‘योगशास्त्र’ में योग के विविध अंगों का वर्णन है, जिन पर चलकर कोई भी साधक लघु से महान, क्षुद्र से विराट और जीवन की अनन्त दिव्यता का वरण कर सकता है। स्त्री या पुरुष, जैन या अजैन, मानव मात्र उसका आचरण कर सकता है। ऐसे सहज, सरल एवं व्यापक मानव धर्म का चिंतन-मनन कर जीवन में उतारना ही मानव धर्म है।
अधिकारी से अभिप्राय है पात्रता। किसी भी वस्तु को प्राप्त करने से पूर्व उसके योग्य बनना। वस्तु को धारण करने की योग्यता नहीं होने पर हठात् उसको धारण करने से वस्तु एवं व्यक्ति दोनों का अनिष्ट होता है। कच्चे घड़े में यदि अमृत भर दिया जाए तो घड़ा और अमृत दोनों नष्ट हो जाते हैं-‘आमकुम्भा एव वारिगर्भा:।’ सिंहनी का दूध सोने के पात्र में ही ठहरता है। योग्य में योग्य का आधान ही श्रेष्ठ होता है-‘योग्ये हि योग्य संगम:’।
जिस प्रकार कुशल चित्रकार गारे की दीवार पर चित्र नहीं बना सकता, उसके लिए उसे अच्छी, साफ और चिकनी दीवार चाहिए। इसी प्रकार किसान अच्छी से अच्छी किस्म के बीच को खेत में डालने से पूर्व भूमि को तैयार करता है। वस्तु को धारण करने के लिए तदनुकूल योग्यता आवश्यक है। इसी तरह से जैन सिद्धांत की अपेक्षा ‘धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ’ धर्म शुद्ध हृदय में ठहरता है अर्थात् पवित्र हृदय ही धर्म का आधार है।
हृदय की पवित्रता-
जीवन में मलिनता, अशुद्धि एवं अपवित्रता होने से धर्म नहीं होता। मन की अपवित्रता धर्म की तेजस्विता को ढक देती है, जिससे धर्म प्रकट नहीं हो पाता। जीवनरूपी भूमि को धर्म के योग्य सद्गुण बनाते हैं। सद्गुणों के आचरण से मन और जीवन पवित्र एवं शुद्ध होता है, गुण जीवनभूमि को तैयार करते हैं। अणुव्रत और महाव्रतरूपी धर्म की पृष्ठभूमि सद्गुणों के आधार पर तैयार हो सकती है। कुशल किसान की तरह जीवन की भूमि को धर्म की खेती योग्य बनाने से धर्मरूपी बीज स्वत: ही पल्लवित व पुष्पित होने लगते हैं।
परिवर्तन की दशा-
चैतन्य सत्ता ‘‘आत्मा’’ है। अशुद्ध दशा में संसारी और शुद्ध अवस्था में परमात्मा है। आत्मा की विशुद्ध अवस्था निरपेक्ष है जिसका वर्णन तर्क, युक्तियों, शब्दादि द्वारा नहीं किया जा सकता है। श्वेताम्बर ग्रंथ आचारांग में कहा है-‘‘तक्का जत्थ न विज्जई, मइं तत्थ न गाहिया।’’ अर्थात् तर्क उस दशा का वर्णन नहीं कर सकता, मति उसका अनुभव ग्रहण नहीं कर सकता। ‘‘नैषा तर्वेâण मतिरापनेया’’ तर्क के द्वारा, बुद्धि की समझ में आने का विषय नहीं है।
परिवर्तन की अवस्थाएं-
प्रसुप्त, जागृत, उत्थित और समुत्थित।
प्रसुप्त-वह अवस्था जिसमें जीव गाढ़ मोह निद्रावश निरंतर संसार परिभ्रमण करता है। कर्मों का उपशम तथा क्षयोपशम हो सकता है परन्तु क्षय नहीं। आत्मा में निर्वाण की योग्यता होने पर भी प्रगाढ़ मोहनिद्रा से योग्यता विकसित नहीं होती है, यही ‘‘अभव्यदशा’’ है।
सुप्त-इस अवस्था में तन्द्रा, सुसुप्ति जैसी स्थिति रहती है। ज्ञान चक्षु नहीं खुल पाते, साथ ही सत्य का दर्शन नहीं होता। यह आत्मा की प्रथम गुणस्थान की स्थिति है। तत्त्व के प्रति जिज्ञासा से सत्य को समझने की भावना जागृत होती है लेकिन सम्यक् बोध और यथार्थ दृष्टि नहीं।
जागृत-ज्ञान के उदय से आत्मा स्व-स्वरूप के बोध से मिथ्यात्व, संशय एवं अज्ञान से परे होती है। यह चतुर्थ गुणस्थान की अवस्था है। आत्मा ग्रंथिभेद से अपूर्वकरण का अनुभव करता है। उपनिषद् में कहा है-
भिद्यते हृदय-ग्रन्थिरिद्यन्ते सर्वसंशया:।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।
अर्थात् सम्यग्दर्शन से हृदय की समस्त ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती हैं और समस्त संशय क्षीण हो जाते हैं। यह अवस्था आनन्दमय है। आत्मज्ञान प्रकाश से सम्यक्त्व का अधिकारी स्व पुरुषार्थ व पराक्रम सूर्य को प्रकाशित करता है। कहा भी है-
‘‘जागरह णरा णिच्चं। जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धि।।
अर्थात् मनुष्य जागो। निद्रा का त्याग करो। जो जागता है उसकी बुद्धि भी जागती है। इस विषय में एक लोकोक्ति भी है-
‘‘सोवे सो खोवे, जागे सो पावे।’’
उत्थितथा-‘उट्ठिए नो पमायए’’ जागने के पश्चात् कहते हैं उठो, प्रमाद न करो। दुर्लभ सम्यक्त्व को आत्मसात कर पुरुषार्थ सहित आगे अग्रसर होना आत्मा की उत्थित दशा है। यह पाँचवें गुणस्थान की स्थिति है। धर्माचरण पर बढ़ने वाला श्रावक धर्म/गृहस्थ धर्म है। श्रावक उत्थित आत्मा है।
