-डॉ. जीवन प्रकाश जैन, जम्बूद्वीप
भारत देश में नया कीर्तिमान-सम्पूर्ण भारत देश के लिए वर्तमान में एक कीर्तिमान स्थापित हुआ है। यह दिगम्बर जैन समाज द्वारा किया गया विश्व का एक ऐसा अद्भुत कार्य है, जिसके माध्यम से आज समूचे विश्व में भारत देश को एक अनूठा गौरव प्राप्त हो रहा है।
यह कार्य है जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की विश्व में सबसे ऊंची अर्थात् १०८ फुट विशालकाय दिगम्बर जैन प्रतिमा का ऐतिहासिक निर्माण। जैनधर्म के अनुसार पंचमकाल में यह पहला अवसर है जब १०८ फुट ऊंची प्रतिमा का निर्माण अखण्ड पाषाण की एक शिला में किया गया है। यह निर्माण महाराष्ट्र के नासिक जिले में स्थित जैनधर्म के लाखों वर्ष प्राचीन मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के ऋषभगिरि पर्वत पर किया गया है। जैन आगम के अनुसार मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र को ९९ करोड़ महामुनियों की निर्वाणभूमि कहा जाता हैै अत: यह दिगम्बर जैन समाज का एक महान श्रद्धा का केन्द्र है।
प्रतिमा निर्माण की प्रेरणास्रोत-ऐसे तीर्थ पर जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी, जिनकी आयु वर्तमान सन् २०२३ में ८९ वर्ष की है और जिनका दीक्षा-साधना का काल ७० वर्षीय दीर्घ है, ऐसी दिव्यशक्ति परमपवित्र गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा से इस महान प्रतिमा का निर्माण ‘‘भगवान श्री ऋषभदेव १०८ फुट विशालकाय दिगम्बर जैन मूर्ति निर्माण कमेटी-मांगीतुंगी’’ के द्वारा किया गया है। इस महान कार्य में पूज्य माताजी की ही प्रमुख शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी का मार्गदर्शन भी महत्वपूर्ण रहा, जिसके बल पर जैन संस्कृति निर्माण का यह ऐतिहासिक कार्य सानंद सम्पन्न हो सका है।
प्रतिमा निर्माण हेतु चमत्कारिक चिन्तन का प्रादुर्भाव-इतिहास के तौर पर इस मूर्ति निर्माण की प्रेरणा सन् १९९६ में पूज्य गणिनी माताजी ने समस्त समाज को प्रदान की थी। पूज्य माताजी का यह दृष्टिकोण अत्यन्त चमत्कारिक था, क्योंकि उन्होंने इसी मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में लगातार १ सप्ताह तक उत्कृष्ट ध्यान साधना का योग धारण किया था और सातवें दिन उनको ध्यान में अंतरंग से ही मांगीतुंगी तीर्थ के पर्वत पर विश्व की सबसे ऊंची अर्थात् १०८ फुट ऊंची मूर्ति निर्माण की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। इस प्रेरणा में पूज्य माताजी को तीन महत्वपूर्ण एवं चमत्कारिक संदेश प्राप्त हुए, जिसमें ‘‘प्रतिमा का माप-१०८ फुट ऊंचाई वाला, प्रतिमा निर्माण की दिशा-पूर्वाभिमुख तथा प्रतिमा का नामकरण-भगवान ऋषभदेव’’ होवे, ऐसी अन्तर्प्रेरणा प्राप्त हुईं और इसी आधार पर वर्तमान में यह कार्य सफलता के सोपान चढ़ सका।
पूज्य माताजी को प्राप्त इस प्रेरणा के उपरांत ही इस मूर्ति निर्माण के कार्य हेतु समाज द्वारा अध्यक्षीय पद पर मनोनीत किये गये पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी ने सशक्त रूपरेखा के साथ मूर्ति निर्माण की कमेटी का गठन किया और इस असंभव जैसे कार्य की संभवता के लिए उन्होंने अपने जीवन के २० वर्ष समर्पित कर दिये।
