋषि केवली सोलह शतक विराजते वहाँ।
संपूर्ण लोक ज्ञान में प्रतिबिम्बते वहाँ।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४१।।
मुनिवर विपुलमती सु बारह सौ पचास हैं।
भव्यों के हृदय पंकज करते विकास हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४२।।
मुनिराज अवधिज्ञानी सोलह शतक वहाँ।
निज ज्ञान से संपूर्ण लोक लोकते तहाँ।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४३।।
नमिनाथ के समवसरण में पूर्वधर मुनी।
मैं नित नमूं वे चार सौ पचास सुखमणी।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४४।।
विक्रिय धरें पंद्रह शतक मुनीश पूज्य हैं।
व्रत शील संयमादि से अतिशायि धन्य हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४५।।
बारह हजार छह सौ शिक्षक मुनी वहाँ।
उत्तम क्षमादि धर्म को पैâलावते यहाँ।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४६।।
वादी मुनी हजार हैं सिद्धांत के ज्ञानी।
इन वंदते बनूं सदा मैं भेद विज्ञानी।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४७।।
(२२)
—दोहा—
नेमिनाथ के पास में, अठरह सहस मुनीश।
जो नमते पद पद्म को, बनें भुवन के ईश।।
चाल-हे दीनबंधु…….
मुनि केवली पंद्रह शतक विराजते वहाँ।
निजपर प्रकाश होएगा उन पूजते यहाँ।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४८।।
मुनिवर विपुलमती वहाँ नव सौ प्रमाण हैं।
उन चार ज्ञानधारि को मेरा प्रणाम है।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१४९।।
मुनिराज अवधिज्ञानि एक सहस पाँच सौ।
जन वंदते संस्तव करे हैं भांति भांति सो।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५०।।
श्री नेमिनाथ का समोसरण महान है।
मुनि पूर्वधर वहाँ पे चार सौ प्रमाण हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५१।।
मुनि विक्रिया सहित वहाँ ग्यारह शतक कहें।
उन वंदते संसार के दुख क्लेश ना रहे।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५२।।
शिक्षक मुनी ग्यारह हजार आठ सौ कहे।
जो वंदना करें उन्हों के पाप ना रहे।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५३।।
वादी मुनीश आठ सौ स्वतत्त्व के वेत्ता।
उनको नमें सुरेश वृन्द भक्ति समेता।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५४।।
(२३)
—दोहा—
पार्श्वनाथ के पास में, सोलह सहस मुनींद्र।
मैं वंदूं नित भाव से, मिले शीघ्र पद इंद्र।।
चाल-हे दीनबंधु…….
मुनि केवली हजार वहाँ शोभ रहे हैं।
उन दर्श मात्र से असंख्य पाप दहे हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५५।।
मुनिराज विपुलमती ज्ञानि सात सौ पचास।
जो वंदते वे शीघ्र लहें ज्ञान का विकास।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५६।।
चौदह शतक मुनीश अवधिज्ञान को धरें।
उन वंदते भवीक भेदज्ञान को धरें।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५७।।
श्री पार्श्वनाथ का समोसरण विशेष है।
मुनि तीन सौ पचास पूर्वधारि वेष हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५८।।
विक्रिय धरें मुनीश एक ही हजार हैं।
वे सर्व रिद्धि सिद्धि भरें बार-बार हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१५९।।
शिक्षक मुनीश दश हजार नौ शतक कहे।
उन वंदते भवीक जगत अंत को लहें।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१६०।।
छह सौ कहे वादी मुनीश वाद में कुशल।
उन वंदते संपूर्ण पाप का उदय विफल।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूँ।।१६१।।
(२४)
—दोहा—
महावीर प्रभु के ऋषी, चौदह सहस प्रमाण।
वंदूं शीश नमायके, मिले सौख्य निर्वाण।।
चाल-हे दीनबंधु…….
