आजकल मनुष्य तनावयुक्त जिन्दगी जी रहा है। अक्सर उसको आभास भी नहीं होता कि वह मानसिक तनाव में है। वह अपने चिकित्सक के पास कुछ और शिकायत लेकर जाता है परन्तु वास्तविकरूप में ये परेशानियाँ मानसिक तनाव के ही लक्षण होते हैं। चिकित्सक भी उसकी शिकायतों के अनुरूप विविध प्रकार की जांच करवा देते हैं। अगर चिकित्सक ऐसे मरीजों के लिए कुछ समय निकालें और उनकी शिकायतों का अधिक विस्तार से तथा गहराई में मनन करें तो पायेंगे कि अधिकतर शिकायतों के मूल में मानसिक तनाव ही मुख्य कारण है। मेट्रो शहरों में २०— ३० प्रतिशत व्यक्ति मानसिक तनाव से ग्रसित हैं।
एक साधारण व्यक्ति की दृष्टि से जब कभी हमारा मन भारी, तनावग्रस्त, बेचैन, कष्टपूर्ण, अनमना, उत्तेजित या अशांत होता है तब यह कहा जाता है कि हम मानसिक तनाव से पीड़ित हैं। इसके विपरीत जब हमारा मन हल्का, प्रसन्न, शांत, सरल और चंचलता रहित होता है तब यह कहा जाता है कि हम आराम की स्थिति में हैं। मानसिक तनाव का हमारे मन से सीधा सम्बन्ध है। इसलिए हमें पहले मन को समझना चाहिए।
मन हमारे भीतर की वह शक्ति है जिसके कारण हम अपने प्रति सचेत एवं जागरूक होते हैं। आपका मन या आत्मा ही वास्तविकरूप में आप हैं। शरीर तो केवल एक माध्यम है जिसके जरिए मन इस दुनिया में क्रियाशील होता है, दुखी या प्रसन्न होता है। मन के तीन स्तर हैं जो आपस में मिलकर उसे एकरूपता देते हैं।
(१) चेतन मन : यह हमारे मन का वह भाग है जो विचार, तर्क, वस्तुओं में भेद और चिन्तन करता है। भविष्य में होने वाली हर प्रकार की घटनाओं की कल्पना और बीते समय के लिए चिन्ताएँ आदि इसी मन द्वारा की जाती है।
(२) उपचेतन मन : यह हमारी स्मृतियों का भंडार है। इस जन्म में या पूर्व जन्म में जो कुछ भी देखा, सुना, विचारा या बोला और किया होता है वह इसमें एक स्थायी लेखे जोखे की तरह संग्रहित रहता है। विचारों के साथ जुड़ी भावनाएँ भी हमारे उपचेतन मन में जमा रहती है। यह विचार तथा भावनाएँ ही हैं जो लगातार हमारे चेतन मन को व्याकुल करती रहती है। जब यह अधिक समय तक रहती हैं तो चेतन मन उत्तेजित हो जाता है तथा एक सीमा के बाद व्यक्ति मानसिक तनाव से ग्रसित हो जाता है। तनावमुक्त जिन्दगी के लिए हमें अपने विचार व भावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा।
(३) महाचेतन मन : हमारा अपना वास्तविकरूप महाचेतन मन है जो शांति एवं आनन्द से पूर्ण है। यदि हमें एक क्षण के लिए भी इसकी झलक मिल जाए तो हमारा मन एक अविस्मरणीय शांति से भर जाएगा।
कहा भी है—
‘‘मन संसार की सबसे शक्तिशाली वस्तु है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह किसी भी चीज को नियंत्रित कर सकता है’’
यह कहा जाता है कि आप हवा का चलना रोक सकते हैं, नदी का बहना रोक सकते हैं, परन्तु मन का चलना नहीं।
