जिनेन्द्रदेव की निर्दोष वाणी रूप होने के कारण सम्पूर्ण आगम ग्रंथ समान आदर तथा श्रद्धा के पात्र हैं, फिर भी जैन संसार में धवल, जयधवल, महाधवल नामक शास्त्रों के प्रति उत्कट अनुराग एवं तीव्र भक्ति का भाव विद्यमान है। इस विशेष आदर का कारण यह है कि तीर्थंकर भगवान महावीरप्रभु की दिव्यध्वनि को ग्रहण कर गणधरदेव ने ग्रंथ-रचना की। वह मौखिक परम्परा के रूप में, विशेष ज्ञानी मुनीन्द्रों की चमत्कारिणी स्मृति के रूप में हीयमान होती हुई विद्यमान थी। महावीर निर्वाण के छह सौ तिरासी वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और पूर्वों के एकदेश का भी ज्ञान लुप्त होने की विकट स्थिति आ गयी। उस समय अग्रायणीयपूर्व के चयनलब्धि अधिकार के चतुर्थ प्राभृत ‘कम्मपयडि’ के चौबीस अनुयोग द्वारों से ‘षट्खंडागम’ के चार खंड बनाये गये, जिन्हें वेदना, वर्गणा, खुद्दाबंध तथा ‘महाबंध’ कहते हैं। बन्धक अनुयोग द्वार के अन्यतम भेद बंधविधान से जीवट्ठाण का बहुभाग और तीसरा बंधसामित्तविचय निकले। इस प्रकार षट्खंडागम का द्वादशांग वाणी से संबंध है। इसी प्रकार ज्ञानप्रवाद नामक पंचमपूर्व के दशम वस्तु अधिकार के अंतर्गत तीसरे ‘पेज्जदेसपाहुड’ के कषायप्राभृत की रचना की गयी। इन ग्रंथों का द्वादशांगवाणी से अविच्छिन्न संबंध होने के कारण द्वादशांगवाणी के समान श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक आदर किया जाता है। ‘षट्खंडागम’ के महाबंध को छोड़कर पाँच खंडों पर जो वीरसेनाचार्य रचित टीका है, उसे धवल टीका कहते हैं। महाबंध पर कोई टीका उपलब्ध नहीं है। कषायप्राभृत की गुणधर आचार्य रचित एक सौ अस्सी गाथाएँ हैं। इनमें तिरेपन गाथाएँ और जोड़ने पर गुणधर आचार्य रचित कुल गाथाओं की संख्या दो सौ तेतीस हो जाती है। जयधवला टीका में कहा है-‘‘कसायपाहुडे सोलसपदसहस्साणि (१६०००)। एदस्स अवसंहारगाहाओ गुणहर-मुह-कमल-विणिग्गियायो तेत्तीसाहिय-विसदमेत्तीओ २३३’’ (भाग १, पृ. ९६)। यतिवृषभ आचार्य ने छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र बनाये। इसकी बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण टीका वीरसेनाचार्य तथा उनके शिष्य भगवज्जिनसेन स्वामी ने बनायी, उसका नाम जयधवला टीका है।
सूत्र रचना—‘षट्खंडागम’ के जीवट्ठाण के प्रारंभिक सत्प्ररूपणा अधिकार के केवल एक सौ सतहत्तर सूत्रों की रचना पुष्पदन्त आचार्य ने की है, शेष समस्त रचना भूतबलि स्वामीकृत है। जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्त, वेदना और वर्गणा-इस सूत्र रूप पाँच खंडों की श्लोक संख्या छह हजार प्रमाण है। छठे खण्ड महाबंध में चालीस हजार श्लोक प्रमाण सूत्र हैं। साधारणतया सम्पूर्ण धवला, जयधवला टीका को द्वादशांग से साक्षात् संबंधित समझा जाता है।
द्वादशांग वाणी से संबंध रखने वाले प्राचीन साहित्य की दृष्टि से श्री गुणधर आचार्य रचित दौ सौ तेतीस को जो विशेषता प्राप्त होगी, वह उन पर रची गयी बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण टीका को नहीं होगी। इसी दृष्टि से यदि धवला टीका पर भी प्रकाश डाला जाय तो कहना होगा कि साठ हजार श्लोक प्रमाण टीका भी नौवीं सदी की है, प्राचीन अंश पाँच खंडों के रूप में केवल छह हजार श्लोक प्रमाण हैं। महाबंध ग्रंथ की सम्पूर्ण चालीस हजार श्लोक प्रमाण रचना भूतबलि स्वामीकृत होने के कारण अत्यंत प्राचीन तथा महत्वपूर्ण है। इस प्रकार सबसे प्रचीन जैन वाङ्मय की दृष्टि से महाबंध सूत्र की रचना धवला, जयधवला टीकाओं के मूल की अपेक्षा लगभग सात गुनी है। ब्रह्म हेमचंद रचित श्रुतस्कंध में लिखा है—
