मनुष्य की भावना ही उसके कर्मों को प्रभावित करती है। जिसमें अिंहसा, दया, परोपकार आदि की भावना है वह ऐसा कोई कर्म करना या कराना नहीं चाहेगा जिससे किसी अन्य प्राणी को पीड़ा पहुँचे। जो किसी प्राणी को कष्ट में देखकर द्रवित हो जाता है ऐसी भावना वाला व्यक्ति माँसाहार की तो कल्पना ही नहीं कर सकता, किन्तु जिनकी भावना इसके विपरीत है, जो हिंसा करने, क्रूरता करने व अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को कष्टों में डालने में संकोच न करने की वृत्ति रखते हैं उनके लिये माँसाहार तो क्या वे कोई भी अनैतिक कार्य कर सकते हैं।
माँसाहार से मस्तिष्क की सहनशीलता व स्थिरता का ह्रास होता है, वासना व उत्तेजना बढ़ाने वाली प्रवृत्ति पनपती है, क्रूरता व निर्दयता बढ़ती है। जब किसी बालक को शुरू से ही माँसाहार कराया जाता है तो वह अपने स्वार्थ के लिये दूसरे जीवों का माँस खाना, उन्हें पीड़ा देना, मारना आदि कार्यों को इतने सहज भाव से ग्रहण कर लेता है कि उसे किसी की हत्या करने, क्रूरता व हिंसक कार्य करने में कुछ गलत महसूस ही नहीं होता।
अहिंसा, दया परोपकार की भावना तो उसमें पनप ही नहीं पाती। उसमें केवल स्वार्थ लाभ की भावना ही पनपती है, जो उसे अपने तुच्छ स्वार्थ के लिये, जाति व देश तक का अहित करने से नहीं रोकती। माँसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ, निर्दयता आदि भावनाओं का पनपना ही आज विश्व में बढ़ती हुई हिंसा, घृणा व दुष्कर्मों का मुख्य कारण है।
माँसाहार वासनाओं को भड़काता है और वासनाएँ जितनी पूरी की जाती है उतनी अधिक भड़कती हैं इनकी कभी तृप्ति नहीं होती। जब इनकी तृप्ति में बाधा आती है तो क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से सही—गलत का विवेक समाप्त हो जाता है जिससे बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने से पथभ्रष्ट हो जाते हैं। अथवा सर्वनाश हो जाता है। अर्थात् माँसाहार सर्वनाश की ओर ले जाता है। अपराधियों के एक सर्वेक्षण से यह भी पता लगा कि ७५ प्रतिशत अपराधी माँसाहारी हैं तो केवल २५ प्रतिशत शाकाहारी। अर्थात् माँसाहार से आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ती है।
अत: हम देखते हैं कि माँसाहार अन्य हानियों के अलावा विश्व में बढ़ती हुई हिंसा, अमानुषिकता, दुष्कर्मों आदि का कारण व मानव को सर्वनाश की ओर ले जाने वाला भी है। इसे रोकना हम सबका कर्त्तव्य है, यदि हमने ऐसा नहीं किया तो हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसके गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
यह प्राय: देखने में आता है कि दुष्कर्मों, बलात्कार, हत्या, निर्दयतापूर्ण कार्य करने वाले व्यक्ति साधारण स्थिति में ऐसे दुष्कर्म नहीं करते अपितु इन कुकर्मों के करने से पहले वे शराब, माँसाहार आदि का सेवन करते हैं ताकि उनका विवेक, मानवीयता व नैतिकता नष्ट हो जाए और उन्हें उन कुकर्मों को करने से रोके नहीं।
