श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! महापुराण ग्रंथ के प्रथम भाग में मुख्यरूप से भगवान ऋषभदेव का जीवन चरित्र वर्णित है। उसी के अन्तर्गत उनके उत्थान को बतलाने वाले पूर्व भवों में राजा वङ्काजंघ और रानी श्रीमती ने भोगभूमि में आर्य-आर्या का चतुर्थ भव चल रहा है। उत्तरकुरु क्षेत्र की उत्तम भोगभूमि में ये आर्य-आर्या प्राकृतिक सुषमा को निहारते हुए भ्रमण कर रहे थे कि इतने में आकाश में जाते हुए सूर्यप्रभ देव के विमान को देखकर उसे अपनी स्त्री के साथ-साथ ही जातिस्मरण हो गया और उसी क्षण दोनों को संसार के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो गया। उसी समय वङ्काजंघ के जीव ने दूर से आते हुए दो चारण मुनि देखे। वे मुनि भी उन पर अनुग्रह करते हुए आकाशमार्ग से उतर पड़े। वङ्काजंघ का जीव उन्हें आता हुआ देखकर शीघ्र ही खड़ा हो गया। सच है, पूर्व जन्म के संस्कार ही जीवों को हित-कार्य में प्रेरित करते रहते हैं। वङ्काजंघ के जीव ने दोनों मुनियों के चरणयुगल में अघ्र्य चढ़ाया और नमस्कार किया। उस समय उसके नेत्रों से हर्ष के आँसू निकल-निकलकर मुनिराज के चरणों पर पड़ रहे थे जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो अश्रुजल से उनके चरणों का प्रक्षालन ही कर रहा हो। वे दोनों मुनिराज स्त्री के साथ प्रणाम करते हुए आर्य वङ्काजंघ को आशीर्वाद द्वारा आश्वासन देकर मुनियों के योग्य स्थान पर यथाक्रम बैठ गये। तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए दोनों चारण मुनियों से वङ्काजंघ का जीव आर्य पूछने लगा- हे भगवन् आप कहाँ के रहने वाले हैं? आप कहाँ से आये हैं और आपके आने का क्या कारण है? हे प्रभो, आपके दर्शन से मेरे हृदय में मित्रता का भाव उमड़ रहा है, चित्त बहुत ही प्रसन्न हो रहा है और मुझे ऐसा मालूम होता है कि मानो आप मेरे परिचित बंधु हैं। इस प्रकार वङ्काजंघ का प्रश्न समाप्त होते ही ज्येष्ठमुनि उत्तर देने लगे-हे आर्य! तू मुझे स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव जान, जिससे कि तूने महाबल के भव में सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर कर्मों का क्षय करने वाले जैनधर्म का ज्ञान प्राप्त किया था। उस भव में तेरे वियोग से सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर मैंने दीक्षा धारण की थी और आयु के अंत में संन्यासपूर्वक शरीर छोड़कर सौधर्म स्वर्ग के स्वयंप्रभ विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ था। वहाँ मेरी आयु एक सागर से कुछ अधिक थी।
तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर भूलोक में उत्पन्न हुआ हूँ। जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देशसंबंधी पुण्डरीकिणी नगरी में प्रियसेन राजा और उनकी महारानी सुन्दरी देवी के प्रीतिंकर नाम का बड़ा पुत्र हुआ हूँ और यह महातपस्वी प्रीतिदेव मेरा छोटा भाई है। हम दोनों भाइयों ने भी स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान तथा आकाशगामिनी चारण ऋद्धि प्राप्त की है। हे आर्य! हम दोनों ने अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से जाना है कि आप यहाँ उत्पन्न हुए हैं। चूँकि आप हमारे परम मित्र थे इसलिए आपको समझाने के लिए हम लोग यहाँ आये हैं। हे आर्य! तूने निर्मल सम्यग्दर्शन के बिना केवल पात्रदान की विशेषता से ही यहाँ शरीर छोड़ा था परन्तु उस समय भोगों की आकांक्षा के वश से तू सम्यग्दर्शन की विशुद्धता को प्राप्त नहीं कर सका था। अब हम दोनों, सर्वश्रेष्ठ तथा स्वर्ग और मोक्षसंबंधी सुख के प्रधान कारणरूप सम्यग्दर्शन को देने की इच्छा से यहाँ आये हैं। इसलिए हे आर्य, आज तू सम्यग्दर्शन ग्रहण कर ले। उसके