सत्तरिसहस्सधवलो जयधवलो सट्ठिसहस्स बोधव्वो।
महबंधं चालीसं सिद्धंततयं अहं वंदे।।
‘धवलशास्त्र सत्तर सहस्र श्लोक प्रमाण है, जयधवल साठ हजार प्रमाण है तथा महाबंध चालीस हजार प्रमाण है। इन सिद्धांतशास्त्रत्रय की मैं वंदना करता हूँ।
आचार्य श्री इंद्रनन्दि ने महाबंध को तीस हजार श्लोक प्रमाण कहा और ब्रह्म हेमचंद चालीस हजार श्लोक प्रमाण बताते हैं। इस मतभेद का कारण यह विदित होता है कि सम्भवत: आचार्य श्री इन्द्रनन्दि ने महाबंध में उपलब्ध अक्षरों की गणनानुसार अपनी संख्या निर्धारित की, ब्रह्म हेमचंद ने महाबंध के संक्षिप्त किये सांकेतिक अक्षरों को, सम्भवत: पूर्ण मानकर गणना की। ‘ओरालियसरीर’ को महाबंध में ओरा लिखा है। इसे आचार्य श्री इन्द्रनन्दि ने दो अक्षर माने और ब्रह्म हेमचंद ने सात अक्षर रूप गिना। समस्त ग्रंथ में पुन:-पुन: प्रकृति आदि के नामों की गणना हुई है, इस कारण भूतबलि स्वामी ने सांकेतिक संक्षिप्त शैली का आश्रय लिया अत: आचार्य श्री इन्द्रनन्दि और हेमचंद की गणना में भिन्नता तात्त्विक भिन्नता नहीं है।
महाधवल—जैन समाज में महाबंध शास्त्र महाधवल जी के नाम से विख्यात है। महाबंध नाम को पढ़कर कुछ लोग तो भ्रम में पड़ेंगे। यथार्थ में गं्रथ का नाम महाबंध के अनुभागबंध खंड के अंत की प्रशस्ति से प्रमाणित होता है। वहाँ लिखा है—
‘‘सकलधरित्री-विनुत-प्रकटितमधीशे मल्लिकव्वे वेरिसि सत्पुण्याकर-महाबंध पुस्तकं श्रीमाघनंदिमुनिपतिगित्तल्।’’
यह महाबंंध भूतबलि स्वामी द्वारा रचित है, इस बात का निश्चय धवला टीका (सिवनी प्रति, पृ. १४३७) के इस अवतरण से होता है—
‘‘जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं। पयडिबंधो, ट्ठिदिबंधो, अणुभागबंधो, पदेसबंधो चेदि। एदेसिं चदुण्हं बंधाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं।
धवला टीका महाबंधशास्त्र के रचयिता के रूप में श्री भूतबलि स्वामी का नाम बताती है। महाबंध नाम का परिज्ञान पूर्वोक्त अनुभागबंध की प्रशस्ति से होता है अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि इस महाबंध के निर्माता भूतबलि स्वामी हैं। इसी महाबंध की महाधवल के नाम से ख्याति है।
यहाँ यह विचार उत्पन्न होता है कि ‘महाबंध’ शास्त्र का नाम ‘महाधवल’ प्रचलित होने का क्या कारण है ? इस संबंध में यह विचार उचित जँचता है कि ‘महाबंध’ में भूतबलि स्वामी ने अपने प्रतिपाद्य विषय का स्वयं अत्यंत विशद तथा स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन किया है। इसी कारण वीरसेन आचार्य अपनी ‘धवला’ टीका में लिखते हैं कि इन चार बंधों का विस्तृत विवेचन भूतबलि भट्टारक ने ‘महाबंध’ में किया है, महाबंध के विशेषण रूप में महाधवल शब्द का प्रयोग अनुचित नहीं दिखता। यह भी सम्भव दिखता है कि विशेष्य के स्थान में विशेषण ने ही लोकदृष्टि में प्राधान्य प्राप्त कर लिया हो। यह भी प्रतीत होता है कि परम्परा शिष्य सदृश वीरसेन, जिनसेन स्वामी ने अपनी सिद्धांतशास्त्र की टीकाओं के नाम धवला, जयधवला रखे, तब स्वयं स्पष्ट प्रतिपादन करने वाले गुरुदेव भूतबलि की महिमापूर्ण कृति को भक्ति तथा विशिष्ट अनुरागवश महाधवल कहना प्रारंभ कर दिया गया होगा।
