आज मनुष्य तनावयुक्त जिन्दगी जी रहा है। इस तनाव से विविध प्रकार की शारीरिक व मानसिक बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैंं। इस तनाव के कारणों से आधुनिकीकरण, ईर्ष्या, अधीरता, असंयत, असहिष्णुता, चरित्र हनन, अधिक संपत्ति व धन इकट्ठा करने की होड़, दिखावा इत्यादि शामिल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार मानसिक बीमारियों में कई गुणा बढ़ोत्तरी हुई है। आज २० प्रतिशत आदमी मानसिक रोग से ग्रसित हैं अधिकतर व्यक्तियों को आभास भी नहीं होता कि वह मानसिक रोग से ग्रसित हैं।
इतने मनोचिकित्सक भी नहीं है कि उनका उपचार हो सके। छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों में तो मनोचिकित्सकों का अत्यन्त अभाव है। इस परिप्रेक्ष्य में तो ऐसा लगता है कि सभी मानसिक रोगियों का उपचार हो पाना कठिन है। परन्तु हमें यह परिस्थिति बदलनी है। हमें बीमारियों के उपचार की बजाय इनसे बचाव के बारे में सोचना होगा। अगर हम मानसिक स्तर पर स्वस्थ हैं तो हमें न तो विशेषज्ञों की आवश्यकता होगी और न ही महँगी—महँगी दवाईयों की जिनका दुष्प्रभाव भी शरीर पर होता है। यह सब कुछ दिवास्वप्न नहीं है वरन् सत्य है। इसके लिए हमें अपनी जीवन पद्धति बदलनी होगी।
यौगिक जीवन पद्धति के अनुसार बीमारियाँ तीन प्रकार की होती है—शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक। आधुनिक चिकित्सा पद्धति में शारीरिक व मानसिक रोगों का निदान व चिकित्सा अति उत्तम है परन्तु मानसिक रोग से बचाव के बारे में कोई उल्लेख नहीं है।
मानसिक रोगों से बचाव के लिए हमें यौगिक जीवन पद्धति, जो कि भारतीय दर्शन, अध्यात्म व संस्कृति पर आधारित है अपनानी होगी। योग के बारे में अज्ञानवश अनेक भ्रांतियां व्याप्त हैं, जबकि योग एक विज्ञान है, कला है और एक स्वस्थ जीवन पद्धति है। सच्चाई यह है कि मानसिक रोगों का जन्म ही गलत भावनाओं से होता है अगर हम भावनात्मकरूप से स्वस्थ रहेंगे तो हम मानसिक रोगों से बचे रहेंगे।
हमारे धर्म ग्रंथों में अपने व्यवहार व भावना में सुधार लाने के लिए दस धर्मों (नियमों) का उल्लेख है। वह इस प्रकार हैं :
१. क्षमा : अपनी गलती की क्षमा मांगनी चाहिए तथा दूसरों की गलती को क्षमा कर देना चाहिए। ‘क्षमा वीरस्य भूषणं।’ क्षमा भाव रखने से क्रोध नहीं आता है।
२. मार्दव : नम्र (मृदु)। अहंकार नहीं करना। बड़ों की इज्जत व छोटों पर दया व प्यार।
३. आर्जव : सरल भाव। व्यवहार में छल—कपट, दिखावा व बनावट इत्यादि न लाना।
४. सत्य : सदा सत्य बोलना चाहिए परन्तु सत्य अहितकर व अप्रिय नहीं होना चाहिए।
५. शौच : लोभ व तृष्णा रहित व्यवहार रखना।
६. संयम : इन्द्रिय को विषयों से रोकना संयम है। शराब, सिगरेट, तम्बाकू इत्यादि का सेवन नहीं करना संयम है।
७. तप : इच्छाओं को रोकना या मन को वश में करना। सुख—दुख, निंदा—प्रशंसा आदि में समभाव रखना चाहिए।