अर्थात् जब कोई अनुचित कार्य करने को अन्तरात्मा तैयार नहीं होती तो उसकी आवाज को अनसुनी करने के लिए ये पदार्थ लेते हैंं। दुर्भाग्य से आज तो लोग केवल फेंशन, आधुनिकता व उच्च स्तर का दिखावा करने के लिए माँसाहार करते हैं और यह भी सर्वविदित है कि ऐसे व्यक्तियों का नैतिक स्तर क्या बन रहा है ? यह उनका अन्तर्मन स्वयं जानता है।
कुछ शाकाहारी व्यक्ति भी अपने को आधुनिक दिखाने की होड़ में शाकाहारी पदार्थों से पशु—पक्षियों की आकृति के भोजन तैयार कराकर, उन्हें माँसाहारियों की भाँति इस प्रकार देखते हैं मानो वे भी माँसाहारी है। ऐसा शाकाहारी भोजन करना यद्यपि स्वास्थ्य की दृष्टि से बुरा नहीं है।
किन्तु भावनात्मक दृष्टि से उचित नहीं है क्योंकि हमारी भावना ही कर्मों को प्रेरित करती है। ऐसा शाकाहारी भोजन करते हुए भी भावना तो यही है कि हम दूसरे प्राणी को काटकर खाने का आनन्द ले रहे हैं। यह भावना हमें अहिंसा, दया, प्रेम जैसे गुणों से दूर ले जाकर िंहसा, क्रूरता आदि की ओर प्रेरित करेगी और देर—सबेर से हमें, नहीं तो आने वाली पीढ़ी को तो माँसाहारी बना ही देगी।
‘‘मारने की सलाह देने वाला, मरे प्राणियों के शरीर को काटने वाला, मारने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खाने वाला—ये सब के सब पापी दुष्ट हैं।’’ —मनुस्मृति
‘‘ये लोग जो तरह—तरह के अमृत से भरे, शाकाहारी उत्तम पदार्थों को छोड़कर माँस आदि घृणित पदार्थ खते हैं, वे सचमुच राक्षस की तरह दिखाई देते हैं।’’ —महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ११६
जो प्राणी लोभ के वशीभूत होकर दूसरे के प्राणों को हरते हैं अथवा माँस की पैदावार बढ़ाने में धन का योगदान करते हैं वे पापी हैं, दुष्ट हैं और घोर नरक में जाकर महान् दु:ख उठाते हैं।’’
……. मैं मानता हूँ, जो व्यक्ति दूसरों का माँस खाता है वह सचमुच अपने बेटे का माँस खाता है। —महात्मा बुद्ध
‘जो व्यक्ति माँस, मछली और शराब सेवन करते हैं, उनका धर्म—कर्म जप—तप सब कुछ नष्ट हो जाते हैं। —गुरु ग्रंथ साहब
‘‘सब राक्षस जैसे क्रूर—पुरुषों को प्रभु का नाम जपाया, उनसे माँस खाने की आदत छुड़वाई। उन राक्षस पुरुषों ने जीवों को वध करने की आदत छोड़ दी। सच कहा है, महात्माओं की संगति सुख देने वाली होती है।’’ —नानक प्रकाश
कपड़े पर खून लगने से कपड़ा गन्दा हो जाता है। वही घृणित खून जब मनुष्य पीवेगा तब उसकी चित्तवृत्तियाँ अवश्य ही दूषित हो जायेंगी। —गुरु नानक देव, बार माँझ, महल्ला—१
जिसमें खून है, वही माँस है। मरे हुए जीव का माँस, शूली पर चढ़ाये हुए जीव का माँस, शस्त्र के द्वारा मारे गये जीव का माँस कदापि नहीं खाना चाहिए।’’ —कुरान शरीफ अरबी
‘‘तुम मेरे पास सदैव एक पवित्र आत्मा होगे बशर्ते तुम किसी का माँस न खाओ।’’ —Holy Bible—TeachingsofJ.Christ
पैगम्बर हजरत मोहम्मद नबी साहब और उनके दामाद हजरत अली ने कहा था—‘‘हे संसार के प्राणियों ! अपना पेट भरने के लिए पक्षियों को मारकर अपने उदर को कब्र न बनाओ।’’