समुत्थित-सम्यक् प्रकार से चलना समुत्थित है। जागृत आत्मा लक्ष्य करके मार्ग पर दृढ़ संकल्प से चलता है। यह छठे गुणस्थान की दशा है। इस दशा में साधक का विश्वास अत्यन्त दृढ़, स्पष्ट और स्थिर होता है।
सद्गुणों के विकास की अवस्था-
केवल ईंट, पत्थर व चूने के ढेर घर नहीं हैं। जिसमें गृहिणी, पुत्रादि परिवार सहित रहते हैं वही घर है। गृहस्थ होना एक स्थिति है, सद्गृहस्थ बनना एक गुण है। गृहस्थ जीवन में सद्गुणों के विकास से उदात्त भावना और उच्च संकल्प होते हैं। धर्म के आचरण से धर्म का अधिकारी (सच्चा श्रावक) बनता है। आत्मा का स्वभाव धर्म है। ‘वत्थुसहावो धम्मो’ अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है। जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का स्वभाव उष्णता, आत्मा का स्वभाव ज्ञानानंद है।
श्री अमितगति आचार्य ने कहा है-
‘‘सत्वेषु मैत्रीं, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थ्य भावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।’’
मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना ये चार धर्मरूप प्रासाद के स्तंभ हैं।
मैत्री-इस भावना में आत्मा संसार के सभी जीवों के प्रति मित्रता का संकल्प करता है। मैत्रीभाव अभय देता है। ‘‘मेत्ति मे सव्व भूएसु। मेत्तिं भूएसु कप्पए।’’ वेद एवं उपनिषद् में भी-‘‘मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।’’ अर्थात् सब प्राणियों को मित्रता की दृष्टि से देखें। मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे।’’ प्राणिमात्र के साथ मित्रता के भाव से जीवन में आनंद, अभय और प्रसन्नता प्राप्त होती है।
प्रमोद-प्रसन्नता। अच्छाई, सद्गुणोें को देखकर प्रसन्न होना, हृदय में आनन्द होना प्रमोद भावना है। जो व्यक्ति सद्गुणों की प्रशंसा करता है उसके जीवन में भी सद्गुण आते हैं और वह प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रहता है।
करुणा-करुणा अर्थात् दया, अनुकंपा। दया, करुणा, अहिंसा में हमारे प्रतिदिन की सभी गतिविधियाँ आ जाती हैं। हमारी किसी भी प्रवृत्ति से किसी प्राणी को कष्ट, पीड़ा न हो, व्यवहार में परिवार, समाज एवं राष्ट्रीय जीवन में हमारे द्वारा ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं हो जिससे शांति भंग होती हो।
‘‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।’’
जो आपके मन के प्रतिकूल आचरण है वैसा दूसरों के लिए न करें।
जं इच्छसि अप्पणत्तो जं च न इच्छसि अप्पणत्तो।
तं इच्छ परस्स वि एत्तियंग जिणसासणयं।
जिस आत्मा में करुणा की भावना जागृत होती है, उसमें शुभ भावनाएँ होती हैं।
माध्यस्थ-मध्यस्थ-दो किनारों के मध्य ठहरना। कोई व्यक्ति हमारे सामने धर्मगुरु या प्रिय व्यक्ति की निंदा करता है तो मध्यस्थ वृत्ति से मन में शांति होती है कि ‘‘यह अज्ञानी है, क्रोध आदि के वश में होकर निंदा कर रहा है, इससे इसकी आत्मा का पतन हो रहा है। यह व्यक्ति क्रोध का नहीं वरन् दया का पात्र है। इस प्रकार की मध्यस्थ वृत्ति से व्यावहारिक जीवन की सैकड़ों उलझनें सुलझ जायेंगी। जीवन में कलह, विवाद कम होंगे जिससे शांतिमय जीवन होगा।
आदर्श जीवन-मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ भाव से मानव धर्म की पृष्ठभूमि तैयार होती है। साधक धर्म का बीज मन की भूमिका, सद्भावों, मैत्री आदि भावनाओं से धर्म के योग्य बनाने पर व्रत, नियम, त्याग आदि के बीज सरलता व शीघ्रता से अंकुरित होते हैं। मानव जीवन उत्तरदायित्वों का जीवन है। गृहस्थ जीवन का क्षेत्र व्यापक, उत्तरदायित्व असीम हैं। परिवार, समाज, धर्म एवं राष्ट्रं आदि के दायित्वों का निर्वाह करने में मानव धर्म की कुशलता है। यह साधु जीवन का भी आधार है। व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में अपने कर्तव्य निष्ठापूर्वक करके आदर्श जीवन यापन करता है।
सम्यक् आजीविका-आचार्य भद्रबाहु कहते हैं-
‘‘सच्छासयप्पओगा अत्थो वीसंभओ कामो।’’
अर्थात् स्वच्छ आशयप्रयुक्त अर्थ, मर्यादानुकूल काम धर्मविरोधी नहीं हैं। सद्गृहस्थ ‘‘न्यायसम्पन्न विभव:’’ न्याय-नीतिपूर्वक अर्थोपार्जन।
‘‘न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोक हितायेति….’’
