महापुरुष
द्वारा-आर्यिका सुद्रष्टिमति माताजी
प्र. ६३३ : शलाका पुरुष मरकर कौन, कहाँ जाते हैं? समझाइये।
उत्तर : तीर्थंकर आयु पूर्ण होने पर मरकर मोक्ष जाते हैं। चक्रवर्ती परिणामानुसार स्वर्ग, नरक या मोक्ष जाते हैं। बलभद्र मरकर स्वर्ग या मोक्ष जाते हैं। परन्तु अवशिष्ट बचे हुये नारायण सभी और प्रतिनारायण सभी नियम से नरक में ही प्रयाण करते हैं। परन्तु शलाका पुरुष अनंतर जन्म में तिर्यञ्च और मनुष्य नहीं होते हैं।
प्र. ६३४ : सत्पुरुषों के गुणों को ग्रहण करने में हमारी दृष्टि कैसी होनी चाहिये?
उत्तर : सत्पुरुषों के गुणों को ग्रहण करने में हमारी दृष्टि चींटी की भांति होनी चाहिये जो धूलि-घूसर में से लोहे को ही आकृष्ट कर लेता है। विवेकी पुरुष किसी व्यक्ति में कितने ही छल-छिद्रों के कण भरे हों, क्रोध, मान, माया की चिनगारियाँ निकल रही हों, ईर्ष्या, द्वेष-कपट के पत्थर उछल रहे हों तो भी उनमें से वह एक को भी ग्रहण नहीं करता, अपितु एक भी गुण होगा तो उसे स्वीकार कर लेता है। द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य दुर्योधन को गाँव में भेजा कि वहाँ कितने अच्छे-बुरे लोग हैं, पता लगाओ। दुर्योधन ने लौटकर आकर कहा- वहाँ सभी दुर्जन हैं। पुनः युधिष्ठिर को भेजा तो उसने कहा- गुरुदेव वहाँ सभी सज्जनपुरुष हैं। दुर्जन तो दिखाई ही नहीं पड़ते। यह क्या है? दृष्टि का फेर है। अपनी दृष्टि जैसी होगी, बाह्य वस्तु वैसी ही नजर आयेगी। प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति गुण-दोषों से सम्पन्न होता है। जिसे जो चाहिये ग्रहण करे, हमें तो अपना प्रयोजन सिद्ध करना है। हमारे आत्मकल्याण में स्वसंवित्ति वीतराग परिणति और साम्यभाव में जो जो निमित्त उपयोगी हो, उन्हें अपनाना है ग्रहण करना है।
प्र. ६३५ : कितने महापुरुष ऐसे हैं जो भविष्य में तीर्थंकर होंगे?
उत्तर : आठ नारायण, नव प्रतिनारायण, चार चक्रवर्ती, एक बलभद्र, श्रेणिक तथा समन्तभद्र ये चौबीस तीर्थंकर होंगे। (समीचीन धर्मशास्त्र पृ.१० प्रस्तावना)
प्र. ६३६ : १२ चक्रवर्ती में कितने चक्रवर्ती मोक्ष और कितने स्वर्ग व नरक में गये?
उत्तर : १२ चक्रवर्ती में से ८ मोक्ष गये, दो चक्रवर्ती स्वर्ग में गये, सुभौम व ब्रह्मदत्त ये दो चक्रवर्ती राज्य वैभव भोगते-भोगते मर गये, इसलिये उनको ७वें नरक जाना पड़ा।
प्र . ६३७ : पालिताणा से कितने महापुरुषों ने मोक्ष प्राप्त किया?
उत्तर : पालिताणा से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और कोई ८ करोड़ मुनिश्वर मोक्ष गये हैं। नकुल और सहदेव ये दो पांडव सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुये।
प्र. ६३८ : भगवान महावीर के ११ गणधरों के नाम बतलाओ।
उत्तर : भगवान महावीर के इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मंडिक पुत्र, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचल, मेतार्य, प्रभास ये ११ गणधर थे। इनमें से भगवान महावीर के जीवनकाल में ९ (नौ) गणधर मुक्त हो गये थे।
प्र. ६३९ : रामचन्द्रजी ने जब दीक्षा ग्रहण की तब उनके साथ कितनी रानियों ने दीक्षा ग्रहण की थी?