फारसी शास्त्र ‘फरदोषी शहनामा’ में यह लिखा सहज ही देखा जा सकता है–‘‘पशु िंहसा, माँस—भक्षण तथा शिकार कभी भी नहीं करना चाहिये, ऐसा हमारे पवित्र—शास्त्रों का फरमान है।’’
इस तरह जो कोई भी किसी पशु को मारेगा उसको परमात्मा स्वीकार नहीं करेगा। पैगम्बर एसफंदरमद ने कहा है–‘‘हे पवित्र मानव ! परमात्मा की यह आज्ञा है कि पृथ्वी का मुख रुधिर, मल व माँस से पवित्र रखा जाये।’’ —जरतुश्तनामा दु—९५
‘‘जो मनुष्य माँस खाते हैं, वे अल्पायु, दीन, दरिद्र, दास होते हैं तथा नीच कुलों में जन्म लेते हैं।’’ —विष्णु पुराण
प्रकृति ने जिस जीव की रचना जिस भोज्य—पदार्थ के अनुरूप की है, वह वैसा ही भोजन पचा सकता है। प्रकृति विरुद्ध भोजन करने या बलपूर्वक कराने से शरीर—तन्त्र असहज हो उठता है और उसे अनेक रोग घेर लेते हैं। उदाहरणार्थ, सन् १९९६ में इंग्लैण्ड की ‘गौओं में पागलपन का रोग’ फैला।
गौओं के चारे में पशु—मांस मिलाकर खिलाने से ये रोग हुआ। इस रोग से उनके मस्तिष्क छिन्न—भिन्न होकर स्पंज की तरह असंख्य छिद्रों से भर गए। उन गौओं का मांस खाने से भी कई लोग मारे गए। सारे विश्व में इस बिमारी का बहुत शोर मचा। यूरोपीय आर्थिक समुदाय ने इंग्लैण्ड से गो—मांस के आयात पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। गौओं से पहले यही रोग भेड़ों में ‘सक्रैपल’ नाम से फैला था।
मनुष्य भी शाकाहारी वर्ग का ही प्राणी है। मांसाहार उसकी शारीरिक—संरचना के सर्वथा प्रतिकूल है। मांस खाने से उसे अनेक दुस्साध्य रोग घेर लेते हैं। मनुष्य को मांसाहार से होने वाले विभिन्न रोग—
हृदय रोग और मस्तिष्कावरोध : हमारा हृदय मांस—पेशियों से निर्मित है। यह सारे दिन में लगभग एक लाख बार धड़क कर सारे शरीर की हर कोशिका तक खून की आपूर्ति करता है। हृदय को अपने स्वयं के संचालन के लिए भी खून की जरूरत होती है, जो तीन बड़ी धमनियों से प्राप्त होती है। रक्त—धमनियों की भीतरी दीवार पर वसा—युक्त पदार्थ जम जाने से धमनी—मार्ग सिकुड़ जाता है, बीच में खून के थक्के जम जाएं तो हृदय पूरी तरह अवरुद्ध हो जाता है।
इसी तरह मस्तिष्क को जाने वाले रक्त—धमनियों में थक्के जम जाने से मस्तिष्कावरोध हो जाता है।
धमनी—अवरोध का मुख्य कारण भोजन में सन्तृप्त वसा और कोलैस्ट्रोल की अधिकता है। मांस, अण्डे और दुग्ध—उत्पाद सन्तृप्त—वसा के समृद्ध स्रोत है। प्रत्येक सौ ग्राम अण्डे में ५५० मि. ग्रा. तथा अन्य मांसों में ४५ से ३७५ मि. ग्रा. तक कोलैस्ट्रोल होता है। प्राय: सभी वनस्पति—पदार्थ कोलैस्ट्रोल से रहित होते हैं। अमेरिकी मैडिकल एसोसिएशन ने अपनी मुख—पत्रिका के सम्पादकीय में लिखा है कि शाकाहारी भोजन करने से हृदय धमनी की सिकुड़न में ६०—७० तक बचाव हो सकता है।