न्यायोपात्तधनो यजन्! गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्गं भजेत्।
और भी कहा है-
‘‘अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते त्वेकादशे वर्षो समूलं च विनश्यति।।’’
बौद्धधर्म में आष्टांगिक मार्ग में पाँचवां मार्ग सम्यक् अर्थात् न्यायपूर्वक जीविका चलाना। नीति एवं न्यायपूर्वक व्यापार करके जीविका चलाने वाला श्रावक ‘‘धम्मा जीवी’’ है। ‘‘सम्यक्-प्रतिपत्ति: सम्पत्ति:’’ अर्थात् जो न्यायपूर्ण शुद्ध एवं सही तरीके से प्राप्त होती है, वह संपत्ति है।
हमेशा सत्य बोलना। सत्य में साहस होता है, असत्य में कायरता। सत्य में स्पष्टता होती है असत्य में छिपाव। अन्याय छिपाव और कायरता का मार्ग है। असत्य से आत्मपतन होता है, जीवन का विकास रुक जाता है। साधक के मन में जब सत्य की अटूट निष्ठा होती है तो ईश्वर हृदय में विराजमान होता है। यही मानव धर्म का सार है। कहा है-
‘‘ग्रंथ पंथ सब जगत् के बात बतावत तीन।
राम हृदय, मन में दया, तन सेवा में लीन।।’’
इस प्रकार हृदय की पवित्रता, सद्गुणों के द्वारा आदर्श जीवन एवं सम्यक् आजीविका से मानव धर्म की पृष्ठभूमि तैयार होती है।
दर्शन के किसी भी सिद्धान्त का महत्त्व सिर्फ इस बात तक सीमित नहीं रहता कि वह नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए कितना जरूरी है, और न ही सिर्फ इस बात तक सीमित रहता है कि उसने प्रकृति के रहस्यों की कितनी सटीक व्याख्या की है ? आज के इस दौर में दर्शन का महत्त्व इस बात से भी आँका जा रहा है कि दर्शन के अमुक सिद्धांत या अवधारणा की उपयोगिता जीवन व समाज में कितनी है ? यदि वह सिद्धांत या अवधारणा हमारे जीवन और समाज की रोजमर्रा की समस्याओं में समाधान बनकर सामने नहीं आती है तो उसका शास्त्रीय महत्त्व चाहे जितना हो, मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में उसकी कीमत नहीं रहती।
आज अनेकान्त दर्शन की धूम मच रही है। वह इसलिए क्योंकि उसने वस्तु तत्व को समझाने के साथ-साथ जीवन और समाज से जुड़ी तमाम समस्याओं के समाधान भी दिये हैं। भूमण्डलीकरण के इस दौर में यदि अनेकान्त सिद्धान्त को स्वीकार न करें तो जीवन संकट में पड़ सकता है। यह बात अपने आपमें सत्य है कि भगवान् महावीर ने आज से लगभग २६०० वर्ष पहले प्रकृति के इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त की व्याख्या की किन्तु फिर भी इतने मात्र से अनेकान्त दर्शन को किसाr धर्म, मजहब, संप्रदाय या दर्शन मात्र के सीमित दायरे में देखना बहुत बड़ी भूल होगी।
महापुरुषों का जीवन वास्तव में संपूर्ण मानव जाति एवं अन्य सभी जीवों के लिए होता है इसलिए यह सत्य होते हुये भी कि यह जैनधर्म की मौलिक देन माना जाता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कम या अधिक रूप में इसके सूत्र सभी धर्मों तथा दर्शनों में प्राप्त होते हैं। दरअसल अनेकान्त एक अस्तित्व है, एक जीवन है। अनेकान्त से इंकार अस्तित्व से इंकार होगा। जीवन का प्रत्येक क्षेत्र, जीवन घटनायें, प्रकृति के प्रत्येक संबन्ध अनेकान्तस्वरूप हैं। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि हम चाहें तो भी एकान्तवादी नहीं हो सकते क्योंकि मेरी दृष्टि में एकान्त असत् का सूचक है।
फिर सहज ही मन में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अनेकान्त का नियम न मानने वालों को, वस्तु की अनन्त धर्मता को अस्वीकृत करके उसके किसी एक धर्म को ही वस्तु का स्वभाव मानने वालों को (शास्त्रों में) एकान्तवादी क्यों कहा गया है ? इस प्रश्न के जवाब में भी मेरा मात्र इतना कहना है कि सच है कि उनकी मान्यता एकान्तवाद की है; इसी दृष्टि से वे एकान्तवादी कहे गये हैं किन्तु उनका भी जीवन व्यवहार एकान्तवादी नहीं हो सकता, अपने सामाजिक जीवन में यदि वे एक ही पक्ष को लेकर चलेंगे तो जी नहीं सकते। सामाजिक जीवन मे ऐसे लोग भी अनेकान्त की ही अनुपालना करते हैं अत: इस दृष्टि से वे अनेकान्तवादी ही कहे जायेंगे। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि विचारों में एकान्त हो सकता है जीवन में नहीं।
अनेकान्त की परिभाषा-