उत्तर : रामचन्द्रजी ने जब दीक्षा ग्रहण की तब उनके साथ २८ हजार रानियों ने संसार, शरीर व भोगा इनका परित्याग कर श्रीमती नाम की परम तपोनिधि आर्यिका माताजी के पास दीक्षा धारण की थी।
प्र. ६४० : भरत चक्रवर्ती कहाँ से आकर चक्रवर्ती हुये थे?
उत्तर : भरत चक्रवर्ती सर्वार्थसिद्धि से आकर चक्रवर्ती हुये थे।
प्र. ६४१ : भरत चक्रवर्ती के शरीर का रंग व ऊँचाई तथा आयु का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर : भरत चक्रवर्ती के शरीर का रंग सुवर्ण के समान व ऊँचाई ५०० धनुष थी तथा आयु ८३ लाख पूर्व इतनी थी।
प्र. ६४२ : नरक से आने वाले जीवों को चक्रवर्ती पद प्राप्त होता है क्या?
उत्तर: नहीं, स्वर्ग से आने वाले जीवों को ही यह चक्रवर्ती पद प्राप्त होता है।
प्र. ६४३ : भविष्यकाल में होने वाले चक्रवर्तियों के नाम बतलाओ।
उत्तर : भविष्यकाल में होने वाले (१) भरत, (२) दीर्घदन्त, (३) मुक्तदंत, (४) मूद्रवंत, (५) श्रीषण, (६) श्रीभूति, (७) श्रीकांत, (८) पदम, (१) महापद्म, (१०) चित्रवाहन, (११) विमलवाहन और (१२) अष्टिसन।
प्र. ६४४ : चक्रवर्ती के ५ इन्द्रियों के विषय क्षेत्र को बताओ?
उत्तर : (१) स्पर्शनेन्द्रिय १ योजन तक का विषय जान लेते हैं, (२) रसनेन्द्रिय से १ योजन तक का विषय लेते हैं, (३) प्राणेन्द्रिय से १ योजन तक का विषय जान लेते हैं, (४) चक्षुरिन्द्रिय से २० योजन तक का विषय देख लेते हैं तथा (५) श्रोत्रेन्द्रिय से १२ योजन तक का विषय जान लेते हैं।
प्र. ६४५ : चक्रवर्ती के दशांग भोग कौनसे हैं?
उत्तर : (१) दिव्यपुर, (२) दिव्यभाजन, (३) दिव्यभोजन, (४) दिव्य शय्या, (५) दिव्य आसन, (६) दिव्य नाटक, (७) दिव्य रत्न, (८) दिव्यनिधि, (१) दिव्यसैन्य और (१०) दिव्यवाहन इस प्रकार दशांग भोग होते हैं।
प्र. ६४६ : चक्रवर्ती का कितने हजार राजाओं पर स्वामित्व होता है?
उत्तर : ३२ हजार राजाओं पर चक्रवर्ती का स्वामित्व होता है।
प्र.६४७ : नृपति किसे कहते हैं?
उत्तर : समस्त नर अर्थात् मनुष्यों का रक्षण करने वाला हो, वही नृप या नृपति कहलाता है।
प्र. ६४८ : राजा किसे कहते हैं?
उत्तर: जो समस्त प्रजाजनों को राजी रखने वाला है, वही राजा कहलाता है।
प्र. ६४९ : राजाओं के कितने गुण होते हैं और कौन-कौनसे?
उत्तर : राजाओं के छः गुण होते हैं- (१) संधि-मिलाप, (२) विग्रह-युद्ध, (३) यान-वाहन, (४) आरक्षण मुक्काम, (५) संस्थान, (वाचनिक) और (६) आश्रय-आधार, इसके दो भेद होते हैं। जो अपने से प्रबल रहे, उसका आश्रय लेना और जो अपने आधीन रहे, उसे आश्रय देना अर्थात् शरणागतों का प्रतिपालन करना। ये राजा के ६ गुण समझना चाहिये।
प्र. ६५० : कुन्दकुन्दाचार्य का गृहस्थ आश्रम का नाम, दीक्षा अवस्था का नाम बतलाओ।
उत्तर : कुन्दकुन्दाचाार्य का गृहस्थ आश्रम का नाम पद्मप्रभ था, उनके गुरु ने उनका वह नाम बदलकर दीक्षा अवस्था पर पद्मनंदी नाम रखा था।
प्र. ६५१ : सीमंधर भगवान का अपरनाम बतलाओ।
उत्तर : सीमंधर भगवान का अपरनाम स्वयंप्रभ था।
प्र. ६५२ : मुकुटधारी राजा किसे कहते हैं?