ग्रहण करने का यह समय है क्योंकि काललब्धि के बिना इस संसार में जीवों को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती है। जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरङ्गकारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरङ्ग कारण सामग्री की प्राप्ति होती है तभी यह भव्यप्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक हो सकता है। जिस जीव का आत्मा अनादिकाल से लगे हुए मिथ्यात्वरूपी कलंक से दूषित होरहा है, उस जीव को सबसे पहले दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होने से औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार सूर्य रात्रि संबधी अंधकार को दूर किये बिना उदित नहीं होता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वरूपी अंधकार को दूर किये बिना उदित नहीं होता अर्थात् प्राप्त नहीं होता। यह भव्य जीव, अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों द्वारा मिथ्यात्वप्रकृति के मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन खण्ड करके कर्मों की स्थिति कम करता हुआ सम्यग्दृष्टि होता है। वीतराग सर्वज्ञ देव, आगम और जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण है। इसके बिना वे दोनों नहीं हो सकते हैं।
जीवादि सात तत्त्वों का तीन मूढ़तारहित और आठ अंगसहित यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये चार सम्यग्दर्शन के गुण हैं और श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय ये उसके पर्याय हैं। नि:शंक्ति, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। इन आठ अंगरूपी किरणों से सम्यग्दर्शनरूपी रत्न बहुत ही शोभायमान होता है। हे आर्य, तू इस श्रेष्ठ जैनमार्ग में शंका को छोड़ किसी प्रकार का संदेह मत कर, भोगों की इच्छा दूर कर, ग्लानि को छोड़कर अमूढ़दृष्टि (विवेकपूर्ण दृष्टि) को प्राप्त कर दोष के स्थानों को छिपाकर समीचीन धर्म की वृद्धि कर, मार्ग से विचलित होते हुए धर्मात्मा का स्थितीकरण कर, रत्नत्रय के धारक आर्य पुरुषों के संघ में प्रेमभाव का विस्तार कर और जैन-शासन की शक्ति के अनुसार प्रभावना कर। हे आर्य, तू यह निश्चित जान कि यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की पहली सीढ़ी है। नरकादि दुर्गतियों के द्वार को रोकने वाला मजबूत किवाड़ है, धर्मरूपी वृक्ष की स्थिर जड़ है, स्वर्ग और मोक्षरूपी घर का द्वार है और शीलरूपी रत्नहार के मध्य में लगा हुआ श्रेष्ठ रत्न है। देखो, जो पुरुष एक मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह इस संसाररूपी बेल को काटकर बहुत ही छोटी कर देता है अर्थात् वह अद्र्धपुद्गल परावर्तन से अधिक समय तक संसार में नहीं रहता। इस प्रकार वे मुनिराज आर्य वङ्काजंघ को समझाकर आर्या श्रीमती से कहने लगे कि माता, तू भी बहुत शीघ्र ही संसाररूपी समुद्र से पार करने के लिए नौका के समान इस सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर। वृथा ही स्त्रीपर्याय में क्यों खेद-खिन्न हो रही है? हे माता, सब स्त्रियों में, रत्नप्रभा को छोड़कर नीचे की छह पृथिवियों में भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा अन्य नीच पर्यार्यों में सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। हे माता, अब तू निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना कर और इस स्त्रीपर्याय को छोड़कर क्रम से सप्त परम स्थानोें को प्राप्त कर।
१. सज्जाति,
२. सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत),
३. पारिव्रज्य (मुनियों के व्रत),
४. सुरेन्द्र पद,
५. राज्यपद,
६. अरहंतपद,
७. सिद्धपद,