‘महाबन्ध’ के प्रथम भाग का नाम—प्रकृतिबन्धाधिकार (पयडिबंधाहियारो) है। इसमें प्रकृतिबन्ध का अधिकार है। प्रकृतियों के स्वरूप का निरूपण करना ‘प्रकृति समुत्कीर्तन’ कहलाता है। जो महाबन्ध के प्रथम भाग का मूल विषय है किन्तु ताड़पत्र के त्रुटित होने से कुछ अंश प्रकाशित नहीं हो सकता है। प्रकृतिसमुत्कीर्तन के दो भेद हैं—मूलप्रकृतिसमुत्कीर्तन और उत्तरप्रकृतिसमुत्कीर्तन। अपने अन्तर्गत समस्त भेदों का संग्रह करने वाली तथा द्रव्यार्थिकनय निबन्धक प्रकृति का नाम मूल प्रकृति है। अलग–अलग अवयव वाली तथा पर्यायार्थिकनय निमित्तक प्रकृति को उत्तर प्रकृति कहते हैं। मूल में जीव और कर्म स्वतन्त्र दो द्रव्य हैं। जीव अमूर्त है और कर्म मूर्तिक है। अनादिकाल से जीव और कर्म का भावात्मक तथा द्रव्यात्मक सम्बन्ध है। ‘प्रकृति’ शब्द का अर्थ शील, स्वभाव है। निक्षेप की दृष्टि से विचार किया जाए तो नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ये चार भेद किये गये हैं। द्रव्यप्रकृति के भी दो भेद हैं—कर्मद्रव्यप्रकृति और नोकर्मद्रव्यप्रकृति। जैसे—घट, सकारो आदि की प्रकृति मिट्टी है, पुद्गल की प्रकृति पूरन-गलन है; वैसे ही ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृति है। ज्ञान जीव का स्वभाव है और ज्ञान का आवरण करना यह ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव है। ज्ञानावरण कर्म की पाँच प्रकृतियाँ हैं–आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। मिथ्यात्व के उदय से होने वाले आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान को कुज्ञान कहा जाता है। ज्ञान एक होने पर भी बन्धविशेष के कारण वह पाँच प्रकार का कहा गया है।
मतिज्ञान—ज्ञान के पाँच भेद आभिनिबोधिकज्ञान—पाँच इन्द्रियों और मन के निमित्त से अप्राप्त रूप बारह प्रकार के पदार्थों का अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा एवं प्राप्त रूप उन बारह प्रकार के पदार्थों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियों के द्वारा मात्र अवग्रह रूप होता है इसलिये इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अर्थावग्रह व्यक्त वस्तु को ग्रहण करता है जो इन्द्रिय और मन के द्वारा होता है। ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान भी पाँच इन्द्रियों और मन से होने के कारण अर्थावग्रह की भाँति प्रत्येक छह-छह भेद वाला है। इस कारण व्यंजनावग्रह के चार भेदों में अर्थावग्रहादि के चौबीस भेदों को मिलाने से २८ भेद होते हैं अतएव आभिनिबोधिकज्ञानावरण कर्म के भी २८ भेद हो जाते हैं। इसके बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, उक्त, अनुक्त, धु्रव, अध्रुव, नि:सृत, अनि:सृत इन बारह प्रकार के पदार्थों को विषय करने से प्रत्येक के बारह—बारह भेद हो जाते हैं। इस प्रकार २८ ² १२ · ३३६ भेद मतिज्ञान या आभिनिबोधिकज्ञान के होते हैं अत: आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकर्म के भी ३३६ भेद होते हैं।
