श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! युवराज वङ्काजंघ और श्रीमती सुखपूर्वक महल में निवास कर रहे थे। वङ्काजंघ के पिता वङ्काबाहु अपने पुत्र के कार्यकलापों से सदैव प्रसन्न रहते थे। एक दिन महाकान्तिमान् महाराज वङ्काबाहु महल की छत पर बैठे हुए शरद ऋतु के बादलों का उठाव देख रहे थे। उन्होंने पहले जिस बादल को उठता हुआ देखा था उसे तत्काल में विलीन हुआ देखकर उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। वे उसी समय संसार के सब भोगों से विरक्त हो गये और मन में इस प्रकार गंभीर विचार करने लगे। देखो, यह शरदऋतु का बादल हमारे देखते-देखते राजमहल की आकृति को धारण किये हुए था और देखते-देखते ही क्षण भर में विलीन हो गया। ठीक, इसी प्रकार हमारी यह सम्पदा भी मेघ के समान क्षण-भर में विलीन हो जायेगी। वास्तव में यह लक्ष्मी बिजली के समान चंचल है और यौवन की शोभा भी शीघ्र चली जाने वाली है। ये भोग प्रारंभ काल में ही मनोहर लगते हैं किन्तु अन्तकाल में (फल देने के समय) बड़े कष्ट देते हैं। यह आयु भी पूâटी हुई नाली के जल के समान प्रत्येक क्षण नष्ट होती जाती है। रूप, आरोग्य, ऐश्वर्य, इष्ट-बंधुओं का समागम और प्रिय स्त्री का प्रेम आदि सभी कुछ क्षणिक है। इस प्रकार विचारकर चंचल लक्ष्मी को छोड़ने के अभिलाषी राजा वङ्काबाहु ने अपने पुत्र वङ्काजंघ का राज्य अभिषेक कर उसे राज्यकार्य में नियुक्त किया और स्वयं राज्य तथा भोगों से विरक्त हो शीघ्र ही श्री यमधरमुनि के समीप जाकर पाँच सौ राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले ली। उसी समय वीरबाहु आदि श्रीमती के अट्ठानवे पुत्र भी इन्हीं राजऋषि वङ्काबाहु के साथ दीक्षा लेकर संयमी हो गये। वङ्काबाहु मुनिराज विशुद्ध परिणामों के धारक वीरबाहु आदि मुनियों के साथ जगह-जगह विहार करने लगे फिर क्रम-क्रम से केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्षरूपी परमधाम को प्राप्त किया। इधर चक्रवर्ती राजा वङ्कादन्त (श्रीमती के पिता) अपने सिंहासन पर बैठे थे, वनपाल ने एक दिन सुंदर कमल का पूâल राजा को भेंट किया। उस कमल में मरे भौंरे को देखकर राजा को वैराग्य हो गया। उन्होंने वन में जाकर दीक्षा लेने का विचार किया और अपने पुत्रों को राज्य देने लगे तो उन लोगों ने राज्य को स्वीकार न कर दीक्षा का भाव प्रदर्शित किया अत: चक्रवर्ती ने अपने पौत्र पुण्डरीक को बालक अवस्था में ही राजतिलक करके दीक्षा ले ली। उस समय उनके साथ २० हजार राजाओं ने, ६० हजार रानियों ने और एक हजार पुत्रों ने भी दीक्षा धारण कर ली थी। महानुभावों! आज के समान यदि उस समय टी.