महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जिले में स्थित मांगीतुंगी (भिलवाड) ग्राम के उत्तर दिशा की ओर एक पर्वतराज है, जिसकी दो चूलिकाएँ हैं। प्रथम श्री मांगीगिरि व द्वितीय श्री तुंगीगिरि के नाम से प्रसिद्ध है, जो देखने में अद्वितीय है। यह पूरा पहाड़ी क्षेत्र ‘‘गालना हिल्स’’ कहलाता है, जो समुद्र सतह से ४५०० फीट की ऊँचाई पर है। दोनों गिरि पर दिगम्बर जैन गुफाएँ हैं, ऊपर गगनचुंबी शिखर हैं।
इन दोनों गिरि पर हजारों वर्ष प्राचीन प्रतिमाएँ एवं यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियाँ विराजमान हैं। तलहटी से २५० फीट ऊँचाई पर शुद्ध-बुद्ध मुनिराज के नाम से दो गुफाएँ हैं। इन गुफाओं के अंदर मूलनायक भगवान मुनिसुव्रतनाथ एवं भगवान नेमिनाथ विराजमान हैं। वस्तुत: मांगीतुंगी गिरि पर अनेकों दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं तथा अनेक इतिहासों को अपने गर्भ में संजोए ‘‘मांगीतुंगी’’ सिद्धक्षेत्र प्राचीनकाल से एक तपस्वी की भांति अडिग और निष्कामरूप से खड़ा अपनी पावनता का संदेश दे रहा है, जहाँ भक्तगण श्रद्धापूर्वक जाकर वंदना करते हैं तथा अपने असंख्य कर्मों की निर्जरा करते हैं।
बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागर जी महाराज की अक्षुण्ण परम्परा के पंचम पट्टाधीश आचार्यश्री १०८ श्रेयांससागर महाराज की प्रेरणा से लगभग २५-३० वर्ष पूर्व इस तीर्थ के विकास का कार्य एवं जीर्णोद्धार प्रारंभ हुआ।
पर्वत की तलहटी में दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र तीर्थ है, जिसमें दिगम्बर जैन परम्परा के अतिप्राचीन ५ मंदिर हैं-१. श्री सातिशय विश्वहितंकर चिन्तामणि पाश्र्वनाथ जिनमंदिर २. श्री १००८ मूलनायक आदिनाथ भगवान जिनमंदिर ३. संकटमोचन श्री पार्श्वनाथ भगवान जिनमंदिर ४. मूलनायक मुनिसुव्रतनाथ भगवान व २४ खड्गासन तीर्थंकर जिनमंदिर ५. सहस्रकूट कमल मंदिर (गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से निर्मित) साथ ही एक मानस्तंभ है। भगवान पार्श्वनाथ मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा अतिशय चमत्कारिक है, जहाँ भक्तगण अपने मनोरथ सिद्ध करते हैं।
इनमें से पूज्य स्व. आचार्यश्री श्रेयांससागर महाराज की पावन प्रेरणा से यहाँ वर्तमान चौबीसी मंदिर का निर्माण हुआ, मानस्तंभ का पुन: निर्माण हुआ तथा सहस्रकूट जिनप्रतिमाओं का निर्माण हुआ।
आचार्यश्री अपने संघ सहित जहाँ भी विहार करते थे, इस सिद्धभूमि के विकास हेतु श्रावकों को मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की यात्रा एवं वहाँ सहयोग देने की प्रेरणा प्रदान करते रहते थे।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्यश्री १०८ अजितसागर महाराज की समाधि के पश्चात् १० जून १९९० को लोहारिया (राज.) की विशाल जनसभा में ८० पिच्छीधारी साधुओं सहित चतुर्विध संघ द्वारा श्री श्रेयांससागर जी महाराज को पंचम पट्टाचार्य पदवी से अलंकृत किया गया था, पुन: सन् १९९२ में उन्होंने अपने संघ सहित राजस्थान से श्रवणबेलगोला की ओर विहार किया, तब मार्ग में मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के पंचकल्याणक की भावना उनके मन में थी किन्तु १९ फरवरी १९९२ फाल्गुन कृ. एकम् को खांदूकालोनी में अचानक दो दिन की बीमारी से उनका समाधिमरण हो गया, पुन: उनकी संघस्थ शिष्या पूज्य आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी ने गुरु के अपूर्ण कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लिया और अपना काफी समय इस विकास हेतु क्षेत्र के लिए समर्पित किया।
