जीवन की क्रमिकता अधिकांश दर्शनों में स्वीकार की गयी है। यदि कोई कहे कि – ‘मैं वर्तमान में जो हूँ, मात्र वही हूँ – न मेरा कोई अतीत है और न कोई भविष्य’ – इस कथन में कितनी सच्चाई है? इसे कहने या समझाने की जरूरत नहीं है।
वर्तमान जीवन का पहले के जीवन से और आगे आने वाले (भविष्य) जीवन से शृंखला रूप सम्बन्ध न हो तो क्या किसी को अपने वर्तमान जीवन में कत्र्तव्यों की सम्पूर्ति में सच्ची अभिरूचि पैदा हो सकती है- अथवा बनी रह सकती है ? क्यों कोई स्थायी प्रभाव वाला कार्य करना चाहेगा, जिसका सीधा लाभ उसे न मिलता हो? अर्थात् नहीं।
वास्तव में वर्तमान केवल वर्तमान ही नहीं है- वर्तमान का अतीत भी है और उसका भविष्य भी है, और यही काल की क्रमिकता है। उसी प्रकार जीवन की क्रमिकता अटूट होती है, जब तक कि आत्मा संसार से मुक्ति न प्राप्त कर ले।
जीवन की क्रमिकता का तात्पर्य है – पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म की विद्यमानता और कर्म-सिद्धांत की अटलता।’ जीवनों की यह शृंखला अनन्त काल से चलती आयी है और तब तक चलती रहेगी, जब कि सभी प्रकार के कर्म-बन्धनों से आत्मा मुक्त नहीं हो जाती।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के द्वारा उद्घोषित और संकल्पित राष्ट्रीय स्वतंत्रता के महामंत्र- ‘‘स्वराज्य माझा जन्म सिद्ध अधिकार आहे। तो मी घेइनं च’। (स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है। उसे मैं लूँगा हूँ।’) को इसी तारतम्य में हम लोग अपने दृष्टिपथ एवं विचार-परिधि में रखकर के ‘शाश्वत स्वतंत्रता’ अथ च’ स्वाधीनता प्राप्त करने हेतु क्रियान्वित (Execution) के लिए जोड़कर युग-युगों से कर्मों की बेड़ियों में जकड़े अैर जन्म-मरण के चक्र में उलझे अपने आत्मा को सर्व-तन्त्र स्वतंत्र शाश्वत सुख-मोक्ष का राहगीर बनने की नींव- स्वरूप अपने ‘गृहस्थ जीवन की आचरण संहिता’ (Code of Conduct of House Holsers) अर्थात् ‘श्रावक के आचरण’ में परखने और तदनुरूप अपने जीवन में सहेजने का संकल्प लेना आवश्यक है।
लोकमान्य तिलक के उक्त कथन से ध्वन्यर्थ- कि संसार में जीवन-यापन करने वाले प्राणी का मूल लक्ष्य- भव समुद्र को पारकर ‘‘मुक्ति’’ – लक्ष्मी को प्राप्त करना है। यही हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसी मुक्ति रूपी महल में प्रवेश करने हेतु सम्यक रत्नत्रय रूप कत्र्तव्यों के पालन का, उन्हें आत्मसात् करने का सुदृढ़ संकल्प होना चाहिए। वस्तुत: ‘‘सौम्य, शान्त और तनाव रहित जीवन हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।
यहाँ हमारा अनुरोध यह है कि – अधिकार तो है परन्तु यदि आदमी कत्र्तव्य की जमीन पर खड़े हुए बगैर उसे पाना चाहेगा, तो विफल हो जाएगा।
श्रावकाचार गृहस्थों की आचरण संहिता है। वह बहुत व्यावहारिक है। उसमें जो समाधान सुझाये हैं, वे स्वस्थ नागरिक के अधिकारों और कत्र्तव्यों का बोध कराते हैं।’ वे व्यवहारिक हैं और तमाम समस्या वृत्तों को छूते हैं।
साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी का यह कथन वर्तमान नागरिकों की जीवन शैली के यथार्थ का समर्थ निदर्शक है –
‘‘गरीबी की गरिमा, सादगी का सौंदर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनन्द, ये सब हमारे आचरण से पतझर के पत्तों की तरह झर गये हैं।’’