वी. के सीधे प्रसारण का जमाना होता तो उस समय भी करोड़ों लोग ऐसी महान वैराग्यमयी दीक्षाओं को देखते। अभी आप लोगों ने २० जनवरी २००९ को अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा के शपथ ग्रहण का सीधा प्रसारण देखा और वहाँ भी २० लाख लोगों ने एक साथ उपस्थित होकर कार्यक्रम में भाग लिया। किन्तु यह करोड़ों वर्ष पूर्व की घटना है, तब विज्ञान ने इतनी उन्नति नहीं की थी। मैंने भी सन् १९५२ में घर छोड़ा और १९५३ में जब क्षुल्लिका दीक्षा ले ली तब घर में किसी को पता नहीं चला, पुन: महावीर जी में मेरी माँ जब किसी के साथ आर्इं तब मुझे दीक्षित अवस्था में देखकर बहुत रोर्इं, वे बोलीं कि मैंने पूर्वजन्म में कौन सा पाप किया था कि अपनी बेटी की दीक्षा भी नहीं देख सकी।
पुन: सन् १९५६ में भी मैंने जब आर्यिका दीक्षा ली तो भी घर में कुछ सूचना नहीं दी। मेरे वैराग्य की उत्कृटता के कारण मैं कभी घर में कोई सूचना नहीं देती थी और अखबारी प्रचार का युग नहीं था कि उसमें पढ़कर कोई आ जाते सन् १९५८ में जब संघ की एक साध्वी ने मेरे घर में पत्र लिखा तब वैâलाशचंद्र ब्यावर में प्रथम बार दर्शन करने आये और मुझे देखकर बड़े दु:खी हुए। देखो! उस काल में एक-दूसरे तक समाचार पहुँचने में बहुत समय लगता था। समाचार पाकर राजा वङ्काजंघ सोचने लगे कि मैं अपनी रानी श्रीमती को वैâसे बताऊँ कि तुम्हारे पिता और भाइयोें ने दीक्षा ले ली है। पति की दीक्षा से माता लक्ष्मीमती (श्रीमती की माँ) की सूचना आई कि पुत्र वङ्काजंघ! तुम आकर राज्य की व्यवस्था को सुचारू बनाओ। उस समय का वर्णन आदिपुराण में आया है कि- ‘‘जिस प्रकार सूर्य के वियोग से कमलिनी शोक को प्राप्त होती है उसी प्रकार चक्रवर्ती वङ्कादन्त और अमिततेज के वियोग से लक्ष्मीमती और अनुन्धरी शोक को प्राप्त हुई थी। पश्चात् जिन्होंने दीक्षा नहीं ली थी मात्र दीक्षा का उत्सव देखने के लिए उनके साथ-साथ गये थे ऐसे प्रजा के लोग, मंत्रियों द्वारा अपने आगे किये गये पुण्डरीक बालक को साथ लेकर नगर में प्रविष्ट हुए। उस समय वे सब शोक से कान्तिशून्य हो रहे थे। तदनन्तर लक्ष्मीमती को इस बात की भारी चिंता हुई कि इतने बड़े राज्यभार एक छोटा सा अप्रसिद्ध बालक स्थापित किया गया है। यह हमारा पौत्र है। बिना किसी पक्ष की सहायता के मैं इसकी रक्षा किस प्रकार कर सवूँâगी। मैं यह सब समाचार आज ही बुद्धिमान वङ्काजंघ के पास भेजती हूँ। उनके द्वारा अधिष्ठित (व्यवस्थित) हुआ इस बालक का यह राज्य अवश्य ही निष्कटंक हो जायेगा अन्यथा इस पर आक्रमण कर बलवान राजा इसे अवश्य ही नष्ट कर देंगे। ऐसा निश्चय कर लक्ष्मीमती ने गंधर्वपुर के राजा मन्दरमाली और रानी सुन्दरी के चिन्तागति और मनोगति नामक दो विद्याधर पुत्र बुलाये। वे दोनों ही पुत्र चक्रवर्ती से भारी स्नेह रखते थे, पवित्र हृदय वाले, चतुर, उच्चकुल में उत्पन्न, परस्पर में अनुरक्त, समस्त शास्त्रों के जानकार ऐसे विद्याधरों को अपने दामाद और पुत्री को देने के लिए अनेक प्रकार की भेंट दी। अपना संदेश कहकर दोनों को वङ्काजंघ के पास भेज दिया। ‘‘वङ्कादंत चक्रवर्ती अपने पुत्र और परिवार के साथ वन को चले गये हैं। उनके राज्यपर कमल के समान मुखवाला पुण्डरीक बालक है और हम दोनों सास बहू हैं इसलिए यह बिना स्वामी का राज्य प्राय: नष्ट हो रहा है।