उत्तर : १८ श्रेणियों का स्वामी मुकुटधारी राजा होता है।
प्र. ६५३ : अधिराज कौन कहलाता है?
उत्तर : ५०० मुकुटधारी राजाओं का स्वामी अधिराजा कहलाता है।
प्र. ६५४: महाराज कौन कहलाता है?
उत्तर: जो १००० मुकुटधारी राजाओं का स्वामी है, वह महाराज कहलाता है।
प्र. ६५५ : अर्धमांडलिक किसे कहते हैं?
उत्तर : जो दो हजार मुकुटधारी राजाओं का स्वामी है, वह मुकुटबद्ध या अर्थमांडलिक कहलाता है।
प्र. ६५६ : महामांडलिक कौन कहलाता है?
उत्तर : जो आठ हजार मुकुटधारी राजाओं का स्वामी है, वह महामांडलिक कहलाता है।
प्र. ६५७ : अर्धचक्री कौन कहलाता है?
उत्तर : १६ हजार मुकुटधारी राजाओं का स्वामी है, वह अर्धचक्री कहलाता है।
प्र. ६५८ : सकलचक्रवर्ती कौन कहलाता है?
उत्तर : जो ३२ हजार मुकुटधारी राजाओं का स्वामी होता है, वह सकल चक्रवर्ती कहलाता है, वह षट्खण्ड का अधिपति होता है।
प्र. ६५९ : चक्रवर्ती की कितनी हजार रानियाँ होती हैं और वे कहाँ-कहाँ की राजकन्याएँ होती हैं?
उत्तर : चक्रवर्ती की ९६ हजार रानियाँ होती हैं। इनमें आर्यखण्ड की ३२ हजार राजकन्यायें होती है,३२ हजार विद्याधर राजकन्यायें होती हैं और म्लेच्छ खण्ड की ३२ हजार कन्यायें होती हैं। इस प्रकार सब मिलाकर ९६ हजार रानियाँ होती है।
प्र. ६६० : चक्रवर्ती पर कितने चंवर दुलाये जाते हैं?
उत्तर: चक्रवर्ती पर ३२ यक्षदेव ३२ चॅवर ढुलाते हैं।
प्र. ६६१ : चक्रवर्ती की पटरानी के सन्तान क्यों नहीं होती है?
उत्तर : चक्रवर्ती रात्रि के समय अपनी पटरानी के महल में ही रहते हैं परन्तु पटरानी के सन्तान नहीं होती है। वह वंध्या ही रहती है क्योंकि इसकी शंखावर्त योनि होने से इन योनि में वंशोत्पत्ति नहीं होती है। चक्रवर्ती अपनी पृथक् विक्रिया की सहायता से अपने शरीर के अनेक रूप धारण कर सकते हैं। इसलिये उनकी अन्य स्त्रियों को पुत्रादिक होते रहते हैं।
प्र. ६६२ : प्रतिनारायण की विशेषता बतलाओ।
उत्तर : प्रतिनारायणपद नरक से आने वाले जीवों को कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। सभी प्रतिनारायण अधोगामी होते हैं। ९ प्रतिनारायणों में जरासंध भूमिगोचरी थे। बाकी सर्व विद्याधर थे। प्रति नारायण पर हमेशा १६ चैंवर दुलते रहते हैं।
प्र. ६६३ : रावण की लंका कहाँ है?
उत्तर : वर्तमान सिंहल द्वीप को बहुत से लोग लंका समझते हैं। परन्तु इसको रावण की लंका नहीं समझना चाहिये। लवणोदधि समुद्र में सात सौ योजन लम्बा चौड़ा राक्षस नाम का द्वीप है, उस द्वीप के मध्य में मेरुपर्वत के समान विचित्र कूट अथवा चित्रकूटचल नाम का पर्वत हैं। यह पर्वत ९ योजन ऊँचा है। ५० योजन लम्बा-चौड़ा है, उसके यक्षों ने मेघनाद विद्याधर से कहा था कि हम लंकापुरी आपको देते हैं। आप वहाँ सुख से रहना। यही आम कथित लंका नगरी समझनी चाहिये। लोक में लंका नाम से प्रसिद्ध अन्य स्थान भी हो सकते हैं।
प्र. ६६४: क्या रावण राक्षस था?
