श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
भव्यात्माओं! महापुराण द्वादशांग का ही अंश है, इसका सीधा संबंध भगवान महावीर की वाणी से है। इसमें प्रारंभिक भूमिका के पश्चात् सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव का दश भवों का वर्णन है, वे ऋषभदेव वैâसे बने? इस बात को उनके दश अवतारों से जानना है।
दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं, नवकेवललब्धिक:।
दशावतारनिर्धार्यो, मां पाहि परमेश्वर।।
अर्थात् ऋषभदेव के दश अवतार माने हैं। जैसा कि कहा भी है-
महाबल नमस्तुभ्यं, ललितांगाय ते नम:।
श्रीमते बङ्काजंघाय, धर्मतीर्थप्रवर्तिने।।१।।
द्रव्यं क्षेत्रं तथा तीर्थं कालो भाव: फलं महत्।
प्रकृतं चेत्यमून्याहु: सप्ताङ्गानि कथामुखे।।१२२।।
द्रव्यं जीवादि षोढा स्यात्क्षेत्रं त्रिभुवनस्थिति:।
जिनेन्द्रचरितं तीर्थं कालस्त्रेधा प्रकीर्तित:।।१२३।।
प्रकृतं स्यात् कथावस्तु फलं तत्त्वावबोधनम्।
भाव: क्षयोपशमजस्तस्य स्यात्क्षायिकोऽथवा।।१२४।।
अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊध्र्व, मध्य और पाताल ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें उसे सत्कथा कहते हैं। इस प्रकार दश अवतारों के नाम लेकर जिनसेनाचार्य ने भगवान ऋषभदेव को नमस्कार किया है। इन्हीं में से प्रथम महाबल का वर्णन यहाँ किया जा रहा है-मध्यलोक के प्रथम जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिला देश में विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में अलकापुरी नामक नगरी है। वहाँ राजा महाबल राज्य करते थे, उनके चार मंत्री थे-महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध। ये सभी विद्याधर थे अत: अपनी विद्या के बल से यत्र-तत्र विचरण करते रहते थे और राजा महाबल को राज्य संचालन में यथायोग्य सलाह आदि देते थे। एक दिन राजसभा में राजा महाबल का जन्मदिन मनाया जा रहा था, विद्याधरों के राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय वे चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए, किसी को स्थान, मान, दान देकर, किसी के साथ हँसकर, किसी से संभाषण आदि कर सभी को संतुष्ट कर रहे थे। उस समय राजा को प्रसन्नचित देखकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने कहा-हे राजन् ! जो आपको यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है, उसे केवल पुण्य का ही फल समझिये। ऐसा कहते हुए मंत्री ने अहिंसामयी सच्चे धर्म का विस्तृत विवेचन किया। यह सुनकर महामति नाम के धर्मविद्वेषी मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्! इस जगत् में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है।
जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है। इसलिए आत्मा की और परलोक की चिंता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोक संबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं। पुन: संभिन्नमति मंत्री बोलने लगा कि, हे राजन! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षण भंगुर हैं। जो-जो क्षण भंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के ही विकार हैं। ज्ञान से पृथक् चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं है। यदि पदार्थों का अस्तित्व मानो तो वे नित्य होना चाहिए परन्तु संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं दिखते हैं, सब एक-एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैंं अतः परलोक में सुख प्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है। महानुभाव! आज भी आप लोग अपने बच्चों के जन्मदिन मनाते हैं। किन्तु पहले लोगों को अपना जन्मदिन पता ही नहीं होता था। मुझे ही सन् १९५२ से पूर्व तक अपना जन्मदिन ज्ञात नहीं था, जब मैं ब्रह्मचर्यव्रत ले रही थी तब माँ मोहिनी ने बताया कि आज शरदपूर्णिमा है और तुम्हारा जन्मदिन है। तब मैंने अपने जन्म को सार्थक माना था। मैं सबको कहा करती हूँ कि जन्मदिवस पर केक काटना, मोमबत्ती बुझाना आदि अशुभ है यह भारतीय संस्कृति नहीं है। अत: लड्डू खाएँ, मिष्ठान बांटे, दीपक जलाकर भगवान की आरती करें, भगवान को फल चढ़ाएँ यही अपनी भारतीय संस्कृति है उसका पालन करें, यही प्रेरणा है। अपने जन्म से सृष्टि का कल्याण करने वाले भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत् में शांति करें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।