उच्चरक्तचाप :—आजकल ये विश्वव्यापी रोग है। अधिक वसा और अधिक कोलेस्ट्रोल से युक्त तथा कम रेशेदार भोजन खाने से रक्त—धमनी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इस कारण धमनियों के ऊपर रक्त का अधिक दबाव पड़ता है, यही उच्च रक्तचाप है। मांस, अण्डों में वसा और कोलेस्ट्रोल अधिक है तथा रेशे हैं ही नहीं, इससे मांसाहारियों को उच्च रक्तचाप की अधिक शिकायत होती है।
मधुमेह :—पेट में स्थित पैक्रियाज ग्रन्थि, खून में स्थित शर्करा का अनुपात स्थिर रखने के लिए इन्सुलिन नामक हार्मोन का स्राव करती है। मांसाहारी भोजन अधिक वसा—युक्त होने से खून में कोलैस्ट्रोल के स्तर को ज्यादा करता है। इस कारण खून में इन्सुलिन का पूरा विलयन नहीं हो पाता, जिससे मधुमेह रोग होता है। खून में रही हुई अतिरिक्त वसा खुद भी विखण्डित होकर शर्करा (ग्लूकोज) में बदल जाती है, जो और भी शर्करा—वृद्धि करती है।
मिन्सोटा यूनिवर्सिटी, अमेरिका के महामारी विभाग ने निरन्तर २१ वर्ष तक २५,००० लोगों के विस्तृत अध्ययन के आधार पर मांसाहार को मधुमेह का एक प्रमुख कारण मान कर उसके त्याग करने की सलाह दी है।
केंसर :—N. C. I. के केंसर—कार्यक्रम के उप—निदेशक डा. जिओ बी. गोरी ने कहा है कि भोजन में वसा की अधिकता और रेशों की कमी होना केंसर का प्रमुख कारण है। मांस व अण्डों में वसा बहुत है और रेशे हैं ही नहीं। अत: रेशे कम होने के कारण आंतों की क्रिया गति बहुत शिथिल होती है। जबकि शाकाहारी भोजन में रेशे पर्याप्त मात्रा में होते हैं, जो बुहारी का काम करते हैं अर्थात् आंतों की क्रिया ठीक प्रकार चलती है।
मांसाहारी की आंतों में आहार के अधिक समय तक रुके रहने से उससे कई विषाक्त पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं तथा आंतें उस कैंसररूपी विष को सोखने लगती है, जो धीरे—धीरे वैंâसर का कारण बनते हैं। माँसाहारियों में बड़ी आंत के वैंâसर के अतिरिक्त अम्ल की बिमारी, अपच, कब्ज, हरिनया, बवासीर, कौलाइटिस, डाइवर्टिक्यूलोशिस आदि बिमारियां भी अधिक पाई जाती हैं।
गुर्दे व पित्ताशय की पथरी :—रासायनिक संरचना के आधार पर गुर्दे की पथरी कई प्रकार की है। कुछ वैâल्शियम ओक्सलेट से, कुछ कैल्शियम फास्फेट से, कुछ यूरिक अम्ल से बनती हैं। इनमें से कुछ पथरियाँ अधिक वसायुक्त भोजन लेने से बनती है। जब कत्लखाने में पशु को मारते हैं तो उनके शरीर में रहे हुए यूरिक—अम्ल आदि त्याज्य पदार्थ पशु—मांस में ही पड़े रहते हैं। उनको बाहर निकालने का कार्य भी मांसाहारी मनुष्य के गुर्दों को करना पड़ता है। इससे उनके खून में यूरिक—एसिड के स्तर में भारी वृद्धि हो जाती है जो गुर्दों में जाकर जमने लगता है व परत पर परत जमकर पथरी का रूप ले लेता है।
पित्ताशय की पथरी का मुख्य घटक कोलेस्ट्रोल ही है। वह पित्ताशय के तरल पदार्थों में जम कर पथरी बनाता है। कम वसा, कम प्रोटीन व अधिक रेशेदार भोजन लेने से पथरी में सुधार होने लगता है।
