श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! महापुराण ग्रंथ में सम्पूर्ण द्वादशांग का अंश समाविष्ट है। एक बार आप सभी इसका स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। विदेहक्षेत्र की अलका नगरी में राजा महाबल के राजदरबार में जन्मदिवस की संगोष्ठी चल रही है। स्वयंबुद्ध मंत्री द्वारा राजा को अनेक धर्मोपदेश के माध्यम से सम्बोधन प्रदान किया जा रहा है। मैं समझती हूँ कि यदि इसी प्रकार की संगोष्ठियाँ सबके जन्मदिनों पर आयोजित की जावें तो उनके जन्मदिन तो सार्थक हो ही सकते हैं, साथ ही जन्मदिन की बधाई देने वालों को भी धर्म शिक्षा प्राप्त होगी। मंत्री स्वयंबुद्ध राजा महाबल को एक कथा और सुनाते हैं-राजन्! आपकी वंश परम्परा में राजा सहस्रबल (आपके बाबा के पिता) ने अपने पुत्र शतबल को राज्य देकर मुनि दीक्षा ले ली और वन-वन में विचरण करने लगे थे। कहा भी है-‘‘विचित्रं जैनीदीक्षा हि स्वैराचार विरोधिनी।’’ इस युग में भी आचार्य शांतिसागर जैसे मुनिराज ने वैसी ही दीक्षा लेकर मुनि परम्परा को जीवंत किया है। उनके प्रथम शिष्य आचार्य वीरसागर जी से मैंने दीक्षा ली, यह मेरा महान पुण्य है। तो उस कथानक में आया है कि वे महामुनि सहस्रबल दीक्षित अवस्था में ध्यानमुद्रा में लीन थे, क्रम-क्रम से शुक्लध्यान में पहुँचकर वे केवली भगवान बन गये पुन: गंधकुटी में विराजमान होकर असंख्य भव्यों को दिव्य उपदेश दिया और आगे मोक्ष प्राप्त कर लिया। ऐसे सिद्ध भगवान सहस्रबल को मेरा नमस्कार हो। राजा महाबल यह सब सुनकर प्रसन्न हुए और धर्म में अपनी श्रद्धा को अत्यधिक दृढ़ किया। एक दिन स्वयंबुद्ध मंत्री सुमेरुपर्वत की वंदना करने गये। वहाँ उसने दो मुनियों से अपने राजा महाबल के बारे में पूछा और आकर राजा को सम्बोधित किया। देखो! संस्कार की बात कि मंत्री अपने बारे में न पूछकर राजा के बारे में पूछता है। यह उनका राजा के प्रति प्रगाढ़ धर्मस्नेह का ही परिचायक था। मुझे भी इस प्रसंग में एक बात याद आती है कि सन् १९६८ में प्रतापगढ़ में हमारा चातुर्मास था वहाँ हमारे गृहस्थावस्था के माता-पिता दर्शन के लिए आये थे। वे कभी मेरे पास आकर घर की कोई बात करते तो मैं कुछ भी बात नहीं करती तो उन्हें बुरा लगता। पुन: एक दिन मैंने उनसे कहा कि तुम रवीन्द्र को मुझे दे दो मैं इसे पढ़ाकर योग्य बनाऊँगी। पुत्री कामनी भी वहाँ आई थी उसके लिए भी मैंने कहा तो उन्होंने घर जाकर कहा कि देखो! अपने स्वार्थवश तो माताजी मुझसे बात करने लगीं अन्यथा मेरी कोई बात सुनती भी नहीं थीं तो माँ ने उन्हें कहा कि वे घर छोड़ चुकी हैं इसलिए आपकी बात से उन्हें कोई सरोकार नहीं रहता है और मोक्षमार्ग में भव्यों को लगाना उनका कर्तव्य है। इसीलिए उन्होंने अपनी बात कही है। आज वे रवीन्द्र कुमार खूब धर्मप्रचार आदि में लगे हैं। मैं चिंतन करती हूँ कि धर्ममार्ग में लगने की प्रेरणा देना तो वास्तव में हितकर है यही हमारे तीर्थंकर आदि पूर्वजों ने किया है। वे चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत को शांति प्रदान करें, यही भावना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।