जैन शास्त्रों में अनेकान्त की परिभाषा है-
एक ही वस्तु में वस्तुपने को बतलाने वाली परस्पर दो विरुद्ध शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना अनेकान्त है। तात्पर्य यह है कि बिना विरोध के अस्तित्व नहीं है और विरोध की स्वीकृति है अनेकान्त। अनेकान्त एक ऐसी पद्धति है जिसमें हमें सिर्फ शास्त्रों के ही नहीं वरन् जीवन के भी अर्थ समझ में आते हैं। दुनिया में चाहे कोई भी दार्शनिक रहा हो, चाहे कोई भी शास्त्र, उनमें कहीं न कहीं अनेकान्त की आभा विराजमान रही है क्योंकि वह व्यक्ति चाहे तो अन्तर्जगत् में रहने वाला दार्शनिक हो या बाह्य जगत् में रहने वाला भौतिक या पदार्थवादी; वास्तव में यदि वह मनुष्य है और संवेदनशील है तो ‘अनेकान्त’ उसके अनुभव का विषय जरूर बनता है। फिर भले ही वहाँ ‘अनेकान्त’ संज्ञा का प्रयोग न हुआ हो किन्तु एक ही स्थल पर अनन्त धर्मात्मकता और विरोध को प्राय: सभी ने स्वीकार किया है।
पाश्चात्य विचारक और अनेकान्त-
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ. हैयनाक एलिस ( १८१९-१९३९) ने अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘आई विलीव’ में विरोध को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-
‘‘मैंने यह महसूस किया है कि अपनी प्रकृति के दोनों विरोधी तत्त्वों में जिस समन्वय को उपलब्ध करने में मैं सफल हुआ था वह वस्तुत: मेरे स्वभाव में गहरी जड़ जमाकर बैठी हुयी विशेषता के उपयोग के ही कारण था।”
इसी प्रकार पाश्चात्य दर्शन के कई दार्शनिक ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व इसी अनुभव से गुजरे। उन्होंने विरोध को स्वीकार किया। सुप्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक हेरेक्लाइटस (Heraclitus 600 B.C.) ने संघर्ष, विरोध, निषेध और अभाव को बहुत महत्व दिया। वे मानते थे कि विरोध और निषेध का अर्थ गति या परिवर्तन है अत: जीवन के लिए विरोध आवश्यक है। विरोध का अभाव मृत्यु है। विरोध या निषेध के बिना गति या परिवर्तन (विकास) संभव नहीं है। हेरेक्लाइटस विरोध के माध्यम से ही अस्तित्व की स्वीकृति मानते हैं। वे आगे यह भी कहते हैं कि विरोध का अर्थ आत्यन्तिक विरोध नहीं है। आत्यन्तिक विरोध असंभव है; यह हमारी कल्पना है, वस्तु सत्य नहीं। विरोध तो साधन मात्र है, साध्य है समन्वय।’ (पाश्चात्य दर्शन, पृ.५-६)
जैनदर्शन भी एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्वीकृति प्रदान करता है, यही ‘अनेकान्तवाद’ है। यहां एक बात और ध्यातव्य है कि यहां भी परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का सहावस्थान एक वस्तु माना है। नित्य-अनित्य धर्म वास्तव में विरोधी प्रतीत होते हैं, विरोधी हैं नहीं, यदि वास्तव में विरोधी होते तो क्या ये एक स्थान पर रहते ?
हेरेक्लाइटस प्रत्येक वस्तु को सापेक्ष मानते हैं। वे कहते हैं कि समुद्र का पानी मछली के लिए मीठा और हमारे लिए खारा है। ‘हम हैं भी और नहीं भी हैं’। हम सत् भी हैं, असत् भी हैं और सदसदनिर्वचनीय भी हैं। जितने भी द्वन्द्व हैं, सब सापेक्ष हैं-एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। उदाहरणार्थ एक और अनेक, अच्छा और बुरा, गति और स्थिति, परिणाम और सत्ता, जीवन और मरण, सर्दी और गर्मी आदि। (पाश्चात्यदर्शन, पृ. ६-७)
यहाँ हम हेरेक्लाइटस के इस चिंतन की तुलना जैनदर्शन के अनेकान्त स्याद्वाद से कर सकते हैं। काफी कुछ चिंतन में साम्य दिखता है। यद्यपि हेरेक्लाइटस के सिद्धान्त कई स्थलों पर अपरिपक्व हैं किन्तु उनका चिंतन यह तो प्रमाणित करता ही है कि विरोध उनके अनुभव का एवं दर्शन का विषय बना था।
डॉ. एलिस जो कि जीवन और अस्तित्व के बारे में खोज करने वाले प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हैं, का स्पष्ट कहना है कि-
हमें यह सिखलाया जाता है कि विरोधी शक्तियों के आकर्षण-विकर्षण के और विरोधी दिशाओं में खींच-तान के व्ाâारण ही हमारे ग्रहों और उपग्रहों की यह समूची व्यवस्था समन्वयपूर्ण ढंग से कार्य करने में सफल होती है। यही संघर्ष वनस्पति जगत् में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। विरोध का अस्तित्व जीवन के लिए कोई बाधा नहीं है, यह तो जीवन के सुचारू संपादन के लिए एक आवश्यकता है।