प्रतिमा निर्माण की पृष्ठभूमि-प्रारंभिक तौर पर १९९६ से २००२ तक का समय इस विशाल कार्य को सफल करने के लिए गंभीरतापूर्वक रूपरेखा बनाने में तथा अनेक सरकारी कार्यवाही को करने में लग गया। जिसके परिणामस्वरूप सन् १९९९ में पहाड़ के पूर्वाभिमुख भाग में वन विभाग से दो एकड़ की जमीन सरकार द्वारा मूर्ति निर्माण कमेटी के नाम से प्राप्त हुई। जिसे आज ऋषभगिरि पर्वत के नाम से जाना जाता है। इसके पश्चात् ३ मार्च २००२ से शिलापूजन के साथ पर्वत को कांटने-छांटने का कार्य प्रारंभ किया गया और अत्यन्त कठोर परिश्रम के साथ यह कार्य वृद्धि को प्राप्त करता रहा और शनै:-शनै: पर्वत को काटते-काटते सन् २०१२ का वह समय आया, जब समिति को पर्वत पर अखण्ड पाषाण की विशाल शिला प्राप्त हुई। इस शिला को मूर्ति निर्माण करने के योग्य समतल रूप में निखारा गया और दिसम्बर २०१२ से इस अखण्ड शिला पर मूर्ति निर्माण का कार्य प्रारंभ किया गया।
प्रतिमा निर्माण के शिल्पी-मूर्ति निर्माण का यह कार्य जयपुर की सुप्रसिद्ध फर्म मूलचंद रामचंद नाठा फर्म को सौंपा गया और इस फर्म के सभी कारीगरों ने अत्यन्त मनोयोग के साथ कुशलतापूर्वक इस मूर्ति को निर्मित करने में अपनी उत्कृष्ट मूर्ति-कला को प्रदर्शित किया। दिसम्बर २०१२ के बाद सतत शिला पर मूर्ति का निर्माण होता रहा और मात्र ३ वर्ष के अंतराल में विश्व की सबसे बड़ी अखण्ड पाषाण में निर्मित १०८ फुट विशाल मूर्ति का निर्माण सारे संसार के समक्ष बन करके माघ कृ. एकम्, २४ जनवरी २०१६ को सम्पूर्ण हुआ।
जैन आगम के अनुसार प्रतिमा का निर्माण-इस मूर्ति की माप प्राचीन जैन आगम के अनुसार नख से शिख तक १०८ फुट विशाल निर्मित की गई है, लेकिन वास्तव में पैर के ्नाीचे प्रशस्ति का माप, कमलासन तथा सिर के ऊपर बालों की ऊंचाई को यदि मिलाया जाये, तो यह प्रतिमा १२१ फुट विशाल निर्मित हुई है, जिसका दुनिया में कोई सानी नहीं है। क्योंकि अभी तक इतनी ऊंची जैन प्रतिमा का निर्माण विश्व के समक्ष प्रथम बार हुआ है।
विशाल प्रतिमा के अंगोपांग की माप-निश्चित ही इस विशाल प्राfतमा के अंगोपांग की माप जानने की उत्कुसता हर व्यक्ति को होगी। अत: आपको बताना चाहते हैं कि जैनधर्म के अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ वसुनंदि प्रतिष्ठापाठ के आधार पर इस प्रतिमा को नवताल के सैद्धान्तिक आधार पर निर्मित किया गया है, जिसमें भगवान का मुख १२ फुट का है, गर्दन ४ फुट की है, वक्षस्थल १२ फुट का है, वक्षस्थल से नाभी तक १२ फुट है, नाभी से इन्द्री १२ फुट है, इन्द्री से घुटने तक २४ फुट है, घुटने ४ फुट के हैं, घुटने से पैर २४ फुट के हैं, पगतली ४ फुट की है। इस प्रकार अतीव सौम्य मुद्रा वाली यह प्रतिमा अपने विहंगम स्वरूप से जन-जन के लिए आकर्षण का केन्द्र है।
