श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महापुराण ग्रंथ दो भागों में विभक्त है-आदिपुराण और उत्तरपुराण। आचार्यों ने भगवान को भी पुराण शब्द से सम्बोधित किया है-पायादपायात्पुरुष: पुराण: (विषापहारस्तोत्र) महापुराण के प्रथम भाग आदि पुराण में भगवान ऋषभदेव अपने दशवें भवपूर्व के प्रकरण में राजा महाबल की पर्याय में धर्मध्यानपूर्वक मरण करके स्वर्ग में देव हुए। वहाँ पहुँचते ही उपपादशय्या पर जन्म लेते ही अन्य देवतागण उनके पास आकर कहते हैं-
प्रतीच्छ प्रथमं नाथ सज्जं मज्जनमङ्गलम्।
तत: पूजां जिनेन्द्राणां कुरु पुण्यानुबंधिनीम्।।२७३।।
ततो बलमिदं दैवं भवद्दैवबलार्जितम्।
समालोकय संघट्टै: समापतदितस्तत:।।२७४।।
इत: प्रेक्षस्व संपे्रक्ष्या: प्रेक्षागृहमुपागत:।
सलीलभ्रूलतोत्क्षेपं नटन्ती: सुरनत्र्तकी:।।२७५।।
मनोज्ञवेषभूषाश्च देवीर्देवाद्य मानय।
देवभूयत्वसंप्राप्तौ फलमेतावदेव हि।।२७६।।
अर्थात् हे नाथ, स्नान की सामग्री तैयार है इसलिए सबसे पहले मङ्गलमय स्नान कीजिए फिर पुण्य को बढ़ाने वाली जिनेन्द्रदेव की पूजा कीजिए। तदनन्तर आपके भाग्य से प्राप्त हुई तथा अपनी-अपनी टुकड़ियों के साथ जहाँ-तहाँ सब ओर से आने वाली देवों की सब सेना का अवलोकन कीजिए। इधर नाट्यशाला में आकर, लीलासहित भौंह नचाकर नृत्य करती हुई, दर्शनीय सुन्दर देव नर्तकियों को देखिए। हे देव, आज मनोहर वेष-भूषा से युक्त देवियों का सम्मान कीजिए क्योंकि निश्चय से देवपर्याय की प्राप्ति का यही तो फल है। वहाँ ललितांगदेव ने जन्म लेकर स्नानादि करके पुन: अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करते हुए असीम प्रसन्नता का अनुभव किया। यहाँ ज्ञातव्य है कि स्वर्ग में देवों की आयु सागर से बताई है तथा देवियों की आयु पल्य से कही है। एक देव के जीवन में अनेक देवियाँ उसके साथ रहती हैं। शास्त्रों मेें कहा है कि एक सौधर्मइन्द्र के जीवन में ४० नील प्रमाण शचि इन्द्राणियाँ मनुष्यभव धारण करके मोक्षप्राप्त कर लेती हैं, इतनी बड़ी आयु सौधर्म इन्द्र की होती है। उस ललितांग देव के चार हजार देवियाँ थीं तथा चार महादेवियाँ थीं, जिसमें प्रधान स्वयंप्रभा नामकी देवी में ललितांग देव अतिशय अनुरक्त रहता था। जब ललितांग देव की आयु पृथक्त्वपल्य (३ पल्य से अधिक ९ पल्य से कम) शेष रही थी, तब उसे स्वयंप्रभा नाम की प्रियपत्नी प्राप्त हुई थी। भव्यात्माओं! इस स्वयंप्रभा देवी की कथानक भी बड़ा रोमांचक है- इसी मध्यलोक में एक धातकीखण्ड नाम का महाद्वीप है जो अपनी शोभा से स्वर्गभूमि को तिरस्कृत करता है। इस द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में एक गंधिला नाम का देश है जो कि अपनी शोभा से देवकुरु और उत्तरकुरु को भी जीत सकता है। उस देश में एक पाटली नाम का ग्राम है उसमें नागदत्त नाम का एक वैश्य रहता था। उसकी स्त्री का नाम सुमति था और उन दोनों के क्रम से नन्दन, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन ये पाँच पुत्र तथा मदनकान्ता और श्रीकान्ता नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुर्इं। पूर्व भव में इन्हीं के घर निर्नामा नाम की सबसे छोटी पुत्री हुई थी। किसी दिन उसने चारणचरित नामक मनोहर वन में अम्बरतिलक पर्वत पर विराजमान अवधिज्ञान से सहित तथा अनेक ऋद्धियों से भूषित पिहितास्रव नामक मुनिराज के दर्शन किये। दर्शन और नमस्कार कर उसने उनसे पूछा कि हे भगवन! मैं किस कर्म से इस दरिद्रकुल में उत्पन्न हुई हूँ। हे प्रभो, कृपा कर इसका कारण कहिए और मुझ दीन तथा अतिशय उद्विग्न नारी पर अनुग्रह कीजिए। इस प्रकार पूछे जाने पर वे मुनिराज मधुर वाणी से कहने लगे कि हे पुत्री, पूर्वभव में तू अपने कर्मोदय से इसी देश के पलालपर्वत नामक ग्राम में देविलग्राम नामक पटेल की सुमति स्त्री के उदर से धनश्री नाम से प्रसिद्ध पुत्री हुई थी। किसी दिन तूने पाठ करते हुए समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मरे हुए कुत्ते का दुर्गन्धित कलेवर डाला था और अपने इस अज्ञानपूर्ण कार्य से खुश भी हुई थी। यह देखकर मुनिराज ने उस समय तुझे उपदेश दिया कि बालिके! तूने यह बहुत ही निंद्य कार्य किया है, भविष्य में उदय के मय यह तुझे दु:खदायी और कटुक फल देगा क्योंकि पूज्य पुरुषों का किया हुआ अपमान अन्य पर्याय में अधिक सन्ताप देता है।