मन अथवा विचारों का नियंत्रण सीखने से पहले हमें ऐसी शारीरिक विधियाँ सीखनी होंगी जिसमें केवल साधारण एकाग्रता लानी होती हैं। एक बार हम शरीर को नियंत्रण में ले आयेंगे तो उसके पश्चात् मन नियंत्रण की विधियाँ सीखनी आसान हो जायेगी। यह विधियाँ इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि तन और मन दोनों परस्पर घनिष्टरूप से जुड़े हुए हैं। अगर शरीर नियंत्रण में आ जाता है तो फिर मन भी नियंत्रण में किया जा सकता है। योग की भाषा में मन और शरीर के सम्बन्ध एक मध्यस्थ शक्ति ‘‘प्राण’’ द्वारा संचालित होते हैं। ‘‘प्राण’’ को जीवन ऊर्जा भी कहा जाता है। शरीर अस्वस्थ होने पर प्राण के प्रवाह में असंतुलन या रुकावट आती है एवम् उसका प्रभाव मन पर भी पड़ता है तथा व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। मन पर नियंत्रण के लिये निम्न शारीरिक और आध्यात्मिक विधियों का अभ्यास किया जाना चाहिए।
(१) योगासन और व्यायाम : शरीर की मांसपेशियों का तनाव दूर होने से ‘प्राण’ का प्रवाह ठीक से होने लगता है जिससे मन पर नियंत्रण आता है तथा शांति मिलती है।
(२) शिथिलीकरण अथवा कायोत्सर्ग : शारीरिक व मानसिक तनाव के लिए अति उत्तम है।
(३) प्राणायाम : इसके द्वारा प्राणशक्ति बहुत बढ़ जाती है तथा मन की शक्ति और संयम में महान वृद्धि होती है। मानसिक तनाव में नाड़ी शोधन (अनुलोम—विलोम) प्राणायाम विशेषरूप से सहायक होता है।
(४) शुद्धि क्रियाएँ : इसके अन्तर्गत नेति (जल नेति, सूत नेति) कुंजल आदि क्रियाओं द्वारा शरीर की शुद्धि करके प्राण शक्ति बढ़ाकर मन को संतुलित किया जाता है।
(५) आसन : (सुखासन, पद्मासन, वङ्काासन आदि) आसन में एक बार कुछ समय तक स्थिर बैठने से मन एकाग्र और नियंत्रित हो जाता है। संयम तथा सहनशीलता का भी विकास होता है।
(६) ओम् और गुंजन ध्वनि : इनके द्वारा निकली अत्यन्त शक्तिशाली ध्वनि कंपन मन व मस्तिष्क को शांत करती हैं।
(७) मौन : मानसिक शक्ति बढ़ाने का एक प्रभावशाली उपाय है।
(८) हंसी : एक अच्छी हंसी मस्तिष्क को हल्का कर देती है और चेहरे की मांसपेशियों को पूरी तरह तनाव रहित कर आराम देती है।
(९) नृत्य तथा संगीत : एक थके—हारे और तनावग्रस्त मन को राहत देने की महान् शक्ति नृत्य व संगीत में निहित है।
(१०) प्रकृति का राहत भरा स्पर्श : मन को शान्त करता है।
(११) ब्रह्मचर्य : कामवासना नियंत्रण करने का अर्थ उसे दबाना नहीं हैं, इसका नियंत्रण प्राकृतिकरूप से और स्वत: होना चाहिए।
(१२) आहार : सात्विक शाकाहारी भोजन करने से शरीर स्वस्थ रहता है तथा प्राण का प्रवाह भी ठीक प्रकार से होता है। इससे मन शांत, सकारात्मक और नियंत्रण में रहता है।
(१) एकाग्रता : जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम से शरीर की शक्ति में वृद्धि होती है उसी प्रकार एकाग्रता का अभ्यास करने से मन की शक्ति में वृद्धि होती है। एकाग्रता का अर्थ वर्तमान में जीना है। आप जो कुछ भी करें आपका पूर्ण ध्यान और सजगता उसमें केन्द्रित होनी चाहिए।
(२) ध्यान : ध्यान में हम अपने मन को बाहरी जगत से बंदकर अपने अंदर केन्द्रित करते हैं। जब हमारा उपचेतन मन शांत हो जाता है तो हम महाचेतन के स्तर पर पहुँच कर असीमित शांति व आनंद प्राप्त करते हैं।
(३) परमात्मा को सदा स्मरण रखना (भक्तियोग)
(४) निस्वार्थ कर्म (कर्मयोग) : कार्य को अपने कर्त्तव्य का एक भाग समझकर तथा इसे परमात्मा तथा संसार के सभी प्राणियों की सेवा समझ कर करें। कार्य को यथाशक्ति सर्वोत्तमरूप से करें तथा व्यक्तिगत लाभ की इच्छा न करें।
(५) आत्मा—परमात्मा और संसार का ज्ञान (ज्ञान योग) : एक बार जब आप जीवन का सत्य तथा रहस्य जान जाते हैं; आपके समस्त संदेह, भय, परेशानियाँ, मनोग्रंथियाँ आदि खत्म हो जाते हैं, इससे आपका मन पूर्ण शुद्धता को प्राप्त कर लेता है।