श्रुतज्ञान—ज्ञान का दूसरा भेद श्रुतज्ञान हैं यह मतिज्ञानपूर्वक मन के आलम्बन से होता है। श्रुतज्ञान के शब्दजन्य तथा िंलगजन्य दो भेद किये गये हैं। यथार्थ में पदार्थ को जानकर उसके सम्बन्ध में या उससे सम्बन्धित अन्य पदार्थ के सम्बन्ध में विचारधारा की प्रवृत्ति होना श्रुतज्ञान है। इस दृष्टि से श्रुतज्ञान अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अथवा द्रव्य-भाव के भेद से दो प्रकार का है। अत: आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंग, उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व और सामायिकादि चौदह प्रकीर्णक द्रव्यश्रुत हैं। द्रव्यश्रुत अक्षरात्मक है। उसके सुनने—पढ़ने से श्रुतज्ञान के पर्याय रूप जो उत्पन्न हुआ ज्ञान है, वह भावश्रुत है। वर्तमान परमागम नाम से द्रव्यश्रुत तथा परमागम के आधार से उत्पन्न निर्विकार, स्वसंवेदन (आत्मानुभव) ज्ञान रूप भावश्रुतज्ञान है अत: आत्मविषयक उपयोग दर्शन कहा गया है। दर्शन ज्ञानरूप नहीं होता क्योंकि ज्ञान बाह्य अर्थों को विषय करता है।
अवधिज्ञान—द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से सीमित ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसको सीमाज्ञान भी कहते हैं। महास्कन्ध से लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्यों को, असंख्यात लोवâप्रमाण क्षेत्र, काल और भावों को तथा कर्म के सम्बन्ध से पुद्गल भाव को प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्ष रूप से जानता है उसे अवधिज्ञान समझना चाहिए। जहाँ इस ज्ञान का विकास नहीं हो रहा है वह अवधिज्ञानावरणीय कर्म है जो एक प्रकार का है। उसकी प्ररूपणा दो प्रकार की है। क्षयोपशम की दृष्टि से असंख्यात प्रकार का होने पर भी अवधिज्ञान के मुख्य दो भेद कहे गये हैं—भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों और तीर्थंकरों के होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यंचों तथा मनुष्यों के होता है। इन दोनों अवधिज्ञानों के अनेक भेद हैं—देशावधि, परमावधि और सर्वावधि तथा हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र। इन सबका प्रतिबन्धक होने से अवधिज्ञानावरण कर्म कहा जाता है। इसकी असंख्यात कर्म प्रकृतियाँ हैं। काल की अपेक्षा अवधिज्ञान जघन्य से दो-तीन तथा उत्कर्ष से सात-आठ भवों को जानता है।
मन:पर्ययज्ञान—दूसरे के मन में स्थित विषय को जो जानता है, वह मन:पर्यय ज्ञान है। इसका जो आवरण करता है वह मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म है। मन:पर्ययज्ञान के दो भेद हैं—ऋजुमति और विपुलमति। पैंतालीस लाख योजन के भीतर के चित्तगत स्थित पदार्थ को मन:पर्ययज्ञान जानता है। मन:पर्ययज्ञान पराधीन ज्ञान नहीं है। वर्तमान काल में जीवों के मन में स्थित सरल मनोगत, वचनगत और कायगत पदार्थ को जो जानता है, वह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है। जिसकी मति विस्तीर्ण है, वह विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है। द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य रूप से चक्षु इन्द्रिय की निर्जरा को जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य से सात—आठ भवों को और उत्कृष्ट से असंख्यात भवों को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा जो भी द्रव्य इसे ज्ञात है उस—उसकी असंख्यात पर्यायों को जानता है। ऋजुमति में इन्द्रियों और मन की अपेक्षा होती है; किन्तु विपुलमति में उनकी अपेक्षा नहीं होती है।