यह तो अनुभव का विषय है कि हम चाहें तो भी जीवन में एकरूपता कायम नहीं कर सकते। स्थूल रूप से हम यदि ऐसा कर भी लेंगे तो सूक्ष्म दृष्टि से हम पायेंगे कि यह निर्मित एकरूपता और कुछ नहीं विभिन्न बहुलताओं का समुदाय मात्र है। विरोध और बहुलता से इंकार करने का मतलब है अस्तित्व का इंकार, जीवन का इंकार और अनेकान्त का इंकार।
ग्लोबल समाज और अनेकान्त दर्शन-
दर्शन पक्ष की तरफ से अनेकान्त पर बहुत विचार हुआ किन्तु यह युग की मांग है कि इस सिद्धान्त के सामाजिक पक्ष पर भी कुछ विचार हो। वैश्वीकरण के इस दौर में बहुरूपता और बहुलता और अधिक बढ़ी है। नये किस्म के समाज की संरचना हो रही है। एक धर्म, जाति, भाषा और एक समाज के मुहल्ले, गाँव बसना अब बन्द हैं। यह एक किस्म की आर्थिक परतंत्रता है कि व्यक्ति चाहकर भी संयुक्त एकरूपता कायम नहीं कर सकता। मनुष्य की रोजी-रोटी, नौकरी, व्यवसाय इत्यादि जिधर जमे उसे वहीं रहना पड़ता है। भिन्न भाषा, धर्म, जाति के लोगों के साथ कॉलोनियों में रहना है। यहाँ वैचारिक रूप से व्यक्ति अनेकान्त बन जाता है। सभी तरह के लोगों के साथ उठना-बैठना, व्यवहार निभाना, उनके समक्ष एक नये समाज की रचना प्रस्तुत करता है। ऐसी परिस्थिति में यदि वह अपने व्यक्तित्व को अनेकान्त में नहीं ढालता है तो उसका जीवन कठिन हो जायेगा। जैनदर्शन का अनेकान्तवाद विरोध में अस्तित्व का सिद्धान्त समझाकर इस व्यवहार जगत् को संदेश देता है और समाधान बतलाता है। यहाँ किसी एक विचार या संस्कृति को स्वीकार करने का हठाग्रह लेकर हम चलेंगे तो हम समाज में नहीं रह सकते क्योंकि हमें हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई इत्यादि समाज में नहीं रहना है बल्कि विश्व समाज में रहना है, जहाँ बहुलता ही बहुलता है। ध्यान रखें, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में एकरूपता का नाम ‘एकान्त’ है और बहुलता का नाम ही ‘अनेकान्त’ है।
व्यवहारिक जीवन एकान्तवादी नहीं हो सकता-
विचारों के आधार पर मनुष्य कदाचित् एकान्तवादी भी हो सकता है किन्तु जीवन और समाज में व्यक्ति एकान्तवादी नहीं हो सकता। जिंदगी अनेकान्त का नाम है। एक मुसलमान विचारों के आधार पर भले ही सिवाय इस्लाम के कहीं भी सिर न झुकाये किन्तु जब वह व्यवसाय करता है तब ग्राहक कौन है ? हिन्दू अथवा ईसाई या अन्य कोई ? वह इसका भेद नहीं करता, वह उसे सम्मान देता है। स्वयं उसे जीवन के अनेक कार्यों के मध्य मात्र इस्लाम अनुयायियों से काम चल जायेगा, ऐसा नहीं है।
फिदा हुसैन एक ब्राह्मण अभिनेत्री माधुरी दीक्षित से यदि प्रभावित है तो वह यह विचार नहीं करता है कि यह तो मुसलमान नहीं है मैं इसका चित्र क्यों बनाऊँ ? उसी प्रकार हिन्दू या अन्य मतानुयायी भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सभी से कार्य करवाते हैं। यदि कोई मुस्लिम डॉक्टर कोई बहुत बड़ा ऑपरेशन किन्हीं पण्डितजी या पादरीजी का करता है तब इसमें से कोई मना नहीं करता। शाहरुख खान, सैफअली खान, गुलाम अली से लेकर मुहम्मद अजहरुद्दीन तक सभी मात्र मुसलमानों के ही चहेते हैं, ऐसा नहीं है। उसी प्रकार सचिन तेंदुलकर, ऐश्वर्या राय, अमिताभ, अभिषेक बच्चन, अनिल और शाहिद कपूर तथा जगजीत सिंह पर मात्र हिन्दू ही जान छिड़कते हैं ऐसा भी नहीं है। भवन निर्माण में यदि मुस्लिम मिस्त्री सिद्धहस्त है तो पण्डित जी उसी से मकान बनवाते हैं यहाँ तक कि मंदिर तक।
हम स्वयं विचार करें कि क्या जीवन कभी एकान्तवादी हो सकता है ? जैन या हिन्दू निःशुल्क अस्पतालों में मुस्लिम महिलाओं एवं बच्चों की लम्बी कतार यह कभी विचार नहीं करती कि यह तो काफिरों के द्वारा बनाया गया अस्पताल है, यहां इलाज मत कराओ। यहां के ट्रस्टी या डाक्टर भी ऐसा कोई बोर्ड नहीं लगाते कि वे मुसलमानों का निःशुल्क इलाज नहीं करेंगे।
