इतिहास अतीत के अवलोकन का एक माध्यम है। अतीत का स्वरूप परोक्ष और वर्तमान का प्रत्यक्ष है। परोक्ष की प्रत्यक्ष के रूप में प्रस्तुति एक कठिन कार्य है। वक्त के साथ लोगों के नजरिए बदल जाते हैं। देश की सीमाएं भी बदलती रहती हैं। इस बदलाव को जब कोई भी छद्मस्थ प्रत्यक्ष की तरह नहीं देख पाता है तो अनुमानों का सहारा लेता है। चूँकि अनुमान सबके अलग-अलग होते हैं, इसलिए इतिहासग्रंथों में मत-भिन्नताएं पाई जाती हैं। कबीर को कोई हिन्दू मानता है तो कोई मुसलमान। इस तरह के मतभेद ही खोज के विषय बन जाते हैं और लोग अपनी-अपनी अटकलों के आधार पर उन्हें हिन्दू या मुसलमान घोषित करते रहते हैं। इतिहास लेखन में धर्म एवं सम्प्रदायगत धारणाएं भी भ्रम उत्पन्न करती हैं। भगवान महावीर को ही लें, श्वेताम्बरों के महावीर दिगम्बरों को कभी स्वीकार नहीं हो सकते, दोनों में कोई साम्य नहीं है। भ्रम से बचने का एक ही उपाय है कि हम सब सिद्धान्तरूप में यह स्वीकार करें कि इतिहासज्ञों को जिस धर्म या सम्प्रदाय के विषय में लिखना हो, वे उसके प्रामाणिक ग्रंथों का गहन अध्ययन अवश्य करें। दूसरे-दूसरे धर्मग्रंथों से उद्धरण देकर या कहीं की र्इंट कहीं का रोड़ा जोड़कर यदि इतिहास की इमारत खड़ी की जाएगी तो उसमें अनेक विसंगतियाँ तो रह ही जाएंगी।
जब सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज के साथ ही हमारी बिहार सरकार के सभी प्रकाशनों में भी कुण्डलपुर को ही भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में उल्लिखित किया जाता रहा है, तब हमें किसी नई खोज को मान्यता प्रदान करने के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए था। लोगों की आस्थाओं के साथ इस तरह का खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। इस तरह यदि हम नई-नई खोजों को मानते रहेंगे तो हमें कई तीर्थस्थान बदलने पड़ सकते हैं। एक ही उदाहरण काफी है, हम सभी दिगम्बर जैन यह मानते हैं कि भगवान महावीर का प्रथम धर्मोपदेश श्रावण कृष्णा एकम् को विपुलाचल पर्वत पर हुआ था। ख्यातिलब्ध साहू परिवार ने वहाँ एक भव्य देशना स्मारक भी स्थापित कर दिया है किन्तु श्वेताम्बर ग्रंथों के अनुसार उनकी प्रथम देशना वैशाख शुक्ला ग्यारस को मध्यमा पावा में हुई थी। क्या हम उनके अनुसार विपुलाचल पर स्थित देशना-स्मारक को मध्यमा पावा में स्थानान्तरित करेंगे? वीरशासन जयंती की तिथि में बदलाव भी क्या हमें इष्ट होगा? ऐसे ही विवाद कुछ अन्य स्थानों के बारे में भी हैं। यदि हम किसी एक ही तीर्थ को दो-दो स्थानों पर मानने के पेâर में पड़ गए तो यह समाज भी उसी हिसाब से बंटता चला जाएगा, हमें इससे बचना चाहिए। हमारे तीर्थंकरों की किसी कल्याणक भूमि के बारे में किसी नई खोज को मान्यता प्रदान करने की कोई बाध्यता ही यदि हमारे सामने हो तो सर्वप्रथम हमें यह देखना होगा कि वह खोज दिगम्बर जैनागम के अनुसार है या नहीं? ग्रंथराज षट्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, वर्धमानचरित, उत्तरपुराण आदि सभी ग्रंथों में भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ को विदेहदेश की राजधानी कुण्डलपुर तथा उनके नाना चेटक को सिंधुदेश की राजधानी वैशाली का अधिपति बताया गया है। दोनों के वंश भी भिन्न कहे गए हैं। महाराजा सिद्धार्थ नाथवंशी थे तो महाराजा चेटक थे सोमवंशी। नई खोज का मूल बिन्दु यही होना चाहिए था किन्तु सभी इतिहासकारों ने वैशाली की खोज करते समय इस दिगम्बर जैन पक्ष की घोर उपेक्षा की है। उन्होंने वैशाली को विदेह में और कुण्डलपुर को मगध मेें मान लिया है। दिगम्बर जैनागम से समर्थित न होने के कारण ही हमें यह अस्वीकार्य है। हमारे आचार्यों के कथनानुसार मगध भी विदेहदेश का ही अंग रहा है।
