भगवान महावीर की साधना पद्धति का यह दूसरा सूचक यंत्र है। मार्ग चलना जरूर, किन्तु मन में कुछ पाने की आकांक्षा मत रखना। क्योंकि आकांक्षा संसार का हिस्सा है। यदि आत्मन्वेठ्ठाण के मार्ग पर भी आकांक्षा को लेकर गये, सत्य तो जायेगा और आकांक्षा हर जायेगा। आकांक्षा का अर्थ है—स्वयं को धोखा देना। संसार में ही भ्रमण करना है। सत्य की खोज वही कर सकता है, जिसकी कोई भी मांग (इच्छा नहीं । इसी बात को कृषु ने गीता में कहा है कि— कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा—फलेषु कदाचन। तुम मात्र अपना सम्यक पुरूषार्थ करते जाओ। क्या आ रहा है। और क्या नहीं? इस ओर तुम्हें देखने की आवश् यकता ही नहीं। यदि तुमने मुड़कर देखा तो सत्य को नजर लग जायेगी। इसलिए सत्य को आकांक्षा की नजरों से देखना ही मत। सत्य को ज्यादा मूल्यवान और कुछ भी नहीं है। इसलिए आप किसी चीज की आकांक्षा करना ही मत। सत्य को पाने से राजी नही हो, इसलिए तो अन्य वस्तु की आकांक्षा कर रहे हो। आकांक्षा का तत्व बहुत सूक्ष्म है, जरा इसे ध्यान से समझें। आकांक्षा का अर्थ है कि जहां हम हैं, वहां पर तृप्ति है। जो हम हैं, उससे तृप्ति। जो भोग रहा है, उससे तृप्ति, जो मिला है, उससे तृप्ति। कुछ और होना चाहिए, कहीं और होना चाहिये, कही और कुछ मिलना चाहिये, एक मकान से तृप्ति नहीं , एक बुझती, अन्य और स्त्री चाहिये स्वयं की सुन्दरता से तृप्ति नहीं, और सुन्दरतम होना चाहिये, (इसलिए फैशन करते हैं), जितना धन मिला है। उससे सन्तोष नहीं और बड़ी तिजोरी होना चाहिये। और पाने की वांछा का नाम ही आकांक्षा है। मात्र दौड़ाती रहती है, पहुंचाती कभी नहीं है अथवा आशा दिलाती है, देती कुछ भी नहीं वही आकांक्षा है। आप स्वयं सोचें। वर्तमान में तुम्हें जो कुछ मिला है, क्या उससे सन्तुष्ट हैं? दूसरों के सामान को देखकर मन ही मन सोचते हो कि यह तो मेरे पास होना चाहिये था। जो तुम्हें चाहिये था। वो और किसी के पास है। जिसके पास जो वस्तु है, वह उससे बड़ी वस्तु को पाना चाहता है, वह भी तृप्त नहीं है। तुम जिस पद पर कार्यरत हो, उससे तुम्हें संतोष नहीं है, दूसरा पद पाना चाहते हो। उस पद पर कोई हो, तो उससे पूछो वह और बड़े पद पर पहुंचना चाहता है। आप विदेश जाना चाहते हैं और विदेशी यहां पर आना चाहते हैं। सब अपना—अपना बिस्तर बोरिया बांधे बैठे हैं कि कब आगे बढ़ जायें। जितना भी आगे बढ़ जायें, पर तृप्त की सीमा नही आती (आकांक्षा का अर्थ ही इतना है कि वर्तमान में जो मिला है, वह बहुत कम है) जरा और दौड़ो भागो, गिरो मरो अर्थात् भटकाव का नाम आकांक्षा है। आकांक्षा कहती है कि मेरा सुख किसी और में इसलिए खोज करते रहो और मरते रहो।
एक अत्यंत गरीब आदमी दो दिन से रोजाना एक ही स्वप्न देख रहा था।