क्या सामाजिक जीवन में अनेकान्त को स्वीकार किये बिना इस प्रकार के सुन्दर जीवन की कल्पना संभव है ? विभिन्नता, विविधता और विरोध यदि समाप्त हो जायें, जैसी कि कामनायें की जाती हैं; तो क्या अस्तित्व बचेगा ? यह कल्पना भी कितनी निरर्थक मालूम होती है कि सर्वत्र एकरूपता, परिपूर्णता कायम हो जाए। यह वस्तु स्वभाव के विपरीत कल्पना है, जो कि असंभव है।
अनेकान्त दर्शन की व्यावहारिकता-
जैन साहित्य में अनेकान्त दृष्टि की प्रधानता है। यह अनेकान्त में एकता करने का सशक्त माध्यम है। यह सभी के हितों का चिंतन करता है। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी के साथ सर्वोदय शब्द जुड़ा हुआ है। डॉ. रामजी सिंह का मानना है कि संस्कृति के प्रामाणिक शब्दकोशों में भी इसका उल्लेख नहीं है किन्तु जैन संस्कृत वाङ्मय के सिंहावलोकन से पता चलता है कि आगमयुग के बाद ही अनेकान्त स्थापना युग में सिद्धस्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने ग्रंथ ‘युक्त्यनुशासन’ में सर्वोदय तीर्थ का प्रयोग किया है-
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्।
सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।।६१।।
अर्थात् हे प्रभु! आपका तीर्थ, शासन सर्वान्तवान् है और गौण तथा मुख्य की कल्पना को साथ में लिए हुए है। जो शासन वाक्यधर्मों में पारस्परिक अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता, वह सर्व धर्मों से शून्य है अत: आपका ही यह शासनतीर्थ सर्व दुखों का अंत करने वाला है, यही निरन्त है और यही सभी प्राणियों के अभ्युदय का साधक ऐसा सर्वोदय तीर्थ है।
यहाँ सर्वोदय तीर्थ-विचार तीर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यही धर्म तीर्थ भी है। यही जैन तत्वज्ञान का मर्म है। सर्वोदय तीर्थ अनेकान्तात्मक शासन के रूप में व्यवहृत हुआ है। अनेकान्त विचार ही जैनदर्शन, धर्म और संस्कृति का प्राण है और यही इसका सर्वोदयी तीर्थ भी है।
अनेकान्त दृष्टि के मूल में दो तत्व हैं-(१) पूर्णता (२) यथार्थता। जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप में प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है किन्तु पूर्ण रूप से त्रिकाल बाधित यथार्थ का दर्शन दुर्लभ है। देश, काल, परिस्थिति, भाषा और शैली आदि अनिवार्य भेद के कारण भेद का दिखायी देना अनिवार्य है फिर साधारण मनुष्य की बात ही क्या ? साधारण मनुष्य यथार्थवादी होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं। यदि अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी दूसरे की बात सत्य है, अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी अपनी बात सत्य है; तो दोनों को न्याय कैसे मिल सकता है ?
इसी समस्या के समाधान के लिए अनेकान्त दृष्टि का उद्भव हुआ, जिसकी मुख्य बातें निम्न प्रकार हैं-
(१) राग और द्वेषजन्य संस्कारों से ऊपर उठकर मध्यस्थ भाव रखना।
(२) जब तक इस प्रकार के तटस्थ एवं मध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा करना।
(३) विरोधी पक्ष के प्रति आदर रखकर उसके भी सत्यांश को ग्रहण करना।
(४) अपने या विरोधी के पक्ष में जहाँ जो ठीक जँचे, उनका समन्वय करना। इस प्रकार अनेकान्त दृष्टि के द्वारा हम एक नयी ‘समाज मीमांसा’ और नये ‘समाज तर्क’ के आविष्कार की ओर बढ़ सकते हैं और उसके द्वारा समाज में समन्वय लाया जा सकता है। यह ठीक है कि चूंकि दार्शनिक और आध्यात्मिक साधना में ही अनेकान्त दृष्टि आयी किन्तु अब समाज साधना में इनके प्रयोग को आगे बढ़ाना चाहिए। यही वह जीवन्त अनेकान्त होगा जिसका उपयोग एक जीवन दर्शन की तरह होगा। जो सही अर्थों में जीवन को जीता है वह वास्तव में ‘अनेकान्त’ को जीता है। हम सभी का यह अनुभूत एवं ज्ञात विषय है कि जीवन बहुआयामी है। जीवन या समाज की व्याख्या किसी एक पहलू से नहीं की जा सकती। लन्दन के वैज्ञानिक लेखक डॉ. न्यूलियन हक्सले (१८८७-१९६६) ने स्पष्ट लिखा है कि-
‘हम अपने सिद्धान्तों को गिनती के कुछ सीधे-सादे शब्दों की कारां में कैद नहीं कर सकते। जीवन बहुत उलझा हुआ है तथा वैविध्यपूर्ण है। हमें सिद्धान्तों को आस्था के द्वारा पूर्णता देनी होगी और आस्था का अन्तिम लक्ष्य जीवन है, उसकी प्रगति और समृद्धि है। अस्तु! मेरी अंतिम आस्था जीवन में है।