उत्तर : रावण को राक्षस समझना अज्ञान है। वे विद्याधर थे। राक्षस नाम के द्वीप में रहते थे।
प्र. ६६५: नारायण की विशेषता बतलाइये।
उत्तर : यह नारायणपद नरक से आने वाले जीवों को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसा नियम है। सब ही नारायण अधोगामी अर्थात् रत्नप्रभादि भूमियों में जाने वाले होते हैं। इन पर सदाकाल १६ चैवर डुलते रहते हैं। इनके सात प्रकार के आयुध अर्थात् महारत्न होते हैं।
प्र. ६६६ : नारायण के पर्यायवाची नाम बतलाओ।
उत्तर : नारायण इनको वासुदेव, केशव, गोविन्द, हरि ऐसा भी कहते हैं।
प्र. ६६७ : कौनसे नारायण का जीव तीर्थंकर होकर मुक्त हुआ है?
उत्तर : त्रिपृष्ट नाम के पहले नारायण का जीव वर्धमान तीर्थंकर होकर मुक्त हुआ है। इस प्रकार उत्तरपुराण पर्व ७४ में लिखा है।
प्र. ६६८ : कोटिशिला का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर: कोटिशिला आठ योजन लम्बी-चौड़ी और एक हजार योजन ऊँची होती है। इसको सिद्धशिला भी कहते हैं।
प्र. ६६९ : लक्ष्मण महापुरुष ने कोटिशिला कहाँ तक उठाई थी?
उत्तर : लक्ष्मण महापुरुष ने कोटिशिला घुटने तक उठाई थी।
प्र. ६७० : नारद कितने होते हैं, उनकी विशेषता बतलाइये।
उत्तर : नारद ९ होते हैं। यह नारद पद नरक से आने वाले जीवों को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता है। सभी नारद अधोगामी होते हैं। सभी कलहप्रिय होते हैं तथा धर्मविषय में भी रत रहते हैं। वर्तमान में सभी हिंसा दोष से अधोलोक जाते हैं।
प्र. ६७१ : बलदेव कितने होते हैं, उनकी विशेषता बतलाओ।
उत्तर : यह बलदेवपद नरक से आने वाले जीवों को प्राप्त नहीं होता है। सभी बलदेव उर्ध्वगामी अर्थात् स्वर्ग व मोक्ष में जाने वाले होते हैं। बलदेव के ५ रत्न आयुध होते हैं- (१) रत्नहार, (२) लांगल अपराजित हल, (३) मूसल, (४) स्यन्दन (दिव्यगदा) कोई रथ ऐसा भी कहते हैं एवं (५) शक्ति-ये पाँचरत्न की क्रीड़ामात्र से शत्रुओं को मर्दन करने वाले बलदेव के होते हैं।
प्र. ६७२ : राजाओं के लिये कितने प्रकार के यज्ञ बताये हैं?
उत्तर : राजाओं के लिये पाँच प्रकार के यज्ञ वताये हैं- (१) दुष्टजनों के लिये दंड, (२) अपने व्यक्तियों की पूजा, (३) न्यायपूर्वक खजाने की सदा वृद्धि करना, (४) गरजमंदों के प्रति पक्षपात न करना और (५) राष्ट्र की सब प्रकार से रक्षा करना।
प्र. ६७३ : कहाँ से आकर शलाका पुरुष होते हैं और कहाँ से आकर नहीं होते हैं?
उत्तर : मनुष्य और तिर्यञ्च मरकर तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव अर्थात् त्रेसठ शलाका पुरुष नहीं हो सकते हैं। मनुष्यों को उसी भव से मुक्ति हो, न भी हो, अगले भव से भी हो, न भी हो किन्तु तिर्यञ्चों के उसी भव से मुक्ति है ही नहीं। यह नियम है। वैसे तिर्यञ्चों में भी मुक्तिगमन के कारणभूत सम्यक्त्वादि हो सकते हैं इसमें कोई दोष नहीं है।
प्र. ६७४ : ऐसे कौनसे देव हैं जो शलाका पुरुष नहीं होते?