‘‘मानव जीवन में श्रावकाचारी की भूमिका’’ विषय पर चिंतन का लक्ष्य भी यही है कि मनुष्य के जीवन का यह पतझर खत्म होवे और बसन्त का वैभव पुन: प्रकट होवे।
इस संदर्भ में हमारा सुस्पष्ट चिन्तन है कि यह तब संभव है, जब व्यक्ति और समाज नैतिकतापूर्ण चिंतन के साथ मनन और तदनुसार सन्मार्ग में प्रवृत्त होवे- प्रशस्त आचरण को अपनी जीवन शैली का आवश्यक अंग बनावे। अन्यथा भौतिक समृद्धि के लिए होने वाली आपाधापी में हमारे जीवन में पतझर के खात्मा और बसन्त के वैभव का समागम की कोई संभावना नहीं है।
यहाँ हमारा कहना है कि – आम आदमी सौम्य, शान्त और तनाव-रहित जीवनचर्या के लिए श्रावक की आचरण संहिता को पहले चरण में स्वाध्याय करे और तब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों के अनुरूप उसे अपनी दैनन्दिन व्यवस्था से यथासंभव जोड़े। ऐसा करते समय उसे अपने सर्वोच्च अधिकार ‘शिव-सुख’ की प्राप्ति का भाव तो रहे ही, साथ ही तदनुरूप कत्र्तव्यों/आचरण संहिता के पालन का बोध भी बना रहे।
‘छहढाला’ की ये पंक्तियाँ वह हमेशा गुनगुनाता रहे–
‘‘आतम को हित है सुख, सो सुख, आकुलता बिन कहिए ।
आकुलता शिच मांहि न ताते शिव मग लाग्यो चाहिए ।।’’ – ३.१
अधिकांश श्रावक तो युग-युगों से अपने अधिकार और कत्र्तव्यों के प्रति बेसुध हैं तभी तो आचार्यकल्प पं. आशाधर जी को लिखना पड़ा –
अनाद्यविद्या- दोषोत्थ- चतु: संज्ञा- ज्वरातुरा: ।
शाश्वत् स्वज्ञान- विमुखा: सागारा: विषयोन्मुखा: ।।१- सागारधर्मामृत, अ.१
(जैसे वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों की विषमता से उत्पन्न होने वाले प्राकृत आदि) चार प्रकार के ज्वरों से पीड़ित होने के कारण मनुष्य हिताहित के विवेक शून्य हो जाता है। उसी प्रकार अनित्य पदार्थों को नित्य, अपवित्र पदार्थों को पवित्र, दु:खों को सुख तथा अपने से भिन्न स्त्री, पुत्र, मित्र आदि बाह्य पदार्थों को ‘अपना मानना’ रूप अनादि कालीन अविद्या रूपी वात, पित्त व कफ की विषमता से उत्पन्न होने वाली आहार आदि चारों संज्ञाओं रूपी ज्वर से पीड़ित होने के कारण, जो निरन्तर मुख्यतया स्वात्मज्ञान से विमुख होकर राग तथा द्वेष से इष्ट तथा अनिष्ट विषयों में प्रवृत्त रहता है, उसे ‘सागार’ कहते हैं।
भारतीय संस्कृति में गृहस्थाश्रम का अत्यधिक महत्त्व है। गृहस्थाश्रम में निवास करने वाले व्यक्ति के लिए जैनधर्म में श्रावक, सावय, सावग, उपासग, समणोपासक, गिही, अगारिक, देशसंयमी, आगारी और सागार शब्दों का प्रयोग किया गया है।
‘श्रावक’ शब्द की व्युत्पत्ति और निरुक्ति :–
श्रु + ण्वुल् = श्रावक। शृणोति गुर्वादिभ्य: धर्मम् इति श्रावक:।सागार धर्मामृत : स्वोपज्ञ टीका- १/१५
अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है, वह ‘श्रावक’ है।
निरुक्ति :–
श्रन्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्ति इति श्रा:,
वपन्ति गुणवत् सप्तक्षेत्रेषु धन बीजानि निक्षिपन्तीति वा:,
तथ किरन्ति क्लिष्ट कर्मरजो विक्षिपन्तीति का:,
तत: कर्मधरये ‘श्रावका: इति भवति।’
अभिधान राजेन्द्र कोष : श्री विजय राजेन्द्र सूरीश्वर, ‘सावय’ शब्द, प्रकाशक – श्री जैन श्वेताम्बर समस्त संघ रतलाम, सन् १९१३-१४
इसका तत्पार्य यह है कि – ‘‘श्रावक’’ पद में तीन अक्षर हैं, इनमें से ‘‘श्रा’’ शब्द से तत्त्वार्थ- श्रद्धान का बोध होता है। ‘व’ शब्द – सप्त धर्म -क्षेत्रों में धन रूप बीज बोने का प्रेरक है। ‘क’ शब्द – क्लिष्टि कर्म या महापापों को दूर करने का संकेत करता है। इस प्रकार कर्मधारय समास में ‘श्रावक’ शब्द निष्पन्न होता है।