अंतर्राष्ट्रीय महामहोत्सव-इस प्रतिमा निर्माण की पूर्णता के उपरांत मूर्ति निर्माण कमेटी द्वारा माघ शु. तृतीया से दशमी अर्थात् दिनॉँक ११ फरवरी से १७ फरवरी २०१६ तक इस प्रतिमा का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित किया गया और १८ फरवरी २०१६ से प्रारंभ होकर लगातार १ वर्ष तक इस प्रतिमा का ऐतिहासिक पंचामृत महामस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इन समारोह में भारत और विदेश की दिगम्बर जैन समाज ने लाखों की संख्या में भाग लेकर पुण्य एकत्रित किया और इतना ही नहीं महाराष्ट्र सरकार एवं नासिक प्रशासन ने भी ऐतिहासिक सहयोग देते हुए अनेक सुविधाओं की व्यवस्था करके महोत्सव को राजकीय आयोजन के रूप में सफल किया।
गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड में विश्व की सबसे ऊँची बनी यह प्रतिमा-इस विशाल अंगोपांग की माप के साथ ही यह प्रतिमा पूरे देश और दुनिया के लिए एक अजूबा बनकर प्रसिद्ध हुई। अखण्ड पाषाण में निर्मित यह प्रतिमा मोनोलिथिक आइडोल के रूप में विश्व की सबसे बड़ी दिगम्बर जैन प्रतिमा बनकर गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज हुई। प्रतिमा के पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव एवं महामस्तकाभिषेक के अवसर पर ही दिनाँक ६ मार्च २०१६ को गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स-लंदन के प्रतिनिधी ने साक्षात् ऋषभगिरि-मांगीतुंगी पधारकर मूर्ति का अवलोकन और मेजरमेंट किया। उन्होंने इस प्रतिमा के अंगूठे से लेकर सिर के बालों तक की ऊँचाई को ११३ फुट माप कर इसे दुनिया का अजूबा घोषित किया और गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड्स का सर्टिफिकेट प्रदान कर इस प्रतिमा को दुनिया का अचम्भा सिद्ध किया।
प्रतिमा निर्माण का उद्देश्य-वास्तव में जैनधर्म का मूल सिद्धान्त ‘‘अहिंसा परमोधर्म:’’ है। इसी सिद्धान्त के बल पर महात्मा गांधी ने २०० वर्षों की गुलामी से पराधीन भारत को सन् १९४७ में आजाद कराया था, जिसके कारण आज भी पूरे विश्व में महात्मा गांधी की जन्मजयंती २ अक्टूबर को ‘‘इंटरनेशनल डे ऑफ पीस’’ के रूप में मनाया जाता है। अत: जैनधर्म के ऐसे महान सिद्धान्तों को आने वाले हजारों वर्षों तक सतत् इस धरा पर प्रसारित-प्रवाहित करने के लिए जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की विश्वविख्यात एवं १०८ फुट ऊंची इस अद्भुत प्रतिमा का निर्माण किया गया है।
अहिंसा की प्रतिमूर्ति-द स्टेचू ऑफ अहिंसा-जैन तीर्थंकरों के अहिंसामयी मूल सिद्धान्तों के कारण ही इस महान प्रतिमा को जन-जन में प्रेरणादायी बनाने के लिए ‘‘द स्टेचू आफ अहिंसा’’ का नाम दिया गया, जिससे कि देश के साथ ही विदेशी संस्कृति से आने वाले पर्यटकों, यात्रियों, शोधार्थियों व भक्तों को भी ‘‘अहिंसा की प्रतिमूर्ति’’ के रूप में ऋषभगिरि-मांगीतुंगी पर्वत पर बनी १०८ फुट विशाल भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के दर्शन करने हेतु भारत देश पधारना होगा।