महाराजश्री की समाधि के पश्चात् आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी एवं वहाँ के ट्रस्टीगण चाहते थे कि इस प्राचीन आचार्य परम्परा की सर्ववरिष्ठ दीक्षित साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के पावन निर्देशन एवं सानिध्य में ही यहाँ का पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हो, इस हेतु उन लोगों ने ३-४ वर्षों से अपने प्रयास प्रारंभ कर दिये थे किन्तु अत्यधिक दूरी एवं स्वास्थ्य की प्रतिकूलता उसमें बाधा उत्पन्न कर रही थी।
यहाँ विद्यमान आर्यिकाश्री एवं ट्रस्टियों की ओर से पूज्य माताजी को पुन:-पुन: निवेदन चलता रहा कि पूज्य माताजी! आप जैसी दिव्यशक्ति के आने पर ही यहाँ का रुका कार्य पूर्ण हो सकता है अत: आप एक बार मांगीतुंगी अवश्य पधारकर अनेक वर्षों से रुके पंचकल्याणक को सम्पन्न करा दीजिए।
परिणामस्वरूप एक दिन (२५ नवम्बर १९९५ को) पूज्य माताजी के भाव बन गए और वे कहने लगीं कि मुझे मांगीतुंगी के लिए विहार करना है। पुन: २७ नवम्बर १९९५ को ही हस्तिनापुर से माताजी का संघ सहित मांगीतुंगी के लिए विहार हो गया, फिर तो पूज्य माताजी के प्रवेश के साथ ही वहाँ यात्रियों का तांता लग गया।
यह सिद्धक्षेत्र के चमत्कार का ही प्रतिफल रहा है कि १९ मई १९९६ से २३ मई १९९६ तक वहाँ होने वाली पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में तीन-तीन संघों (मुनि श्री रयणसागर जी, गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी एवं आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी) का सानिध्य प्राप्त हुआ।
इतिहास बताता है कि वि.सं. १९९७ (सन् १९४०) में यहाँ मानस्तंभ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज एवं आचार्यकल्प मुनि श्री वीरसागर जी महाराज का संघ सहित पदार्पण हुआ था। उसके पश्चात् दीर्घकालीन अवधि के बाद इस तीर्थ पर त्रय संघ सानिध्य में पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ।
इस प्रकार समाधिस्थ आचार्यश्री श्रेयांससागर महाराज की प्रेरणा से निर्मित हुई, २१ फुट उत्तुंग काले पाषाण की भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा एवं ६-६ फुट की अन्य २४ प्रतिमाएँ विराजमान की गई।
पुन: वहाँ के आर्यिका संघ के, क्षेत्र के ट्रस्टियों एवं महाराष्ट्र प्रान्तीय भक्तों के विशेष आग्रह पर माताजी का संघ सहित १९९६ का चातुर्मास मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर ही हुआ, इस चातुर्मास में अनेक उपलब्धियों के साथ एक विशेष उपलब्धि हुई, जो विश्व का आश्चर्य ही कही जाएगी, वह है पर्वत की अखण्ड शिला में प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव की १०८फुट विशालकाय खड्गासन मूर्ति निर्माण की पावन प्रेरणा। पुन: समस्त सरकारी कार्यवाही पूर्ण करके, मूर्ति निर्माण हेतु नई कमेटी गठित करके ३ मार्च २००२ को पर्वत पर शिलापूजन समारोह भव्यतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
प्रतिमा के मुखकमल निर्माण का शुभारंभ २५ दिसम्बर २०१२ को हुआ और मूर्ति निर्माण का कार्य योजनाबद्ध तरीके से चला। हस्तिनापुर में विराजमान पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का ८२ वर्ष की उम्र में अपने कमजोर शरीर से भी इतना लम्बा विहार कर संघ सहित आना ही स्वयं में एक चमत्कार से कम नहीं है, शायद यह सम्पूर्ण जैन समाज का विशेष पुण्य ही था, जो कि पूज्य माताजी के पावन चरण इस सिद्धक्षेत्र पर पुन: पड़े और अत्यधिक दुरुह कार्य सरलतापूर्वक सम्पन्न होकर माघ कृ. एकम्-२४ जनवरी २०१६ को रवि पुष्य के पवित्रयोग में प्रतिमा का निर्माण पूर्ण हुआ और विश्व की सबसे विशालकाय मूर्ति निर्मित होकर जिनशासन की गरिमा और महिमा का दिग्दर्शन सभी को करा रही है।
हम सभी के लिए यह कल्पना ही रोमांचकारी है और सन् २०१६ में आदिनाथ स्वामी की १०८ फुट विशालकाय अद्वितीय प्रतिमा निर्मित हो गई है।
ऐसे पावन सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी तीर्थ को शतश: नमन।