पशु—मांस में प्रोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है। किसी वस्तु के अधिक—सेवन से हानियां ही होती है। प्रोटीन के उच्छिष्ट पदार्थ (पचने के बाद व्यर्थ बचे) यूरिक एसिड और क्रेटिनम को बाहर निकालने के लिए गुर्दों को अधिक श्रम करना पड़ता है। जिसके कारण गुर्दे पर अतिरिक्त भार पड़ता है।
अस्थियों का विरलन :—आस्टियोपरोशिस (हड्डियों का घुलना) इस रोग का एक कारण है आहार में प्रोटीन का अधिक होना। मांसाहार को प्रोटीन का स्रोत माना गया है। सूत्र यह है कि ‘अधिक प्रोटीन—अधिक वैâल्शियम क्षति’ तथ्य है—‘आहार में जितना अधिक प्रोटीन होगा, वैâल्शियम की हानि भी उसी अनुपात में होगी’। आस्टिपयोपरोशिस वैâल्शियम की कमी से होने वाला हड्डी रोग है। जिससे हड्डियों की सघनता घटती है वे कमजोर और कच्ची पड़ जाती है।
जोड़ों का दर्द/गठिया :–इस रोग में जोड़ो में सूजन आ जाती हैं। मांसाहारी भोजन में वसा व कोलेस्ट्रोल की मात्रा अधिक होने से रक्त—धमनियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं, जिससे जोड़ों के सब ऊतकों तक पर्याप्त आक्सीजन नहीं पहुँच पाती, अत: सूजन व पीड़ा होती है।
मांसाहारी भोजन में यूरिक एसिड की मात्रा अधिक होने से गाउट होता है। इसमें पाँव के अंगूठों में सूजन व दर्द होने लगता है।
उच्च प्यूरीन युक्त व अधिक प्रोटीन वाला भोजन छोड़ देने से जोड़ों के दर्द में काफी फायदा होता है। घोघां—मछली, मुर्गी, गोमांस व सुअर—मांस में काफी मात्रा में प्यूरीन होता है।
पेट का अल्सर :—यह पेट में मवाद झरने वाला फोड़ा होता है, जो पेट में हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड अधिक बनने का परिणाम माना जाता है। मांसाहार में तेजाब (अम्ल) की अधिकता होती है। कत्लागार में मारे जाने वाले पशुओं को देखकर, अन्य पशुओं का मांस, मौत के डर से अधिक तेजाबयुक्त हो जाता है। अत: इसे खाने से पेट का अल्सर होता है।
मांस, मछली व अण्डे विशेष एसिड—वर्धक है। मांस को सुरक्षित रखने के लिए मिलाए जाने वाले बोरिक एसिड बेंजाइक एसिड व नाइट्राइट् भी पेट के अल्सर का कारण बनते हैं। किसी भी मांस व अण्डे में ‘विटामिन सी’ नहीं होता, यह विटामिन सर्व रोग निवारक है। इसकी कमी से शरीर की रोग—प्रतिरोधक—क्षमता प्रभावित होती है, जिससे कई रोग उत्पन्न होते हैं।
मिर्गी के दौरे व दृष्टिहीनता :—अधपक्का सुअर का माँस खाने से उसमें मौजूद टीनिया सोलियुम नाम सूक्ष्म जीव हमारी पाचन क्रिया की अन्तड़ियों से होकर खून में प्रवेश कर जाते हैं फिर यह जीव रक्त प्रवाह द्वारा हमारे मस्तिष्क व आँखों में पहुँच जाते हैं।
मस्तिष्क में यह जीव न्यूरो सीस्टीसरकोसिश बीमारी का कारण बनती है जिसके कारण मिर्गी के दौरे आने लगते हैं।
आँखों में प्रवेश पाकर अधिकतर यह सूक्ष्म जीव आँखों के नेत्र पटल पर आक्रमण करते हैं तथा आँखों के नेत्रपटल (Retina) को अपनी जगह से हटा (Retinal-Detachment) देते हैं। जिसके कारण मनुष्य दृष्टिहीन हो सकता है।