८. त्याग : त्याजना या दान करना। दान में मान, छल, कपट या ख्याति प्राप्त करने की इच्छा नहीं होनी चाहिए।
९. आकिञ्चन्य : अपरिग्रह। अधिक वस्तुओं की इच्छा नहीं करना तथा अपनी जरूरतों का सीमाकरण (सीमित) करना।
१०. ब्रह्मचर्य : अपने जीवन साथी से ही सम्बन्ध रखना आज के युग में शीलव्रत—ब्रह्मचर्य है।
१. उषापान : प्रात: उठ कर ताँबे के बर्तन में रखा पानी पीयें।
२. ओम् का उच्चारण : सुखासन या पद्मासन में बैठकर ‘ओम्’ का उच्चारण करें। ‘ओम्’ शब्द की तीनों ध्वनियों अ, उ, म् का उच्चारण समान मात्रा में किया जाना चाहिए। ‘ओ’ नाभि से शुरु हो तथा ‘म’ का कम्पन मस्तिष्क में होना चाहिए।
जिस प्रकार ले़जर किरणों से कम्पन्न उत्पन्न कर शरीर के विभिन्न अंगों की ग्रंथियों का सफल आपरेशन किया जाता है। वैसे ही ‘ओम्’ ध्वनि के कम्पन से चेतना का विकास होता है तथा मानसिक स्वास्थ्य लाभ मिलता है।
३. णमोकार मंत्र या अन्य मंत्र का जाप—जाप से विचार शक्ति प्रबुद्ध होती है। अमरीका के एक वैज्ञानिक डा. हावर्ड स्टेंगल ने विश्व के सभी धर्मों के मंत्रों का विश्लेषण किया एवं पाया कि इन मंत्रों के उच्चारण से सर्वाधिक कम्पन उत्पन्न होती है।
४. ध्यान (मेडिटेशन) या एकाग्रता
ध्यान का लक्षण बताते हुए श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है—
‘‘उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्’’ अर्थात् उत्तम संहनन—शारीरिक शक्तिवाले महामुनियों के एकाग्र चिन्ता निरोधरूप ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक होता है।
किन्तु आज पंचमकाल में उत्तम संहनन नहीं होने से ऐसा उत्तम ध्यान संभव नहीं है। फिर भी ज्ञानार्णव आदि ग्रंथ हमें ध्यान की साधना करने के सरल तरीके बताते हैं।
श्रीमद्भगवत गीता में भी कहा है—
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रिय क्रिया:।
उपविश्यासने युज्ज्याद्योगमात्माविशुद्धये।।
अर्थात् मन को एकाग्र कर, चित्त तथा इन्द्रियों की क्रियाओं को रोक कर आसन पर बैठकर अपने मन को शुद्ध करने के लिए हमको योग में प्रवृत्त होना ही चाहिए।
ध्यान से मानसिक तनाव, चिंता एवं िंहसक वृत्ति में कमी आती है तथा आत्मज्ञान एवं आत्मविकास होता है। चिकित्सा वैज्ञानिकों के अनुसार ध्यान से मस्तिष्कीय, हृदय गति, रक्त चाप, त्वचा की प्रतिरोधी क्षमता तथा अन्य शारीरिक क्रियाएं नियमित एवं नियंत्रित होती हैं।
५. व्यायाम व आसन—प्रतिदिन तीस मिनट पैदल चलना, व्यायाम अथवा आसन करना चाहिए। हमें कुछ प्रकार के आसन चुनकर उनका प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए जैसे ताड़ासन, कोणासन, उत्कटासन, वक्रासन, भुजंगासन व वङ्काासन इत्यादि। व्यायाम करने से शरीर में लचीलापन आता है, ब्लड प्रेशर व ब्लड शुगर नियंत्रित होते हैं तथा एन्डार्फिन्स निकलते हैं। जिससे मानसिक तनाव कम होता है।