भगवान महावीर की भाषा के आधार पर
भगवान महावीर की भाषा के आधार पर कुछ श्वेताम्बर विद्वानों ने भी मगधप्रान्त तथा उससे सटे हुए भूभाग को विदेह देश के अंतर्गत माना है। एक श्वेताम्बरग्रंथ ‘‘निशीथचूर्णि’’ में लिखा है कि-‘‘मगहद्ध विसय भासा, निबद्धं अद्धमागहां अहवा अट्ठारह देसी भासा णियतं अद्धमागहं’’ अर्थात् जिसका अर्धांश मागधी अर्थात् मगध के अर्धभाग में बोली जाने वाली भाषा हो तथा शेष भाषा आधे भाग में बोली जाने वाली अन्य अट्ठारह देशी भाषाओं में नियत शब्दों से बनी हो, वह कहलाती है अद्र्धमागधी भाषा। समवायांगसूत्र में भी ‘‘अद्र्धमागध्या’’ कहकर अर्धमागधीशब्द की यही व्युत्पत्ति की गई है। इसी आधार पर कुछ श्वेताम्बर विद्वानों ने माना है कि भगवान महावीर का कार्यक्षेत्र मुख्यत: मगध ही रहा है। पुरातत्वविभाग, बिहार के निदेशक श्री अजयकुमार सिन्हा के इन शब्दों से भी यही ध्वनि निकलती है-‘‘भगवान महावीर यदि वैशाली से संबंधित होते तो उनकी भाषा वैगई होती।’’ पं. हरगोविन्ददास और पं. बेचरदास भी मगध को ही उनकी जन्मभूमि मानते हैं। मगध की माटी बड़ी पावन है। राजगृह के अपने यात्रा विवरण में मुनि दुलहराज द्वारा व्यक्त ये उद्गार कितने मार्मिक हैं-‘‘जिस प्रान्त में महावीर जन्मे, जिन धूलिकणों में वे खेले, जिन वृक्षों और लताओं के समीप से उनका विहार हुआ, जहाँ वे वर्धमान से महावीर बने, वहां आकर हमें अपूर्व गौरव का अनुभव हो रहा है। हम अनिकेत अवश्य हैं किन्तु भगवान महावीर का यह तपोवन हमें अपना घर सा लगता है।’’ (शब्दों की वेदी अनुभव के दीप पृ. २२६) ‘‘विदेह’’ शब्द को कुछ विद्वान जनपदसूचक नहीं मानते। ‘‘कल्पसूत्र’’ के बंगला अनुवादक श्री बसन्तकुमार चट्टोपाध्याय ने विदेह का अर्थ ‘‘देह में श्रेष्ठ’’ होना माना है। डॉ. शारदानन्दप्रसाद के अनुसार यह शब्द भगवान महावीर की आत्मस्थ या देहातीत अवस्था का सूचक है। कुछ लोगों का कहना है कि जिस प्रदेश में तीर्थंकरोें का विचरण हुआ उसका नाम पड़ गया बिहार और चूँकि इसी प्रदेश से अधिकांश तीर्थंकर और मुनिगण देहत्यागपूर्वक देहातीत अवस्था को प्राप्त करते रहे, इसलिए यह ‘‘विदेह’’ नाम से प्रसिद्ध हो गया। जो भी हो, यदि ‘विदेह’ को जनपदसूचक भी मानें तो भी इस संदर्भ में मतैक्य का अभाव है। सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज अपने शोधग्रन्थ ‘‘जैनधर्म का मौलिक इतिहास’’ के प्रथम भाग में लिखते हैं-‘‘कुण्डलपुर या कुण्डग्राम के संबंध में विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ इसे मगध देश में मानते हैं तो कुछ इसे अन्यत्र।’’ उनका यह कथन दिगम्बर जैनागम की मान्यता के परिप्रेक्ष्य में ही है। वैशाली नगरी भगवान महावीर की जन्मभूमि नहीं हो सकती, इस बारे में दिगम्बर जैनागम स्पष्ट है। श्वेताम्बरों या बौद्धों की दृष्टि में वह ‘‘विदेहदेश’’ का अंग हो सकती है, किन्तु दिगम्बर जैन शास्त्रों के आधार पर वह ‘‘सिंधुदेश’’ में थी। कल्पना के आकाश में विचरण करने के लिए विद्याधर होने की आवश्यकता नहीं है। कोई सामान्य मनुष्य भी बुद्धि के पंख लगाकर कल्पनालोक में उड़ सकता है। उदाहरणस्वरूप महापंडित राहुल सांकृत्यायन सरीखे मनीषी की कल्पना का आनन्द लीजिए। वह लिखते हैं कि बसाढ़-वैशाली के आसपास आज भी एक प्रभावशाली जाति रहती है जिसे ‘‘जथारिया’’ कहते हैं। उन्होंने जथारिया शब्द की व्युत्पत्ति करते समय उसे भगवान महावीर के ज्ञातृवंश से जोड़ दिया है। वह लिखते हैं-ज्ञातृ से ज्ञातर, फिर जातर, उपरान्त जतारिया और अन्त में जथारिया।’’ लिखने को तो वह लिख गए किन्तु स्वयं जथारिया जाति के लोग अपने को महावीर का वंशज नहीं मानते। महावीर क्षत्रिय-कुलभूषण थे और ये सभी भूमिहार ब्राह्मण हैं। इस तरह की कल्पनाओं में इतिहास नहीं गढ़े जाने चाहिए। कल्पना करने में डॉ. याकोबी भी किसी से पीछे नहीं रहे। श्वेताम्बरों की गर्भापहरण की घटना का खण्डन करने के लिए उन्होंने एक नई कहानी बनाई। वह लिखते हैं- ‘‘मेरा अनुमान है कि सिद्धार्थ की दो पत्नियाँ थीं-एक ब्राह्मणी देवानन्दा, जो महावीर की वास्तविक माता थीं और दूसरी क्षत्रियाणी त्रिशला। महान प्रभुताशाली महाराजा चेटक के उच्च सम्पर्कों का लाभ उठाने के लिए महावीर को त्रिशला का दत्तक पुत्र न मानकर, औरस पुत्र कहना अधिक लाभदायक समझा गया, क्योंकि इससे महावीर मातृकुल के संबंधों का उत्तराधिकार प्राप्त कर सकते थे।’’ धन्य हैं याकोबी साहब! जो न तो महावीर के अतुल बल से परिचित हैं और न लोकोत्तम तीर्थंकर प्रकृति की महत्ता से ही। श्रद्धाहीन लोग जब कुछ लिखेंगे तो कुछ ऐसा ही तो लिखेंगे। निर्ग्रंन्थ महावीर के संबंध में कुछ भी अनुमान लगाने से पूर्व दिगम्बर जैन साहित्य की भागीरथी में अवगाहन किए बिना उनके प्रति न्याय नहीं किया जा सकता।
कुण्डलपुर ही भगवान महावीर
कुण्डलपुर ही भगवान महावीर की जन्मभूमि है, वैशाली तो हर्गिज-हर्गिज नहीं। वैशाली भगवान महावीर की विहारभूमि रही है, इससे हम इंकार नहीं करते। कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने जहाँ क्षत्रिय कुण्डग्राम को महाराजा सिद्धार्थ का निवासस्थान माना है, वहाँ श्वेताम्बर अंगसाहित्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शीलांक ने ‘‘चउपन्नमहापुरिसचरियं’’ का एक उद्धरण प्रस्तुत करते हुए उसे सिद्धार्थ का विहारस्थल लिखा है। पृ. २७८ पर अंकित मूलपाठ इस प्रकार है-‘‘अण्णया य गामाणुगामं गच्छमाणो, कीलाणिमित्त मागओ णियभत्ति परिसंठियं कुण्डपुर णाम णयरं’’। आचार्य शीलांक जैसे शास्त्रज्ञ मुनि द्वारा ऐसा लिखने के पीछे कोई कारण अवश्य होना चाहिए। इतने बड़े विद्वान् बिना सोचे-समझे कुछ लिख डालें, इस पर भला कौन विश्वास करेगा। हमें पूर्ण आशा और अपेक्षा है कि दिगम्बर जैनकुल में उत्पन्न कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि स्वीकार नहीं कर सकता। तीर्थक्षेत्र कमेटी को भी दिगम्बर जैनागम को ही बहुमान देना चाहिए। वैशाली में महावीर का कोई स्मारक खड़ा करो तो करो, पर उसे उनकी जन्मभूमि मत कहो। जन्मभूमि तो सदियों से कुण्डलपुर थी, है और रहेगी।