श्रावक का स्वरूप : कुछ विद्वानों ने ‘श्रावक’ पद के अर्थ को और भी पल्लवित किया है – जैसे- जो श्रद्धापूर्वक जैन शासन को सुने, दीन-दु;खियों को दान दे, सम्यग्दर्शन को वरण करें, सुकृत और पुण्य कर्म करे, संयमाचरण करे, उसे विद्वज्जन ‘श्रावक’ कहते हैं।
संक्षेप में ‘‘श्रावक’’ को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है –
सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति श्रद्धा रखने वाले सद् गृहस्थ को ‘श्रावक’ कहते हैं अथवा पंच परमेष्ठी का भक्त, दान व पूजन में तत्पर, भेद- विज्ञान रूपी अमृत को पीने का इच्छुक तथा मूलगुण व उत्तरगुणों का पालन करने वाला व्यक्ति ‘श्रावक’ कहलाता है, अथवा देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दर्शन प्रतिमा आदि स्थानों में मुनिव्रत का इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है, उसे ‘श्रावक’ कहा गया है।
१. वसुनन्दिश्रावकाचार, पृ. २० पर उद्ध्त पद्य के आधार पर।
आ. देवसेन ने अपभ्रंश भाषा में रचित श्रावकाचार विषयक ‘‘सावय धम्म दोहा’’ में श्रावक की परिभाषा पद्य ५९ में देते हुये कहा है –
‘‘पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये श्रावक के बारह व्रत होते हैं। ये व्रत मनुष्य और देवों के सुखों का उपभोग कराकर जीव को निर्वाण पद तक ले जाते हैं।सावय धम्म दोहा, पद्य ५९
उन्होंने आगे इसी ग्रन्थ के पद्य ७६ में लिखा है –
एहु धम्म जो आयरइ बंभणु सुददु वि कोइ ।
सो सावउ किं सावयहं अण्णु कि सिरि मणि होइ ।वही, पद्य ५९
जो (उक्त निर्दिष्ट अणुव्रतादि रूप बारह प्रकार के) धर्म का आचरण करता है, वह चाहे ब्राह्मण, शूद्र कोई भी हो ‘श्रावक’ कहलाता है। श्रावके के शिर पर क्या अन्य कोई मणि रहता है। वस्तुत: श्रावकी की पहचान उक्त व्रत ही है।
कतिपय श्रावकाचारों में श्रावक की आचरण संहिता में गृहस्थों के मूलगुण इस प्रकार वर्णित हैं :-
मद्य, मांस और मधु के त्याग सहित अणुव्रतों को गृहस्थों के ‘मूलगुण’ कहते हैं अथवा मद्य, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदम्बर फल का त्याग, देववन्दना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना – ये आठ ‘मूलगुण’ श्रावक के माने गये हैं। उत्तरगुण के साथ में दान, पूजा, शील और उपवास – ये चार श्रावक के धर्म हैं।मुनि क्षमासागर : जैन दर्शन पारिभाषिक शब्दकोष प्रकाशक- मैत्री समूह : २००९ पृ. – ३१६
पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, जिनपूजन, अतिथि सत्कार बन्धु बान्धवों की सहायता और आत्मोन्नति – ये श्रावक के पाँच कत्र्तव्य हैं। अथवा जिन पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान – ये छह कर्म श्रावक के लिए प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।वही, पृ.-३१६
श्रावक के भेद-
श्रावक के तीन भेद है – १. पाक्षिक २. नैष्ठिक और ३. साधक