उसने देखा कि नगर में जो पुल है नदी के ऊपर, उसके पास वाले बिजली के खम्बे के नीचे अपार धन गड़ा है। उसको धन दिखा, साथ ही चमकते हुए हीरे जवाहरात भी दिखे सुबह उठा, सोचा, यह तो मात्र स्वप्न है। लेकिन तीन रात बाद भी वैसा ही सपना आया। तीसरे दिन उसे अपने स्वप्न पर विश्वास करना ही पड़ा प्रकृति का ऐसा नियम है कि वह स्वप्न दुबारा कभी नही आता, लेकिन मुझको आया है, अब उसकी तलाश करनी ही पड़ेगी। वह रूका नहीं । जाकर के उसने देखा कि ठीक पुल के किनारे बिजली का खम्भा भी गड़ा है। जैसा सपने में देखा था, वैसा ही उसमें बल्ब लगा है। सब कुछ सपने के समान ही लेकिन वह मुश्किल में पड़ गया। उसी खम्भे कि नीचे एक पुलिस वाला खड़ा है वहां से अपना कृष्ण मुख करे अर्थात् जाये। ताकि मैं उस स्थान को खोद सकू। पुलिस वाला भी उस स्थान को छोड़ता, जब दूसरा सिपाही ड्यूटी पर आ जाता। दो तीन दिन तक उस स्थान के चक्कर लगाता रहा । पुलिस वाले ने देखा कि वह व्यक्ति तीन दिन से यहां क्यों चक्कर काट रहा है? उसने उसे पास में बुलाया और डांट कर पूछा कि क्या बात है? तुम तीन दिन से यहां पर क्यों धूम रहे हो? साफ—साफ बताओ, नही तो थाने में ले जाकर बन्द कर दूंगा। तुम्हारी सारी मस्ती उतर जायेगी। क्या आत्म हत्या करने का विचार है जो बार—बार नदी के चक्कर लगा रहे हो। मेरी ड्यूटी इसलिए यहां पर लगती है कि कोई पुल से कूदकर आत्म—हत्या न कर ले। उस व्यक्ति ने डरते हुए विनम्र भाव से कहा कि आपसे छिपाना क्या है। मैं गत दिनों से एक स्वप्न देख रहा हूं, उसके चक्कर म मेेंं फस गया हूं। वह पुलिस वाला हंसने लगा और उसने कहा—‘‘ तुम अपने सपने का हाल बाद में सुनाना, पहले मेरा स्वप्न सुन लो। तीन दिन से मैं भी एक स्वप्न देख रहा हूं कि फलां—फलां गांव में एक व्यक्ति रहता है, उसका फलां—फलां नाम है’’ उसने कहा ‘‘अरे ठहरो? यह नाम तो मेरा ही है और तुम मेरे ही गाँव का नाम ले रहे हो। मैं तीन दिन से एक स्वप्न देखता हूं कि जहां पर वह व्यक्ति सोता है, उसकी खाट के नीचे बहुत सा खजाना छिपा है। मैंने एक दिन सोचा कि सपना देखा है, दूसरे दिन सोचा सपना है लेकिन कैसे मानू कि सपना है। हीरे जवाहरात दिखाई पड़ते हैं। आज भी वही सपना है। उस पर लेटने वाले से तुम्हारी सूरत हूबहू मिलती जुलती है। यह माजरा क्या है? तुम भी तीन दिनसे यहां चक्कर लगा रहे हो। उस व्यक्ति ने कहा कि अब मामला कुछ भी नहीं है। मैंने भी ऐसा सपना देखा है लेकिन उसे बताऊंगा नहीं। अब मैं शीघ्र अपने घर जा रहा हूँ और वापस लौट गया। वह अपने घर वापस आया और खाट के नीचे जमीन खोद कर देखा तो अपूर्व खजाना पाया। यह कहानी और किसी के जीवन की कहानी नहीं, हमारे ही जीवन की कहानी है। कहीं और खजाना गड़ा हो (किसी गांव के किसी खंभे के नीचे) सो ऐसी बात नहीं, खजाना तो स्वयं के घर में पड़ा है”
मात्र खोजने की आवश्यकता है।
आकांक्षा बाहर के चक्कर खिलाती है तथा नि:काक्षा स्वयं के अन्दर खोजना सिखाती है। आकांक्षा कहती—बाहर खोजो, दूसरे के पास खोजो, लेकिन नि:कांक्षा कहती है—अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है, स्वयं में ही खजाना भरा है। आकांक्षा का अर्थ हुआ तुम जहां पर स्थित हो, उससे संतुष्ट नहीं हो, जीवन का स्वप्न कहीं और पूरा करना है। सिकन्दर का स्वप्न कभी भी पूरा ना हुआ, वह सदा ही पराजित रहा। भिखारी तो खाली कटोरा लेकर भीख माँगते हैं, लेकिन सिकन्दर नसे बड़ा निरंकारी था यहाँ सिकन्दर का कटोरा भी खाली ही रहा । जब तक आकांक्षा साथ रहेगी, तब तक कटोरा खाली ही रहेगा। इसलिए भगवान