केवलज्ञान—केवलज्ञान सम्पूर्ण तथा अखण्ड है। खण्डरहित होने से वह सकल है। पूर्ण रूप से विकास को प्राप्त होने से उसे सम्पूर्ण कहा गया है। कर्म शत्रुओं का अभाव होने से वह असपत्न है। केवलज्ञान का विषय तीनों कालों और तीनों लोकों के सम्पूर्ण पदार्थ माने गये हैं। यथार्थ में केवलज्ञान की स्वच्छता का ऐसा परिणमन है कि तीनों लोकों व तीनों कालों के जितने पदार्थ हैं वे सब एक साथ एक समय में केवलज्ञान में झलकते हैं। लोक में ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो अत: ज्ञान का धर्म ज्ञेय को जानना है और ज्ञेय का स्वभाव का विषय होना है। इन दोनों में विषय—विषयीभाव का सम्बन्ध है। लेकिन सर्वज्ञ का ज्ञान सम्पूर्ण सम्बन्धों से रहित परम स्वाधीन है। फिर ज्ञान ज्ञान—चेतना से निकलकर बाहर जाता नहीं है और ज्ञेय कभी भी ज्ञान में प्रवेश करता नहीं है अतएव केवलज्ञान असहाय है, उसे मन और इन्द्रियों की तथा ज्ञेय द्रव्यों की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं होती है। यही कारण है कि केवलज्ञानी का ज्ञान युगपत् (एक साथ) सब को जानता है; क्रमवार नहीं लेकिन एक साथ तीनों लोकों, तीनों कालों के सभी द्रव्यों, उनके गुणों और पर्यायों को जानने पर भी ज्ञान सीमित नहीं होता बल्कि व्यापक हो जाता है।
कर्म की सामान्य प्रकृतियाँ १४८ हैं। इनके विशेष भेद किये जाएं तो अनन्त भेद हो जाते हैं। ओघ से ५ ज्ञानावरण तथा ५ अन्तराय की प्रकृतियों का सर्वबन्ध होता है। आयुकर्म को छोड़कर सातों कर्मों की प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध होता है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगों के निमित्त से कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्त से जाति, बुढ़ापा, मरण और वेदना उत्पन्न होते हैं। शुभाशुभ कर्मों का विपाक प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग इन चार भागों में विभक्त है। जीवों को एक और अनेक जन्मों में पुण्य तथा पाप कर्म का फल प्राप्त होता है।
धर्मध्यान कषायसहित जीवों के होता है। जिनदेव का उपदेश है कि असंयत सम्यग्दृष्टि के धर्मध्यान होता है। (षट्खण्डागम, वर्गणाखण्ड ५, ४, २६) प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मिथ्यात्व गुणस्थान सम्बन्धी १६ और सासादन गुणस्थान सम्बन्धी २५ प्रकृतियों का अभाव होने से बन्ध योग्य ७७ प्रकृतियाँ कही गयी हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में सातवें गुणस्थान से ग्यारहवें पर्यंत आरोहण कर जीव जब उतरकर चौथे गुणस्थान में आता है तब भी ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व की भाँति मनुष्यायु और देवायु का अभाव होता है।
दर्शनावरण, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी, तिर्यंचगति त्रिक का जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। ‘कर्मस्थिति’ शब्द से केवल दर्शनमोहनीय की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति का ग्रहण हुआ है। उसमें सब कर्मों की स्थिति संगृहीत है। (महाबन्ध, भा. १, पृ. ६३) अनन्तानुबन्धी का सासादन पर्यंत बन्ध होता है किन्तु मिथ्यात्व का प्रथम गुणस्थान पर्यन्त।
‘महाबन्ध’ के प्रथम भाग का ‘प्रकृतिबन्धाधिकार’ षट्खण्डागम के वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत बन्धनीय अर्थाधिकार में २३ पुद्गल वर्गणाओं की प्ररूपणा में विवेचित है। मिथ्यादर्शन, असंयमादि परिणाम विशेष से कार्मणवर्गणा के परमाणु कर्म रूप से परिणत होकर जीव प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं जिसे ‘प्रकृतिबन्ध’’ कहते हैं।