इस सृष्टि में मनुष्य की संरचना अत्यन्त विस्मयकारी है। मनुष्य का शरीर हाड़—माँस का पुतला ही नहीं, अपितु मनुष्य का यह छोटा—सा शरीर संवेदनाओं और भावनाओं का प्रतिनिधि भी है। हृदयकमल में विराजित अष्टदलकमल के आकार वाले द्रव्यमन को सम्पूर्ण शरीर का संचालक कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मन अत्यन्त चंचल है। मन की गति के आगे संसार के समस्त गतिमान पदार्थों की गति क्षीण है। क्षणमात्र में ही मन में असंख्य भावनायें अपनी यात्रा पूर्ण कर लेती हैं। इसलिये भावों की गणना करना असम्भव सा कार्य है। फिर भी सामान्यरूप से भावों को शुभ और अशुभ इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
मन चंगा तो कठौती में गंगा इस कहावत को कौन भुला सकता है ? यही मन मनुष्य के व्यक्तित्व का परिमापक है। यदि मन में मंगलमय, आदर्श, सर्वहितकारी, शुभभाव हैं तो मनुष्य का व्यक्तित्व सहज ही प्रभावशाली बन जाता है।
इसके विपरीत मनुष्य का मन यदि अशुभ कचरागृह बना हुआ है, तो मनुष्य निष्प्रभावी एवं निस्तेज बन जाता है।
समस्त धर्मग्रन्थों में शुभ और अशुभ भावों की बहुत विस्तृत चर्चा की गई है। उनका सारांश यह है कि जो भाव आत्मा के विवेक को जागृत रखते हों, आत्महित का पोषण करते हों, सभ्यता और संस्कृति के प्रति मनुष्य में निष्ठा उत्पन्न करते हों, व्यवहार को मधुर बनाते हों, कार्यशीलता की वृद्धि करते हों वे समस्त स्व और पर का कल्याण करने वाले भाव शुभभाव कहलाते हैं।
जैस—प्रेम, सन्तोष, विनय, ऋजुता, निर्भयता, सहजता, दया आदि। ये भाव चमत्कारिकरूप से व्यक्तित्व का परिमार्जन करके उसे उज्ज्वल बनाते हैं। इससे विपरीत ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार, मायाचार, लोभ, नैराश्य आदि अशुभ भावों का कलंक मनुष्य के व्यक्तित्व को इतना पंकिल बना देता है, कि वह श्रेष्ठ कृतियों का सृजक नहीं बन सकता।
विगत कुछ वर्षों में भावों को नियन्त्रित करने के उपाय, अब तक निर्माण हो चुके चारित्र में सुधार करने के लिये भावों की समर्थता, भावों के द्वारा परिस्थितियों में परिवर्तन लाने के उपाय, भावों का व्यक्ति की गतिविधियों पर और शक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव, जीवन में सफलता और प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये मनोनियन्त्रण करने की आवश्यकता आदि अनेक विषयों पर बहुत अधिक अध्ययन किया गया है। मन के रहस्यों को जानने का अथक प्रयत्न विगत सदी में हुआ है।
इस अध्ययन से प्राप्त हुए तथ्यों को ही आज मनोविज्ञान कहते हैं। मनोविज्ञान स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि भावों को अतर्क्य सीमा तक प्रशिक्षित किया जा सकता है। भावों को प्रशिक्षित एवं नियन्त्रित करने के अनेक सत्परिणाम मनुष्य के जीवन को परिवर्तित कर सकते हैं तथा भावों को शुभ बना कर मनुष्य अपना और अपने समीपवर्तिनी सृष्टि का कल्याण कर सकता है।
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। वही अपने सौभाग्य की रचना करता है और वही अपने दुर्भाग्य को बुलाता है। अच्छे विचारों से शुभ भविष्य की और बुरे विचारों से जीवन के पतन की संरचना होती है। भाग्य का ही दूसरा नाम विचार है। विचार के अनुसार हम अपने लिये संसार का निर्माण करते हैं। मनुष्य के मन में यदि सौभाग्यशाली बनने की इच्छा है तो उसे शुभभावों को अपनाना चाहिये।