वैâवल्यज्ञान के धनी हैं सात सौ वहाँ।
घाती करम को घात अव्याबाध सुख लहा।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूूँ।।१६२।।
मुनिराज विपुलमती ज्ञान धारते वहाँ।
वे पाँच सौ प्रमाण उन्हें नित नमूँ यहाँ।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूूँ।।१६३।।
जो ज्ञान अवधि धारते तेरह शतक मुनी।
उन वंदते हि पापकर्म निर्जरा घनी।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूँ।।१६४।।
श्री वर्द्धमान का समोशरण अपूर्व है।
मुनिराज तीन सौ वहाँ पे ज्ञानी पूर्व हैं।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूँ।।१६५।।
विक्रिय धरें नव सौ मुनी तप तेज से वहाँ।
जो वंदते संपूर्ण ज्ञान पावते यहाँ।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूँ।।१६६।।
शिक्षक मुनी निन्यानवे शतक वहाँ रहें।
जिनके वचन पियूष से ही तृप्ति को लहें।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूँ।।१६७।।
वादी मुनीश चार सौ जिनधर्म प्रकाशें।
जो उनके पाद को नमें वे स्वात्म प्रकाशें।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूँ।।१६८।।
—शंभु छंद—
चौबिस जिनवर के समवसरण में, ऋषिगण जो भी माने हैं।
वे सब अट्ठाइस लाख अष्ट, चालीस हजार बखाने हैं।।
वे सब अर्हन्मुद्राधारी, कामारि शत्रु के जेता हैं।
मैं इनको प्रणमूँ बार बार, ये परमानंद के भोक्ता हैं।।
-त्रिभंगी छंद-
जय जय सब ऋषिगण, भूषित गुणमणि, मूलोत्तर गुण पूर्ण भरें।
जय नग्न दिगम्बर मुक्ति वधूवर, सुरपति नरपति चरण परें।।
मैं वंदूं तुमको, नित सुमती दो, पाप पुंज अंधेर टले।
होवे सब साता, मिटे असाता, पुण्य राशि हो ढेर भले।।१।।
—नाराच छंद—
नमूँ नमूँ मुनीश! आप पाद पद्म भक्ति से।
भवीक वृंद आप ध्याय कर्म पंक धोवते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।२।।
अठाइसों हि मूलगुण धरें दया निधान हैं।
अठारहों सहस्र शील धारते महान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।३।।
चुरासि लाख उत्तरी गुणों कि आप खान हैंं।
समस्त योग साधते अनेक रिद्धिमान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।४।।
समस्त अंगपूर्व ज्ञान सिंधु में नहावते।
निजात्म सौख्य अमृतैक पूर स्वाद पावते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।५।।
अनेक विध तपश्चरण करो न खेद है तुम्हें।
अनंत ज्ञानदर्श वीर्य प्राप्ति कामना तुम्हें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।६।।
सु तीन रत्न से महान आप रत्न खान हैं।
अनेक रिद्धि सिद्धि से सनाथ पुण्यवान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।७।।
परीषहादि आप से डरें न पास आवते।
तुम्हीं समर्थ काम मोह मृत्यु मल्ल मारते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।८।।
बिहार हो जहाँ जहाँ सु आप तिष्ठते जहाँ।
सुभिक्ष क्षेम हो सदैव ईति भीति ना वहाँ।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।९।।
सुधन्य धन्य पुण्य भूमि आपसे हि तीर्थ हो।
सुरेंद्र चक्रवर्ति वंद्य भूमि भी पवित्र हो।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१०।।
जयो जयो मुनीश! आप भक्ति मोह को हरे।
जयो मुनीश! आप भक्त आत्म शक्ति को धरें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।११।।
अपूर्व मोक्षमार्ग युक्ति पाय मुक्ति को वरें।
पुनर्भवों से छूट के सु पंचमी गती धरें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१२।।
मुनीश! आप पास आय स्वात्म तत्त्व पा लिया।
समस्त कर्म शून्य ज्ञान पुंज आत्म जानिया।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१३।।
—दोहा—
छट्ठे ही गुणस्थान से, चौदहवें तक मान्य।
समवसरण के महर्षि, नमत मिले सुख साम्य।।१४।।
ऋषि अट्ठाइस लाख अरु, अड़तालीस हजार।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हित, नमूं अनंतों बार।।१५।।