पात्रानुक्रमणिकाधनपाल उज्जयिनी का राजा धनदत्त उज्जयिनी का सेठ दृढ़सूर्य चोर बसंतसेना वेश्या वृद्ध स्वर्ग का देव मंत्रीगण कर्मचारीगण (दृढ़सूर्य चोर वेश्या के चंगुल में फसकर रानी का हार चुराता है और पकड़े जाने पर फाँसी पर लटकाया जाता है। उस समय धनदत्त सेठ से णमोकार मंत्र प्राप्त कर उसे पढ़ते हुए स्वर्ग में देव की पर्याय पा लेता है। इधर धनदत्त पर चोर से मिले हुए होने की आशंका से राजा के द्वारा संकट आने पर देव स्वर्ग से आकर वृद्धरूप लेकर राजा के कर्मचारियों से धनदत्त सेठ की रक्षा करता है। अनन्तर मंत्र के प्रभाव को छोड़कर सभी जैन हो जाते हैं।)
प्रथम दृश्य
समय — रात्रि। स्थान — वेश्या का महल।
दृढ़सूर्य — प्रिये बसन्तसेने! क्या कारण है मुझसे कोई अपराध हो गया है या तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट है, मुझे शीघ्र ही बतलाओ। तुम इस तरह उन्मनस्कचित्त क्यों सोयी हुई हो ?
वेश्या — प्रियतम! आप जैसे प्रेमी को पाकर मुझे कोई भी कष्ट नहीं है और न आप से कुछ अपराध ही हुआ है किन्तु आज मैंने एक सुन्दर रत्नहार देखा है उसके प्राप्त किये बिना मेरा जीवन किस काम का और आपका प्रेम भी किस काम का ? मैं तो आप को तभी सच्चा प्रेमी समझूँगी जब कि वह हार आप लाकर मेरे गले में पहना दें।
दृढ़सूर्य — प्रिये! बताओ तो सही तुमने किसके गले में वह हार देखा है शीघ्र ही बताओ। अरे! जब मैं तुम्हारे लिए आकाश के तारे तोड़ कर ला सकता हूँ तो फिर किसी के गले के हार को लाना क्या बड़ी बात है ?
वेश्या — आज मैं गांव के बाहर बगीचे में टहल रही थी और वहीं इस उज्जयिनी नगरी के महाराजा धनपाल अपनी महारानी धनवती के साथ बसंतऋतु की शोभा को देखने के लिए पधारे थे। उनकी रानी के गले में बहुकीमती रत्नों का हार था उसने मेरे मन को चुरा लिया। जब तक वह हार नहीं मिलता है तब तक तो मेरा खाना, पीना, सोना सभी छूट गया है मुझे तो आप पहले वह हार लाकर देवें, पुन: बात करें।
दृढ़सूर्य — ठीक है, मैं अभी कुछ ही क्षणों में हार लाकर तुम्हें देता हूँ तुम चिन्ता छोड़ो और तब तक भोजनपान करो। (चोर चला जाता है)
द्वितीय दृश्य
समय — मध्यान्ह। स्थान — सघन वृक्षों से घिरा व फाँसी के तख्तों सहित वन।
