किसी भी जीव के गुणों का निर्धारण उसकी इकाई कोशिकाओं के अंदर स्थित गुणसूत्रों के द्वारा होता है। विभिन्न विकसित प्राणी लैंगिक प्रजनन की विधि द्वारा अपनी संतानों को उत्पन्न करते हैं जिसमें नर एवं मादा की जनन कोशिकाओं के आधे-आधे गुणसूत्र मिलकर एक नयी रचना करते हैं जिसमें जनक माता-पिता के गुण मिले रहते हैं।
क्लोनिंग में मात्र नर अथवा मादा की सामान्य दैहिक कोशिकाओं के गुणसूत्र के द्वारा संतान उत्पन्न की जाती है जो कि स्वाभाविकरूप से अपने दाता (जनक) जैसी ही होती है।
अविकसित जीवों, पेड़-पौधों आदि में तो यह प्रक्रिया कायिक प्रजनन, अलैंगिक प्रजनन आदि के रूप में प्राकृतिकरूप से पायी ही जाती है परन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों ने विकसित जीवों चूहों, भेड़ों एवं अब मनुष्यों तक को इस विधि से उत्पन्न करना शुरू कर दिया है।
१. क्लोन ; संतान या सहोदर—क्लोनिंग की क्रिया में प्राणी की सामान्य कोशिकाओं को ही विभिन्न वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के द्वारा एक पूर्ण जीव में विकसित किया जाता है अत: नया बना जीव एक तरह से उसी का एक हिस्सा अथवा जुड़वाँ कहा जा सकता है और शारीरिक उम्र के लम्बे अंतर के बाद भी उनकी (दाता एवं क्लोन) जीव वैज्ञानिक/आनुवंशकीय आयु भी एक समान ही मानी जा रही है। (सामान्य लैंगिक प्रजनन में विशिष्ट लैंगिक कोशिकायें अण्डाणु एवं शुक्राणु मिलते हैं।) इसी कारण इनके आपसी संबंध को माता-पिता से उत्पन्न पुत्र-पुत्री के स्थान पर दाता-क्लोन कहा जाता है।
२. क्लोनिंग की उपयोगिता—इस तकनीक के द्वारा मानव के विभिन्न अंगों को प्रयोगशाला में ही विकसित किया जा सकता है जिसमें कई असाध्य रोगों को दूर करने में आसानी होगी। इसके अलावा इस तकनीक से विभिन्न बेकार जीनों को बदला जा सकेगा तथा बुढ़ापा भी रोका जा सकेगा। इसी चिकित्सकीय उपयोगिता को देखते हुये ही ब्रिटिश सरकार ने जनवरी २००१ में मानव क्लोनिंग की इजाजत दे दी है।
३. मानव क्लोनिंग के संभावित दुरुपयोग—१. मानव अंगों का व्यापार आसान हो जायेगा। प्रयोगशालाओं में तैयार किये गये भ्रूणों में से आवश्यक अंगों को निकालकर चंद लोगों हेतु असंख्य भ्रूण असमय ही मार दिये जायेंगे। इस तरह से मुर्गीपालन, मत्स्य पालन, रेशम पालन की तरह मानव भ्रूण पालन अर्थात् मनुष्यों की खेती भी शुरू हो सकती है।
२. इस तकनीक (तथा जैव प्रौद्योगिकी) से जहाँ एक ओर अच्छे जीवों को जोड़कर महामानव बनाये जा सकते हैं वहीं दूसरी ओर बिगड़े जीवों के द्वारा महादानव भी बन सकते हैं।
३. इसके द्वारा अपराधी अपने हमशक्लों का निर्माण कर अराजकता उत्पन्न कर सकते हैं। शक्तिशाली लोग इस तकनीक से अपना और अपनों का नया साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं। मनचाहे गुलामों को बनाने की नयी खतरनाक शुरुआत भी हो सकती है।
४. क्लोनिंग के दुष्परिणाम—क्लोनिंग मूलत: एक अप्राकृतिक प्रक्रिया है। सरल जीवों से विकसित जीवों के विकास में लैंगिक प्रजनन का मुख्य योगदान रहा है अत: अलैंगिक/कायिक प्रजनन की यह अविकसित जीवों की क्षमता मनुष्य आदि विकसित जीवों पर थोपना वैज्ञानिकरूप से प्रतिगामी क्रिया है जो नियमत: हानिकर ही होगी। क्लोनित प्राणियों (क्लोन्स) में यकृत फेफड़े और हृदयसंबंधी बीमारियाँ बहुत जल्दी पनपती हैं। ऐसा अनेक क्लोनित जीवों में देखा गया है।