प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा २४ अनुयोग द्वारों में की गयी है जो इस प्रकार है—
१. प्रकृति समुत्कीर्तन—इस अनुयोगद्वार में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा है। महाबन्ध के इस भाग में ज्ञानावरणीय की उत्तर तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा अनुयोगद्वार के समान प्ररूपित है।
२—३. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध—इन दो अनुयोगद्वारों में ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियों के विषय में सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध की प्ररूपणा की गयी है। जिस कर्म की जब अधिक से अधिक प्रकृतियाँ एक साथ बँधती हैं तब उनके बन्ध को सर्वबन्ध कहते हैं। उदाहरण के लिए ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ और अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ दोनों अपनी बन्ध व्युच्छित्ति होने तक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं इसलिए इन दोनों कर्मों का सर्वबन्ध है। दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान में निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला तथा स्त्यानगृद्धि इन तीन की बन्ध व्युच्छित्ति हो जाने से उसके बाद के अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक छह प्रकृतियाँ बँधती हैं इसलिए उसका यह नोसर्वबन्ध है। इसी प्रकार प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के व्युच्छिन्न हो जाने पर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक उसकी चार प्रकृतियाँ बँधती हैं जो दर्शनावरण का नोसर्वबन्ध है। वेदनीय, आयु और गोत्र इन तीन कर्मों का नोसर्वबन्ध ही होता है। इसका कारण यह है कि एक समय में इन कर्मों की एक प्रकृति का ही बन्ध सम्भव है।
४—७. उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध ये प्रकृतिबन्ध में सम्भव नहीं हैं।
८—९. सादि-अनादिबन्ध—किसी कर्मप्रकृति के बन्ध का अभाव हो जाने पर पुन: उसका बन्ध होना सादिबन्ध कहा जाता है। जैसे कि ज्ञानावरण की ५ प्रकृतियों का बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय तक होता है। जो जीव इस गुणस्थान में बन्ध व्युच्छित्ति करके उपशान्तकषाय हुआ है, उसके वहाँ उनके बन्ध का अभाव हो गया परन्तु जब उपशान्तकषाय से गिरकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आता है तब उन प्रकृतियों का पुन: बन्ध होने लगता है इसे सादिबन्ध कहते हैं।
जब तक जीव श्रेणि पर आरोहण नहीं करता तब तक उसके अनादिबन्ध होता रहता है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक अनादिबन्ध कहा गया है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के सम्बन्ध में भी सादि-अनादि बन्ध का विचार किया गया है।
१०—१०. ध्रुव—अध्रुवबन्ध—अभव्य जीव के जो बन्ध होता है वह ध्रुवबन्ध है क्योंकि उसके अनादिकाल से होने वाले उस कर्मबन्ध का कभी अभाव होने वाला नहीं है किन्तु भव्य जीवों का कर्मबन्ध अध्रुवबन्ध है क्योंकि उनके कर्मबन्ध का अभाव हो सकता है।