निष्कर्ष यही है कि जीवन, समाज और अस्तित्व तर्क का नहीं आस्था का विषय है। अनेकान्त को भी तर्क समझा गया। उसके पीछे एक कारण यह है कि अनेकान्त का उपयोग दार्शनिक क्षेत्र में ही किया गया। अनेकान्त जीवन से जुड़ा है इसलिए यह तर्क से परे आस्था का भी विषय बनता है। सारांश यह है कि हम अपने अस्तित्व, जीवन और समाज से जुड़ी समस्याओं की तह में जायेंगे तो पायेंगे कि ये समस्यायें अनेकान्त को नहीं समझ सकने से उत्पन्न हुई हैं।
कालचक्र सदैव गतिशील रहता है। जैनागम के अनुसार काल के दो विभाग हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। प्रत्येक विभाग के छह-छह भेद हैं। अवसर्पिणी काल का पहिया सुख से दु:ख की ओर तथा उत्सर्पिणी का दु:ख से सुख की ओर घूमता है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है। इस काल में जीवों की आयु, बल, शरीर की ऊँचाई, सम्पदा, योग्यता, स्मृति, गति, मति, पद, कद आदि का निरन्तर ह्रास होता जाता है। ‘दुषमा’ नामक पंचम भेद के आते-आते यह गिरावट इतनी बढ़ जाती है कि इस काल में भरत क्षेत्र से कोई भी जीव सीधे मोक्ष नहीं जाता, विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर जा सकता है।
जैनधर्म परिणामों की शुद्धि पर जोर देता है, परिणाम विशुद्धि के लिए ‘खानपान-शुद्धि’ एवं ‘खानदान-शुद्धि’ आवश्यक है। यह चिन्तनीय है कि इस दिशा में कोई गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दे रहा है।
खानपान और खानदान की शुद्धि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। ये कोई शब्दमात्र नहीं है, बल्कि सिद्धान्त है। इनसे जो चिढ़ता है, वह मोक्षमार्ग से भटकता जाता है। हमारे जीवन में इन दोनों शुद्धियों का खास महत्व है।
‘खानदान’ शब्द का अर्थ है-कुल, वंश, जाति, गोत्र, संतति, घराना, कुलीनता आदि। शब्दकोष के अनुसार खानजादा ऊँचे कुल में उत्पन्न व्यक्ति को कहते हैं और खानाबदोश कहलाता है वह व्यक्ति, जो लक्ष्य-भ्रष्ट है। ‘खाना-पीना और मौज उड़ाना’ कुलीन लोगों का लक्ष्य नहीं हो सकता, किसी खानाबदोश का हो सकता है इसीलिए एक उर्दू शायर ने खानजादा बनने पर जोर दिया है।
खानदान-शुद्धि के लिए शास्त्रीय शब्द है-सज्जातित्व की सुरक्षा। महापुराणकार के अनुसार पितृ वंश की शुद्धि को ‘कुल-शुद्धि’ और मातृवंश की शुद्धि को ‘जाति-शुद्धि’ तथा दोनों की शुद्धि को ‘सज्जातित्व’ कहते हैं। आगम में उल्लिखित सप्त परमस्थानों में प्रथम है सज्जातित्व और अंतिम है निर्वाण। एक साधन है तो दूसरा साध्य, एक नींव है तो दूसरी मंजिल। सज्जातित्व के बिना निर्वाण नहीं मिलता, इस विषय में सभी आचार्य एकमत हैं। कुल-जाति व्यवस्था अनादिकालीन है। केवल नाम बदल सकते हैं किन्तु व्यवस्था अपरिवर्तनीय है। पहले इक्ष्वाकु, सूर्य, चन्द्रवंश आदि होते थे, अब खण्डेलवाल, अग्रवाल, जैसवाल, पद्मावती पुरवाल आदि जातियाँ हैं। महात्मा गांधी ने सफाई कर्मचारियों को एक नया नाम दे दिया-‘हरिजन’। नाम बदलने से जाति तो नहीं बदलती।
हमारे पूज्य आचार्यों ने सज्जातित्व की महिमा का बखान करते हुए लिखा है-
विशुद्ध खानदान में ही तीर्थंकरों का जन्म होता है। हमारे सभी तीर्थंकर क्षत्रियकुलोत्पन्न थे, इसके पीछे छिपे रहस्य को समझना चाहिए।
जिसका खानदान शुद्ध है, वही दीक्षा का अधिकारी है। आचार्य श्री जिनसेन स्वामी लिखते हैं-‘‘विशुद्धकुलगोत्रस्थ सद्वृत्तस्य वपुष्मत:’’ अर्थात् विशुद्ध कुल-गोत्र में उत्पन्न सदाचार सम्पन्न और सुन्दर शरीर वाले ही जिन दीक्षा धारण करने के पात्र हैं।
श्री जिनेन्द्र वर्णी ने लिखा है कि पंचमकाल में भी उत्तम कुल का व्यक्ति ही दीक्षा धारण कर सकता है। (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष/प्रव्रज्या)।
नीति वाक्यामृत के अनुसार जो द्विजन्मा है, वही दीक्षा का अधिकारी है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन द्विजन्मा माने गये हैं। शूद्र दीक्षा का पात्र नहीं है।
लोक की रीति-नीति और व्यवहार में भी सदियों से सज्जातित्व की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता रहा है। जैसे-