दृढ़सूर्य — (आर्त स्वर में) सेठ जी! आप बड़े दयालु हैं, धर्मात्मा हैं, आप मेरे ऊपर दया करके पानी पिला दीजिए मुझे बहुत जोरों की प्यास लगी हुई है। देखो तो सही फाँसी पर लटके हुए मुझे इतना समय हो चुका है फिर भी प्राण नहीं निकल रहे हैं। ओह! मुझे मेरे पाप कार्यों का फल इसी भव में ही मिल रहा है और अगले भव में क्या मिलेगा कौन जाने ? यदि मैं नरकों में जाऊँगा तो वहाँ की वेदना, वहाँ के दु:ख, वहाँ की मारकाट को कैसे सहन करूँगा ? अरे! मैंने रानी के गले का हार चुराया उसका फल मुझे फाँसी मिली है। सेठ जी! तुम मेरी रक्षा करो। (रोने लगता है)
धनदत्त — (करुणा से द्रवित होकर) भाई! तुम इस समय बहुत दु:खी हो रहे हो। अहो! इस जगत् में अपने-अपने किये का फल सभी को भोगना पड़ता है। फिर भी मैं इस समय तुम्हारा क्या उपकार करूँ ? कैसे तुम्हें इन दु:खों से छुड़ा दूँ ? (कुछ सोचने लगता है)
दृढ़सूर्य — (गिड़गिड़ाकर) मित्र! मुझे पानी पिला दो मैं बहुत प्यासा हूँ मेरा कण्ठ बिल्कुल सूख गया है। ओह! मुझे इस समय बहुत ही वेदना हो रही है।
धनदत्त —(स्नेह से) अच्छा भाई! मैं तुम्हारे लिये पानी लेने जाता हूँ इसी बीच में मैं तुम्हें एक बात कहूँ, ध्यान से सुनो। मैंने बारह वर्ष तक गुरु के पादमूल में बहुत ही परिश्रम करके एक मंत्र सीखा है जो कि महाफल को देने वाला है जिसके प्रसाद से कोई भी जीव सभी पापों से और सभी दुखों से अपने को छुड़ा सकता है। मैं जब तक पानी लेने जाऊँगा तब तक वह मंत्र यदि भूल गया तो मेरा बारह वर्ष का सभी श्रम व्यर्थ चला जायेगा अत: प्रिय बंधु! मैं तुम्हें वह विद्या बताए देता हूँ तुम तब तक उसको रटते रहो जब तक मैं जल लेकर न आ जाऊँ। आते ही मैं तुम्हें पानी पिलाकर और तुमसे अपना मंत्र वापस लेकर चला जाऊँगा।
दृढ़सूर्य — (घबराते हुए) मित्र! बहुत ठीक, तुम मुझे वह मंत्र जल्दी से जल्दी बता दो और जल्दी ही पानी लाकर पिला दो।
धनदत्त — मित्र सुनो—णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।(सेठ जी बार-बार इसी मंत्र को उससे बुलवाते हैं और पुन: जब वह रटने लगता है तब आप पानी लेने चले जाते हैं। कुछ क्षण बाद ही पानी लेकर आने पर देखते हैं कि वह मर गया है तब वापस चले जाते हैं।)
तृतीय दृश्य
समय — मध्याह्न | स्थान — सेठ धनदत्त का मकान (सेठ के दरवाजे पर एक वृद्ध नौकर लाठी लेकर बैठा है और सिपाहियों से झड़प हो रही है)।
एक सिपाही — (आवेश में) अरे बुड्ढे! तू जल्दी ही रास्ता छोड़ हम लोग सेठ धनदत्त को पकड़ने के लिए आये हुए हैं। तू बीच में ही क्यों अपनी जान गँवा रहा है ?
