श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के दशवें भव पूर्व का प्रकरण चल रहा है कि राजा महाबल के मंत्री स्वयंबुद्ध एक बार सुमेरुपर्वत की वंदना करने गये। वहां वंदना करते हुए सौमनसवन के पूर्व दिशा के चैत्यालय में बैठ गये। अकस्मात् ही पूर्व विदेह से युगमंधर भगवान् के समवसरण रूपी सरोवर के मुख्य हंस स्वरूप आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनिराज वहां आ गये। बुद्धिमान् मंत्री ने उनकी पूजा-स्तुति आदि करके उपदेश श्रवण किया। अनंतर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! हमारा महाबल स्वामी भव्य है या अभव्य? आदित्यगति मुनिराज ने कहा-हे मंत्रिन् ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह इससे दशवें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम ‘तीर्थंकर’ होगा। पश्चिम विदेह के गंधिला देश में सिंहपुर नगर है। वहां के राजा श्रीषेण के जयवर्मा और श्रीवर्मा नाम के दो पुत्र थे। उनमें से छोटा श्रीवर्मा माता-पिता और सभी को अतिशय प्रिय था, अतः राजा ने उसे ही राज्य भार सौंप दिया और बड़े पुत्र की उपेक्षा कर दी। इस घटना से जयवर्मा ने पूर्वकृत पापों की निंदा करते हुए विरक्त होकर स्वयंप्रभ गुरु से जिन-दीक्षा ले ली। और तपस्या करते-करते एक दिन उन्होंने आकाश मार्ग से जाते हुए महीधर विद्याधर का वैभव देखकर विद्याधर के भोगों का निदान कर लिया अर्थात् ‘ये विद्याधर के भोग मुझे अगले भव में प्राप्त हो’ ऐसा भाव कर लिया। उसी समय बामी से निकलकर एक भयंकर सर्प ने उसे डस लिया। वही मुनिराज मरकर के आपके राजा महाबल हुए हैं। पूर्व में भोगों की इच्छा से आज भी उसे भोगों में आसक्ति अधिक है किन्तु अभी आपके वचनों से वह शीघ्र ही विरक्त होगा। आज रात को उसने स्वप्न देखा है कि तीन मंत्रियों ने उसे जबरदस्ती कीचड़ में गिरा दिया और तुमने मंत्रियों की भत्र्सना करके राजा को सिंहासन पर बिठा कर अभिषेक किया है। अनंतर दूसरे स्वप्न में अग्नि की एक ज्वाला को क्षीण होते हुए देखा है। अभी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठा है, अतः तुम शीघ्र ही जाकर उसके पूछने के पहले ही स्वप्नों को फल सहित बतलाओ। मंत्री स्वयंबुद्ध ने तत्क्षण ही जाकर राजा से कुशल क्षेम पूछी और राजा द्वारा अपने स्वप्न बताते ही उसने राजा को बताया कि प्रथम स्वप्न का फल भविष्य में विभूतिसूचक है एवं द्वितीय स्वप्न का फल यह है कि आपकी आयु एक माह की शेष रह गई है।
अत: हे राजन्! अब शीघ्र ही धर्म को धारण करो और बहुत कुछ विस्तृतरूप में धर्म का उपदेश दिया। राजा महाबल ने विरक्त चित्त होकर अपने पुत्र अतिबल को राज्य देकर घर के उद्यान के जिन मंदिर में आठ दिन तक आष्टाह्निक महायज्ञ पूजन किया। अनन्तर सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जीवन-पर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग करके विधिवत् सल्लेखना ग्रहण कर ली। उन्होंने उसी स्वयंबुद्ध मंत्री को सल्लेखना कराने में निर्यापकाचार्य बनाकर सन्मान किया। शरीर से निर्मम हो बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर वह मुनि के सदृश प्रायोपगमन संन्यास में स्थिर हो गया। इस सन्यास में स्वकृत-परकृत उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है। जिस विदेह क्षेत्र की नगरी का मैंने यहाँ उल्लेख किया है वह तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में तो है ही, साथ ही हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप और तेरहद्वीप की रचना में भी उनका स्वरूप दर्शाया गया है। देखो! राजा महाबल जैसे भव्य प्राणी ने सल्लेखना लेने में अपने निर्यापकाचार्य के रूप में अपने मंत्री स्वयंबुद्ध को नियुक्त किया, क्योंकि वे जानते थे कि यही मंत्री मेरा हितैषी है। आज भी साधु और श्रावक दोनों ही सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण करते देखे जाते हैं। मैंने क्षुल्लिका अवस्था में साक्षात् आचार्य शांतिसागर महाराज की सल्लेखना सन् १९५५ में कुंथलगिरी जाकर देखी है। आचार्यश्री ने मुझे स्वयं कहा था कि मैंने अपने जीवन में ३६ बार भगवती आराधना का स्वाध्याय किया है। उन्होंने मुझे भी प्रेरणा दी थी कि गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, परमात्मप्रकाश, मूलाचार, भगवती आराधना जरूर पढ़ना इसलिए मैंने अनेकानेक बार इन ग्रंथों को पढ़ा है। यहाँ ध्यान रखना है कि सल्लेखना करना आत्मघात नहीं है, क्योंकि इसमें काय और कषाय दोनों को क्षीण किया जाता है, जबकि आत्मघात-आत्महत्या में कषाय और पापरूप परिणामों की विशेषता देखी जाती है, जो कि भव-भव में दु:खकारी है। अत: अपने आत्महित की दृष्टि से जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट मार्ग को ही ग्रहण करना चाहिए। चौबीसों तीर्थंकर भगवान हम सभी के लिए तथा विश्व की शांति के लिए निमित्त होवें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।