उत्तर : भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देव वहीं से च्युत होकर शलाका पुरुष नहीं होते हैं। उनकी उसी भव से मुक्ति होती है या नहीं भी होती है। सर्वथा निषेध नहीं है। शलाका पुरुषों में तीर्थंकर तो उसी भव से मोक्ष जाते हैं। चक्रवर्ती, बलदेव ये उसी भव से मोक्ष जाते हैं। चक्रवर्ती, बलदेव उसी भव से मुक्ति भी पा सकते हैं अथवा स्वर्ग जाते हैं। चक्रवर्ती नरक भी जा सकते हैं। फिर भी ये महापुरुष स्वल्प भवों में ही मुक्ति प्राप्त करते ही हैं ऐसा नियम हैं।
प्र. ६७५ : शलाका पुरुष कौन होते हैं?
उत्तर : सौधर्म स्वर्ग से लेकर नवग्रैवेयक के देव वहाँ से च्युत होकर शलाका पुरुष होते हैं, नहीं भी होते हैं तथा वहाँ से आये हुये पुरुष अनन्तर भव में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, कदाचित् नहीं भी करते हैं।
प्र. ६७६ : सत्पुरुष किसे कहते हैं?
उत्तर : जो सत्कायों का दूसरों को उपदेश देते हैं, उन पर स्वयं भी चलते हैं, अमल करते हैं, वे ही सत्पुरुष होते हैं।
प्र. ६७७ : भगवान महावीर के गणधरों के नाम बताते हुये उनके शिष्यों की कुल संख्या बतलाओ।
उत्तर : हरिवंशपुराण में भगवान महावीर के ११ गणधरों के गणों की संख्या पृथक बतलायी है। भगवान महावीर के इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकम्पन, अचल, मेदार्य और प्रभास नाम वाले ११ गणधर थे। इन ११ गणधरों के गणों की शिष्य संख्या १४ हजार थी।
प्र. ६७८ : आराधना में तीन प्रकार के प्रतिक्रमण कहे गये हैं, वे कौनसे हैं?
उत्तर : दीक्षाकाल का आश्रय लेकर आज तक जो भी दोष हुये हों, उन्हें सर्वातिचार कहा गया है। संल्लेखना ग्रहण करके यह क्षपक पहले सर्वातिचार प्रतिक्रमण करता है। पुनः तीन प्रकार के आहार का त्याग करना द्वितीय प्रतिक्रमण है और अन्त में यावज्जीवन मोक्ष के लिये पानक वस्तु का भी त्याग कर देना। वह उत्तमार्थ नामक तृतीय प्रतिक्रमण कहलाता है।
ये तीन प्रतिक्रमण ही केवल नहीं हैं, किन्तु तीन योगों का निग्रह करना योग प्रतिक्रमण, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना, इन्द्रिय प्रतिक्रमण है। पाँच प्रकार के शरीर को कृश करना शरीर प्रतिक्रमण है।
प्र. ६७९ : नारायण बतलाये हैं, तो ये कैसे पता लगता है कि ये नारायण हैं?
उत्तर : नारायण की पहचान कोटिभट्ट शिला उठाने से होती है। सभी नारायण शिला उठाते हैं, किसी ने सिर तक किसी ने कन्धों तक, किसी ने जंघाओं तक, उस कोटिभट्ट शिला को उठाया जिससे पहचाना जाता है कि वे नारायण हैं।
प्र. ६८० : नारायण के सात रत्न और बलभद्र के चार रत्न कौन-कौनसे हैं?
उत्तर : नारायण के शक्ति, धनुष, गदा, चक्र, कृपाण, शंख आदि दंड ये सात रत्न हैं। बलभद्र के चार रत्न- (१) मूसल, (२) हल, (३) रथ तथा (४) रत्नावली ये ४ रत्न हैं।
प्र. ६८१ : चक्रवर्ती की पटरानी नरक जाती है?