दूसरा सिपाही — (क्रोध में) अरे! तुझे मालूम नहीं। सेठ जी बहुत बड़े धर्मात्मा बनते हैं, लेकिन बड़े ठग निकले। इन्होंने तो दृढ़सूर्य चोर की चोरी का सारा माल घर में रखकर खूब गुलछर्रे उड़ाए हैं और अब इनके पाप का घड़ा फूट गया है सो भाई अब इन्हें दरबार में उपस्थित होना है।
तीसरा सिपाही — (कड़क कर) हाँ-हाँ बाबा जी! अब तुम जल्दी यहाँ से हटो और अपनी जान बचाओ, अब इस सेठ को राजा के सन्मुख उपस्थित होने दो।
वृद्ध — (उत्साह से) अरे सिपाहियों! तुम लोग यहाँ से भाग जाओ। व्यर्थ ही क्यों बकवास कर रहे हो ? मैं तो सेठ जी का नौकर हूँ, मेरे जीते जी सेठ जी को कौन हाथ लगा सकता है ? तुम सब अपनी शक्ति का घमण्ड रखते हो तो आओ और एक-एक ही क्या सब ही मेरे साथ भिड़ो, मैं अभी क्षणमात्र में तुम सबका काम तमाम कर दूँगा। (सिपाही लोग भिड़ते हैं और वह बुड्ढा सभी को जमीन पर सुला देता है। धीरे-धीरे राजा के कर्मचारी व मंत्री आदि भी आते हैं अंत में राजा स्वयं तलवार हाथ में लिए हुए आता है और इस बुड्ढे से हारकर अपनी जान बचाकर भागता है तब बुड्ढा बोलता है।)
वृद्ध —(गुस्से में) राजा! तुम कहाँ भागकर जाओगे ? मैं तुम्हें चैन नहीं लेने दूँगा। हाँ, यदि तुम धनदत्त सेठ के पैरों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा माँगोगे और प्राणों की भीख मांगोगे तभी तुम्हारी रक्षा होगी। (कहते हुए ही बुड्ढा राजा के पीछे-पीछे दौड़ता है। राजा ऐसा सुनकर सेठ के घर में घुसकर सेठ से क्षमा याचना करता है।)
राजा —सेठ जी! तुम बड़े धर्मात्मा हो, किन्तु मैंने अज्ञानवश तुम्हें बांधने के लिए प्रयत्न किया सो मुझे क्षमा कर दो और मुझे सही-सही बात बताओ कि यह क्या मामला है तथा मेरी रक्षा करो।
सेठ — (शांति से) राजन्! आप आसन पर विराजिए किंचित् भी मत घबराइए, मुझे भी मालूम नहीं है कि यह बुड्ढा कौन है ? अभी सारी स्थिति स्पष्ट हो जावेगी। (वृद्ध की तरफ देखकर) कहिये महोदय! आप कौन हैं? और यहाँ किस हेतु से आये हैं ?
वृद्ध —(देवरूप प्रगट कर साष्टांग नमस्कार करके) महाभाग! मैं वही दृढ़सूर्य चोर का जीव हूँ जिसे आपने पानी पिलाने के लिए पानी लेने हेतु जाते समय महाविद्या दी थी। उसी मंत्र को जपते-जपते मेरे प्राण निकल गये और उस मंत्र के अमृतस्वरूप जल के पीने से मैं सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया। अड़तालीस मिनट के भीतर ही भीतर उत्तम यौवनपूर्ण शरीर को पाकर मैंने आश्चर्यचकित हो विचार किया कि यह उत्तम स्थान क्या है और मैं कौन हूँ ? तत्क्षण ही मैंने सारी स्थिति दिव्य अवधिज्ञान के द्वारा जान ली। मुझे यह भी मालूम हुआ कि मेरे साथ वार्तालाप करने से तुम्हारे ऊपर राजा का प्रकोप हुआ है और तुम्हारे ऊपर संकट आने वाला है। भला मैं ऐसे परमोपकारी महापुरुष के संकट को देख सकता था ? इसीलिए मैं शीघ्र ही यहाँ आया हूँ। मैं आपका सेवक हूँ अब आप मुझे जो भी आज्ञा देवें मैं उसे करने के लिए सहर्ष तैयार हूँ।
धनदत्त — मित्र! अब आप राजा को मारने का उद्यम छोड़ दीजिए। इन्होंने बिना जाने ही ऐसा अपराध किया है।
राजा — (आश्चर्यचकित होकर) ओहो! सेठ जी आप धन्य हैं। आपने मरणासन्न चोर को महामंत्र देकर उसे अनेक पापों के भार से मुक्त कर दिया, उसे दिव्य देवलोक के सुखों का भोक्ता बना दिया। धन्य है यह महामंत्र और धन्य है यह दयामयी जैनधर्म! आज मैं भी इस मंत्र के चमत्कार को देखकर अतिशय प्रभावित हो गया हूँ। अब मैं इस जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ। (इसी बीच में तमाम लोग एकत्रित होकर महामंत्र की जय बोलते हैं और सेठ धनदत्त की जय बोलते हैं पुन: सब मिलकर महामंत्र की महिमा का गीत गाते हैं।)