१. पाक्षिक श्रावक –मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव से वृद्धि को प्राप्त होते हुए समस्त हिंसा का त्याग करना जैनों का पक्ष कहलाता है। इसलिए गृहस्थ धर्म में जिनेन्द्र भगवान् के प्रति श्रद्धा रखता हुआ जो श्रावक हिंसा आदि पांच पापों को स्थूल रूप से त्याग करने का अभ्यास करता है वह ‘पाक्षिक’ श्रावक कहलाता है।वही, पृ.-२०० वह हिंसा आदि से बचने के लिए सबसे पहले मांस, मदिरा एवं शहद तथा पंच उदुम्बर फलों को छोड़ता है। वह गुरुजनों की रक्षा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान रूप गृहस्थों के लिए प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक कार्य भी करता है।
२. नैष्ठिक श्रावक –जो श्रद्धापूर्वक व्रत, सामायिक आदि ग्यारह प्रतिमाओं में से, एक दो या सभी प्रतिमाएँ ग्रहण करता है,वही, पृ. १८५ वह ‘‘नैष्ठिक श्रावक’’ कहलाता है।
३. साधक श्रावक –जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवन के अन्त में अर्थात् मृत्यु समय, शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधना करता है,वही, पृ. १८५ वह ‘‘साधक’’ कहा जाता है।
जिसमें सम्पूर्ण गुण विद्यमान है, जो शरीर का कांपना, उच्छावास लेना, नेत्रों का खोलना, आदि क्रियाओं का त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोक के ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है, ऐसे समाधिमरण करने वाले का शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है।वही, पृ. ३४६
सम्यग्दर्शन धर्म का मूल अवश्य है पर मात्र सम्यग्दर्शन से मोक्ष- रूप फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। मोक्ष प्राप्ति के लिए जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से समन्वित सम्यक्चारित्र की आवश्यकता है। इसीलिए आ. उमास्वामी ने ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग: (मोक्षशास्त्र १.१) सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय की पूर्णता को ही ‘मोक्ष-मार्ग’ कहा है।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों का सकलदेश परित्याग करना ‘सकल चारित्र’ है, और एकदेश त्याग करना ‘विकल चारित्र; है। सकल चारित्र मुनियों के होता है और विकल चारित्र गृहस्थों के।
सकल चारित्र में पाँच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गुप्तियों की प्रधानता है, विकल चारित्र में – पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का वैभव है।
बारह व्रतों में पांच अणुव्रतों के संबन्ध में कहीं भी मतभेद नहीं है। उनके नाम- भेद अवश्य मिलते हैं। जैसे आ. कुन्दकुनद ने अपने ‘चारित्र प्राभृत में –
पाँचवे अणुव्रत का नाम परिग्रहारम्भ परिणाम और चौथे अणुव्रत का नाम ‘पर पिम्म परिहार जिसका अर्थ परस्त्रीत्याग है तथा प्रथम अणुव्रत का नाम ‘स्थूल त्रस काय वध परिहार’ रखा है।
आ. समन्तभद्र ने ‘रत्नकरण्ड’ में चौथे अणुव्रत का नाम ‘परदारनिवृत्ति’ और ‘स्वदारसंतोष’ रखा है एवं पांचवें अणुव्रत का नाम ‘परिग्रह परिणाम’ के साथ ‘इच्छा परिणाम’
समाज, राष्ट्र एवं विश्व में ‘श्रावकाचार’ की गुणवत्ता विशिष्ट रूप से सर्वमान्य है। किन्तु आज समय बदल गया है। मानव में सात्विक मनोवृत्ति में हीनता आयी है, मलीनता वायु की तरह प्राय: सर्वत्र परिव्याप्त हो रही है, ऐसी स्थिति में श्रावकाचार के सिद्धान्तों की महत्ता विशिष्ट रूप से प्रतिभासित हो रही है।
मनुष्य भव प्राप्त होने के बाद मनुष्यत्व, शास्त्र श्रवण, श्रद्धा और संयम। ये चार साधन जीव को प्राप्त होने अत्यन्त कठिन हैं। इन चारों में मनुष्यत्व सबसे पहला है।
मनुष्य शरीर पाने के बाद भी यदि मनुष्यता न प्राप्त की गयी, तो मनुष्य जन्म बेकार है।