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि भारत में विवाह घराना देखकर अपनी ही जाति में किया जाता है।
हमारे पुरखे बताते थे कि पहले कन्या पक्ष की ओर से योग्य (सजातीय) वर ढूँढने के लिए नाई भेजे जाते थे और वे पितृकुल (पिता, बाबा, दादा आदि) तथा मातृकुल (नाना, मामा आदि) के बारे में भलीभांति पड़ताल कर संबंध निश्चित करने में सहायता करते थे।
आज भी भारतीय सेना में जातियों के नाम पर जाट, सिख, गोरखा, डोंगरा आदि रेजीमेंट बने हुए हैं। इसका कारण यही है कि इन जातियों में उत्पन्न लोगों में कुल परम्परा से वीरता और साहस के अंश ज्यादा हैं। वैज्ञानिकों ने भी अपने अनुसंधानों के आधार पर इस बात की पुष्टि की है कि पिता के शरीर से जीन्स का प्रभाव सन्तान में भी आता है।
देखने में आता है कि प्राय: वैद्य का लड़का वैद्य, वकील का लड़का वकील और नेता का लड़का नेता बनता है। यह भी इसी बात का सूचक है कि पिता के संस्कार पुत्र में आते हैं। कहा भी है-‘जैसे जाके मात-पिता, तैसे ताके लरिका’।
सोचें कि गाय का दूध हल्का और भैंस का भारी क्यों होता है ? गांधी जी सुपाच्य होने से बकरी का दूध पीते थे।
बवासीर, कुष्ठ, कैसर आदि रोग पैतृक भी होते हैं।
जातियाँ कहाँ नहीं हैं! देवों में भी हैं। किल्विषिक जाति के देवों को भी उच्चगोत्रीय माना गया है किन्तु झाडू-बुहारी जैसे निचले दर्जे का काम करने से वे इन्द्र की सभा में नहीं बैठते। शास्त्रों में उनको प्रजा बाह्य कहा गया है। उच्च गोत्र और प्रजा-बाह्य होने में कोई विरोधाभास भी नहीं है। निंद्य कार्य करने वाले यदि प्रतिष्ठित भी हों तो भी उनकी निंदा की जाती है और नीच कुल का आदमी भी भले या अच्छे कार्य करता है तो कहा जाता है कि यह तो देवता है। उच्च कुल-गोत्र होने पर भी रजस्वला स्त्री पिण्ड अशुद्ध होने से पूजा नहीं कर सकती और न किसी को छू सकती है। कहा जाता है कि रजस्वला स्त्री की परछाई भी पड़ जाये तो पापड़ बिगड़ जाते हैं। गर्भवती स्त्री की दृष्टि पड़ने से साँप अंधा हो जाता है।
हमारे आचार्यों ने जाति-कुल को बुरा नहीं कहा। जाति मद और कुल मद न करने की सीख दी है। मद हमेशा अच्छी वस्तु का होता है, बुरी वस्तु का नहीं। लोग गर्व करते हैं हीरे-जवाहरात पर, धूल-मिट्टी-कंकड़ों पर नहीं। कुल-जाति (घराना या खानदान) एक ऊँची चीज है। उसकी सुरक्षा की जानी चाहिए।
सच तो यह है कि देश को आजादी मिलने से पहले तक सजातीय विवाहोें का ही प्रचलन था किन्तु उसके बाद पाश्चात्य शिक्षा और बाहरी हवा के प्रभाव से सुधार के पक्षधरों ने पहले सद्धर्म विवाह को उचित करार दिया, जिसका विस्तार अब विजातीय और विधर्मियों के साथ संबंध जोड़ने तक हो चुका है। इसी को कहते हैं उंगली पकड़कर पहुँचा पकड़ना। कुलगोत्र शुद्धि और पिण्ड शुद्धि के प्रकरण को आचार्य समन्तभद्र ने ‘भस्म से ढके अंगारे’ का उदाहरण देकर आइने में पड़े प्रतिबिम्ब की तरह स्पष्ट कर दिया है।
एक प्रसंग है कि शेरनी ने दो बच्चे पाले-एक अपना और दूसरा सियार का। जब वे बड़े हुए तो एक दिन दोनों जंगल में घूमने गये। वहाँ उनका सामना एक हाथी से हो गया। शेरनी का बच्चा उस पर झपटने को तैयार हुआ ही था कि स्यार सुत ने उसे टोका और कहा पागल हो गये हो क्या तुम ? देखते नहीं कि इसका डील-डौल कितना बड़ा है। चलो भागो, नहीं तो यह हमें मार डालेगा। घर लौटने पर जब शेरनी के बच्चे ने पूरी घटना बताते हुए कहा कि यह हमारा भाई तो कायर है, हाथी को देखकर दुम दबाकर भाग आया, तब शेरनी ने सियार सुत से कहा-
शूरोसि कृतविद्योसि दर्शनीयोसि पुत्रक!
यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्न: गजस्तत्र न हन्यते।।
हे पुत्र! तुम बहादुर हो, विद्या निपुण हो और देखने में भी शेर के बालक सदृश हो, किन्तु जिस कुल में तुम पैदा हुए हो, वहाँ हाथी नहीं मारे जाते। (इसलिए तुम वापिस अपने घर जाओ, अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है।)
कहने का तात्पर्य यही है कि जाति-कुल का प्रभाव कभी जाता नहीं है अत: प्रत्येक मानव को अपने कुल-जाति के गौरव के साथ-साथ उसका संरक्षण करने में अपने कर्तव्य का पालन अवश्य करना चाहिए।