चूंकि २६ दिसम्बर २००२ को जन्मी पहली मानव क्लोन की आनुवंशिक आयु दाता की उम्र ३१ वर्ष के समान ही होगी अत: आशंका की जा रही है कि यह मानव क्लोन अपनी कम शारीरिक उम्र में ही अधिक आनुवंशिक आयु की होकर बूढ़ी हो जायेगी।
उपरोक्त आशंका इस समाचार से और भी पुष्ट होती है कि १४ फरवरी २००३ को दोपहर में साढ़े छह वर्ष की आयु में डॉली नामक क्लोन भेड़ असमय बुढ़ापे एवं बीमारी की चपेट में आकर काल-कäवलित हो गई है। जबकि आमतौर पर भेड़ें इससे दुगुनी उम्र तक जीती हैं। इसी तरह क्लोन चूहे भी समय से पहले मर चुके हैं तथा २ फरवरी २००३ को आस्ट्रेलिया की पहली क्लोन भेड़ भी मात्र २ वर्ष १० माह की आयु में अचानक मर गयी है।
संसार के विभिन्न धर्म यह मानकर चलते हैं कि सृष्टि के विभिन्न जीवों की रचना एक विशिष्ट शक्ति भगवान के द्वारा होती है परन्तु इस क्लोनिंग क्रिया के द्वारा अब वैज्ञानिक ही विभिन्न जीवों को मनचाहा रूप देने लगा है जिससे ईश्वर के सृजन तथा लालन पालन की अवधारणा पर प्रश्न चिन्ह लगता है। परन्तु इस संबंध में जैन धर्म की मान्यता अन्य धर्मों के बिल्कुल विपरीत तथा पूर्णत: वैज्ञानिक है। जैन धर्म भगवान के कर्तावाद का विरोध करता आ रहा है अत: इस नयी वैज्ञानिक घटना से जैन धर्म की मूलभूत मान्यता और भी पुष्ट ही हुई है।
जैन धर्मानुसार जीवन की विभिन्न क्रियाओं, रचनाओं तथा घटनाओं का नियंत्रण कर्मों के द्वारा होता है। विभिन्न जीवों को मिलने वाले अलग-अलग शरीर, आयु, गोत्र, सुख-दुख आदि का निर्धारण विभिन्न कर्म करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जीवन का पूर्ण संचालन कर्मों के द्वारा ही होता है। वस्तुत: कर्म तो मात्र परिस्थितियों का निर्माण करते हैं और उन कर्मों के सापेक्ष आचरण करना तो विभिन्न जीवों की आत्मा का स्वतंत्र स्वभाव है। आत्मा कर्मों के कारागार में बँधी अवश्य है परन्तु वह अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों पर नियंत्रण रख सकती है। कर्मों पर विजय पाना ही तो जिनधर्म है।
अब यहाँ सवाल यह है कि जब वैज्ञानिक ही मानव तथा अन्य जीवों के विभिन्न गुणों का निर्धारण करने लगे हैं तो फिर जैन कर्म सिद्धांत कहाँ से लागू होता है ? तो शरीर में किसी भी तरह का परिवर्तन करना किसी भी रूप में कर्म सिद्धांत को चुनौती नहीं है। उदाहरणार्थ अगर एक अपराधी किसी व्यक्ति का अंग भंग कर देता है या कोई व्यक्ति शल्य क्रिया के द्वारा अंग परिवर्तित करवा लेता है अथवा कोई मानसिक उपचार के द्वारा अपराधी प्रवृत्ति से छुटकारा पा लेता है या फिर जहर/दुर्घटना से असमय मर जाता है, तो ये सब कर्म सिद्धांत के लिये चुनौती नहीं माने जा सकते हैं। बस यही कार्य अब और भी व्यवस्थितरूप से परन्तु अप्राकृतिक, अनैतिकरूप से क्लोनिंग आदि के द्वारा वैज्ञानिक कर रहे हैं। एक समान मनचाहे जीवों को पैदा करने की बात भी बिल्कुल अधूरी है। एक जैसी शक्ल सूरत और शरीर बन जाने का यह अर्थ नहीं है कि उनका व्यक्तित्व और व्यवहार भी एक जैसा हो अर्थात् यह जरूरी नहीं है कि अपराधी का क्लोन अपराधी तथा वैज्ञानिक का क्लोन वैज्ञानिक ही बने।