हृदयरोग विशेषज्ञ, नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉ. माइकल ऐस ब्राउन एवं डॉ. जोजेफ ऐल गोल्डस्टाइन का परामर्श है कि हृदयरोग से बचने के लिये मांस तथा अण्डे का सेवन न करें। उनका कथन है कि अमेरिका में पचास प्रतिशत मौंते केवल हृदयरोग के कारण होती हैं। उनके अनुसार अब तक वर्षों से चली आ रही यह धारणा कि बच्चों को अण्डा देने से उन्हें कोई हानि नहीं होती, विपरीत निकली है। भले ही बच्चे ऊपर से हृष्ट—पुष्ट दिखाई दें, किन्तु अन्दर से वे हृदयरोग से ग्रस्त हो जाते हैं।
आधुनिक भौतिक विज्ञान की नवीन खोज के अनुसार, रक्त में पाया जाने वाला पदार्थ लोडेन्सिटी लिपोप्रोटीन है जो कोलेस्टोरेल को अपने साथ प्रवाहित करता है। शरीर में यकृत तथा अन्य भागों के सेलों में एक पदार्थ है जिसको रिस्पेटर कहते हैं, जो एल.डी.एल. तथा केलोस्टेरोल को रक्त में विलीन करता है, जिसके फलस्वरूप रक्त प्रवाह में कोई बाधा नहीं आती। उपर्युक्त इन वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार, जो व्यक्ति मांस या अण्डे खाते हैं, उनके शरीर में रिस्पेटरों की संख्या में कमी हो जाती है। इसकी कमी से रक्त के अन्दर कोलेस्टेरोल की मात्रा अधिक हो जो जाती है, जिससे यह रक्तवाहिनियों में जमना आरम्भ हो जाता है और हृदयरोग आरम्भ हो जाता है।
कोलेस्टेरोल अण्डों में सबसे अधिक मात्रा में पाया जाता है, जिसके फलस्वरूप चर्मरोग हो जाते हैं। अण्डों से कुछ व्यक्तियों को एलर्जी भी होती है कुछ दिन पूर्व ‘इण्डियन काउन्सिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च’ द्वारा किये सर्वेक्षण से पता चला है कि फल, सब्जियाँ, अण्डे तथा मांस में डी डीटी के अंश पाये जाते हैं। अण्डों में डी. डीटी के अंश अधिक मात्रा में होता है, क्योंकि ‘पॉल्ट्री फार्मिंग में मुर्गियों को महामारी से बचाने के लिये डीडीटी आदि दवाईयों के अंश जा जाते हैं। इन दवाईयो का धड़ल्ले से प्रयोग होता है। फलस्वरूप अण्डे खाने वाले व्यक्ति के पेट में दवाईयों के अंश आ जाते हैं। इन दवाईयों के भयंकर परिणाम हो सकते हैं।
अब तक अण्डोें को सुपाच्य समझा जाता था, क्योंकि इनके प्रयोग पशुओं पर किये गये थे। कुछ वैज्ञानिकों ने जब इनका प्रयोग मनुष्यों पर किया तब पाया गया कि अण्डे सुपाच्य नहीं होते, ये दुष्पाच्य होते हैं।
अण्डे आठा डिग्री सेल्सियस से ऊपर के ताप पर खराब होने आरम्भ हो जाते हैं। इनको खराब होने से बचाकर रखने के लिये भारत में इतना नीचा ताप रखना कठिन हैं। विदेशों में भी आजकल अण्डे न खाने का परामर्श दिया जा रहा है।
अण्डा, गेहूँ, दाल, सोयाबीन से प्राप्त होने वाले एक ग्राम प्रोटीन का मूल्य क्रमश: १४, ४, ३, व २ पैसे तथा सौ वैâलोरी पर व्यय क्रमश: १०, ९, ८, व ५ पैसे हैं। इससे स्पष्ट है कि अण्डों की अपेक्षा दालों और अनाज से बहुत कम व्यय में (सस्ता) प्रोटीन और ऊर्जा प्राप्त होती है।
