१. आचार्यश्री से दीक्षा हेतु निवेदन-स्वीकृति।
२. प्रथमाक्षर केशलुंचन क्रिया।
३. आर्यिकादीक्षा क्रियाएँ।
४. ‘ज्ञानमती’ नामकरण एवं उपदेश।
५. दीक्षा सभा में सा़ंड का आगमन।
६. दीक्षा का महत्व।
एक दिवस गुरु निकट पहुँचकर, किया निवेदन हे स्वामिन्।
पुण्य आर्यिका दीक्षा देकर, मुझ पर कृपा करें भगवन्।।
करुणानिधि आचार्यश्री ने, सब पूर्वापर सोच-विचार।
वैशाखकृष्णा दिन द्वितिया की, दीक्षा दिवस किया निर्धार।।२७९।।
आचार्यश्री का शुभाशीष पा, रोम-रोम हर्षाया था।
मानों महारंक ने कोई, रत्न चिन्तामणि पाया था।।
मंगल चौक पुरे मण्डप में, स्वास्तिक निर्मित चौके पर।
था बैठाया दीक्षार्थी को, बिछा श्वेत वस्त्र ऊपर।।२८०।।
आचार्यश्री के चरण कमल में, अर्पित किया श्रीफल एक।
फिर दीक्षा हित किया निवेदन, पुलकित रोम-रोम प्रत्येक।।
अनादिकाल से स्वामिन् मैंने, भोगे दु:ख निगोद मंझार।
लाख चौरासी फिर-फिर भटकी, मिटा नहीं मेरा संसार।।२८१।
पंचपरावर्तन के दु:ख से, हे गुरुवर घबराई हूँ।
आत्यन्तिक छुटकारा पाने, शरण आपकी आई हूँ।।
करुणाधन आचार्यश्री ने, दक्षिण कर आशीष दिया।
विराग भाव से दीक्षार्थी ने, केशलुंच प्रारंभ किया।।२८२।।
केशलुंच संयम प्रथमाक्षर, दयाधर्म पहला सोपान।
रहे अयाचकवृत्ति सुरक्षित, स्वावलम्ब रत्न गुणखान।।
तन विरक्तता, भावविशुद्धि, अप्रमत्तता आती है।
अत: पूर्व दीक्षा लेने के, लुंचनविधि की जाती है।।२८३।।
केशलुंच पश्चात् श्रीगुरु, विधि-विधान संस्कार किये।
मस्तक ऊपर मुनि दीक्षा के, संस्कार सम्पन्न किये।।
संयम हेतु उपकरण पिच्छी, कमण्डलु शौच उपकरण दान।
दिये शास्त्रजी श्रीगुरुवर ने, परमोपकारी स्वपर कल्याण।।२८४।।
प्रतिभा के अनुकूल आपका, ज्ञानमती शुभ नाम दिया।
समुपस्थित विशाल जनता ने, उच्चै: स्वर जयनाद किया।।
जैसा नाम दिया है तुमको, करना अपना सार्थक नाम।
तब से अब तक ‘‘ज्ञानमती’’ का, ज्ञानार्जन बस एक ही काम।।२८५।।
हुआ तभी अचरज बहुभारी, आया सांड़ सभा प्रांगण।
मंच के सम्मुख खड़ा हो गया, शांत भाव से करे नमन।।
फिर भू मस्तक टेका मानों, आचार्य संघ को किया प्रणाम।
खड़ा रहा आशीष प्राप्त कर, रहा देखता दीक्षा काम।।२८६।।
आचार्यश्री के प्रवचन सुनकर, शांतभाव से गमन किया।
भव्य जानकर सकल जनों ने, बहुमोदक उपहार दिया।।
आचार्यश्री वीरसागर ने, दीक्षार्थी उपदेश दिये।
उन्हें श्रवणकर मोहान्धों के, हुए उद्घाटित नयन-हिए।।२८७।।
अष्टाविंशति मूलगुणों का, ज्ञानमती को ज्ञान दिया।
पद आर्यिका प्राप्त आपने, अपना जीवन धन्य किया।।
अरहंतदेव जो पथ बतलाया, जो जिनवाणी गाया है।
उस पर अडिग-अचल रहना है, जो गुरुओं से पाया है।।२८८।।
तदनन्तर दीक्षा महत्व को, बतलाया आचार्यप्रवर।
परोपकार की तुलना में है, स्वोपकार करना हितकर।।
पर-हित करना कार्य पुण्य का, श्रावक-साधुद्वय करणीय।
निजहित बाधक बने अगर तो, पर-हित करना है भजनीय।।२८९।।
परोपकार जो करना चाहें, पहले शिक्षा प्राप्त करें।
स्वोपकार करने के इच्छुक, जिनदीक्षा स्वीकार करें।।
शिक्षा से होता है व्यक्ति का, बहिर्मुखी-बहुमुखी विकास।
दीक्षा से दीक्षित पाता है, आभ्यन्तर का दिव्य प्रकाश।।२९०।।