१२. बन्ध स्वामित्वविचय—इस प्रकरण का ओघ तथा आदेश से दो प्रकार का निर्देश किया गया है। ओघ की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगकेवली पर्यन्त चौदह जीवसमास—गुणस्थान होते हैं। इनमें प्रकृतिबन्ध की व्युच्छित्ति कही गई है। बन्ध व्युच्छित्ति प्राप्त प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं—मिथ्यात्व में १६, सासादन में २५, अविरत में १०, देशविरत में ४, प्रमत्तसंयत में ६, अप्रमत्तसंयम में १, अपूर्वकरण में ३६, अनिवृत्तिकरण में ५, सूक्ष्मसाम्पराय में १६, सयोगकेवली में १, इस प्रकार इन १० गुणस्थानों के जीव बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
मनुष्यगति में क्या है ?—
मनुष्यगति में मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थान हैं। कर्म बन्ध के योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं। इनका वर्णन ओघवत् किया गया है। इनमें विशेष यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकर, आहारकद्विक का बन्ध न होने से शेष ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतियों का बन्ध न होने से १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिश्र गुणस्थान में ६९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि के देवायु तथा तीर्थंकर का बन्ध प्रारम्भ हो जाने से ७१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। देशविरत में अप्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध न होने से ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। प्रमत्त गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध न होने से ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अप्रमत्तसंयत के अस्थिर, असाता, अशुभ, अरति, शोक, अयश:कीर्ति इन छह का बन्ध नहीं होता किन्तु आहारकद्विक का बन्ध होने से ५९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अपूर्वकरण में देवायु का बन्ध न होने से ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अनिवृत्तिकरण में बन्ध योग्य २२ प्रकृतियाँ हैं। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में अनिवृत्तिकरण की पुरुषवेद और ४ संज्वलन कषायों की बन्ध व्युच्छित्ति हो जाने से १७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपशान्तकषाय में एक सातावेदनीय का ही बन्ध होता है। क्षीणकषाय और सयोगी जिन के एक सातावेदनीय का ही बन्ध कहा गया है। अयोगकेवली के कोई बन्ध नहीं होता।
बारह अनुयोग द्वार—
इनके अतिरिक्त बारह अनुयोगद्वारों में भी उल्लेख किया गया है। उन अनुयोगद्वारों के नाम इस प्रकार हैं—
१३. एक जीव की अपेक्षा काल प्ररूपणा,
१४. एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम प्ररूपणा,
१५. सन्निकर्ष प्ररूपणा,
१६. भंगविचय प्ररूपणा,
१७. भागाभागानुगम प्ररूपणा,
१८. परिमाणानुगम प्ररूपणा,
१९. क्षेत्रानुगम प्ररूपणा,
२०. स्पर्शनानुगम प्ररूपणा,
२१. अनेक जीवों की अपेक्षा कालानुगम प्ररूपणा,
२२. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम प्ररूपणा,
२३. भावानुगम प्ररूपणा,
२४. अल्पबहुत्वानुगम प्ररूपणा
इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वारों में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा के समान प्रवृâत प्रकृतिबन्धाधिकार (महाबन्ध) में प्रकृति अनुयोगद्वार के समान ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के प्रसंग से उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है।