अण्डों में शक्तिदायक तत्व शर्करा तथा विटामिन सी बिल्कुल नहीं होते और वैâल्सियम तथा बी—काम्पलेक्स विटामिन भी नगण्य मात्रा में होते हैं। इन तत्वों की कमी के कारण तथा विषैले तत्वों से युक्त होने के कारण अण्डे आंतड़ियोें में सड़ान (Putrafaction) उत्पन्न कर कई रोगों को बढ़ाने में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त दूध की तुलना में अण्डे आसानी से नहीं पचते हैं।
आज विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि मांस की भांति अण्डा मनुष्य के शरीर के अनुकूल नहीं है, क्योंकि इनसे शरीर में अनेक भयंकर रोग उत्पन्न होते हैं। अण्डे खाने से रक्त में कोलेस्टेरोल की मात्रा बहुत बढ़ जाती है, जिससे पित्ताशय में पथरी हो जाती है। इससे दिल का दौरा पड़ने लगता है। इनके सेवन से त्वचा कठोर हो जाती है। इनसे रक्त अशुद्ध हो जाता है।
शरीर में यह उत्तेजना बढ़ाता है। इनसे सात्विक बुद्धि नष्ट हो जाती है इनके सेवन से शरीर में से दुर्गन्ध आने लगती है। इनसे रक्त दाब (blood pressure) बढ़ जाता है। इनसे दाँत, गुर्दों के अनेक रोग हो जाते हैं। इनसे कैंन्सर (Colon cancer) हो जाता है। इनसे दाँत शीघ्र रोगग्रस्त हो जाते हैं। इनसे पाचन क्रिया विकृत हो जाती है। इनसे श्वास की गति व हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। इनसे मस्तिष्क में अशान्ति बढ़ जाती है। इनसे अतिनिद्रा का रोग हो जाता है और शरीर थका—थका सा रहता है। इनसे मनुष्य निर्दयी तथा हिंसक बन जाता है।
मांस की भाँति, अण्डों से शरीर में अनपेक्षित मौन—विचार उत्पन्न होते हैं और मन में विक्षेप और क्रोध का आविर्भाव होता है।
अण्डे दो प्रकार के होते हैं एक वे जिनसे बच्चे निकल सकते हैं तथा दूसरे वे जिनसे बच्चे नहीं निकलते। मुर्गी यदि मुर्गे के संसर्ग में न आए तो भी जवानी में अण्डे दे सकती है। इन अण्डों की तुलना स्त्री के रज:स्राव से की जा सकती है। जिस प्रकार स्त्री के मासिक धर्म होता है, उसी तरह मुर्गी के भी यह धर्म अण्डों के रूप में होता है।
यह अण्डा मुर्गी की आन्तरिक गन्दगी का परिणाम है। आजकल इन्हीं अण्डों को व्यवसायिक स्वार्थवश लोग अहिंसक, शाकाहारी, वैज आदि भ्रामक नामों से पुकारते हैं किन्तु ये शाकाहारी नहीं होते। ऐसे अण्डों की प्राप्ति भी एक जीव के अन्दर से ही होती है किसी वनस्पति से नहीं। शाकाहारी पदार्थ मिट्टी, सूर्य किरणों व जल वायु से विभिन्न तत्त्व प्राप्त कर उत्पन्न होते हैं, जब कि किसी भी प्रकार के अण्डे ऐसे प्राप्त नहीं होते। दोनों प्रकार के अण्डों की उत्पत्ति मुर्गी से ही होती है।
व दोनों के रासायनिक तत्व (Chemical Composition) में भी कोई भिन्नता नहीं होती यदि कोई भेद करना ही हो तो ऐसे अण्डों को अपरिपक्व (Immature) मुर्दा (Dead) या भ्रूण (Still Born) भले ही कह लें किन्तु शाकाहारी कभी नहीं कह सकते ।