आधुनिक विज्ञान मानव को नित्य नवीन सुविधाओं को प्रदान करने में कटिबद्ध है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश करके विज्ञान ने उसे उन्नत बनाने में सफलता अर्जित की है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानवीय स्वास्थ्य में नित्य नये आयाम जोड़ रहा है। रोज अन्वेषित नवीन चिकित्सा—पद्धतियों के कारण असाध्य समझी जाने वाली अनेक व्याधियों पर विजय प्राप्त करना भी सम्भव हो सका है।
परन्तु चिकित्सा शास्त्रियों के लिये आज यह एक चुनौती बन चुकी है कि जितनी प्रगति चिकित्साविज्ञान कर रहा है, उतनी ही व्याधियों की संख्या भी बढ़ रही है। उन्हें इसका कारण खोजने के लिये विवश होना पड़ा। व्याधियों के निर्माण का गहन सर्वेक्षण करने पर वैज्ञानिकों ने अन्तिम निष्कर्ष यह निकाला कि केवल रोगाणु ही बीमारियों की जड़ नहीं हैं, अपितु रोगों का मूल कारण दूषित विचारों का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव भी है। आज के समस्त चिकित्सक यह स्वीकार करते हैं कि यदि मन का उपचार हो जाये तो लगभग समस्त व्याधियों को भगाया जा सकता है।
स्वास्थ्य को कायम रखने तथा रोग को दूर करने में शुभभावों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। शुभ भावों का प्रभाव शरीर पर औषधि के समान ही होता है, किन्तु शुभभाव औषधि के प्रभाव की भाँति कृत्रिमरूप से तन्त्रिका के कोषों को उत्तेजित नहीं करते। औषधियों से प्राप्त होने वाली उत्तेजना की प्रतिक्रिया अत्यन्त हानि करने वाली होती है, जबकि शुभभाव जीवनशक्ति के विकासक होते हैं।
शुभभावों की विशेषता है कि वे प्राकृतिक माध्यम से शक्ति को शरीर में प्रवाहित करते हैं। इनका प्रभाव शरीर के प्रत्येक अवयव पर अनुभूत किया जा सकता है।
शुभभावों के प्रभाव से नयन पानीदार हो उठते हैं, कपोल रक्ताभ हो जाते हैं, कदमों में लचक आ जाती है, मुख दमकने लगता है और मनुष्य की वे समस्त आन्तरिक शक्तियाँ विकास को प्राप्त होती हैं, जिनके आधार पर जीवन टिका हुआ है। शुभ भावों के कारण रक्तसंचार अत्यन्त उन्मुक्तरूप से होता है, ऑक्सीजन—तन्त्रिका के कोषों में भी रक्त प्रवाहित होता है। इस क्रिया से स्वास्थ्य कुशल होता है और रोगों का सर्वथा निरोध हो जाता है। शुभभाव प्रसन्नता के आधार हैं।
शुभभावों को हम प्रतिविषाणु कह सकते हैं, क्योंकि वे शरीर में प्रवेश पाने का प्रयत्न करने वाली व्याधियों को रोकने का कार्य करते हैं। इससे शरीर के लिये अद्भुत सुरक्षाचक्र प्राप्त होता है। इनके द्वारा शरीर में उत्पन्न होने वाले अन्य हॉर्मोनों के प्रतिकूल प्रभाव से शरीर को बचाया जा सकता है।
१. शुभभावों के कारण दबाव को उत्पन्न करने वाली दूषित भावनायें मानस—पटल से हटने लगती हैं। इसके फल से अनिष्टोत्पादक हॉर्मोन स्वयमेव प्रतिबन्धित हो जाते हैं।
२. शुभभाव श्रेष्ठ पीयूष हॉर्मोन के स्रवन को उन्नत बनाते हैं। इनके प्रभाव से ही शरीर की एण्डोक्राइन ग्रन्थियों की कार्य कुशलता में साम्य अवस्था बनी रहती है। इससे आनन्द की वृद्धि होती है। शरीर की कान्ति और ओज का भी विकास होता है। शरीर मजबूत बनता है। रोग विनष्ट हो जाते हैं।