लोगों को लगता है कि क्लोनिंग के द्वारा किसी भी जीव को वैज्ञानिक बड़ी सुनिश्चित रीति से बना सकते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। पहली क्लोन भेड़ का जन्म इस संबध में किये गये २७७ परीक्षणों की असफलता के बाद हुआ था तथा मानव क्लोनिंग के १०० में से एक या दो मामलों में ही सफलता मिली है।
जो जीव कई बार की असफलताओं के बाद बनते भी हैं तो वह दरअसल वैज्ञानिकों के द्वारा नहीं बनते हैं। वैज्ञानिक तो मात्र एक निश्चित शरीर रचना के अनुकूल परिस्थितियाँ मात्र देते हैं उनमें जीवन/आत्मा का आविर्भाव तो उनके वश के बाहर ही है।
क्लोनिंग सिर्फ शरीर के स्तर तक जुड़ी हुयी है जबकि आत्मा तथा पुनर्जन्म का अध्यात्म समझना वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की सीमित सीमाओं में संभव नहीं है।
आत्मा तथा पुनर्जन्म का आभास सत्यान्वेषी अहिंसक मानवों को होता है। इसे अभी वैज्ञानिक भी पूरे आत्मविश्वास तथा प्रमाणों के साथ नकार नहीं सके हैं जबकि इनके अस्तित्व के संबंध में संसार भर में असंख्य प्रमाण/घटनायें हर समय होती ही रहती हैं।
जीवविज्ञान की आधुनिक विकसित शाखा जैव प्रौद्योगिकी में मानव जीनोम परियोजना, जैनेटिक अभियांत्रिकी तथा मानव क्लोनिंग आदि का अध्ययन, अन्वेषण किया जाता है। इसके नूतन अनुसंधानों के द्वारा जीवों के गुण सूत्रों पर स्थित जीवों (वंशाणुओं) के कई गुण धर्मों का पता चल रहा है। जीवों की विभिन्न प्रवृत्तियों- बुढ़ापा, अपराध, बीमारियों इत्यादि का नियमन भी इन वंशाणुओं से होता है तथा इनके परिवर्तन के द्वारा मनोवांछित जीवन बनाने का दावा वैज्ञानिक कर रहे हैं। जीनों तथा जेनेटिक कोड के इस गुणधर्म को ध्यान में रखते हुये ही सन् १९९८ में जेनेटिक कोडों और कर्म परमाणुओं के बीच के संबंधों पर एक परिकल्पना दी गई थी जिस पर कुछ वैज्ञानिक व्यापक अनुसंधान कार्य भी कर रहे हैं।
पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिये कि जीन तथा जेनेटिक कोड सर्वोपरि नहीं है तथा उन पर शारीरिक, पर्यावरणीय, आन्तरिक तथा बाह्य परिस्थितियाँ भी नियंत्रण रखती हैं। जीवों के क्रियाकलाप उसके स्वयं के शरीर के साथ दूसरे जीवों के क्रियाकलापों तथा अन्य बाह्य पर्यावरणीय परिस्थितियोंं द्वारा संचालित होते हैं।
इन जीनों तथा इनको प्रभावित करने वाले उक्त अंग ही अंतत: कर्म परमाणुओं की संभावना को सूचित करते हैं जिसके संबंध में वैज्ञानिक वर्ग फिलहाल पूर्णत: मौन हैं। अगर वैज्ञानिक जैन कर्म सिद्धांत को समझकर जीवों के विभिन्न कार्यों सच्चाई- झूठ, अिंहसा-अपराध, जीवदया-क्रूरता पर सतत अन्वेषण करें तो वह इस महान जैन सिद्धांत को सत्य सिद्ध पायेंगे।
मानव क्लोनिंग मनुष्य की उस स्वार्थी सोच की चरम परिणति है जिसमें अपने हित के लिए मिट्टी, पानी, हवा को प्रदूषित किया गया, पेड़-पौधों को खतरनाक स्तर तक काटा गया, दूसरे जीव-जन्तुओं—गाय/भैंस/बकरी/मछली/मुर्गी/कीड़े, मकोड़ों को बेरहमी से मारा गया और अब वह मुनष्यों तथा मनुष्यता को नष्ट करने पर आमादा है। यह तकनीक जैन धर्म के सिद्धांतों को तो चुनौती नहीं देती है परन्तु यह जीवों तथा मानवता के विरुद्ध होने के कारण चिन्ताजनक तथा चिन्तनयोग्य अवश्य है।