उत्तर : चक्रवर्ती की पटरानी का नरक जाने का नियम नहीं है। अपने परिणामों के द्वारा चारों गतियों में जा सकती है।
प्र. ६८२ : भरतेशजी के आत्मध्यान की विशेषता बतलाइये।
उत्तर: बालकगण पतंग खेलते हैं, जब उनकी इच्छा पतंग खेलने की नहीं होती तो पतंग की डोरी को लपेटकर रखते हैं। इसी प्रकार भरत के चित्त की परिणति है। विषयाभिलाषा में उनकी इच्छा है तो वे अपने मन व इन्द्रियों को उधर जाने देते हैं, नहीं तो उसे अपनी इच्छानुसार रोक लेते हैं। कभी अपनी इन्द्रियों से बाहर का काम लेते हैं, कभी उन्हीं इन्द्रियों से आत्मकार्य करते हैं। वे बाहर से इन्द्रिय भोगों को भोग रहे हैं अंतर से अतिन्द्रय सुख का अनुभव करते हैं, इसी का नाम जितेन्द्रियता है। इन्द्रियों के भोगों को भोगते हुये भी अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होना यह सामान्य बात नहीं है।
भरतजी की दृष्टि से सिर मुंडने के बदले मन को मुंडने में अधिक महत्व है। शरीर को सुखाने के स्थान में कर्म को सुखाने में उनको अधिक आनंद आता है। बाह्य द्रव्य को देखते हुये किये जाने वाले तपों की अपेक्षा आत्मदर्शनपूर्वक की जाने वाली तपश्चर्या उन्हें अधिक प्रिय है। शास्त्र के मर्म को समझकर केवल वस्त्र को ही परिग्रह समझ उसे त्याग करने वाला मुनि नहीं है। वस्त्र के समान ही तीन लोक व शरीर परिग्रह है। परिग्रह के बीच रहने पर भी वे परिग्रह से अलग है, शरीर के अंदर रहने पर भी वे परिग्रह से अलग है। शरीर के अंदर रहने पर भी वे शरीर से भिन्न हैं। सचमुच में उनकी अलौकिक शक्ति हैं। लोक की सर्व स्त्रियों को छोड़कर अपनी स्त्री में रत होने वाले क्या दृढ़ ब्रह्मचारी हैं? नहीं! नहीं! केवल आत्मा में रत होने वाला वह भरतजी दृढ़ ब्रह्मचारी हैं। विचार करने पर आत्मा का ही नाम ब्रह्मा है। अपनी आत्मारूपी आकाश में अपने मन का संचार करना यही तो ब्रह्मचारी है और यही मुक्ति का बीज है।
प्र. ६८३ : भरतेश भोजन करते समय आत्मा को क्या समझते थे?
उत्तर : सम्राट ने भेदविज्ञान के बल से आत्मा को उस शरीर के मध्य में रखकर उससे पूछा कि हे चिन्मय परमात्मा! मैं इस शरीर को यह पौद्गलिक अन्न क्यों खिलाऊँ? तुम्हारी क्या आज्ञा है? तुम तो कार्माण वर्गणारूपी आहार को भार समझते हो। ऐसी अवस्था में हे स्वर्ग-मोक्ष पति! तुमको इस कवलाहारों से क्या होगा? इनसे पुद्गल को ही लाभ है। आहार लेने की इच्छा करने वाले मन, इन्द्रिय शरीर, वचन आदि सबके सब पुद्गल है, इस पौद्गलिक शरीर के उपयोगी यह आहार है। तुम्हारा उससे क्या संबंध है?
हे आत्मन् ! तुमने पूर्व जन्म में जो पुण्य किया, उसके फलस्वरूप सुख को अब भोगकर छोड़ो! इस पुण्य को व्यय करने के लिये मैं यह भोजन कर रहा हूँ। आज इस अन्न के सुख का अनुभव करो। कल तुम्हें आत्मा के अनंत सुख का अनुभव होगा। इस प्रकार अनेक प्रकार से समझाते हुये भरतेश्वर भोजन करते थे।
(पृ.९३ भ. वैभव)
प्र. ६८४ : भरतेश्वर के भोग भोगते हुये कर्म की निर्जरा किन परिणामों से होती थी?