प्रतिमा निर्माण में अहर्निश योगदान देने वाले कतिपय विशिष्ट महानुभाव-अनादिकालीन जैन संस्कृति के लिए महान सम्बल बनकर स्थापित होने वाली इस विशाल प्रतिमा के निर्माण में कतिपय विशिष्ट, महान सौभाग्यशाली और कर्मठ कार्यकर्ताओं का योगदान भी सदैव स्मृति के योग्य है। इनमें अध्यक्ष पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी के साथ ही महामंत्री-डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल-पैठण, कार्याध्यक्ष श्री जयचंद कासलीवाल आमदार-चांदवड़, इंजीनियर श्री सी.आर. पाटिल-पुणे, कोषाध्यक्ष संघपति श्री महावीर प्रसाद जैन-साउथ एक्स., दिल्ली, उपाध्यक्ष श्री कमलचंद जैन, खारीबावली-दिल्ली, कार्याध्यक्ष श्री अनिल कुमार जैन, प्रीतविहार-दिल्ली, सदस्य श्री नरेश बंसल-गुड़गाँव, एडवोकेट श्री जम्मनलाल कासलीवाल-औरंगाबाद एवं इंजी. श्री हीरालाल तात्या मेंढागिरी-सांगली (महा.) ने इस ऐतिहासिक मूर्ति के निर्माण में अपने-अपने योग्य अहम भूमिका निभाकर इस कार्य को सन् १९९६ से लेकर सन् २०१६ के मध्य सानंद सम्पन्न किया।
नवनिर्मित ऋषभदेवपुरम् तीर्थ एवं अन्य योजनाओं का सुंदर विकास-भगवान ऋषभदेव मूर्ति निर्माण कमेटी द्वारा मांगीतुंगी में अन्य विकासीय कार्य भी सानंद किये जा रहे हैं। मूर्ति निर्माण के उपरांत सन् २०१६ में इस कमेटी के द्वारा मांगीतुंगी फाटा के निकट ‘‘ऋषभदेवपुरम्’’ तीर्थ का विकास किया जा रहा है। यहाँ पर सवा पाँच एकड़ भूमि क्रय करके विशाल नवग्रह शांति जिनमंदिर, सर्वतोभद्र महल, त्यागी भवन, यात्रियों की श्रेष्ठ आवास व्यवस्था, भोजनालय, ऑडिटोरियम हॉल, ऑफिस, पार्विंâग, गार्डन आदि विकसित करने की योजनाएं सफलता के साथ संचालित हो रही हैं। सर्वतोभद्रमहल, त्यागीभवन एवं १०० सुपर डीलक्स कमरों की धर्मशाला तो तैयार भी हो चुकी है और क्षेत्र पर नियमित भोजनशाला सुचारू चल रही है। वर्तमान में ठोस पाषाण से निर्मित हो रहे १३५ फुट ऊँचे गर्भगृह से सहित विशाल नवग्रहशांति जिनंदिर का निर्माण चल रहा है। विशेषरूप से भारत/महाराष्ट्र सरकार के सहयोग से इस कमेटी द्वारा ऋषभदेवपुरम् तीर्थ पर यात्री सुविधा हेतु पोस्ट ऑफिस एवं सुरक्षा हेतु पुलिस चौकी का निर्माण भी किया गया है। अस्थाईरूप से नवग्रहशांति मंदिर में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु ऐसे नवग्रहों के अरिष्ट को दूर करने वाले ९ तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएं भी विराजमान हैं, जिनका पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव तिथि माघ शु. तृतीया से दशमी, ३० जनवरी से ६ फरवरी २०१७ में पूज्य माताजी के सान्निध्य में सानंद सम्पन्न हुआ था।
इसी प्रकार ऋषभदेवपुरम् से लगभग १.५ किमी. आगे मांगीतुंगी मार्ग पर सवा ६ एकड़ जमीन क्रय की गई है, जिसे ऋषभदेवपुरम् के अन्तर्गत ही भरत-चक्रवर्ती उद्यान के नाम से स्थापित किया गया है। यहाँ पर खुले आकाश में १० फुट उत्तुंग ग्रेनाइट पाषाण से निर्मित भगवान भरत स्वामी की प्रतिष्ठित पद्मासन प्रतिमा ऊँचे चबूतरे पर बनी वेदी और कमलासन में अत्यन्त शोभायमान स्थापित की गई हैं। पुन: पहाड़ पर वाहन से जाने वाले मार्ग की तलहटी में २ एकड़ भूमि में भगवान शांतिनाथ उद्यान की स्थापना की गई है, जहाँ लाल ग्रेनाइट में सवा ५ फुट ऊँची भगवान शांतिनाथ की पद्मासन प्रतिमा डेढ़ फुट ऊँचे कमल पर विराजमान की गई है, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा फरवरी २०१६ के बड़े पंचकल्याणक में ही सम्पन्न की गई थी।