की भक्ति निष्काम भाव से करना। जीवन में जिस दिन आकांक्षा व्यर्थ दिखाई पड़ेगी, तभी नि:काक्षा का जन्म होगा। आत्मा के जगत में आकांक्षा के साथ—साथ प्रवेश मिलता ही नहीं है क्योंकि आकांक्षा में वापस बुला लाती है। क्योंकि आकांक्षा संसार में वापस बुला लाती है। यदि आपने स्वर्गिक भोगों को आकांक्षा से पूजा, भक्ति, तप किया तो संसार ही मिलेगा क्योंकि स्वर्ग भी संसार का हिस्सा है। इसलिए स्वर्ग की चाहना की तो सत्य को पाने वंचित रह जावेगें। आकांक्षा, (परिमार्जित न सुधरे हुए संस्कार) संसार के ही कारण है। यह जो नहीं भोग पाये है, उनकी बढ़ा चढ़ाकर माँग की है तथा उनका विस्ता स्वर्गिक सम्पदा है इसलिए सम्यक्दृष्टि जीव को अपने मन में किसी भी तरह हक लाभ की आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए। आकांक्षा का अर्थ है—पानी को मथकर नवनीत प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है, रेत से तेल निचोड़ने का प्रयास कर रहा है, आकाश के फूल से सुगन्ध लेने की कोशिश कर रहा है और यदि सुगन्ध नहीं मिलती, तो परेशान हो जाता है यदि कोई बात दे कि आकाश कुसुम से खुशबू नहीं आती, चाहे तुम लाख उपाय करो, तुम्हारे उपायों का कोई भी हल नहीं निकलेगा। लाख ऊपर देखे, गर्दन ही दुखेगी, सुगन्ध नहीं मिलेगी। आकांक्षा से कभी भी किसी को सत्य नहीं मिला आकांक्षा केवल सपनों की भांति है। आकांक्षा का जिसने भी हाथ पकड़ा, वह संसार में केवल भटका ही है। उसने खोया ही है, पाया कुछ भी नहीं है। इसलिए अपनी इच्छाआ को पकड़ो, उन्हेें ही पहचानो, उनको परखों, उनका विश्लेषण करो, उनका निरीक्षण करो कि इनने अभी तक क्या दिया? यदि कुछ नहीं मिला है तो नि:कांक्षा—पूर्वक भगवान की भक्ति करो। आकांंक्षा से साधना गन्दी हो जाती है। आकांक्षा बड़ी और साधना छोटी हो जाती है। साधना के माध्यम से जो मिलने वाला था, वह रूक जाता है, क्योंकि आकांक्षा बड़ी हो जाती है। आकांक्षा साधना पर चढ़ी और साधना मरी। आकांक्षा करना ही मत। आकांक्षा का अर्थ है कि तुम कुछ मांगने आये हो व भक्ति करने से कुछ मिलेगा, इसलिये श्रद्धान करते हो। जबकि नि:कांक्षा का अर्थ है कि अब सब कुछ अर्पण करता हूं। मेरा अपना कुछ भी नहीं हैं। हृदय ही आपके चरणों में सौंप दिया। अब मेरी कोई मांग नहीं। अब मेरा कोई मन नहीं। अब जो मर्जी हो, उस पूर्ण की मर्जी पर जीऊँगा।
मैं नहीं कहूंगा कि मेरी मर्जी अधूरी है।
मेरी वाँछा पूरी हो, ऐसा सोचना तो अधार्मिक मानव का लक्षण है। जब एक धर्मात्मा पुरूष धर्म में प्रवेश करता है तो वह आकाश की ओर दोनों हाथ उठाकर कहता है कि हे गृहकारक ? अब तुझे मेरे लिये कोई भी घर न बनाना पड़ेगा। तूने मेरे बहुत घर बनाये, बहुत रहने का स्थान दिया है, लेकिन अत मैं स्वयं के चिन्मय प्रासाद में जा रहा हूँ, अब मैं इन मायावी गृहो से मुक्त हो गया हूं। मैं अब और नये जन्म नहीं लेना चाहता। शाश्वत में प्रवेश का नाम ही नि:काक्षा है। शाश्वत को छोड़ने का नाम ही आकांक्षा। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, बस इसी का नाम अतृप्ति है, आकांक्षा। शाश्वत का अर्थ है हम जो है उससे हम राजी नहीं है। हमारी मांग का पात्र कभी भरता ही नहीं। भिक्षा का पात्र सदैव खाली रहता है। थोड़ा और थोड़ा और। तृप्ति तो असंभव है, क्योंकि जो मिलता है, उससे ज्यादा कल्पना हम कर ही लेते हैं। सोचते है कि इतना जब साधारणतया मिल गया है, तो इससे और ज्यादा मिल सकता था, हमने मांगा क्यों नहीं? यह आकांक्षा सदैव जागृत रहती है। अधर्मात्मा के समाने ऐसी कोई भी घड़ी नहीं आती, जब उसका मन भर जाये तो भी कहेगा कि ये चांद—तारे भी मिल जाते तो अच्छा रहता। आकांक्षा में कितना भी पा लें, कितनी ही शक्ति, कितनी ही प्रतिष्ठा, मान मर्यादा पालें, फिर भी उससे ज्यादा पाने की कल्पना बनी रहती है। उसने से तृप्त नहीं हो, लोभी की तिजोरी कितनी ही छोटी हो, भरने के बाद वह रबर के समान बढ़ती जाती है, और पूर्ण नहीं भरती। यह आकांक्षा जब तम मन में रहेगी, तब तक परमात्मा नजर नही आयेगा, मांग नजर आयेगी। इसलिये भगवान का कहना है कि तृष्णा दुस्पूर है। इस तृष्णा को जो धक्का देता है, मन से निकाल देता है, वह धर्म की ओर, सत्य की ओर मुड पाता है। हम मन्दिर आदि से रोजाना जाते हैं लेकिन गलत तरीके से जाते हैं। हमारी आँखे आकांक्षा से भरी होती है। परमात्मा के मन्दिर में जाकर भी वहां मांगते हैं जो संसार में भागते आये है। शरीर तो परमात्मा के चरणों में झुक जाता है। लेकिन मन संसार की ओर भाग जाता है अर्थात् परमात्मा की ओर नहीं झुक पाता है। इसलिए नि:कांक्षा अंग कहता है कि जैसा मौत तुम्हारे साथ करती है वैसा तुम्हारे साथ में अभी करूंगा। ताकि तुम्हारी आकांक्षा समाप्त हो जाये। यदि शांति की दिशा में, परमात्मा की दिशा में परमानन्द की दिशा में अग्रसर होना चाहते हो तो नि:कांक्षा का सहोदर बनकर आना। उपनिषद में नि:कांक्षा अंग का बड़ा सुन्दर समर्थन किया है—कृपण फल हेतव:। अर्थात् जो व्यक्ति मन में आकांक्षा रखकर धर्म करता है, वह कृपण है, कन्जूस हैं। उसने धर्म समझा ही नहीं, उसे जीवन की कला नहीं आई। जब मन में आकांक्षा होती है, तब धर्म, साधना बनता है और स्वर्गादि की सम्पदा मिल जाती है तथा जबनि:काक्षा भाव से धर्म होता है, तब वह साध्य बनाता है, उस समय मोक्ष फल की प्राप्ति होती है क्योंकि मौत की हार नि:कांक्षा से होती है। जब मौत की कड़ी टूट जाती है, तब मन जन्म की श्रंखला भी समाप्त हो जाती है। जहां आकांक्षा होती है, वहां मौत जीत जाती है, हर हालत में जीत जाती है। वह मौत केवल एक जगह हारती है—वह है नि:कांक्षा। भगवान [[महावीर]] कहते हैं कि जब मार्ग पर ही आ गये हो, जब तन मन में आकांक्षा ही क्यो करते हो। जब सही मार्ग पकड़ लिया, तब उसके लिए आकांक्षा जरूरी नहीं है। उतना समय भी तुम खराब मत करना, नहीं तो तुम्हारी साधना गंदी हो जावेगी। जब तुमने अग्नि पर पानी गर्म होने रख ही दिया है, तब सिगड़ी के पास बैठकर भाप बनने की आकांक्षा मत करना कि ‘‘हे परमात्मा, इस पानी को भाप बन दे। अब किसी को भी बीच में लाने की आवश्यकता नहीं। अब तो पानी नियम से भाप बनेगा ही, इसे कोई नही रोक सकता। यदि तुमने आकांक्षा का पानी अग्नि पर डाला तो अग्नि बुझ जायेगी और पूर्ण पानी भाप नहीं बन पायेगा। इसलिए अपने जीवन में आकांक्षा करना ही मत।