उत्तर : सम्राट का ख्याल है कि वे जिस सुख को भोग रहे हैं, वह पाप रहित सुख है क्योंकि उसे भोगते हुये भी वे अपने को भूल नहीं रहे हैं। वे उस सुख को बाह्य व हेय सुख समझ रहे हैं। इसलिये भोगते हुये भी कर्म की निर्जरा हो रही है। भरतेश अपने मन में समझ रहे हैं कि एकमात्र परमात्मा का सुख शाश्वत व उपोदय है उसका अस्तित्व मेरी आत्मा के साथ, वज्रलेप के समान है।
प्र. ६८५ : भरतेश दो प्रकार का स्नान करते थे, कौनसे?
उत्तर : भरतेश दो प्रकार का स्नान किया करते थे। एक भोगस्नान, दूसरा योगस्नान। शरीर को सुंदर तथा निर्मल बनाने के लिये अर्थात् भोग के प्रयोजन से स्नान करना भोग स्नान है, देवपूजा, ध्यान, पात्रदान आदि करना वह योग स्नान है।
भोग स्नान के लिये मालिश करने की आवश्यकता होती है। तेल, अंगरस व अन्य सुगंधित द्रव्य की भी आवस्यकता रहती हैं। पानी भी अधिक लगता है। अतएव उसमें समय भी अधिक लगता है। परन्तु योगको भी के लिये इन सब बातों की आवश्यकता नहीं होती है इसलिये वह बहुत शीघ्र ही हो जाता है।
प्र. ६८६ : भरतेश का श्रृंगार भी दो प्रकार का होता था, कौनसा ?
उत्तर : एक मोहन श्रृंगार, दूसरा मोक्ष श्रृंगार। अपनी स्त्री को प्रसन्न करने वाले वस्त्र व आभूषणों से अपने कापणीव कसे सुसज्जित करना मोहन श्रृंगार है। मोहरहित मोक्षलक्ष्मी को प्रसन्न करने वाले, जिनपूजा के योग्य हत्तीरोगो से शरीर को सुसज्जित करना मोक्ष श्रृंगार है क्योंकि जिनपूजा मोक्षांग क्रिया है। उस समय घटक भएक रहित निर्मोह अलंकारों की प्रधानता रहनी चाहिये। भरतेश्वर के ऐसे दो प्रकार के श्रृंगार थे।
प्र. ६८७ : भरतेश एक शुद्ध आवक के समान जाते थे, कैसे?
उत्तर : अत्यंत शुचिर्भूत होकर शांत चित्त से जिनमन्दिर की ओर रवाना हुये, अब उनकी कठोर आज्ञा है कि जिनमन्दिर जाते समय मार्ग में उनकी कोई प्रशंसा न करे, इतना ही नहीं कोई हाथ भी नहीं जोड़े। आब उनके साथ कोई राजकीय वैभव नहीं है, छत्र नहीं है, चामर नहीं और कोई सेवक नहीं होता था। राजा होने का अभिमान भी नहीं है। उन सब बातों को छोड़कर उन्होंने अब केवल संसार भय व प्रभु भक्ति को अपना साथी बना लिया है, वे एक शुद्ध श्रावक के समान जिनमन्दिर जाते थे।
प्र. ६८८ : भरत चक्रवर्ती ने किस ग्रंथ की रचना की थी?
उत्तर : भरत चक्रवर्ती ने पहले भगवान आदि प्रभु के चरणों में जाकर आत्मतत्व के विवेचन को जानकर उसे सर्वसाधारण को समझने योग्य भाषा में आत्मप्रवाद नाम के ग्रंथ की रचना की थीं।
प्र. ६८९: किस प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिये?
उत्तर : बहुत से शास्त्रों को जिनसे आत्महित होने की कोई सम्भावना ही न हो, पढ़कर अपना अकल्याण न कर लेवें। केवल अपने आत्महित के साधन अध्यात्म करें। लोक में अगणित शास्त्रों को पढ़ने पर भी आत्मकल्याण की भावना उत्पन्न न हुई तो उन शास्त्रों को पढ़ने का क्या प्रयोजन है। इसलिये ऐसे शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये, जिनसे आत्मतत्व की प्राप्ति हो सके।
प्र. ६९० : चक्ररत्न का नाम सुदर्शन चक्र क्यों पड़ गया?