इसी प्रकार इस कमेटी के अनथक प्रयासों के द्वारा समस्त शासकीय और वन विभागीय कार्यवाही को पूर्ण करके ऋषभगिरी पर्वत पर मूर्ति स्थल तक वाहन से जाने हेतु लगभग ७ एकड़ का लगभग २.७ किमी. लम्बा मार्ग अर्थात् कच्ची सड़क मूर्ति निर्माण कमेटी के नाम हस्तांतरित हुई है, जिस पर मूर्ति निर्माण कमेटी को रोड निर्माण, पानी की पाइप लाइन, बिजली लाइन, पीने के पानी की टंकी, पार्विंâग आदि का कार्य करने का अधिकार प्राप्त
हुआ है।इस प्रकार मूर्ति निर्माण कमेटी द्वारा सतत मांगीतुंगी क्षेत्र में विकास के कार्य और विभिन्न उत्सव-महोत्सव के माध्यम से धर्मप्रभावना के कार्य भी सम्पन्न हो रहे हैं।
जैनधर्म में मोक्ष की परिभाषा-जब भी किसी भव्य आत्मा के जीवन में वैराग्य की उत्पत्ति होती है, तब वह जैनधर्म के अनुसार निर्ग्रंथ दीक्षा धारण करके घोर तपश्चरण करता है और इस तपस्या के प्रभाव से क्रमश: आगामी भवों में अपनी आत्मा को शरीर से पृथक् करके जन्म-मरण के संताप को नष्ट करता है।
जैनधर्म कर्मसिद्धान्त पर आधारित है, जिसके अनुसार कर्म बंध के कारण प्रत्येक आत्मा इस संसार में सतत भ्रमण करती है लेकिन जब इस आत्मा को समस्त कर्मों से छुटकारा मिल जाता है, तब वह आत्मा ‘‘परमात्मा’’ के रूप में परिणत होकर तीनलोक के अग्रभाग पर स्थित सिद्धशिला में जाकर विराजमान हो जाती है, जिसे हम भगवान की उपमा देते हैं। ऐसी भव्य आत्माओं का पुन: कभी संसार में भ्रमण नहीं होता है और वे महानआत्माएं सदा-सदा के लिए अनंत सुख में लीन हो जाती हैं, इसी को मोक्ष कहा जाता है।
जैनधर्म की तीर्थंकर परम्परा-ऐसी असंख्य भव्य आत्माओं में से प्रत्येक काल में मात्र २४ भव्य आत्माएं वे होती हैं, जो ‘‘तीर्थंकर’’ के रूप में इस धरती पर अवतरित होती हैं। जैन आगम के अनुसार ‘‘तीर्थंकर’’ एक नामकर्म की प्रकृति है, जिसका उदय एक व्यक्ति के जीवन में भावों की अनंत विशुद्धि के परिणामस्वरूप होता है। प्रत्येक काल में २४ तीर्थंकर भगवन्तों का जन्म होता है, जिसमें वर्तमानकाल में करोड़ों वर्ष पूर्व प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म शाश्वत नगरी अयोध्या में हुआ था और इसी क्रम में द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ, तृतीय तीर्थंकर भगवान संभवनाथ आदि होते हुए इस तीर्थंकर परम्परा में वर्तमान सन् २०२३ से मात्र २६२२ वर्ष पूर्व २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म कुण्डलपुर (नालंदा) बिहार की पावन धरती पर हुआ था।
तीर्थंकर भगवन्तों की यह परम्परा अनादि है, जिसमें भूतकाल के
२४ तीर्थंकरों के नाम जैन आगम में प्राप्त होते हैं तथा भावी काल में होने वाले
२४ तीर्थंकरों की नामावली भी ग्रंथों में प्राप्त होती है।
तीर्थंकर भगवन्तों के प्रमुख तीन गुण-जैनधर्म के अनुसार तीर्थंकर भगवन्तों के तीन प्रमुख गुण बताये गये हैं जिनमें प्रथम वीतरागता, द्वितीय सर्वज्ञता व तृतीय हितोपदेशिता का गुण बताया गया है। संसार के समस्त राग-द्वेष एवं मोह का त्याग करके सौम्य मुद्रा के साथ वैराग्य धारण करना वीतरागता को प्रदर्शित करता है। आत्मा की अनंत शक्ति व ध्यान मुद्रा से तीनलोक के सर्वस्व ज्ञान को प्राप्त करना सर्वज्ञता कहलाता है तथा प्राणीमात्र के प्रति अपनी आत्मा में हित-मित और प्रिय भावों को जागृत करना हितोपदेशिता कहलाता है।
तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण क्यों ?-इसीलिए तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं का निर्माण अनादिकाल से चला आ रहा है, क्योंकि प्रत्येक धर्म को अपने जीवन में अपनाने का म्ाूल उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त करना ही होता है। अत: सदैव वीतरागता, हितोपदेशिता और सर्वज्ञता के सिद्धान्त इस संसार में प्रासंगिक होते हैं, जिन्हें तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं का दर्शन करके अनेक भव्य आत्माएं अपने जीवन में धारण करती हैं और उन सभी भव्य आत्माओं का कल्याण होता है।
इसके साथ ही सांसारिक जीवन में भी तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्रतिपादित वीतरागता व हितोपदेशिता व मूलरूप से अहिंसा परमोधर्म: के सिद्धान्त अत्यन्त सुख को देने वाले होते हैं, जिनको धारण करने की प्रेरणा प्रतिदिन तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं के दर्शन करने से प्रत्येक भव्य प्राणी को प्राप्त होती है। इसीलिए अनादिकाल से जैनधर्म में तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं के निर्माण की परम्परा चली आ रही है।
मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र का पौराणिक महत्व-दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों के अनुसार वर्तमान से लाखों वर्ष पूर्व मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र से ९९ करोड़ महामुनियों ने सिद्धपद की प्राप्ति की है। यह मांगीतुंगी जिला-नासिक, तह.-सटाणा के भिलवाड़ ग्राम की उत्तर दिशा में एक पर्वतराज है, जिसकी दो चूलिकाएं हैं, जिनमें एक मांगीगिरि व दूसरी तुंगीगिरि के नाम से प्रसिद्ध है। आसपास का पूरा पर्वतीय क्षेत्र ‘‘गालना हिल्स’’ कहलाता है, जो समुद्री सतह से ४५०० फुट की ऊँचाई पर है। इन दोनों गिरि पर दिगम्बर जैन गुफाएं हैं तथा दोनों गिरि की चोटी गगनचुम्बी शिखर के समान है। दोनों गिरि पर हजारों वर्ष प्राचीन प्रतिमाएं एवं यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियाँ विराजमान हैं और तलहटी से २५० फुट की ऊँचाई पर सुध-बुध मुनिराज के नाम से दो गुफाएँ हैं, जिनमें मूलनायक भगवान मुनिसुव्रतनाथ तथा भगवान नेमिनाथ विराजमान हैं। साथ ही यहाँ पर अनेकों दिगम्बर जैन प्रतिमाएं मांगीतुंगी गिरि पर उत्कीर्ण हैं, जिनके दर्शन-वंदन हेतु प्रतिदिन सैकड़ों दिगम्बर जैन श्रद्धालुगण आकर पैदल अथवा डोली से पर्वत की वंदना करते हैं।पर्वत की तलहटी में भी दिगम्बर जैन परम्परा के अति प्राचीन ५ जिनमंदिर वंदनीय हैं, जिनमें अतिशयकारी चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनमंदिर, भगवान आदिनाथ जिनमंदिर, भगवान मुनिसुव्रतनाथ जिनमंदिर, सहस्रकूट कमल मंदिर व सुन्दर मानस्तंभ का दर्शन करके भक्तजन तीर्थयात्रा को सफल करते हैं।