अब इसकी रक्षा आप पर ही अवलम्बित है। अतएव अविलम्ब आइए। आप अत्यन्त बुद्धिमान हैं। इसलिए आपके आने से यह राज्य निष्कण्टक हो जायेगा। ऐसा संदेश लेकर वे दोनों उसी समय आकाशमार्ग से चले गये। मार्ग की शोभा देखते हुए वे दोनों उत्पलखेटक नगर जा पहुँचे। जब वे दोनों भाई राजमंदिर के समीप पहुँचे तब द्वारपाल उन्हें भीतर ले गये। उन्होंने राज मंदिर में प्रवेश कर राजसभा में बैठे हुए वङ्काजंघ के दर्शन किये। उन दोनों विद्याधरों ने उन्हें प्रणाम किया और फिर उनके सामने, लायी हुई भेंट तथा जिसके भीतर पत्र रखा हुआ है, ऐसा रत्नमय पिटारा रख दिया। महाराज वङ्काजंघ ने पिटारा खोलकर उसके भीतर रखा हुआ आवश्यकपत्र ले लिया। उसे देखकर उन्हें चक्रवर्ती के दीक्षा लेने का निर्णय हो गया और इस बात से वे बहुत ही विस्मित हुए। वे विचारने लगे कि अहो, चक्रवर्ती बड़ा ही पुण्यात्मा है जिसने इतने बड़े साम्राज्य के वैभव को छोड़कर पवित्र अंगवाली स्त्री के समान दीक्षा धारण की है। अहो! चक्रवर्ती के पुत्र भी बड़े पुण्यशाली और अचिन्त्य साहस के धारक हैं जिन्होंने इतने बड़े राज्य को ठुकराकर पिता के साथ ही दीक्षा धारण की है। पूâले हुए कमल के समान मुख की कान्ति का धारक बालक पुण्डरीक राज्य के इन महान् भार को वहन करने के लिए नियुक्त किया गया है और माता लक्ष्मीमती द्वारा कार्य चलाना कठिन है। यह समझकर राज्य में शांति रखने के लिए शीघ्र ही मेरा आगमन चाहती हैं अर्थात् मुझे बुला रही हैं। इस प्रकार वङ्काजंघ ने पत्र के अर्थ का निश्चयकर स्वयं निर्णय कर लिया और अपना निर्णय श्रीमती को भी समझा दिया। पत्र के सिवाय उन विद्याधरों ने लक्ष्मीमती का कहा हुआ मौखिक संदेश भी सुनाया, जिससे वङ्काजंघ को पत्र के अर्थ का ठीक-ठीक निर्णय हो गया था। तदनन्तर बुद्धिमान वङ्काजंघ ने पुण्डरीकिणी पुरी जाने का विचार किया। पिता और भाई के दीक्षा लेने आदि के समाचार सुनकर श्रीमती को बहुत दु:ख हुआ परन्तु वङ्काजंघ ने उसे समझा दिया और उसके साथ भी गुण-दोष का विचारकर साथ-साथ वहाँ जाने का निश्चय किया। पुन: खूब आदर-सत्कार के साथ उन दोनों विद्याधर दूतों को उन्होंने आगे भेज दिया और स्वयं उनके पीछे प्रस्थान कर गये। भव्यात्माओं! हमेशा आप सभी तीर्थंकरों के पुण्य चरित्र को पढ़ें और खूब पुण्य का वर्धन करें। भगवन्तों का यह चरित्र आप सबके एवं जगत के लिए मंगलकारी होवे, यही मंगलभावना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।