इसका आशय यह कतई नहीं है कि शुभभावों के धारक मनुष्यों को रोग नहीं होते हों। असाता वेदनीय कर्म का उदय जिस जीव के साथ लगा हुआ है, उस जीव को जीवन में रोग और शोक का सामना तो करना ही पड़ता है। शुभ परिणाम के धारक मनुष्यों को रोग तो होते हैं, परन्तु वे रोग उनको दीर्घकाल पर्यन्त त्रस्त नहीं कर पाते। कुभावों से युक्त जीवों को जितना कष्ट होता है, उसका शतांश भी शुभभाव धारण करने वाला रोगी नहीं पाता। यही शुभभावों का महत्त्व है।
वर्तमान में स्वास्थ्य के विशेषज्ञ अब इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि—
जब कोई मनुष्य लम्बी अवधि पर्यन्त निरन्तर रोगों से ग्रस्त रहता है और अनवरतरूप से चिकित्सा करते हुए भी उसका सफल उपचार सम्भव नहीं हो पाता है तो यह जान लेना चाहिये कि वह तनरोगी नहीं, अपितु मनोरोगी है। उसकी जीवनचर्या का अवलोकन करने पर ज्ञात होगा कि अतृप्तमूल आवश्यकता से उत्पन्न व्यग्रता से वह मनुष्य ग्रस्त है।
आज यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो गयी है कि शुभभाव जितने प्रभावकारी हैं, उतनी औषधियाँ प्रभावकारी नहीं है। दवायें रोगों को दबाने का कार्य करती हैं, नष्ट करने का नहीं। दवाओं से अधिक दुआयें ही रोगमुक्ति का कारण होती हैं।
हमारी श्रेष्ठ भावनायें अमृतकलश के समान हैं। उसकी एक—एक बूंद व्यक्तित्व को संजीवन प्रदान करती है। श्रेष्ठ भावनायें हमारे अस्तित्व को परमता प्रदान करती है। वह हमारे श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण करने में समर्थ होती है। वह जीवन को लवणिमा प्रदान करने के लिये उचित मार्गदर्शन करती है। उनके द्वारा मनुष्य किसी भी प्रकार की परिस्थिति में अपने—आप को ढालने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
शुभभाव मानसिक बल को उत्पन्न करने का रामबाण उपाय है। जब मनुष्य अपनी शक्ति को विस्मृत कर देता है, तभी उसके मन में झुंझलाहट घर करने लगती है। फिर मनुष्य को छोटे से छोटा काम भी पहाड़ जैसा लगने लगता है और आसान से आसान काम में भी असफलता मिलने लगती है। इससे विपरीत शुभभाव शक्ति के केन्द्र को जागृत करते हैं। शुभभावों के कारण कठिनतम कार्यों को करते हुए भी मनुष्य सहजता का अनुभव करने लगता है। शुभभावों के कारण ही मनुष्य असम्भव से लगने वाले कार्यों को भी सहज सम्भव कर दिखाता है।
बहुविध अशुभभावों से ग्रसित होकर व्यक्ति अपने मन और मस्तिष्क में सृजनात्मक अथवा विधेयात्मक भावों का निर्माण करने में असमर्थ हो जाता है। उनके मस्तिष्क में नकारात्मक भावों के कीड़े बिलबिलाने लगते हैं। नकारात्मक भावों का यह सड़ा—गला कचरा मस्तिष्क को इतना प्रदूषित कर देता है कि व्यक्ति की संवेदना नष्ट होने लगती है। इसीलिये मनुष्य को अपने मन पर शुभभाव के संस्कार डालने चाहिये।
अशुभभाव ऋणात्मक विचारों का परिपाक है। ऋणात्मक विचारों के कारण मनुष्य की महत्त्वाकांक्षायें अपंग हो जाती है। ऋणात्मक विचार जीवन में जहर भर देते हैं। उनके कारण कार्य सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। वे विचार मनुष्य के आत्मविश्वास को इतना दुर्बल बना देते हैं कि मनुष्य अपने सम्मुख उपस्थित परिस्थिति का स्वामी बनने की बजाय उसका सेवक बन जाता है।
किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिये आत्मनिष्ठा सर्वप्रथम आवश्यक होती है। विधि का यह सर्वमान्य नियम है कि पहले मन के द्वारा किसी भी काम में सफलता प्राप्त की जाती है, उसके बाद ही शरीर के द्वारा उसे साकाररूप दिया जाता है। सफलता की प्राप्ति के लिये कार्य करने से पहले सफलता के प्रति आशान्वित होना निहायत जरूरी है।
ऋणात्मक विचारों के कारण मनुष्य सफलता के मार्ग में अनेक किन्तु—परन्तु उपस्थित कर लेता है। यही संशयापन्न अशुभ भावात्मक परिणति मनुष्य के जीवन में असफलता का प्रधान कारण है। कार्बन डाय ऑक्साइड जहरीली वायु है। किसी भी स्थान पर इसका अस्तित्व बढ़ने लगना मनुष्य के जीवन के लिये घातक है। अशुभ विचार उससे अधिक घातक होते हैं।
भावनाओं के विषय पर केवल मनोविज्ञानी ही नहीं, अपितु आहारविज्ञानी भी विशेष मंथन करने में लगे हुए हैं। उनके अनुसार भोजन के समय जो भाव होते हैं, उनका पाचनशक्ति पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
भोजन करते समय मन में प्रसन्नता होनी चाहिये। प्रसन्नता के सद्भाव में साधारण भोजन भी शरीर के आवश्यक घटकों को पूर्ण करने में समर्थ होते हैं। यदि भोजन करते समय क्रोध, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या और निराशा आदि भाव हो तो श्रेष्ठतम भोजन भी पच नहीं पाता और पाचन के अभाव में रोगों का कारण बन जाता है।
आधुनिक आहारशास्त्री अब इस बात को एकमत से स्वीकार करने लगे हैं कि भोजन में नमक, शक्कर, लोहा, विटामिन आदि की अपेक्षा शुभभावों का होना अधिक आवश्यक है।
इस सत्य को तो सभी जानते हैं कि स्वाद की दृष्टि से घर बने हुए भोजन की अपेक्षा होटल पर बना हुआ भोजन अधिक स्वादिष्ट होता है। रंग की दृष्टि से भी होटल का भोजन घर की अपेक्षा इक्कीस ही होता है। घर से अधिक साफ—सुथरा और चित्ताकर्षक माहौल होटलों में पाया जाता है।
फिर भी माता के हाथों से बने हुए भोजन का जो आनन्द मनुष्य को मिलता है, वह आनन्द उसे होटल के भोजन में नहीं आ पाता। आखिर ऐसा क्यों ? इसका एकमात्र कारण है—माँ निश्छल प्रेमभाव से भोजन बनाती है। वह प्रेमरूप शुभभाव पुष्टि का कारण बनता है। होटल पर भोजन की सारी सुविधायें होते हुए भी व्यापार की भावना है, प्यार की नहीं। व्यापार की भावना में समर्पण नहीं होता। अर्थोपार्जन की भावना उस भोजन को पुष्टिकर नहीं रहने देती।
इन पहलुओं पर विचार करके विचारशील व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिये निम्नलिखित प्रयत्न करने चाहिये—
१. अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति में सन्तोषभाव धारण करें।
२. मन को रचनात्मक कार्य करने के लिये प्रेरित करें।
३. विधेयात्मक विचार करने की आदत डालें।
४. अपने मस्तिष्क में बार—बार अपने दुर्भाग्य का राग आलापना बन्द करें।
५. विवेकपूर्वक निर्णय लेने की आदत डालें।
६. मन के प्रवेशद्वार से दुर्भावों को अन्दर प्रवेश मत करने दीजिये।
जीवन में कार्यक्षमता विकास करने के लिये शुभभाव अत्यन्त प्रभावकारी होते हैं। उनके कारण जीवनशक्ति विकसित होती है। अतएव मनुष्य को चाहिये कि वह अपने श्रेष्ठ भावों को उदात्तता प्रदान करें ताकि वे भाव मनुष्य को श्रेष्ठ—अलौकिक तथा भावनात्मक स्वास्थ्य प्रदान करने में सहयोग कर सकें।