६. कायोत्सर्ग/शिथिलता का सुझाव—पैर से सिर तक शरीर को छोटे—छोटे हिस्सों में बांट कर प्रत्येक भाग पर चित्त को केन्द्रित कर, हर हिस्से को शिथिलता का सुझाव देकर पूरे शरीर को शिथिल करना। कायोत्सर्ग, शारीरिक व मानसिक तनाव के लिए अति उत्तम है।
७. प्राणायाम—बाएं नथुने से श्वास लें (मंद—मंद गहरा लंबा श्वास), दाएं नथुने से निकालें, फिर दाएं से ले और बाएं से निकालें। श्वास के साथ चित्त को जोड़े रखे, चित्त और श्वास को लेने में लगे उतना ही समय श्वास को छोड़ने में लगे। निरन्तर श्वास का अनुभव करते रहें। प्राणायाम से क्रोध, आवेग व उत्तेजना में कमी आती है।
८. हंसना—पहले मंद—मंद मुस्कराए, फिर मानसिक तौर पर मुस्कराएं तथा अंत में जोर से खिल—खिलाकर हँसे।
९. भगवान का स्मरण, मंदिर दर्शन—प्रतिदिन करें।
शरीर को स्वच्छ, सुन्दर व स्वस्थ रखने के लिए षट्कर्म से उत्तम कोई क्रियाएँ नहीं है। शरीर में यदि वातपित्त और कफ समान रूप में रहे तो शरीर शुद्ध व निरोगी रहेगा यदि यह बिगड़ जाये तो अनेक रोग हो जाते हैं। शरीर के विषाक्त द्रव्यों को बाहर निकालकर उनकी अंदरूनी सफाई के लिए षट्कर्मों का प्रयोग किया जाता है। आसन प्राणायाम के अभ्यास से पहले इन्हें करना चाहिए।
१. नेति—(क) सूत्र नेति तथा (ख) जल नेति
इस क्रिया में जल अथवा सूत की सहायता से नाक की सफाई की जाती है। इसमें सूत अथवा जल को एक नासिका से अन्दर लिया जाता है तथा मुख द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। फिर दूसरी नासिका से क्रिया की जाती है। इस क्रिया द्वारा नाक की सफाई हो जाती है। जुकाम, नजला, खांसी, छींक तथा नाक व कान के रोगों में लाभ होता है।
२. धौति—इस क्रिया में ४—५ गिलास गुनगुना हल्का नमकीन पानी पीकर फिर उल्टी की जाती है। इस क्रिया से पेट तथा आँतों की भली भाँति सफाई हो जाती है।
३. बस्ति—इस क्रिया में गुदा संकुचन द्वारा पानी को ऊपर चढ़ाया जाता है। बाद में इसे गुदा मार्ग से ही बाहर निकाल दिया जाता है। यह क्रिया योगियों के लिए ‘एनीमा’ जैसी है। इससे बड़ी आँत व गुदा की सफाई होकर पेट स्वच्छ तथा मुलायम हो जाता है।
४. नौलि—इस क्रिया से पेट की मांसपेशियों की मालिश व व्यायाम हो जाता है। आँतें सशक्त होती हैं तथा पेट के अन्दर की सभी ग्रंन्थियाँ पुष्ट तथा निरोग होती हैं।
५. कपाल भाति—इस क्रिया में जल्दी—जल्दी श्वास लेना और छोड़ना होता है। बाद में रेचक (श्वास निकालने को) शीघ्रता से किया जाता है। इस क्रिया से नासिका से श्वसन संस्थान के सभी भागों की सफाई हो जाती है।
६. त्राटक—इस क्रिया में टक टकी बांध बिना पलक झपकाए एक ही चीज को देखने का अभ्यास किया जाता है। इस से दृष्टि—शक्ति तीव्र होती है। मन शान्त होता है, इच्छा शक्ति का विकास होता है।
योग की भाषा में शरीर की क्षमताओं का केन्द्रीयकरण जिन बिन्दुओं पर हो सकता है उन्हें चक्र कहकर पुकारा गया है। ये चक्र मेरुदण्ड के अन्दर सुषुम्ना में स्थित हैं। यह सुप्त अवस्था में रहते हैं तथा योग द्वारा इनको जाग्रत किया जा सकता है। योग के ये चक्र ही आधुनिक विज्ञान की भाषा में ग्रंथियाँ कहे जाते हैं।