मुनिराज के ऐसा कहने पर धनश्री ने उसी समय उनके सामने जाकर अपना अपराध क्षमा कराया और कहा कि हे भगवन्! मैंने यह कार्य अज्ञानवश ही किया है इसलिए क्षमा कर दीजिए। उस उपशम भाव से क्षमा माँग लेने से तुझे कुछ थोड़ा सा पुण्य प्राप्त हुआ था। उसी से तू इस समय मनुष्ययोनि में इस अतिशय दरिद्र कुल में उत्पन्न हुई है। इसलिए हे कल्याणि! कल्याण करने वाले जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञान इन दो व्रतों को क्रम से ग्रहण करो। विधिपूर्वक किया गया यह अनशन तप किये हुए कर्मों को बहुत शीघ्र नष्ट करने वाला माना गया है। तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति के कारणभूत सोलह भावनाएँ, पाँच कल्याणक, आठ प्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशय इन तिरेसठ गुणों की प्राप्ति हेतु जो उपवास व्रत किया जाता है उसे जिनेन्द्रगुण-सम्पत्ति कहते हैं। इस व्रत में जिनेन्द्र भगवान के तिरसठ गुणों को लक्ष्य कर तिरसठ उपवास किये जाते हैं, जिनकी व्यवस्था इस प्रकार है-सोलहकारण भावनाओं की सोलह प्रतिपदा (एकम्), पाँच कल्याणकों की पाँच पंचमी, आठ प्रातिहार्यों की आठ अष्टमी और चौंतीस अतिशयों की बीस दशमी तथा चौदह चतुर्दशी इस प्रकार तिरेसठ उपवास होते हैं। पूर्वोक्त प्रकार से जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति नामक व्रत में तिरेसठ उपवास करना चाहिए ऐसा गणधरादि मुनियों ने कहा है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान नामक व्रत भी विधिपूर्वक करो। अट्ठाईस, ग्यारह, दो, अठासी, एक, चौदह, पाँच, छह, दो और एक इस प्रकार मतिज्ञान आदि भेदों की एक सौ अठावन संख्या होती है। हे पुत्रि! तू भी विधिपूर्वक दोनों अनशन व्रतों को आचरण कर। पुन: मुनिराज उस कन्या को समझाने लगे- जो पुरुष वचन द्वारा मुनियों का अनादार करते हैं वे दूसरे भव में गूँगे होते हैं। जो मन से निरादर करते हैं उनकी मन से सम्बन्ध रखने वाली स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है और जो शरीर से तिरस्कार करते हैं उन्हें ऐसे कौन से दु:ख हैं जो प्राप्त नहीं होते हैं? इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को तपस्वी मुनियों का कभी अनादर नहीं करना चाहिए। हे पुत्री! जो मनुष्य, क्षमारूपी धन को धारण करने वाले मुनियों की, मोहरूपी काष्ठ से उत्पन्न हुई, विरोधरूपी वायु से प्रेरित हुई, दुर्ववचनरूपी तिलगों से भरी हुई और क्षमारूपी भस्म से ढकी हुई क्रोधरूपी अग्नि को प्रज्वलित करते हैं उनके द्वारा दोनों लोकों में होने वाला अपना कौन सा हित नष्ट नहीं किया जाता? अर्थात् उसका बहुत बड़ा अहित होता है। इस प्रकार वह मुनिराज के हितकारी वचन मानकर और जिनेन्द्रगुण सम्पत्ति तथा श्रुतज्ञान नामक दोनों व्रतों के विधिपूर्वक उपवास कर आयु के अंत में स्वर्ग गयी। वहाँ ललितांगदेव की स्वयंप्रभा नाम की मनोहर महादेवी हुई। महानुभावों! सच्चे सन्तों की निंदा, उनके प्रति दुर्भाव आदि करने से सदैव दुर्गति ही प्राप्त होती है अत: उनके प्रति सदैव विनय भाव रखना चाहिए, क्योंकि वे तीर्थंकर की जिनमुद्रा का पालन करने वाले महापुरुष सबके अकारण बंधु होते हैं। वे चौबीसों तीर्थंकर भगवान हम सबके लिए मंगलकारी होवें। यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।