शिक्षा भोग ओर ले जाती, दीक्षा योग्य कराती योग।
शिक्षा से इहलोक सुधरता, दीक्षा से सुधरें द्वयलोक।।
जीवन में उपयोगी दोनों, किन्तु मुख्यता दीक्षा की।
अत: विवेकीजन जीवन में, ग्रहते हितकर दीक्षा ही।।२९१।।
दीक्षा और प्रव्रज्या दोनों, एक वाच्य के वाचक दो।
सर्वपाप का मूल परिग्रह, उसका त्याग सर्वथा हो।।
ग्रंथमुक्ति ही पापमुक्ति का, कारण कहते हैं जिनदेव।
मूल शुष्क यदि हो जाये तो, वृक्ष शुष्क होता स्वयमेव।।२९२।।
दीक्षा करती कर्महानि है, पुण्यवृद्धि, संस्कृति का क्षय।
ग्रहता वही, न होता जिसको, अप्रत्याख्यानावरण उदय।।
देव तरसते हैं दीक्षा को, ले ना सकते बेचारे।
अप्रत्याख्यानावरण उदय के, रहते काषायिक मारे।।२९३।।
सुर दुर्लभ पर्याय मनुज की, पाते इसको जीव विरल।
धन्य, विवेकी, पुण्यवन्त वे, दीक्षा लेकर करें सफल।।
शिक्षा कोई भी ले सकता, किं बहुना पशु-पक्षी भी।
लेकिन विरले नर-नारी ही, हो पाते हैं दीक्षार्थी।।२९४।।
पक्षी-विप्र-दांत की तरह, संत द्विजन्मा होते हैं।
प्रथम जन्म देती है माता, दूजा गुरुवर देते हैं।।
दीक्षा मानें जन्म दूसरा, इसमें होता सभी नया।
नव पर्याय प्रकट हो जाती, नाम पुराना चला गया।।२९५।।
दीक्षातिथि ही साधु की अब, जन्मतिथि कहलाती है।
क्षुल्लक-ऐलक-मुनि-आर्यिका, पर्याय मिल जाती है।।
नाम बदल जाता साधु हो, मति-सागर जुड़ जाता है।
छोटे घर-परिवार न रहते, जग कुटुम्ब हो जाता है।।२९६।।
यह तो बात रही बाहर की, आभ्यन्तर अंतर आता।
जीवनशैली, चिंतन-चर्या, सोच-विचार बदल जाता।।
भोजन का विचार अब तो भजन, ले लेता है सभी प्रकार।
सुविधा या कि असुविधा पर अब, ध्यान न जाता किसी प्रकार।।२९७।।
अत: असुविधा में सुविधा का, साधक अमृत पीता है।
गर्मी-सर्दी-वर्षा में भी, साधक सुख से जीता है।।
भौतिक सुख तो क्षणभंगुर हैं, आत्मलीनता शाश्वत है।
यह विचार कर साधक हरक्षण, रहता आतम में रत है।।२९८।।
इस प्रकार ध्यानरत साधू, कर लेता कर्मों का क्षय।
जगत् भ्रमण की दीर्घ शृंखला, तोड़ पहुँचता शिव आलय।।
सफल साधना की हो जिसने, पूर्वभवों में भली प्रकार।
दीक्षा के प्ाावन प्रसंग का, उनको मिलता है उपहार।।२९९।।
बाल्यकाल से ही थी मैना, शांत-सौम्य-सुकुमार मति।
शिष्ट-सभ्य-संस्कृत-मृदुभाषी, व्यवहार रहा शालीन अति।।
पूर्वजन्म के संस्कारों से, भव्यभाव भी लायी साथ।
सत्य-शोध की मनोवृत्ति है, रहे तीव्र ज्ञान की प्यास।।३००।।
संघर्षों को झेल आपने, तोड़ी मुश्किल गृहकारा।
आचार्यश्री देशभूषण से, सप्तम प्रतिमा व्रत धारा।।
धारण किये क्षुल्लिका के व्रत, आज आर्यिका दीक्षा ली।
ज्ञानमती तुमने नारी की, यह पर्याय सफल कर ली।।३०१।।
मंगलमय हो पंथ तुम्हारा, हो सफल साधना रत्नत्रय।
मोक्षमार्ग पर बढ़ो निरंतर, हो नि:शंक-अडिग-निर्भय।।
लोकत्रय के नाथ वीर का, ध्यान रहे नित अंतर्मन।
यह पर्याय छेद अंतत:, लोक शीर्ष पर करो गमन।।३०२।।
अति विराग, गौरव-गरिमा से, पूर्ण हुआ यह आयोजन।
जैनधर्म के जयकारों से, गूँज उठा तब धरा-गगन।।
हुई विसर्जित सभा अंत में, श्रीगुरुवर को किया प्रणाम।
ज्ञान-आर्यिका चर्या लखने, हम लेते हैं यही विराम।।३०३।।