योग शास्त्र में षटचक्रों का उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त दो चक्र और भी बतलाए गये हैं। कुछ शास्त्रों में चक्र के स्थान पर आठ केन्द्र बताये गये हैं। यह केन्द्र हमारी अन्तश्रावी ग्रंथियों को नियोजित व प्रभावित करते हैं। यह केन्द्र हमारे नाड़ी पुज्ज से भी सम्बन्धित हैं। यह केन्द्र पंचतत्व के भी प्रतीक हैं। यह चक्र इस प्रकार हैं—
१. मूलाधार चक्र—यह चक्र रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग (मलद्वार और मूत्रद्वार के मध्यभाग के ठीक सामने) में स्थित हैं। इसको शक्ति केन्द्र भी कहते हैं तथा यह पृथ्वीतत्व का प्रतिनिधि प्रतीक है। यहाँ पर सुषुम्ना के निचले छोर से निकले ज्ञान तंतुओं का एक सघन जाल सा पैâला है जिसकी आकृति ‘कुंडली’ मारे हुए साँप की तरह प्रतीत होती है। अत: इसे योग में ‘कुंडलिनी शक्ति’ भी कहा गया है। यह सुप्त पड़ी रहती है। प्राणायाम आदि योग साधनों से यह जागृत होकर मेरुदण्ड के भीतर ब्रह्मनाड़ी में प्रविष्ट होकर ऊपर की ओर चलती है तथा मस्तिष्क में स्थित सहस्रार चक्र तक पहुँचती है।
२. स्वाधिष्ठान चक्र—यह मूलाधार चक्र से दो उंगली ऊपर है। मूत्रद्वार के ठीक सामने, इसको स्वास्थ्य केन्द्र भी कहते हैं। योग की दृष्टि से यह शरीर में जल तत्व के नियमन संतुलन का प्रतिनिधि केन्द्र होने से वीर्य—रज, मूत्र, चरबी के उत्पादन को संयोजन करता है। यह सन्तान उत्पत्ति ग्रंथियों को प्रभावित करता है।
३. मणिपूरक चक्र—यह चक्र नाभि प्रदेश के सामने मेरुदण्ड में स्थित है। इसको तेजस केन्द्र भी कहते हैं। यह अग्नि तत्व का प्रतिनिधि प्रतीक है। यह चक्र प्रमुखत: शरीर के पाचन—संस्थान तथा चयापचय की क्रियाओं को नियंत्रित करता है।
४. अनाहत चक्र—यह हृदय प्रदेश के सम्मुख स्थित है। इसको आनन्द केन्द्र भी कहते हैं यह वायु तत्व का प्रतीक है यह श्वास संस्थान तथा रक्त संचालक तंत्र की क्रियाओं को संतुलित करता है।
५. विशुद्धि चक्र—इसकी स्थिति कण्ठ प्रदेश में है। यह आकाश तत्व का प्रतीक है इसका सम्बन्ध आत्म शरीर से है। आत्म शरीर तक विकास कर लेने वाले व्यक्ति का राग—द्वेष शान्त हो जाता है। आत्मा की विशुद्धि होने से इसको विशुद्धि केन्द्र भी कहते हैं।
६. आज्ञा चक्र—इसकी स्थिति दोनों भौहों के बीच के सामने मेरुदण्ड के भीतर ब्रह्म नाड़ी में हैं। यह महत्व को दर्शाता है। इसको दर्शन केन्द्र भी कहते हैं। इसी चक्र के अन्तर्गत कुछ शास्त्रों ने ज्योति केन्द्र का भी उल्लेख किया है। यह जहाँ पर तिलक लगाया जाता है वहाँ स्थित है।
७. बिन्द चक्र—सिर के ऊपरी भाग में जहाँ चोटी रखी जाती है। इसको ज्ञान केन्द्र भी कहते हैं।
८. सहस्रार चक्र—इसकी स्थिति सिर के मध्य भाग में तालू के ऊपर मस्तिष्क में है। इसको शांति केन्द्र भी कहते हैं सहस्रार चक्र के जागरण से आत्म विकास, आत्म ज्ञान व आत्म दर्शन होता है।