शिक्षा के क्षेत्र में परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर वकील, डॉक्टर, इंजीनियर आदि अनेक डिग्रियाँ प्राप्त करते हैं, लेकिन मनुष्यत्व की परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले कितने होते हैं? मनुष्यत्व की सच्ची शिक्षा देने वाले – स्कूल, कॉलेज, विद्या मन्दिर तथा पाठ्य पुस्तकें आज कहाँ हैं? श्रावकाचार मनुष्यता की शिक्षा देने वाला मुक्त विश्वविद्यालय (Open University) है।
जैन परिभाषा में आचरण को ‘चारित्र’ कहते हैं। चारित्र का अर्थ है – संयम पालन, भोग विलास से उदासीनता, अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्ति और शुभ प्रवृत्ति की स्वीकृति।
– तनाव, अतृप्ति, अशान्ति, चरित्रहीनता और सुविधावाद है।
ये समस्याएं पहले राई जितनी लघुकाय थीं, किन्तु आज सुरसा के मुख के समान विकराल हो गयी हैं, ऐसे विकट मोड़ में श्रावकाचार के सिद्धान्त समस्याओं के घाव को भरने वाला समाधान रूपी मलहम हैं।
वर्तमान परिपे्रक्ष्य में ‘श्रावकाचार’ निर्देशित करता है :
१. विश्व हिंसा परायण है, अत: ‘अहिंसा’ चाहिए।
२. पदार्थ का आकर्षण बढ़ा है, अत: ‘सत्यदृष्टि चाहिए।
३. विश्व अशान्त है, अत: ‘संयम’ चाहिए।
४. वासनाएँ बढ़ रही हैं, अत: ‘ब्रह्मचर्य’ चाहिए।
५. विश्व अतृप्त है, अत: ‘अपरिग्रह चाहिए।
६. तनाव बढ़ रहे हैं, अत: ‘धर्मध्यान/सामायिक’ चाहिए।
श्रावकाचार के अन्तर्गत सबसे पहली आधार भूमि ‘‘अहिंसा’’ है। यदि मात्र इसे अपना लिया जावे तो श्रावकाचार के अन्य अंग स्वयमेव श्रावक से जुटने को उतावले दिखायी देंगे। आज विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है। चारों ओर हिंस का बोलबाला है। एक देश अन्तरंग में एक दूसरे से भयभीत हैं। इस भय को दूर करने के लिए ‘श्रावकाचार’ ने अहिंसा का सिद्धान्त विश्लेषित किया है।
जैसे खून से सना हुआ वस्त्र खून से धोने पर कभी साफ नहीं होता, इसी प्रकार हिंसा करने से कभी भी हिंसा नहीं मिटती। अत: हिंसा को रोकने के लिए ‘श्रावकाचार-समस्त अहिंसाणुव्रत को अपनाना होगा। ‘श्रावकाचार’ में समाविष्ट अन्य व्रत स्वयमेव अहिंसा की परिधि में आ जाते हैं, क्योंकि जो अहिंसक होते हैं, वे ही शुद्ध सत्य के मर्म को समझाते हैं। मृदु सत्य उनके जीवन में दूध में मक्खन की तरह समाया रहता है।
जो अहिंसक होते हैं, वे ही अचौर्य व्रत के धारक होते हैं। ‘अब्रह्मचर्य’ लाखों जीवों की हिंसा का परिणाम है, ब्रह्मचर्य अहिंसक आराधना है। ‘परिग्रह’ तो हिंसा के बिना संभव ही नहीं है, ‘परिग्रह’ एक ऐसा पाप है, जिसमें समस्त पाप आकर समाते हैं। इसका निष्कर्ष यही है कि श्रावकाचार में वर्णित एक मात्र अहिंसा सिद्धान्त को ही यदि हम अपना लेवें तो अन्य व्रत स्वयमेव श्रावक के आचरण से जुड़ जावेंगे। ‘श्रावकाचार’ व्यक्ति में विवेक और सहिष्णुता, संयम और स्वावलंबन, सदाचार और उदारतापूर्ण जीवन शैली पल्लवित, पुष्पित और समृद्ध करता है। हमें जल, अग्नि ओर वनस्पतियों का असीमित उपभोग करने से बचना चाहिए। जरुरतमंद की सहायता और साधुओं की आहार, विहार-निहार की समुचित व्यवस्था करना, ‘‘वर्तमान परिप्रेक्ष्य में श्रावकाचार की मूल भावनाों का संरक्षण है।’’
प्रो. डॉ. भागचन्द्र जैन ‘भागेन्दु’
डारेक्टर, संस्कृत प्राकृत तथा जैन विद्या
अनुसंधान केन्द्र, दमोह (म.प्र.) ४७०६६१
अनेकान्त जुलाई -सित्म. २०१३