ये सात परम स्थान (उत्कृष्टपद) कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त होता है। आप लोग कुछ पुण्य भवों को धारण कर ध्यानरूपी अग्नि से समस्त कर्मों को भस्म कर परम पद को प्राप्त करोगे। इस प्रकार प्रीतिंकर आचार्य के वचनों को प्रमाण मानते हुए आर्य वङ्काजंघ ने अपनी स्त्री के साथ-साथ प्रसन्नचित्त होकर सम्यग्दर्शन धारण किया। वह वङ्काजंघ का जीव अपनी प्रिया के साथ-साथ सम्यग्दर्शन पाकर बहुत ही संतुष्ट हुआ। सम्यग्दर्शनरूपी रसायन का आस्वाद कर वे दोनों ही दम्पत्ती कर्म नष्ट करने वाले जैनधर्म में बड़ी दृढ़ता को प्राप्त हुए। पहले कहे हुए सिंह, वानर, नकुल और सूकर के जीव भी गुरुदेव-प्रीतिंकर मुनि के चरण-मूल का आश्रय लेकर आर्य वङ्काजंघ और आर्या श्रीमती के साथ-साथ ही सम्यग्दर्शनरूपी अमृत को प्राप्त हुए थे। आदिपुराण में वर्णन आया है-जिन्होंने हर्षसूचक चिन्हों से अपने मनोरथ की सिद्धि को प्रकट किया है ऐसे दोनों दम्पत्तियों को दोनों ही मुनिराज धर्मप्रेम से बार-बार स्पर्श कर रहे थे। वह वङ्काजंघ का जीव जन्मान्तरसंबंधी प्रेम से आँखें फाड़-फाड़कर श्री प्रीतिंकर मुनि के चरण-कमलों की ओर देख रहा था और उनके क्षण-भर के स्पर्श से बहुत ही संतुष्ट हो रहा था। तत्पश्चात् वे दोनों चारण मुनि अपने योग्य देश में जाने के लिए तैयार हुए। उस समय वङ्काजंघ के जीव ने उन्हें प्रणाम किया और कुछ दूर तक भेजने के लिए वह उनके पीछे चलने लगा। चलते समय दोनों मुनियों ने उसे आशीर्वाद देकर हित का उपेदश दिया और कहा कि हे आर्य, फिर दुबारा तेरा दर्शन हो, तुम लोग इस सम्यग्दर्शनरूपी समीचीन धर्म को नहीं भूलना। यह कहकर वे दोनों गगनगामी मुनि शीघ्र ही आकाशमार्ग से प्रस्थान कर हो गये। जब दोनों चारण मुनिराज चले गये तब वह वङ्काजंघ का जीव कुछ क्षण तक बहुत ही दुखी होता रहा। सो ठीक ही है, प्रिय मनुष्यों का विरह मन के सन्ताप के लिए ही होता है। वह सोचने लगा कि देखो! महाबल भव में भी वे मेरे स्वयंबुद्ध नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर विशेष गुरु हुए हैं। यदि संसार में गुरुओं की संगति न हो तो गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती और गुणों की प्राप्ति के बिना इस जीव के जन्म की सफलता कहाँ हो सकती है? इस प्रकारचिन्तवन करते हुए वङ्काजंघ की सम्यक्त्व भावना अत्यन्त दृढ़ हो गयी। यही भावना आगे चलकर इस वङ्काजंघ के लिए कल्पलता के समान समस्त इष्ट फल देने वाली होगी। श्रीमती के जीव ने भी वङ्काजंघ के जीव के समान चिन्तन किया था इसलिए इसकी सम्यक्त्व भावना भी सुदृढ़ हो गई थी।
इन दोनों पति-पत्नियों का स्वभाव एक-सा था इसलिए दोनों में एक सी अखण्ड प्रीति रहती थी। इस प्रकार प्रीतिपूर्वक भोग भोगते हुए उन दोनों दम्पत्तियों का तीन पल्य प्रमाण काल व्यतीत हो गया और दोनों जीवन के अन्त में सुखपूर्वक प्राण छोड़कर बाकी बचे हुए पुण्य से एक घर से दूसरे घर के समान ऐशान स्वर्ग में जा पहुँचे। जिस प्रकार वर्षाकाल में मेघ अपने आप ही उत्पन्न हो जाते हैं और समय पाकर अपने आप ही विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार भोगभूमिज जीवों के शरीर अपने आप ही उत्पन्न होते हैं और जीवन के अन्त में अपने आप ही विलीन हो जाते हैं। महानुभावों! आप भी सदैव जिनधर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ बनाएँ। जब तक भी आतंक, संकट आदि के क्षण आ जावें तो महामंत्र णमोकार को कभी मत छोड़ना, भगवान की भक्ति मत छोड़ना तो संकट भी दूर होगा और यदि मरण हुआ तो सुगति में जाकर वहाँ सुख प्राप्त होगा। इस प्रकार भगवन्तों की भक्ति, धार्मिक अनुष्ठान आदि आप सबके लिए मंगलमय होवे, यही मंगलभावना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।