ऐसे अण्डों को अधिक मात्रा में प्राप्त कर शीघ्र धन प्राप्त करने के लिए मुर्गियों पर कैसे अत्याचार किये जाते हैं? क्या क्रूरता पूर्ण विधि अपनाई जाती है ? और मुर्गियों को धन्धे की दृष्टि से लाभप्रद बनाए रखने के लिए उनसे वैâसे त्रासदायी वातावरण में अण्डे दिलाए जाते हैं और वह त्रासदाई वातावरण जो मुर्गी से अण्डे में कैद होकर खाने वाले के उदर में उतरकर उसके खून में घुल मिल जाता है, वह इस प्रकार है।
मुर्गियां जो अण्डे देती हैं वे सब अपनी स्वेच्छा से या स्वभावतया नहीं देती बल्कि उन्हें विशिष्ट हार्मोन्स और एग—फॅर्म्युलेशन के इन्जेक्शन दिये जाते हैं। इन इन्जेक्शनों के कारण ही मुर्गियाँ लगातार अण्डे दे पाती हैं। अण्डे के बाहर आते ही उसे इंक्यूबेटर (सेटर) में डाल दिया जाता है ताकि उसमें से २१ दिन की जगह १८ दिनों में चूजा बाहर आ जाए।
मुर्गी का बच्चा जैसे ही अण्डे से बाहर निकलता है, नर तथा मादा बच्चों को अलग अलग कर लिया जाता है। मादा बच्चों को शीघ्र जवान करने के लिए एक खास प्रकार की खुराक दी जाती है और उन्हें चौबीस घण्टे तेज प्रकाश में रखकर सोने नहीं दिया जाता ताकि ये दिन—रात खा—खा कर जल्दी ही रज:स्राव करने लगे और अण्डा देने लायक हो जाएँ।
अब इन्हें जमीन की जगह तंग पिंजरों में रख दिया जाता है, इन पिंजरों में इतनी अधिक मुर्गियाँ भर दी जाती हैं कि वे पंख भी नहीं फड़फड़ा सकतीं। तंग जगह के कारण आपस में चोचें मारती हैं, जख्मी होती है गुस्सा करती हैं व कष्ट भोगती है। जब मुर्गी अण्डा देती है जो अण्डा जाली में से किनारे पड़कर अलग हो जाता है और उसे अपने अण्डे सेने की प्राकृतिक भावना से वंचित रखा जाता है ताकि वह अगला अण्डा जल्दी दे। जिंदगी भर पिंजरे में कैद रहने व चल—फिर न सकने के कारण उसकी टाँगें बेकार हो जाती हैं। जब उसकी उपयोगिता घट जाती है तो कत्लखाने भेज दिया जाता है।
इस प्रकार से प्राप्त अण्डे अहिंसक व शाकाहारी कैसे हो सकते हैं ?-
जिन अण्डों से बच्चे नहीं निकलते, उन्हे पॉल्ट्री फार्मिंग वाले शाकाहारी अण्डे कहकर समाज में एक मिथ्या भ्रम पैदा करते हैं। अण्डे कभी किसी पेड़ पर नहीं लगते, अत: वे शाकाहारी नहीं हो सकते।
तथाकथित शाकाहारी अण्डे क्या हैं?
किसी प्राणी के देह में चार प्रकार के पदार्थ बनते हैं—
(अ) वे जो उसके शरीर का वास्तविक अंग हैं।
(आ) वे जो मल के रूप में और विभिन्न मार्गों से मल—मूत्र के रूप में निकलते हैं।
(इ) वे जो शरीर में रसोल आदि रोग बनने का कारण बनते हैं।
(ई) वे जो माता के शरीर में सन्तान का शरीर निर्माण करते हैं जैसे गर्भ का अण्डा।
निर्जीव अण्डा पहली कोटि में इसलिये नहीं आ सकता, क्योंकि निर्जीव होने से तथा पिता से उत्पन्न न होने के कारण सन्तान का शरीर नहीं है। अब, या तो वह मुर्गी के शरीर का मल है या रोग का अंश है। वस्तुत: जिसे एक शाकाहारी अण्डा कहते हैं वह तो मुर्गी का रज:स्राव होता है, जो गन्दगी से लिप्त होता है। साधारण व्यक्ति शाकाहारी और अशाकाहारी अण्डे में पहचान नहीं कर सकता। तथा कथित शाकाहारी अण्डों के सेवन से भी वे सभी हानियाँ हैं जो अन्य अण्डों के सेवन से होती है।