उत्तर : सबके रूप को दिखाने के कारण से चक्ररत्न का नाम सुदर्शन चक्र पड़ा है।
प्र. ६९१ : भरतेश चक्रवर्ती व उनकी पटरानी के आहार का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर : भरतेश्वर ३२ ग्रास आहार लेते हैं। उससे एक ग्रास प्रमाण पटरानी लेती है। पटरानी जो एक ग्रास लेती है उसे सारी सेना मिलकर ले तो भी पचा नहीं सकती। यह आहार दिव्यान्न है उसमें दिव्य शक्ति है।
प्र. ६९२ : क्या भरतेश्वर का सम्पूर्ण परिवार भव्य था?
उत्तर: भरतेश्वर की रानियों में कोई भी अभव्य नहीं है। सभी देवियाँ भव्य ही है। वे क्रमशः अव्यय सिद्धि को प्राप्त करेंगी। यह जन्म उनका स्त्री जन्म है, आगे उनका अब स्त्री जन्म नहीं है। वे क्रमशः अव्यय सिद्धि को प्राप्त करेंगी। आगे पुरुष लिंग को पाकर वे सभी मुक्ति को प्राप्त करेंगी। भरतेश्वर की पुत्रियाँ, बहुचे, पुत्र, जैवाई सभी उनके संबंधित होने से पुण्यशाली है, भव्य है, अभव्य नहीं है।
प्र. ६२५ : आहारक शरीर का काल अंतर्मुहूर्त है, उस समय वह साधु अपने औदारिक शरीर से गमन करे या नहीं और उसे यदि विक्रिया ऋद्धि भी हो तो उस ऋद्धि शरीर की विक्रिया रूप चेष्टा कर सकता है या नहीं?
उत्तर : प्रमत्त संयत मुनिराज के एक काल में एक साथ ही वैक्रियिक काययोग की क्रिया में आहारक काययोग की क्रिया नहीं होती है। इससे सिद्ध होता है कि आहारक योग के समय औदारिक वैकियिक शरीर गमनागमनादि का नियम से अभाव होता है, एक काल में ये दो क्रियाएँ नहीं होती है।
प्र. ६२६ : औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस व कार्मण शरीर की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति कितनी-कितनी है?
उत्तर: औदारिक शरीर की जघन्य स्थिति एक श्वास के १८वें भाग प्रमाण है। वैक्रियिक शरीर की जघन्य स्थिति देवनारकियों की अपेक्षा दस हजार वर्ष है, आहारक शरीर की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है, तेजस व कार्माण की जघन्य स्थिति अन्य गति के गमन की अपेक्षा एक दो तीन समय है।
पाँचों शरीर की उत्कृष्ट स्थिति भोगभूमि की अपेक्षा औदारिक शरीर की बंध रूप उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है, देवनारकियों की अपेक्षा वैक्रियिक की ३३ सागर है। आहारक की अंतर्मुहूर्त है। तेजस शरीर की ६६ सागर है। कार्माण शरीर की उत्कृष्ट स्थिति सामान्य रीति से ७० कोड़ाकोड़ी सागर है तथा विशेष रीति से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय की स्थिति ३० कोड़ाकोडी सागर है। नाम और गोत्र की २० कोड़ाकोड़ी सागर है।
प्र. ६२७ : मरण और दुःख की जननी कौन है?
उत्तर :काया (शरीर) है।
प्र. ६२८ : शरीर में रोमों की संख्या बतलाओ।
उत्तर: शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम अर्थात् बाल है।
प्र. ६२९ : औदारिक शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं?
उत्तर: औदारिक शरीर में 300 हड्डियाँ हैं।
प्र. ६३० : औदारिक शरीर में कितनी संधियाँ हैं?
उत्तर : औदारिक शरीर में ३०० संधियाँ हैं।
प्र. ६३१ : औदारिक शरीर में कितनी त्वचा हैं?
उत्तर: औदारिक शरीर में ७ त्वचा हैं।
प्र. ६३२ : हमारा शरीर चेतन है या अचेतन?
उत्तर : हमारा शरीर तथा अन्य सभी प्राणियों के शरीर अचेतन हैं क्योंकि शरीर की रचना पुद्गल द्रव्य से होती है। परंतु चेतन आत्मा के साथ संबंध होने से जीवित मनुष्य के शरीर को व्यवहार से चेतन कहा जाता है।